Friday, May 1, 2009

जूता मारो आंदोलन के जनक मछिन्द्रनाथ

जब जनरैल सिंह ने गृहमंत्री चिदम्बरम की ओर जूता उछाला था तब हम जा पहुंचे थे जंतर मंतर जहां महीनों से मछिन्द्र नाथ जूता मारो आंदोलन की कुटिया छवाये बैठे थे. वह अप्रैल 2009 था. यह जनवरी 2011 है. तब एक चिदम्बरम निशाने पर थे अब हर नेता निशाने पर है. ताजा मामला राहुल गांधी का आया है. उस वक्त मछिन्द्र नाथ ने कहा था कि हमारे लोकतंत्र की हर समस्या का जवाब इस जूता मारो आंदोलन में छिपा है. आज करीब दो साल बाद जिस तरह से जूतामार घटनाएं बढ़ रही है उससे लगता है कि मछिन्द्रनाथ सही कहते थे, शायद. अब तो जंतर मंतर पर न मछिन्द्रनाथ हैं और न उनका जूता मारो आंदोलन. दोनों वहां से हटा दिये गये हैं. फिर भी, एक बार मछिन्द्रनाथ की ओर दुबारा देख लेते हैं शायद क्याोंकि शायद वे ही ऐसे आदमी हैं जो इस आंदोलन के अगुआ कहे जा सकते हैं.

दिल्ली के जंतर-मंतर पर अब मछिन्द्र नाथ का स्थाई बसेरा है. हालांकि वे यहां आये थे अपनी व्यथा दिल्ली को सुनाने लेकिन अब वे अपनी व्यथा से आगे निकलकर समाज की व्यथा पर व्यापक सुनवाई करने का काम भी करते हैं. मछिन्द्र नाथ जब जंतर-मंतर आये थे तो एक सामान्य गृहस्थ थे जो महाराष्ट्र के भ्रष्ट नौकरशाही से लड़ने की मंशा रखते थे. लेकिन अब वे देश के प्रधानमंत्री से लेकर गृहमंत्री तक से लड़ रहे हैं. अपने लिए संघर्ष करनेवाले मछिन्द्रनाथ अब अपने जूता मारो आंदोलन के जरिए लोगों के लिए संघर्ष कर रहे हैं.
पता नहीं जरनैल सिंह को मछिन्द्र नाथ के बारे में पता भी था या नहीं लेकिन मछिन्द्र नाथ मानते हैं कि उनके आंदोलन का ही परिणाम है कि अब लोगों ने जूता अपने हाथ में ले लिया है. जंतर मंतर के ठीक बीचो बीच उनका स्थाई बसेरा हो गया है. एक छोटा सा टेंट लगा लिया है. टेंट में कोई चार पांच लोगों के रहने की पूरी व्यवस्था है. टेंट के बाहर जूता मारो आंदोलन का बड़ा सा बैनर लगा रखा है. मछिन्द्र नाथ मानते हैं कि इस बैनर ने बहुत असर पैदा किया है. जंतर मंतर पर वे 11 नवंबर 2006 से बैठे हैं. वे कहते हैं कि ढाई साल से उनके यहां बैठने का परिणाम यह है कि आते जाते लोगों ने देखा कि कोई व्यक्ति है जो व्यवस्था को सरेआम जूता मार रहा है. इसलिए लोग भी प्रेरित हुए हैं और अब धीरे-धीरे जूता अपने हाथ में ले रहे हैं. मछिन्द्र नाथ जब ऐसा कहते हैं तो याद रखिए कि इराकी पत्रकार तो कम से कम जंतर-मंतर नहीं आया होगा. फिर भी, देश में जूता मारो आंदोलन के जनक मछिन्द्रनाथ मानते हैं कि उनके अभियान का नतीजा है कि अब लोगों ने जूता चलाना शुरू कर दिया है.

मछिन्द्र नाथ लातूर के हैं. छोटी सी किराना की दुकान है. घर परिवार ठीक से चलता था. जिला प्रशासन ने वादा किया कि पिछड़े वर्ग के लोगों को आवास बनाने के लिए पट्टे पर जमीन दी जाएगी. 100 लोगों को जमीन मिलनी थी. जब आवंटन की बात आयी तो मछिन्द्र नाथ से जिला कलेक्टर के लोगों ने घूस की मांग की. मछिन्द्र नाथ को यह मंजूर नहीं था कि अपना हक पाने के लिए वे घूस दें. उन्होंने न केवल घूस देने से मना किया बल्कि लातूर से चलकर मुंबई पहुंच गये. 25 अप्रैल 2006 को उन्होंने मंत्रालय पर भूख हड़ताल की और तत्कालीन मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख से भी मिले. विलासराव ने आश्वासन दिया ही होगा इसलिए वे वापस लातूर लौट गये. लेकिन थोड़े ही दिनों में उनकी शिकायत उन्हें पुलिस ने लाकर वापस कर दी. कोई कार्रवाई नहीं हुई.

मछिन्द्रनाथ के लिए यह असहनीय हो गया. लेकिन इतना असर जरूर हुआ कि जिला कलेक्टर कृष्णा लवेकर ने व्यक्तिगत रूप से मछिन्द्र नाथ के पास संदेश भिजवाया कि वे चाहें तो उनकी जमीन का पट्टा बिना घूस के कर सकते हैं लेकिन बाकी लोगों की मांग वे छोड़ दें. अब मछिन्द्र नाथ इसके लिए तैयार नहीं थे. इस घटनाक्रम के बाद उनका संघर्ष केवल जिला कलेक्टर और एसपी के खिलाफ नहीं रह गया. उन्होंने प्रदेश के मुख्यमंत्री के खिलाफ भी संघर्ष का ऐलान कर दिया. उन्होंने मान लिया कि अब मुंबई जाने से न्याय नहीं मिलेगा. इसलिए उन्होंने जंतर मंतर पहुंचने का निर्णय लिया और देश के सर्वोच्च प्रशासकीय संस्थाओं तक अपनी बात पहुंचाने का प्रण ले लिया.

पिछले ढाई साल में अब तक वे अपनी मांग देश की हर शीर्ष संस्था तक पहुंचा चुके हैं. लेकिन कहीं कुछ नहीं हुआ. वे कहते हैं तीस महीने में अब तक साठ मेमोरेण्डम (मांगपत्र) वे सरकार को सौंप चुके हैं, लेकिन अभी तक किसी ने ध्यान नहीं दिया है. मछिन्द्रनाथ मानते हैं कि जब व्यवस्था इतनी भ्रष्ट हो गयी है तो अब जूता मारने के अलावा कोई रास्ता बचा नहीं है. आश्चर्य तो यह है कि देश के प्रदानमंत्री कार्यालय से लेकर गृहमंत्रालय तक कागजी लड़ाई लड़नेवाले मछिन्द्रनाथ खुद कभी स्कूल नहीं गये. लेकिन वे न केवल अच्छी मराठी जानते हैं बल्कि हिन्दी में भी लिखत-पढ़त का पूरा काम खुद करते हैं. मछिन्द्र नाथ कहते हैं "अंग्रेजी भी पच्चीस टक्का समझ लेते हैं. अगर ऐसा न करें तो सरकार के साथ पत्र व्यवहार करना ही मुश्किल हो जाए."

मछिन्द्रनाथ भारत के उस आम मानस का प्रतिबिंब है जो किसी फण्डिंग एजंसी के लिए झण्डा लेकर नहीं घूमते बल्कि अपनी अपने लोगों के लिए लड़ते हैं और बड़ी शिद्दत से लड़ते हैं. उन्हें लगता है कि अब जीवन में दूसरा कोई काम नहीं बचा है. वे देश से भ्रष्टाचार को समूल उखाड़ देने के लिए जूता को अपना हथियार बना चुके हैं. पिछले ढाई साल में मछिन्द्रनाथ कभी वापस लातूर नहीं गये. हमने जानना चाहा कि फिर खर्चा कैसे चलता है? उन्होंने कहा लोग मदद कर रहे हैं. हालांकि उन्होंने अब अपने जूता मारो आंदोलन का सदस्यता अभियान चला रखा है. दिल्ली के अलावा हरियाणा, उत्तर प्रदेश से जंतर-मंतर आनेवाले लोग उनके सदस्य बन रहे हैं. सदस्यता की फीस के अलावा वे लोगों के लिए अर्जी भी लिखते हैं जिसके बदले में लोग उनके लिए कुछ आर्थिक व्यवस्था करते हैं. मछिन्द्र नाथ की न्याय की इस मुहिम में कम ही सही लेकिन लोग जुड़ भी रहे हैं. मछिन्द्र नाथ कहते हैं- "ये लोग इंसान हो तो हमें न्याय देंगे. ये तो गधे, कुत्ते और सुअर हैं. ये हमें क्या न्याय देंगे." जी, हां उनकी नजर में प्रधानमंत्री गधे हैं, गृहमंत्री कुत्ता और देश का प्रशासनिक तबका सुअर. वे कहते हैं कि इन सबका एक ही इलाज है- जूता.

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