Tuesday, June 1, 2010

जाति और जनपद पर जिरह

किसी भी ऐसे देश में कोई न कोई सामाजिक और प्रशासनिक व्यवस्था तो रहेगी ही जो अपने आप को किसी सीमारेखा में रेखांकित कर लेता है. धरती पर इंसान तब से सीमारेखाएं खींच रहा है जब से वह अपनी तर्कबुद्धि का इस्तेमाल कर रहा है. आज हम जिसे अपना देश मानते हैं आखिरी बार उसका सीमा निर्धारण 1947 में हुआ. इसी साल से हमने अपने आप को एक लोकतंत्र के रूप में परिभाषित करना शुरू किया और साल दर साल उस लोकतंत्र की मजबूती के लिए कर्मकाण्ड करते रहते हैं.

साठ बासठ साल बीत जाने के बाद देश में बौद्धिक जमात की समस्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही है. जैसे जैसे लोकतंत्र परवान चढ़ रहा है समस्याओं का अंबार बढ़ता चला जा रहा है. जिस किसी समस्या के निदान के लिए हम कोई इलाज खोजते हैं, ज्यादा वक्त नहीं बीतता वह इलाज ही अगली समस्या के रूप में सामने आ खड़ा होता है. ताजा उदाहरण आरटीआई का है. इस लोकतंत्र में भ्रष्टाचार से प्रभावी रूप से निपटने के लिए बड़ी हुज्जत के बाद सूचना का अधिकार कानून बना लेकिन ज्यादा वक्त नहीं बीता सूचना का अधिकार भी भ्रष्टाचार बढ़ाने का एक साधन बन गया है. ऐसे ही इस लोकतांत्रिक व्यवस्था के किसी भी निदान को उठा लीजिए, वह खुद में एक रोग नजर आयेगा. जाति की जनगणना का सवाल और उस पर उठ रहे विवाद इसी रोगग्रस्त मानसिकता का परिणाम हैं.

लंबे समय तक हमें सिखाया पढ़ाया जाता रहा है कि इस देश में बहुत बड़ा दलित और पिछड़ा समुदाय है जिसकी स्थिति बहुत दयनीय है. इस दलित और पिछड़ा समुदाय की दुर्दशा के लिए भारत की वर्ण व्यवस्था दोषी है जो ब्राह्मणों को जन्मना सर्वोच्चता प्रदान कर देती है और वह ब्राह्मण अथवा सवर्ण अयोग्य और पथभ्रष्ट होने के बावजूद दलित तथा पिछड़े वर्ग का शोषण करता है. पिछले दो ढाई सौ सालों में इस विचार को हर प्रकार से तर्कों का जामा पहनाया गया है. किसी भी कार्य के तीन चरण होते हैं. विचार, क्रिया और परिणाम. वैचारिक रूप से लंबे समय तक इस बहस ने हर समझदार आदमी को यह समझने पर मजबूर कर दिया है कि जाति व्यवस्था ने इस देश में अरबों लोगों को आगे बढ़ने का मौका नहीं दिया है इसलिए जाति व्यवस्था को तोड़कर नये तरह की समाज रचना की ओर आगे बढ़ना चाहिए. इस क्रांतिकारी विचार का अगला चरण है क्रिया और फिर परिणाम. क्रियात्मक रूप से इस क्रांतिकारी विचार को लागू करने के लिए पिछले साठ बासठ सालों में पर्याप्त प्रयास हुए हैं. लेकिन सफलता लगभग नगण्य है.

1931 में आखिरी बार भारत में अंग्रेजों ने जातियों का जायजा लिया था. उसके सोलह साल बाद अंग्रेज बहादुर भारत छोड़कर चले गये इसलिए अगले दौर की जातीय जनगणना संभव नहीं हो सकी क्योंकि आजादी के बाद भारतीय नेतृत्व एक फैशनेबुल विचारधारा की गिरफ्त में जा चुका था जिसे समाजवाद कहा गया. समाजवाद के इस फैशन ने जातियों को उसी प्रकार से मानव समाज के लिए अनिवार्य बुराई माना जैसे अंग्रेजों ने परिभाषित कर दिया था. उन्नीसवी सदी के शुरूआत में भारत की जाति व्यवस्था पर कुछ स्वतंत्र ब्रिटिश समाजशास्त्रियों ने काम किया था और उन्होंने एक आश्चर्यजनक नतीजा सामने रखा था. उन्होंने भारतीय जातियों के नामकरण का विश्लेषण किया तो पाया कि भारत में समान रूप से जातियों के नाम संस्कृतनिष्ठ हैं और वे किसी न किसी व्यवसाय की ओर संकेत करते हैं. आदिलाबाद में रहनेवाले रवीन्द्र शर्मा ने कोई अध्ययन तो नहीं किया लेकिन इस तथ्य को अपने कार्य से प्रमाणित कर दिया है कि जाति व्यवस्था कर्म विभाजन ही था और कुछ नहीं. आदिलाबाद में छोटा सा कला आश्रम चलाकर वे जाति व्यवस्था से जुड़े उस बड़े मिथक को तोड़ रहे हैं जिसमें हमें सिखाया पढ़ाया गया है कि जाति का निर्धारण सिर्फ ऊंच नींच का भेदभाव स्थापित करने के लिए किया गया था. अदीलाबाद में उन्होंने अपने काम से साबित कर दिया है कि आज जिन्हें हम दलित, आदिवासी, पिछड़ा कहकर उनके भलाई की दुहाई दे रहे हैं किसी दौर में वे सेवा क्षेत्र (सर्विस सेक्टर) के महारथी और उत्पादक होते थे. अदीलाबाद न भी जाएं तो देश के किसी भी हिस्से के ग्रामीण परिवेश में इतना तो साफ दिख जाता है कि हर जाति किसी न किसी प्रकार के कर्म के लिए समर्पित और सिद्धहस्त है.

जाति की जनगणना करते समय क्या भारत सरकार यह पता करने की भी कोशिश करेगी कि किस जाति समूह में कौन सा कौशल था और वह कैसे गायब हो गया? क्या उस जाति के व्यावसायिक कौशल को वर्तमान समाज में पुनर्जीवित करने का प्रयास किया जाएगा? भारत सरकार शायद ही ऐसा करे क्योंकि ऐसा करने का अर्थ है वर्तमान यूरोपीय इकोनोमिक मॉडल का खात्मा. भारत सरकार इसे शायद ही कभी स्वीकार करे. अगर जातियों को जानने का हमारा मकसद या दृष्टि यह नहीं है तो जातियों के बारे में जानने का कोई तुक नहीं है. 

हम जातियों के बारे में जानकर देश को काटने-बांटने के लिए उसका राजनीतिक दुरुपयोग करेंगे और कुछ नहीं. फिर हमें जाति के नाम पर चिढ़ क्यों होती है? आखिर वे कौन लोग हैं जिन्होंने हमें समझाया और सिखाया कि जाति के नाम पर न केवल आप भेदभाव करिए बल्कि क्रियारूप में हमनें जाति को तोड़ने की पुरजोर कोशिश भी की है. यहां से आगे जाति व्यवस्था पर बात करना इतना आसान नहीं है. जाति व्यवस्था कब व्यवस्था से आगे बढ़कर व्यक्ति की निजी पहचान से जुड़ गया इस पर भरपूर शोध करने की जरूरत है. हमारा कर्म हमारी व्यावसायिक पहचान होगा या हमारी सामाजिक पहचान? जाति के बारे में बात करते समय आधुनिक संदर्भ में भी इस बात को बहुत संवेदनशील तरीके से समझना होगा. आज हम जो कर्म करते हैं क्या वह हमारी नयी जातीय अस्मिता है? अगर ऐसा है तो पुरानी अस्मिता को हम क्यों थामें हुए हैं? अगर हम जातीय व्यवस्था के अनुसार वर्तमान समय में कर्म निर्धारण नहीं करते हैं तो फिर उस व्यवस्था को निजी पहचान के बतौर पकड़े रहने का क्या तुक है? इन तर्कों पर देखें तो जाति व्यवस्था को जितनी जल्दी हो सके खारिज कर देना चाहिए. अन्यथा इसका सिर्फ राजनीतिक इस्तेमाल ही होगा जो देश को अस्थिर करेगा. लेकिन एक सवाल अभी भी शेष रह जाता है. इस व्यवस्था को ध्वस्त करते हुए क्या हम यह विचार करने के लिए तैयार हैं कि हमने जिस कारपोरेट समाज को निर्मित करने के लिए दिन रात योजनाएं बना रहे हैं वह पूर्ण रूप से अस्तित्व में आ गया तो भारत कहां होगा? भारतीय मानस कहां होगा? भारतीय अस्तित्व कहां होगा?

शिक्षा, स्वास्थ्य, न्याय, प्रशासन, सेवा, उद्योग, विज्ञान सब ओर हम अहर्निश रूप से यूरोपीय समाज के फोटोकापी हैं. इस युग का फैशन भी यही है कि जो शिक्षा यूरोपीय सभ्यता से निकली है वह शिक्षा है अन्यथा शिक्षा के दूसरे सब स्वरूप स्थानीय, दकियानूसी व्यवस्था का हिस्सा हैं. यूरोप की जिस व्यवस्था को हम नखशिख लागू किये हुए हैं उस व्यवस्था में जाति अनिवार्य बुराई है. उसके बारे में जानना या समझना निश्चित रूप से निंदनीय है. लेकिन अगर हम भारत को भारत के रूप स्वरूप में जानना समझना चाहते हैं तो जाति और जनपद को गाली देकर दरकिनार कर देने से बड़ी भूल होगी. जाति अगर अपने देश की समाज व्यवस्था है तो जनपद प्रणाली अपनी प्रशासनिक व्यवस्था है. हम जब जनपद कहते हैं तो उसका आशय होता है एक प्रशासनिक व्यवस्था जिसे गांधी जी ने ग्राम स्वराज कहकर परिभाषित किया था. जाति के बिना जनपद व्यवस्था को लागू नहीं किया जा सकता और जनपद के बिना जाति व्यवस्था का कोई औचित्य नहीं है. जातियों के आधार पर जिस समाज की व्यवस्था विकसित होती है उसकी प्रशासनिक व्यवस्था के रूप में जनपद प्रणाली सामने आती है जो अभी भी भारत में विद्यमान है. इस प्रशानिक व्यवस्था से जो लोकतंत्र निकलता है वह राष्ट्र राज्य की सीमा में बंधा कोई देश नहीं होता बल्कि एक ऐसा गणराज्य होता है जो भारत को भारत के वास्तविक स्वरूप में सामने रखता है. हां, यह यूरोपीयन लोकतांत्रिक मॉडल को मान्य नहीं करता है इसलिए हमें ये बातें सिरे से समझ में नहीं आती है.

ऐसे में अब सवाल फिर वही कि क्या जाति की जनगणना होनी चाहिए? इस सवाल का जवाब खोजने वालों को समझना होगा कि अगर हम समाज व्यवस्था के रूप में जाति को स्वीकार नहीं कर सकते तो जाति की जनगणना का कोई तुक नहीं है. असल सवाल तो यह है कि क्या हम भारत को भारत की व्यवस्था में देख पाने में सक्षम हैं भी या नहीं? अगर हम यूरोपीय प्रशासनिक मॉडल को डेमोक्रेसी मानते हैं तो फिर उसमें जाति व्यवस्था अनिवार्य बुराई है इसलिए उसका परित्याग कर देना चाहिए. लेकिन अगर हम मानते हैं कि भारत में जाति का अस्तित्व उसकी सामाजिक व्यवस्था का (भले ही उसमें भीषण दोष आ गये हों) है तो हमें जाति की जनगणना के साथ साथ जनपद (भारतीय प्रशासनिक प्रणाली) को भी पुनर्जीवित करने की मांग करनी चाहिए. जाति की गणना से बड़ा सवाल यह है कि हमें क्या बनना है? क्या हम ईमानदारी से भारत बनना चाहते हैं या फिर हम पूरी तरह से यूरोप हो जाना चाहते हैं? इसी सवाल के जवाब में उस सवाल का जवाब भी मिल जाएगा कि भारत में जाति की जनगणना होनी चाहिए या नहीं?

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