Monday, August 25, 2008

बूंद बूंद में व्यापार

पहले कुछ डराने वाले आंकड़े फिर चौंकाने वाले तथ्य भी। फिर यह भी कि लाभ की मानसिकता के आगे इंसानियत कैसे घुटने टेक देती है। सिविल सोसायटी के कुकर्मों की लिस्ट लंबी है।
 

औसतन साल में 18 लाख नवजात दुनिया में आते ही दुनिया से कूच कर जाते हैं। वजह दूषित पानी। पांच साल से कम नौनिहालों की मौत का सबसे बड़ा कारण पानी का प्रदूषण है। अगर हमारे पानी का स्रोत साफ हो जाए तो सबसे ज्यादा नुकसान अस्पतालों को उठाना पड़ेगा क्योंकि दुनिया के आधे अस्पताल सिर्फ पानी के प्रदूषण से जुड़ी बीमारियों के कारण भरे पड़े हैं। औद्योगीकरण के गर्भ से निकला प्रदूषण सबसे घातक प्रहार पानी पर ही करता है। पहले ही धरती पर कुल मौजूद शुध्द पानी का मात्र एक प्रतिशत आदमी की पहुंच में है। ऐसे में इस बात की पूरी संभावना पैदा हो जाती है कि आप पानी का समुचित उपयोग करें। इसे व्यर्थ न करें और इसे निजी संपत्ति बनाकर उतना पैसा कमाएं जितना कमा सकते हैं। कंपनियों ने यह खतरा शायद पहले ही भांप लिया था कि भविष्य में शुध्द पानी सबसे बड़ी पूंजी हो जाएगी। इसलिए उन्नीसवीं सदी की शुरूआत से ही यूरोप में बोतलबंद पानी के व्यापारी पैदा होने लगे थे। 1845 में पहली पानी कंपनी पोलैण्ड के मैनी में शुरू हुई जिसका नाम था पोलैण्ड स्प्रिंग बाटल्ड वाटर कंपनी। 1845 से शुरू हुआ बोतलबंद पानी का यह कारोबार आज 100 अरब डालर का भरापुरा उद्योग है। दुनिया में हर साल 100 अरब डालर से भी ज्यादा पैसा बोतलबंद पानी खरीदने पर खर्च किया जाता है।
 

भारत भी इससे अछूता नहीं है। हालांकि यहां पानी के बोतलबंद व्यापार की शुरूआत बहुत देर से हुई यानी अस्सी के दशक में। उस समय प्रफांस की एक कंपनी डैनोन मिनरल वाटर का व्यापार करने आई थी। उसने एक लीटर पानी की कीमत रखी 70 रुपए। आज भारत में बोतलबंद पानी का व्यापार करनेवाली लगभग 100 कंपनियां और उनके 1200 बाटलिंग प्लांट हैं। इनमें वे कंपनियां और ब्राण्ड शामिल नहीं हैं जो कुटीर उद्योग की तर्ज पर पाउच पैक पानी का व्यापार कर रही हैं।
 

मिनरल वाटर के नाम पर बिकने वाला बोतलबंद पानी अपने बनने के दौरान दुगुना पानी खर्च कर देता है। मसलन एक लीटर मिनरल वाटर बनाने पर दो लीटर साफ पानी खर्च करना पड़ता है। यानी जब आप एक लीटर पानी पीते हैं तो आप एक नहीं बल्कि तीन लीटर पानी खर्च करते हैं। इस लिहाज से आप प्रतिदिन अगर स्वस्थ रहने के लिए तीन लीटर पानी पीते हैं और वह डिब्बा बंद होता है तो आप तीन नहीं बल्कि नौ लीटर पानी पीते हैं। इस गणना को ज्यादा तार्किक तौर पर समझना हो तो अमेरिकी नागरिकों को देखिए। जो प्रतिदिन 100 से 176 गैलन पानी खर्च करते हैं। जबकि औसतन प्रति व्यक्ति पानी की जरूरत किसी भी तरह से चार-पांच गैलन से ज्यादा नहीं होती। अफ्रीका के अधिकांश देशों में प्रति व्यक्ति पानी की कुल उपलब्ध्ता ही पांच गैलन है। यानी औसत अमरीकी पानी का 20 से 30 गुणा ज्यादा दुरूपयोग करता है। इसकी कीमत अमरीकन कितना चुकाते हैं यह तो नहीं मालूम लेकिन दुनिया के दूसरे देश और भूमंडल का पर्यावरण इसकी कीमत जरूर चुकाता है। जितना बोतलबंद पानी अमरीकी पीकर पेशाब कर देता है उसको बनाने के लिए अमरीका में हर साल 72 बिलियन गैलन पानी बर्बाद किया जाता है। वहां हर पांचवा आदमी बोतलबंद पानी ही पीता है। इसके लिए साल 2007 में अमरीका में 31 अरब लीटर मिनरल वाटर बेचा गया।
 

बोतलबंद पानी में पानी तो आदमी पी जाता है लेकिन बोतल पर्यावरण के सिर आ पड़ती है। पैसिफिक इंस्टीटयूट का कहना है कि अमरीकी जितना मिनरल वाटर पीता है उसका बाटल बनाने के लिए 20 मिलियन बैरल पेट्रो उत्पादों को खर्च किया जाता है। एक टन बाटल तीन टन कार्बन डाईआक्साईड का उत्सर्जन करता है। इस तरह 2006 में खोजबीन के जो आंकड़े सामने आए हैं उससे पता चलता है कि अमरीकियों ने पानी पीकर 250 मिलियन टन कार्बन उत्सर्जन कर दिया।
 

बोतल के खतरे और भी हैं। यह भारी मात्र में पेट्रो उत्पादों की खपत करता है और पर्यावरण का नाश तो करता ही है। मसलन कई बार ट्रकों से ही नहीं रेल और पानी के जहाज से भी पानी को ट्रांसपोर्ट किया जाता है। इस तरह एक बोतल बनाने और उसमें पानी भरकर उपभोक्ता तक पहुंचाने में वह ढेर सारी उर्जा खर्च करता है। ऊपर से उन बाटल्स के रिसाइक्लिंग का भी कोई सुनिश्चित तरीका नहीं होता। दुनिया भर में पानी को बेचने के लिए जितना प्लास्टिक उपयोग किया जाता है उसका नब्बे फीसदी बिना रिसाइक्लिंग के जमीन पर फेंक दिया जाता है। अमरीका में ही 80 प्रतिशत पानी की बोतलों को बिना रिसाइक्लिंग के खुले मैदानों में फेंक दिया जाता है।

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