Monday, February 15, 2010

बैरन हुआ बीटी बैंगन

बीटी बैंगन पर पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश को 8 फरवरी को आखिरी जन सुनवाई करनी थी. वे बंगलौर पहुंचे. वहां लोगों से बात शुरू की. इतने में एक किसान खड़ा हुआ और उसने जयराम रमेश पर आरोप लगाया कि वे मोनसेन्टों के हित में बीटी बैंगन को बढ़ावा दे रहे हैं. दो दिन बाद ही जयराम रमेश ने जब बीटी बैंगन पर अपना बहुप्रतिक्षित फैसला किया तो उस किसान को भी जवाब देने की कोशिश की कि वे मोनसेन्टों के एजेन्ट नहीं है.

532 पेज की अपनी रिपोर्ट में जयराम रमेश ने बीटी बैंगन के उत्पादन पर अस्थाई रोक लगाने की सिफारिश की. उनकी इस सिफारिश से हो सकता है उस किसान को यह अहसास हो गया हो कि जयराम रमेश वास्तव में मोनसेन्टों के लिए काम नहीं कर रहे हैं लेकिन अब छिपे तौर पर जो लोग ऐसी कंपनियों के लिए काम करते हैं, बोलने की बारी उनकी थी. अगले दिन सभी बड़े अंग्रेजी अखबारों ने जयराम रमेश को निशाने पर ले लिया. हिन्दुस्तान टाइम्स, टाइम्स आफ इण्डिया ने एकतरफा अपने लाडले मंत्री जयराम रमेश पर हमलाा करना शुरू कर दिया. शायद इन अंग्रेजी अखबारों को यह उम्मीद नहीं थी कि आईआईटी मुंबई का ग्रेजुएट इतना 'दकियानूसी' और 'अवैज्ञानिक' फैसला कर लेगा. इन अखबारों ने अपने संपादकीय और विशेष लेखों के द्वारा जयराम रमेश को दोषी करार देते हुए कहा कि ऐसे वक्त में जब देश में तीसरी हरित क्रांति की जरूरत है और पैदावार बढ़ाने के लिए वैज्ञानिक शोध और नजरिये को अपनाने की आवश्यकता है तो जयराम रमेश ने ऐसा प्रतिगामी फैसला कैसे कर लिया?

केवल लिखकर ही विरोध नहीं किया गया. हिन्दुस्तान टाइम्स ने जयराम रमेश को बाकायदा अपने दफ्तर बुलाया और अपने पढ़े लिखे संपादकों द्वारा इतना जलील करवाया कि जयराम रमेश को कहना पड़ा कि रोक अस्थाई है और आगे इस बारे में विचार नहीं किया जाएगा ऐसा नहीं है. हम यह तो नहीं कहते कि हिन्दुस्तान टाइम्स ने मोनसेन्टों के इशारे पर जयराम रमेश को अपने दफ्तर बुलवा लिया था लेकिन एचटी और टाईम्स ने सीधे तौर पर जयराम रमेश पर दबाव बनाने की कोशिश जरूर की है. अंग्रेजीदां सोच समझ वाले लोग मान रहे हैं कि जयराम रमेश ने बीटी बैंगन को तत्काल अनुमति न देकर जयराम रमेश ने गलत काम किया है. भले ही इसके लिए जयराम रमेश पर जनसुनवाई का दबाव रहा हो लेकिन उन्हें फैसला तो मोनसेन्टों के पक्ष में ही करना चाहिए था. अमेरिका की नंबर वन बीज उत्पादक कंपनी मोनसेन्टों पिछले नौ सालों से भारत में बीटी बीजों के ब्यापार में उतरने की कोशिश कर रही है. अपने इस अभियान में सरकारी तौर पर उसे जहां जहां से अनुमति की आवश्यकता थी उसने उन सभी सरकारी विभागों को उपकृत करते हुए अनुमति ले ली. पिछले दो तीन सालों से वह बीटी बैंगन, बीटी टमाटर और बीटी राइस का फील्ड ट्रायल भी कर रही है लेकिन उसके फील्ड ट्रायल का क्या परिणाम है यह उसने लाख दबाव के बाद भी आम आदमी को बताने की जरूरत नहीं समझी. फील्ड ट्रायल के परिणामों को जानने के लिए जब कुछ लोगों ने सूचना आयुक्त से आदेश भी प्राप्त कर लिया तब मोनसेन्टों की भारतीय इकाई माहिको ने दिल्ली हाईकोर्ट से स्टे आर्डर ले लिया जिसमें अपने व्यावसायिक हितों का हवाला देते हुए उसने परिणामों को सार्वजनिक न करने की दुहाई दी. केन्द्र में विज्ञान और तकनीकि मंत्री कपिल सिब्बल भी लगातार मोनसेन्टों के तर्क का ही समर्थन कर रहे थे.

एक तरफ बीटी बैंगन का विरोध होता रहा तो दूसरी ओर माहिको कंपनी की महिमा से सरकारी कार्यालयों में फाइलें कदम दर कदम आगे बढ़ती रहीं. जीईएसी जो कि जैव तकनीकि जनित उत्पादों को मंजूरी देने के लिए जिम्मेदार है उसने भी बीटी बैंगन को पूरी तरह से सुरक्षित माना और सरकार को कहा कि इसे कैबिनेट में मंजूरी दी जा सकती है. जीईएसी से कैबिनेट के बीच जयराम रमेश ने जन सुनवाई करके लोगों की राय जानने का फैसला किया और इसी फैसले ने बीटी बैंगन पर अस्थाई रोक लगा दी. और जन सुनवाईयों का क्या हाल रहा यह कहना तो मुश्किल है लेिकन चण्डीगढ़ में हुई जनसुनवाई के दौरान लगभग 200 किसानों ने बीटी फसलों का समर्थन किया था. बाद में स्थानीय जन संगठनों ने जब उन किसानों के बारे में पता करना शुरू किया तो पता चला कि उन्हें माहिको अपने खर्चे पर जनसुनवाई में लेकर आयी थी. यानी माहिको ने बीटी बैंगन को मंजूरी दिलाने के लिए हर स्तर पर प्रयास जारी रखा. लेकिन 10 फरवरी को जब जयराम रमेश ने अस्थाई रोक का ऐलान किया तो भी माहिको ने बुरा नहीं माना. माहिको ने अपनी प्रेस रिलीज में कहा कि उन्हें पूरी उम्मीद है कि भारत सरकार खेती में शोध को बढ़ावा देगी और आनेवाले वक्त में उसके द्वारा नौ सालों तक किया गया काम निष्फल नहीं जाएगा.

माहिको मोनसेन्टों की सब्सिडरी कंपनी है और मोनसेन्टो अमेरिका की सबसे बड़ी बीज कंपनी. मोनसेण्टो ने पिछले साल अपने तथाकथित शोध पर 980 मिलियन डॉलर खर्च किया. मोनसेण्टो पूरी दुनिया में अपनी उपस्थिति बढ़ाना चाहती है और उसका इस समय सारा जोर एशिया पैसिफिक पर है क्योंकि यहां उसके कुल व्यापार का महज 7 प्रतिशत कारोबार होता है. अमेरिका अब स्थिर बाजार है इसलिए एशिया के बीज बाजार पर कब्जा मोनसेण्टो के लिए भविष्य की चतुराईभरी रणनीतिक चाल है. इसके लिए वे न केवल वैज्ञानिकों को मुंह मांगे दाम पर खरीद रहे हैं बल्कि सरकार के सामने भी ना करने का कोई विकल्प नहीं छोड़ रहे हैं. मोनसेण्टों के इस "पावन कार्य" में मीडिया उनका सबसे बड़ी साथी बनकर खड़ा है. अगर ऐसा न होता तो भारतीय मीडिया, प्रशासन भूले से भी बीटी बैंगन का समर्थन नहीं करता. विरोध करने का आधार केवल तकनीकि नहीं है. यह सिद्धांतरूप में भी सही नहीं है. भारत में बैंगन की ही अकेले ढाई हजार से अधिक प्रजातियां हैं. इनमें से तो बैंगन की कई ऐसी प्रजातियां हैं जिनकी चिकत्सकीय खूबियां हैं. फिर भी जब तक जैव तकनीकि के नाम पर वैज्ञानिक प्रयोग नहीं किये जाएंगे निजी कंपनियों को बीज बाजार में घुसने का मौका नहीं मिलेगा. चिंता किसी कंपनी के रुख से नहीं है. वह तो अपना व्यापार कर रही है और उसे सिर्फ अपने व्यापार के हितों की ही चिंता होगी. लेकिन जो लोग जन सरोकार के प्रतिनिधित्व का दावा करनेवाले लोगों को तो सोचना ही होगा कि आखिर वे किसके साथ खड़े रहेंगे? भारत में अभी भी अन्न और फल सब्जियों के 300 से अधिक बीजों पर जीएम प्रयोग चल रहे हैं. एक अकेले बीटी बैंगन पर अस्थाई रोक लगा देने भर से अगर जयराम रमेश आधुनिक कृषि के दुश्मन करार दे दिये जाएंगे तो फिर बाकी बचे बीजों को उन्हें मजबूरी में मंजूरी दे देनी होगी. जिस दिन ऐसा होना शुरू हो जाएगा, उस दिन क्या होगा? अभी तो सोच पाना भी मुश्किल लग रहा है.

Sunday, February 7, 2010

मनमोहन और मंहगाई

आखिरकार केन्द्र सरकार से नहीं रहा गया. देश में मंहगाई से त्राहि-त्राहि करती जनता के दुख दूर करने के लिए प्रधानमंत्री कार्यालय की पहल पर केन्द्रीय सार्वजनिक वितरण मंत्रालय ने दिल्ली में मुख्यमंत्रियों की एक बैठक बुला ही ली. चर्चा तो क्या हुई वह अंदरवाले जाने लेकिन बाहर जो खबरें आ रही हैं वह चौंकानेवाली हैं.

मंहगाई रोकने के लिए बुलाई गयी इस बैठक में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि खराब समय गुजर चुका है. उनके मुताबिक इस खराब समय के गुजरने के तीन लक्षण हैं- 1)रबी की फसल अच्छी होने की संभावना है 2)वाजिब समर्थन मूल्य दिया जाएगा और 3) भारतीय बाजार में खाद्यान्न कीमतें अंतरराष्ट्रीय कीमतों के लगभग आसपास आ गयी हैं इसलिए अब मंहगाई के खात्मे का वक्त आ गया है. आपको प्रधानमंत्री के ये तीनों तर्क समझ में आये? रुकिये. समझने के लिए एक और समाधान लीजिए. प्रधानमंत्री जी ने कहा-"सार्वजनिक वितरण प्रणाली की व्यवस्था बहुत खराब है. इसको बदलने की जरूरत है." अरे! मंहगाई के मध्य सार्वजनिक वितरण प्रणाली को बदलने की वकालत? इसका क्या अर्थ है? इसका अर्थ इतना सीधा नहीं है कि घुट्टी बनाकर पी लिया जाए. प्रधानमंत्री जी ने मुख्यमंत्रियों के सामने जिस सार्वजनिक वितरण प्रणाली को बदलने का आह्वान किया है उसका अर्थ बहुत कसैला है जिसके मूल में यह भावना है कि हादसे को संभावना में बदल दो.

भारत में सार्वजनिक वितरण प्रणाली लचर अवस्था में हैं. इसलिए उदार अर्थव्यवस्था के पैरोकारों ने पिछले दस सालों में कोशिश करके कई बड़ी कंपनियों ने कुछ हद तक खाद्यान्न व्यापार को अपने कब्जे में ले लिया है. 2003 से 2008 के आंकड़े बताते हैं कि भारत में खाद्यान्न कीमतों में 50 से 100 फीसदी का उछाल आया है. यह सब तब हो रहा है जब देश में 22 करोड़ लोग भूखे पेट सो रहे हैं और 5 करोड़ बच्चों को पर्याप्त पोषक पदार्थ नहीं मिल रहा है. लेकिन कंपनियों के पोषण की पूरी व्यवस्था है. देश में 2006 से रिटेल व्यापार में बड़ी कंपनियों ने अपने पांव पसारने शुरू कर दिये. बड़े पैमाने पर पहला कदम रखा रिलायंस ने. उसने हैदराबाद में अपना पहला रिलायंस फ्रेश स्टोर खोला. रिलायंस की तमन्ना है कि वह भारत का वालमार्ट बने. रिलायंस का अपना अध्ययन बताता है कि वह भारतीय खाद्यान्न बाजार के न केवल वितरण पर काबिज होना चाहता है बल्कि उत्पादन को अपने हाथ में रखना चाहता है. रिलायंस सहित सभी बड़ी कंपनियों का इसके पीछे एक बड़ा मजबूत तर्क है. वे कहते हैं कि अगर भारत में बिचौलियों को किनारे कर दिया जाए तो उपभोक्ता को सस्ती कीमत पर खाद्यान्न मुहैया हो जाएगा. लंदन बिजनेस स्कूल के कुछ छात्रों द्वारा रिलायंस फ्रेश पर तैयार की गयी रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत से उलट अमेरिका में कीमतों का फायदा ग्राहकों को इसलिए मिलता है क्योकि वहां बिचौलिये नहीं है. उत्पादक और वितरक के बाद सीधे उपभोक्ता ही आता है. भारत में ऐसा नहीं है. यहां उत्पादक और उपभोक्ता के बीच आढ़तिये, खुदरा व्यापारी और इन सबके मध्य हर स्तर पर एक बिचौलिया काम करता है. रिलायंस के लिए किये गये इस अध्ययन में तर्क दिया गया था कि अगर इन बिचौलियों को हटा दिया जाए तो कीमतों में कमी आ जाएगी.

मंहगाई के मूल में केन्द्र सरकार पर कंपनियों का दबाव और राज्य सरकारों की उदासीनता है. अब हालात यह है कि राज्य सरकारें केन्द्र को दोषी ठहरा रही हैं और केन्द्र सरकार राज्य सरकारों को चौकन्ना रहने की सलाह दे रहा है. दोनों जानते हैं कि दोनों ही समानरूप से दोषी हैं लेकिन फिलहाल मंहगाई को अभी और बढ़ने दिया जाएगा. प्रधानंत्री कमाई के स्थिर होने का तर्क दे रहे हैं, अर्थात आम आदमी जब तक दो निवाला खा सकता है, सरकारें सचमुच चिंतित नहीं होंगी.

मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में प्रधानमंत्री ने जिस सार्वजनिक वितरण प्रणाली को सुधारने की दुहाई दी है वह इसी तर्क का विस्तार है. भारत में साठ के दशक से कायम सार्वजनिक वितरण प्रणाली भ्रष्टाचार का परनाला है इससे शायद ही कोई इंकार करे लेकिन सार्वजनिक वितरण प्रणाली भारतीय खाद्यान्न प्रणाली का कितने प्रतिशत कारोबार करता है? कुल खाद्यान्न उत्पादन के 12 से 14 प्रतिशत पर. और यह भी तक जब फूड कारपोरेशन आफ इण्डिया का दावा है कि वे देश के हर हिस्से में दस किलोमीटर से भी कम अंतर पर मौजूद हैं. इतने के बावजूद फूड कारपोरेशन आफ इण्डिया दुनिया का सबसे बड़ा खाद्यान्न व्यापारी है और वह दुनिया में किसी भी कंपनी के मुकाबले सबसे अधिक खरीदारी करता है. सालाना 30 से 40 मिलियन टन. जाहिर है रिलायंस जैसी कंपनियों का सरकार पर दबाव बढ़ रहा है कि वे फूड कारपोरेशन आफ इण्डिया जैंसी संस्थाओं को समाप्त करें और उस प्रणाली को भी ध्वस्त करें जिसमें बिचौलिये बहुत अधिक हैं. सरकार को अगर जनकल्याणकारी होना है तो उसे बिचौलियों और एफसीआई दोनों को किनारे करना होगा और कंपनियों के हाथ में सारी कमान सौंपनी होगी. शुरुआती स्तर पर सरकार ने जींस में वायदा कारोबार को मंजूरी देकर ऐसा कर भी दिया है. अब कंपनियां स्टाक मार्केट में बैठे बैठे देश के खाद्यान्न को खरीदती बेचती हैं और लोग हैं कि मंहगाई से पार ही नहीं पाते हैं. छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री हो या फिर पश्चिम बंगाल के बुद्धदेव भट्टाचार्य वे कह रहे हैं कि केन्द्र सरकार को जींस के वायदा कारोबार पर रोक लगानी चाहिए इससे कीमतों को स्थिर करने में मदद मिलेगी. लेकिन केन्द्र सरकार इसी एक बात को छोड़कर बाकी सारी बातें कर रही है.

प्रधानमंत्री लच्छेदार भाषा में लिखा हुआ भाषण पढ़ रहे हैं और शरद पवार अपने मन ही मन में कुढ़ रहे हैं. मंहगाई कम करने को कौन कहे मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में उन्होंने उसी निजीकरण को बढ़ावा देने का इरादा जता दिया जिसकी शुरूआत में देश मंहगाई के भंवर में फसा नजर आ रहा है. बड़ी कंपनियों का दखल खेती और खाद्यान्न पर जितना अधिक बढ़ेगा, मंहगाई तो छोड़िए, देश त्रासदी की ओर लगातार बढ़ता चला जाएगा. ऐसा नहीं है कि आज देश में खाद्यान्न की कहीं कोई कमी है. अपना देश दूध, दाल और चाय के उत्पादन में दुनिया का अव्वल नंबर का देश है. इसके बाद गेहूं, चावल और चीनी के उत्पादन में दुनिया का दूसरे नंबर का देश है. फल और सब्जियों के उत्पादन में भी हम दुनिया के दूसरे बड़े उत्पादक हैं. दुनिया की सबसे अधिक सिंचित खेती भारत में होती है और खेती करने योग्य जमीन के मामले में दुनिया के 11 प्रतिशत के औसत से बहुत आगे 52 प्रतिशत जमीन पर हम खेती करते हैं. फिर भी अगर मंहगाई मार रही है तो उसके लिए वही मनमोहन सिंह जिम्मेदार हैं जो देश में आर्थिक सुधारों के जनक कहे जाते हैं. समाजवाद के भ्रष्ट दौर से बाहर आने की जल्दबाजी में पिछले दो दशक में कंपनियों को बेलगाम कर दिया गया है. वे सीधे खेत से अनाज खरीदकर उसी किसान को वैल्यू एडिशन के नाम पर डेढ़ से दो गुनी कीमत पर बेच देती हैं. जिन्हें बिचौलिया कहकर खारिज किया जा रहा है असल में वही प्रणाली मंहगाई को काबू में रखती थी. राज्य सरकारें जब यह महसूस करती थीं कि कीमतें आमदनी की अपेक्षा अधिक तेजी से बढ़ रही हैं तो उन्हीं बिचौलियों पर दबिश डालकर बाजार को सामान्य कर देती थीं. लेकिन अब राज्य सरकारें भी असहाय नजर आ रही हैं क्योकि वायदा कारोबार के नाम पर हमने देशवासियों का पेट स्टाक एक्स्चेन्जों के हाथ में गिरवी रख दिया है.

मंहगाई मारने की बात करनेवाले मनमोहन सिंह और उनकी पूरी सरकार जानते हैं कि वे मंहगाई को बढ़ा रहे हैं. ऐसा वे जानबूझकर नहीं कर रहे बल्कि कंपनियों के दबाव में ऐसा करना उनकी मजबूरी है. अगर मुकेश अंबानी से चुनावी चंदा लेना है तो वे जैसा कहेंगे सरकार को वैसा करना पड़ेगा. कहां बात मंहगाई को कम करने की होनी चाहिए थी मनमोहन सिंह इस संकट को भी कंपनियों के हित के लिए इस्तेमाल करते हुए पीडीएस सिस्टम को कंपनियों के हवाले रखने की दलील दे रहे हैं. वे वही तर्क दे रहे हैं जो लंदन स्कूल आफ इकोनामिक्स ने रिलायंस की स्टडी में दिया है कि बिचौलिये मंहगाई बढ़ा रहे हैं. मनमोहन सिंह जी, बिचौलिये मंहगाई जरूर बढ़ा रहे हैं लेकिन वे बिचौलिये नहीं जिनकी ओर आप संकेत कर रहे हैं. यह वे बिचौलिये हैं जो आपके बहुत आस-पास दिन रात मंडराते रहते हैं और जिनके फायदे के लिए आपकी सरकार हर संभव उपाय करती है. इसलिए मनमोहन सिंह जी आप कितनी भी लच्छेदार भाषा में अपना भाषण पढ़ें, हमें इतना तो मालूम है कि आप मंहगाई को नहीं मारेंगे. आपके वार से अगर कोई मरेगा तो वह इस देश का जरूरतमंद इंसान होगा जिसका जीना खाना भी दिन दूनी रात चौगुनी दूभर होता चला जा रहा है.

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