Saturday, April 9, 2011

छोटी छोटी क्रांतियों का बड़ा महानायक

वह भी अप्रैल का ही महीना था जब किशन हजारे ने 1963 में सेना की नौकरी पाने के लिए मुंबई में लाइन लगाया था. यह भी अप्रैल 2011 है, जब केन्द्र की पूरी सरकार उनके सामने लाइन लगाकर खड़ी है. अपने जीवन के इक्यावन साल के इस फासले में किशन बापट बापूराव हजारे ने ऐसा बहुत कुछ किया है जिसने उन्हें अन्ना (भाई) हजारे बना दिया है. दो दशक पहले ही पद्मश्री और पद्मविभूषण हो चुके अन्ना हजारे की उम्र अब 73 साल है लेकिन अभाव और गरीबी के बीच पैदा हुआ किशन हजारे देश के लिए अन्ना हो जाने से आगे की तैयारियों में जुटा है.

किशन हजारे उर्फ अन्ना हजारे का जन्म 15 जनवरी 1940 को महाराष्ट्र में अहमदनगर जिले के भिंगर नामक गांव में हुआ था. अन्ना हजारे के जन्म के वक्त उनके दादा भिंगर में सेना की ओर से तैनात थे और अन्ना हजारे के पिता एक आयुर्वेदिक फार्मेसी में बतौर मजदूर काम करते थे. 1945 में अन्ना हजारे के दादा का असामयिक निधन हो गया लेकिन उसके बाद भी अन्ना हजारे के पिता बापूराव हजारे ने भिंगर से न जाने का फैसला किया. लेकिन सात साल बाद 1952 में बापूराव ने आयुर्वेदिक फार्मेसी में काम करना छोड़ दिया और अपने गांव रालेगढ़ सिद्धी लौट आये. जब बापूराव रालेगढ़ सिद्धी आये तो अन्ना हजारे चौथी क्लास की पढ़ाई पढ़ चुके थे. सात भाई बहनों वाले अन्ना हजारे के लिए यहां से मुश्किलों का जो दौर चला वह बहुत लंबा खिंचा. सात बच्चों को पालने के लिए अन्ना हजारे के पिता लगातार कर्ज में डूबते गये और किसी भी बच्चे की ठीक से शिक्षा दीक्षा नहीं हो पायी. इसी वक्त किशन की फूफी ने किशन ने गोद ले लिया क्योंकि उनको कोई बच्चा नहीं था. अपनी फूफी के साथ किशन मुंबई आ गया और यहां उसने सातवीं तक शिक्षा ग्रहण की. लेकिन घर की परिस्थितियां इतनी खराब थीं कि उसके लिए अब आगे और पढ़ते रह पाना मुश्किल था.

इसलिए किशन ने किशोरावस्था में ही मुंबई के दादर इलाके में फूल बेचने का काम शुरू कर दिया. दादर स्टेशन के बाहर वे खड़े होकर फूल बेचते थे और महीने का 40 से 50 रूपया कमा लेते थे. जैसे ही थोड़ी कमाई होने लगी किशन ने अपने भाईयों को मुंबई लाना शुरू कर दिया. धीरे धीरे किशन ने दादर इलाके में ही दो फूल की दुकान ले ली और अब उसकी कमाई 700-800 रूपये महीने होने लगी थी. यह पचास के दशक की बात है और अब जबकि घर की स्थिति थोड़ी ठीक होने लगी थी तो अन्ना हजारे को महसूस हुआ कि वे नौजवान हैं और अच्छा पैसा कमा लेते हैं इसलिए उन्होंने वह सब शुरू किया जो कि आमतौर पर कोई भी नौजवान करता पाया जाता है. किशन हजारे किशन दादा हो गया. किसी के ऊपर जुल्म हो रहा हो या कोई परेशान हो तो किशन हजारे उसकी मदद में मारपीट करने के लिए हमेशा तैयार रहता था. अपनी इसी आदत के चलते उसकी छवि गली के गुण्डे की बन गयी और वह बदनाम होने लगा. इधर किशन की गुण्डागर्दी बढ़ी तो उधर पारिवारिक स्थिति एक बार फिर खराब होने लगी. इसी बीच 1962 में भारत चीन के बीच युद्ध हुआ और केन्द्र सरकार ने नौजवानों से अपील की कि वे ज्यादा से ज्यादा संख्या में सेना में शामिल हों. इसी से प्रभावित होकर अप्रैल 1963 में किशन हजारे सेना में बतौर सैनिक नौकरी करने चला गया.

सेना में करीब 15 सालों तक काम के दौरान किशन हजारे ने सिक्किम, आसाम, जम्मू कश्मीर, मिजोरम, लेह और लद्दाख में पोस्टेड रहे. सेना की सेवा में रहते हुए उन्होंने 1965 के भारत पाकिस्तान युद्ध में भी हिस्सा लिया. 1965 के भारत पाक युद्ध में किशन हजारे खेमकरन बार्डर पर तैनात थे. भीषण युद्ध और गोलाबारी के बीच उनके सभी साथी मारे गये. एक गोली उनके कान के पास से होकर गुजरी लेकिन वे जीवित बच गये और ट्रक लेकर वापस लौट आये. इसके बाद 1970 में भी एक बार ट्रक का भीषण एक्सीडेन्ट हुआ लेकिन उसमें भी वे जीवित बच गये. कुंआरे किशन हजारे के लिए सेना की नौकरी बहुत रास नहीं आ रही थी. वे तनावग्रस्त थे और समझ नहीं पा रहे थे कि जीवन में आगे करना क्या है. तनाव के इसी दौर में उन्होंने एक बार आत्महत्या करने की भी कोशिश की और दो पन्ने का एक सुसाइड नोट भी लिखा जिसमें उन्होंने लिखा था कि उन्हें अब जिंदगी रास नहीं आ रही है. वे अब जीना नहीं चाहते हैं. लेकिन इसी बीच एक बार नई दिल्ली से गुजरते हुए उन्होंने स्टेशन पर एक बुकस्टाल पर स्वामी विवेकानन्द की किताबें देंखी. अभी सेना में तीन साल की नौकरी ही बीती थी कि विवेकान्द की किताबों ने उनके जीवन की दिशा बदल दी. अन्ना हजारे ने कहा भी है कि उनके सभी सवालों के जवाब विवेकानन्द की किताब में मिलने लगे. अब 26 वर्षीय अन्ना हजारे सेना की नौकरी छोड़कर मानवता की सेवा करना चाहते थे लेकिन ऐसा करना तत्काल उनके लिए संभव नहीं था. सेना से पेन्शनयुक्त स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के लिए कम से कम 15 साल की नौकरी जरूरी होती है इसलिए अगले 12 साल उन्होंने सेना में और नौकरी की.

सेना में नौकरी करते हुए भी वे अपने गांव रालेगढ़ सिद्धी आते रहे और वहां की दशा देखकर व्यथित होते रहे. पंद्रह साल पूरा होने के बाद उन्होंने सेना की नौकरी छोड़ दी और रालेगढ़ सिद्धी आ गये. जिस अहमदनगर जिले के पानेर तालुके में यह रालेगढ़ सिद्धी गांव है वहां का सबसे बड़ा संकट पानी की कमी थी. कम बारिश के कारण खेती चौपट थी और किसानो की दुर्दशा थी. लेकिन इस दुर्दशा से बाहर आने के लिए खुद किसान ही कुछ करने की स्थिति में नहीं थे. शराब की भट्टियों के सहारे यहां की अर्थव्यवस्था चल रही थी और खेती का संकट शराब में सराबोर होकर कम किया जा रहा था. उनके गांव में औसत 400 से 500 मिलीमीटर बारिश का पानी गिरता था. लेकिन इस पानी को भी सहेजने की कोई विधि नहीं थी. इसी बीच पुणे के पास सासवड़ में अन्ना हजारे ने पानी संरक्षण पर विलासराव सालुंखे का काम देखा. उनकी विधि बहुत प्रभावकारी थी. सासवड़ में वाटरशेड मैनेजमेन्ट का जो काम किया जा रहा था उसे उन्होंने अपने गांव में भी करने का फैसला किया. अन्ना हजारे ने गांव में पानी रोकने के जो प्रयास किये उसका परिणाम हुआ कि ग्राउण्ड वाटर लेवल ऊपर उठा और गांव की 300 एकड़ खेती की जगह अब 1500 एकड़ खेती सिंचित खेती के दायरे में आ गयी. यह अन्ना का पहला प्रयोग था और एक गांव में रची गयी छोटी सी क्रांति थी.

लेकिन इस क्रांति से जो समृद्धि निर्मित होती उसका खात्मा शराब में होना निश्चित था. अन्ना हजारे जानते थे कि धर्म में आम आदमी की आस्था और निष्ठा अपार है इसलिए उन्होंने धर्म के नाम पर लोगों को शराब से दूर रहने की पहल शुरू की. एक ओर जहां परिवार में उन्होंने शराबी व्यक्ति के प्रति बीबी बच्चों से सत्याग्रह शुरू करवाया तो दूसरी ओर शराब कारोबारियों के लिए बतौर किशन हजारे हल्ला भी बोला. तीन चेतावनी देने के बाद भी जो व्यक्ति शराब पीकर गांव में आता था उसको किशन हजारे की तर्ज पर मारकर ठीक किया जाता था. लेकिन अन्ना हजारे ने इसके साथ ही रालेगढ़ सिद्धी को प्रयोगभूमि बनाना भी शुरू कर दिया. वे सिर्फ पानी बचाकर या शराब बन्दी करके दम नहीं लेनेवाले थे. उन्हें रालेगढ़ सिद्धी को एक आदर्श और समृद्ध गांव के रूप में स्थापित करना था. अन्ना हजारे नहीं चाहते थे कि जैसे उनका बचपन गरीबी में बीता है उसी प्रकार उनके गांव के बच्चों का बचपन गरीबी में बीते. एक दशक के भीतर ही रालेगढ़ सिद्धी आदर्श ग्राम बन गया. एक ऐसा आदर्श ग्राम जिसे देखने के लिए देश दुनिया से लोग आने लगे और कुछ लोगों ने बाकायदा उस गांव पर डाक्टरेट की डिग्रीयां भी हासिल की है. एक गांव को संपूर्ण रूप से साक्षर, आत्मनिर्भर बना देना अन्ना हजारे की दूसरी क्रांति थी.

रालेगढ़ सिद्धी में सफल प्रयोग करने के बाद अन्ना हजारे रूकनेवाले नहीं थे. अब उन्होंने गांव से बाहर निकलकर प्रदेश की ओर देखना शुरू कर दिया था. अन्ना मानते थे कि अगर ऊपर की सरकारें भ्रष्ट होंगी तो नीचे आम आदमी का भला नहीं होगा. इसलिए 1991 में उन्होंने भ्रष्टाचार विरोधी जन आंदोलन की शुरूआत की. भ्रष्टाचार के खिलाफ राज्य में पहला बड़ा आंदोलन अन्ना हजारे ने चलाया 1997 में. इस साल उन्होंने राज्य के शिवसेना भाजपा सरकार के मंत्री बबनराव घोलप के शिक्षण संस्थानों के खिलाफ अपना अभियान शुरू किया जिसमें भ्रष्टाचार की शिकायतें. घोलप की पत्नी के नाम नाशिक में बड़ी मात्रा में जमीन की खरीदारी भी गयी थी. अन्ना हजारे ने पहली बार किसी भ्रष्ट मंत्री के खिलाफ इस तरह से खुलकर अभियान शुरू किया और इस अभियान में उन्हें तीन महीने के लिए जेल भी जाना पड़ा था. हालांकि भारी जन दबाव के कारण सरकार को उन्हें रिहा करना पड़ा लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे का यह पहला बड़ा राज्यव्यापी आंदोलन था जो पूरी तरह से सफल रहा. अन्ना हजारे ने इसके बाद 2003 में कांग्रेस एनसीपी सरकार के चार मंत्रियों के भ्रष्टाचार के खिलाफ 9 अगस्त 2003 को अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल शुरू कर दी. 17 अगस्त को राज्य के मुख्यंमत्री सुशील कुमार शिंदे ने पीबी साबंत की अध्यक्षता में एक सदस्यीय कमेटी गठित की और अन्ना हजारे द्वारा आरोपित मंत्रियों की जांच में नवाब मलिक, सुरेश दादा जैन और पद्म सिंह पाटिल के खिलाफ आरोप सही पाये गये. इसके बाद 2005 में सुरेश दादा जैन और नवाब मलिक को इस्तीफा देना पड़ा. रालेगढ़ से निकलकर अब अन्ना हजारे भ्रष्टाचार के खिलाफ राज्यभर में लड़ रहे थे. 2000 में राज्य में सूचना अधिकार के लिए लड़ाई भी उन्होंने शुरू की और इस लड़ाई में भी वे सफल रहे.

2011 में दिल्ली के जंतर मंतर पर 5 अप्रैल से शुरू किया गया उनका आमरण अनशन राज्य से बाहर निकलने का संकेत भी है. अनशन के पांचवे दिन 9 अप्रैल को जब उन्होंने अपना उपवास तोड़ा तो इस मौके पर उन्होंने जो कुछ बोला वह उनके भविष्य के सक्रिय सामाजिक गतिविधि का संकेत भी है. जैसे रालेगढ़ से निकलकर उन्होंने पूरे राज्य को अपना कार्यक्षेत्र बनाया था वैसे ही अब वे पूरे देश में एक अभियान लेकर निकलनेवाले हैं. इस अभियान में चुनाव सुधार, व्यवस्था सुधार और भ्रष्टाचार से मुक्ति महत्वपूर्ण मुद्दे रहनेवाले हैं. अगले कुछ सालों तक हो सकता है वे दिल्ली में कई बार क्रमिक रूप से अनशन करते हुए मिलेंगें और हर बार सफल होकर वापस लौटना उनकी रणनीति होती है इसलिए वे सफल भी रहेंगे. वे जन आंदोलनों की राजनीति को बहुत अच्छी तरह समझते हैं और यह भी जानते हैं कि उनका लक्ष्य उन्हें कैसे हासिल हो सकता है. लोकपाल विधेयक के लिए ज्वाइंट कमेटी का गठन के लिए गैजेटियर नोटिफिकेशन लेकर अनशन से उठनेवाले अन्ना हजारे देश में जन आंदोलन की नयी परिभाषा बन चुके हैं. अब वे उन गैर सरकारी आंदोलनकारियों की जमात से काफी आगे निकल चुके हैं जो नये मुद्दे चुनने और उसे हासिल करने से हमेशा चूक जाते हैं. अन्ना हजारे अपने पिछले काम को अपनी अगली सफलता का आधार बनाते है और आगे निकल जाते हैं. शायद इसीलिए उन्होंने करीब 30-35 साल के सार्वजनिक जीवन में उन्होंने छोटी छोटी क्रांतियों की एक कड़ी विकसित कर ली है जो उनके महानायक होने का आभास देने लगी है. ऐसे महानायक सिर्फ प्रतीक होते हैं इसलिए उनकी उन छोटी क्रांतियों का बाद में क्या असर शेष रहा इसे जांचने से भी अन्ना हजारे का व्यक्तित्व कहीं से कमजोर नहीं पड़ता. वह निरंत नये मील पत्थरों की ओर आगे बढ़ता रहता है.

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