Tuesday, May 14, 2013

कितने शरीफ मियां नवाज शरीफ?

आतंकी संगठन लश्कर-ए-झांगवी के हेड मलिक इशाक (सबसे बाएं) के साथ नवाज शरीफ
इसी 13 मार्च की बात है। पाकिस्तान के सिंध प्रांत की राजधानी कराची में एक जबर्दस्त बम विस्फोट हुआ। विस्फोट शिया बहुल अब्बास टाउन में हुआ था। इस भीषण विस्फोट में 45 लोग मारे गये थे और 135 लोग घायल हो गये थे। विस्फोट के बाद पाकिस्तानी इंटिरियर मिनिस्टर रहमान मलिक दौरे के दौरान वहां पहुंचे थे। कराची में पत्रकारों से बात करते हुए उन्होंने आतंकी विस्फोट के पीछे लश्कर-ए-झांगवी का नाम लिया। मलिक ने सिर्फ इस विस्फोट के लिए झांगवी को जिम्मेदार नहीं ठहराया बल्कि अब तक कराची में जितना उपद्रव हुआ है उसके लिए पंजाब सरकार को दोष देते हुए कहा कि पंजाब आतंकियों की पनाहगाह बन गया है।
पंजाब का मतलब वह राज्य जहां नवाज शरीफ की पार्टी और परिवार लंबे समय से एकछत्र राज्य कर रही है। नवाज शरीफ के भाई शाहबाज शरीफ पाकिस्तानी पंजाब के दो बार मुख्यमंत्री रह चुके हैं और तीसरी बार बेजोड़ बहुमत के साथ पंजाब का मुख्यमंत्री बनने का रास्ता साफ हो गया है। पहली बार बार 1993 से 1999 और दूसरी बार 2008 से 2013। 1999 में मुशर्ऱफ द्वारा उत्पीड़न के बाद शाहबाद शरीफ भी पाकिस्तान छोड़कर चले गये थे और 2007 में दोबारा पाकिस्तान लौटे थे।

शरीफ परिवार पाकिस्तान का सबसे समृद्ध और रसूखदार परिवारों में गिना जाता है। नवाज शरीफ के पिता मियां मुहम्मद शरीफ बंटवारे के वक्त अपने भाइयों के संग अमृतसर से लाहौर जाकर बस गये थे और वहां के मध्यवर्गीय व्यापारियों में शुमार हो चले थे। लेकिन मुहम्मद शरीफ के बेटों नवाज और शाहबाज ने अपने राजनीतिक रसूख की बदौलत जितनी दौलत पैदा की उसकी बदौलत वे आज पाकिस्तान के सबसे रसूखदार ही नहीं बल्कि सबसे अधिक पैसेवाले नेताओं में शुमार हैं। लेकिन यह अकूत धन दौलत और रसूख शरीफ परिवार ने ऐसे ही नहीं हासिल की है। उसके लिए शरीफ परिवार ने इतिहास में बहुत कुछ ऐसा भी किया है जिसके दोष से वे कभी मुक्त नहीं हो सकते।

इस्लाम में सुन्नी मत माननेवाला शरीफ परिवार सुन्नी इस्लाम में भी देवबंदी विचारधारा का समर्थक है। देवबंदी विचारधारा भारत के उस दारुल उलूम मदरसे की देन है जो इस्लाम को हनफी शिक्षा के अनुसार मानता है। शरीफ परिवार उसी देवबंदी सुन्नी इस्लाम को माननेवाला है। और सिर्फ माननेवाला ही नहीं है बल्कि आज वह पाकिस्तान में देवबंदी सुन्नी मुस्लिमों का राजनीतिक संरक्षक है। पाकिस्तान में देवबंदी मुसलमानों की संख्या भले ही 20 प्रतिशत हो लेकिन पाकिस्तान में दीनी इस्लाम के नाम पर चलनेवाले 65 प्रतिशत मदरसों पर इनका ही कब्जा है। इस्लाम की हनफी शिक्षा के अनुसार ही एक दूसरे इस्लामिक स्कूल बरेलवी मुस्लिमों की संख्या पाकिस्तान में सबसे अधिक है। विभिन्न अंतरराष्ट्रीय अध्ययनों और आंकड़ों के अनुसार पाकिस्तान में बरेलवी मुसलमानों की संख्या करीब 50 से 60 प्रतिशत है लेकिन दीनी शिक्षा के मामले में बरेलवी मुसलमानों के मदरसों की संख्या महज 25 प्रतिशत है। पाकिस्तान में शिया मुसलमानों की संख्या 4 प्रतिशत, अहले हदीथ और अहमदियां मुसलमानों की संख्या भी दो दो प्रतिशत के करीब है।
जो लोग यह समझते हैं कि शरीफ के आने से भारत के लिए पाकिस्तान शराफत के रास्ते पर चल पड़ेगा, उन्हें अपने सोचने पर दोबारा विचार करना चाहिए। पाकिस्तान में शरीफ ऐसे 'उन्मादी शेर' पर सवार होकर विजेता बने हैं जिस पर बैठे रहे तो पाकिस्तान की जनता ही उन्हें बहुत देर तक बर्दाश्त नहीं करेगी और उतरे तो उन्मादी शेर ही उन्हें खा जाएगा। जाहिर है, पाकिस्तान में देवबंदी मुसलमान भले ही आबादी में दूसरे नंबर पर हों लेकिन दीनी तालीम पर उनका एकाधिकार है। इस एकाधिकार और देवबंदी मुसलमानों के पंजाब कनेक्शन के कारण ही पाकिस्तान में तालिबान मूवमेन्ट पैदा हुआ। पाकिस्तानी देवबंदी मुसलमानों ने अब तक इस्लाम के नाम पर जितने आंदोलन पैदा किये हैं उसमें तालिबान मूवमेन्ट सबसे प्रमुख है। तालिबान के साथ ही देवबंदी इस्लाम के नाम पर और पंजाब की जमीन से लश्कर-ए-झांगवी, सिपाह-ए-शहाबा, तहरीक-ए-तालिबान जैसे आतंकी संगठन भी पैदा हुए हैं और लंबे समय से इस्लाम के नाम पर जेहाद को अंजाम दे रहे हैं। पाकिस्तान का बदनाम लश्कर-ए-तैयबा जेहादी समूह भले ही देवबंदी इस्लाम से ताल्लुक न रखता हो लेकिन वह इस्लाम के जिस अहल-ए-हदीठ मत का माननेवाला है वह भी पाकिस्तान में वही कर रहा है जो देवबंदी मुसलमान चाहते हैं। फिर, तालिबान और लश्कर दो ऐसे समूह हैं जिन्हें आईएसआई का खुला समर्थन हासिल है और दोनों ही कम से कम तब तक शांत नहीं बैठना चाहते जब तक पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान के बीच बसा भारत इस्लाम कबूल न कर ले।

पंजाब की शाहबाज सरकार ने जिस तरह से लश्कर-ए-झांगवी को मदद किया है और बदले में झांगवी इलेक्शन में पीएमएल-एन को सपोर्ट करता है उसी तरह हाफिज सईद द्वारा गठित जमात-उद-दावा को भी शाहबाज सरकार ने हर तरह से हमेशा मदद ही की है। पंजाब की शाहबाज सरकार ने अगर झांगवी के प्रमुख को कत्ल के सभी आरोपों में साफ्ट कार्नर लेकर जमानत पर छुड़वा दिया तो जमात उद दावा को 8.6 करोड़ रूपये मदद के नाम पर दे दिये, पूरी तरह सरकारी तौर पर। जमात उद दावा ने पिछले दो सालों में आईएसआई के पूर्व प्रमुख हामिद गुल की मदद से जो दिफा-ए-पाकिस्तान मूवमेन्ट चला रखा है उसकी तीन बड़ी रैलियां अकेले पंजाब प्रांत में हुई और पंजाब की शाहबाज सरकार ने इन रैलियों को सफल बनाने में हर संभव मदद की। यह आईएसआई के हामिद गुल ही थे जिनकी पहल पर नब्बे के दशक में पाकिस्तान में इस्लामी जम्हूरी इत्तेहाद का गठन करके 18 पार्टियां शामिल की गई थी। इन पार्टियों को बड़ी मात्रा में आईएसआई ने फण्ड दिये थे। आईएसआई से पैसा पानेवालों में मियां नवाज शरीफ की पार्टी पीएमएल-एन भी थी और समझा जाता है कि नब्बे के चुनाव में सिर्फ आईएसआई की बदौलत मियां नवाज शरीफ प्रधानंत्री बन सके थे। 1994 में आईएसआई के असद दुर्रानी ने पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर स्वीकार किया था कि मियां नवाज शरीफ की पार्टी को आईएसआई की ओर से 35 लाख रूपये कैश में दिये गये थे।

मियां नवाज शरीफ की पीएमएल-एन और हामिद गुल के रिश्तों की मिठास का ही नतीजा है कि इस बार भी आम चुनाव में हाफिद सईद के जमात उद दावा ने मियां नवाज शरीफ की पार्टी को अपना सपोर्ट किया है। दिफा-ए-पाकिस्तान को हामिद गुल खुलकर सपोर्ट कर रहे हैं। दिफा-ए-पाकिस्तान में जो 36 संगठन और समूह शामिल हैं उसमें सिपाह-ए-शहाबा और हरकत-उल-मुजाहिदीन तो है ही, लश्कर-ए-झांगवी के संस्थापक मलिक इशाक का वह दल 'अहले सुन्नत वल जमात' भी है जिसके साथ पीएमएल-एन ने चुनाव पूर्व गठबंधन करने की बात कही थी। जाहिर है, पाकिस्तान की जनरल असेम्बली इलेक्शन में नवाज शरीफ की भारी जीत के पीछे पाकिस्तान की आवाम तो है ही वे जमातें भी शामिल हैं जो आतंकी गतिविधियों के लिए जानी जाती हैं।

पंजाब वैसे भी पाकिस्तान में आतंक पैदा करने की सबसे उपजाऊ धरती है। जेहाद के लिए मुजाहिद तैयार करने की फैक्टरी सबसे अधिक पंजाब से ही चलाई जाती है। दीनी तालीम पर देवबंदी मुसलमानों का कब्जा, सेना तथा आईएसआई में पंजाबियों की बहुलता के कारण आतंक और पंजाबियत का जो गहरा रिश्ता विकसित होता है उसकी बदौलत पंजाब अपने आप आतंकियों को पैदा करनेवाली नर्सरी में तब्दील हो जाता है।

आतंक के इस इस पनाहगाह पंजाब का अभी तक सबसे बेहतर इस्तेमाल नवाज शरीफ की पार्टी पाकिस्तान मुस्लिम लीग ने ही किया है। 2007 में पाकिस्तान वापस लौटने के बाद मियां नवाज शरीफ के भाई शाहबाज शरीफ साल भर के भीतर 2008 में ही फिर से पंजाब प्रांत में वापसी कर लेते हैं तो सिर्फ इन्हीं आतंकी समूहों के ही बल पर। खुद मियां नवाज शरीफ खुलेआम इन आतंकियों का समर्थन भी करते रहे हैं और कई मौकों पर इनके प्रमुखों के साथ नजर भी आते रहे हैं (देखें फोटो)। इसलिए अगर मियां नलाज शरीफ बहुत शराफत से यह कहते हैं कि वे आतंकी गतिविधियों पर रोक लगाएंगे और भारत जैसे पड़ोसी देश के साथ संबंधों को मधुर बनाएंगे, तो यह कूटनीतिक रूप से पूरी तरह सही होने के बाद भी राजनीतिक रूप से पूरी तरह गलतबयानी है। पंजाब सहित पूरे पूर्वी पाकिस्तान में उन्हें जो समर्थन और सीटें हासिल हुई हैं उसमें अगर प्रगतिशील और आधुनिक मुसलमानों के वोट भी शामिल हैं तो उन कट्टरपंथियों ने भी शिया समुदाय के जरदारी की  बजाय देवबंदी सुन्नी मियां नवाज शरीफ को ही सपोर्ट किया हैं, जो कि पाकिस्तान में सबसे ताकतवर दीनी जमात है।

सत्ता संभालने के बाद व्यापारी शरीफ सिर्फ व्यापार और मधुर रिश्ते कायम करने पर कायम रहने की कोशिश करेंगे तो वे आतंकी जमातें एक बार फिर शरीफ को साफ कर देंगी जिनकी मदद से जीतकर वे सत्ता के शिखर तक पहुंचे हैं। अगर अमेरिका से मधुर रिश्तों की बात करते हुए भी वे द्रोन हमलों को रोकने की वकालत कर रहे हैं तो उनकी 'मजबूरी' साफ झलक रही है। जहां तक पड़ोसी भारत का सवाल है तो मियां नवाज शरीफ के लिए भारत विरोधी आतंकी समूहों पर लगाम लगा पाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन होगा। हो सकता है नवाज शरीफ भी अपने भाई शाहबाज की तर्ज पर यह कह दें कि आतंकी समूहों को मदद करने से कम से कम उनका इलाका इन हमलावरों से सुरक्षित रह जाएगा लेकिन ऐसा हो नहीं पाता है। 2008 से 2013 के दौरान सिर्फ सिंध और बलोचिस्तान ही आतंकी गतिविधियों का गवाह नहीं बना है। पंजाब में भी अल्पसंख्यकों के खिलाफ जमकर आतंकी वारदातों को अंजाम दिया गया है। अल्पसंख्यक ईसाईयों और मुसलमानों पर जमकर हमले हुए हैं। शाहबाज के शासनकाल में पंजाब में अल्पसंख्यकों के खिलाफ कट्टरपंथियों के जो हमले हुए हैं उसमें पिछले पांच साल में कम से कम 200 लोगों की जान गई है और हजारों घर बेघर कर दिये गये। पंजाब में होनेवाले आतंकी हमलों की जद में मुख्यरूप से ईसाई, अहमदी और शिया मुसलमान ही रहे हैं। लेकिन पांच सालों में पंजाब की शाहबाज सरकार ने दोषियों को दंडित करने की बजाय हमेशा ही उन्हें महिमामंडित किया। गोजरा में एक ईसाई परिवार के आठ सदस्यों को जिन्दा जला देनेवाली घटना में जिन 72 लोगों के खिलाफ एफआईआर की गई थी, पंजाब की शाहबाज सरकार ने उन सबको आरोप मुक्त कर दिया। क्या यह आतंकवाद पर लगाम लगाने का संकेत है?

जाहिर है, मियां साहब की अगुवाई में शासन का पंजाब पैटर्न ही अब फेडरल पाकिस्तान में दोहराया जाएगा। अगर छोटे भाई पंजाब के स्तर पर आतंकवाद को पालते पोसते हैं और अपने आपको सुरक्षित रखते हैं तो नवाज शरीफ इससे उलट जाकर कुछ कर लेंगे यह सोचना थोड़ा दूर की कौड़ी है। कारगिल घुसपैठ को लेकर नवाज शरीफ कुछ भी कहें लेकिन क्या कोई मान सकता है कि बार्डर पर इतनी बड़ी मूवमेन्ट हो गई हो और प्रधानमंत्री को पता ही न हो? शरीफ को पता था और संभवत: अंतरराष्ट्रीय बिरादरी की फजीहत और युद्ध से बचने के लिए उन्होंने इसका विरोध किया तो शरीफ सत्ता से ही बेदखल कर दिये गये। फर्ज करिए एक बार फिर वे ही आतंकी समूह भारत के खिलाफ जेहाद में शरीफ की मदद मांगेगे तो क्या नवाज शरीफ उन्हें रोक पायेंगे जिनके समर्थन की बदौलत वे सत्ता में आये हैं? अगर रोकने की कोशिश की तो क्या उनका फिर से वही हश्र नहीं होगा जो 1999 में हुआ था?

Monday, May 13, 2013

कामयाब हुआ कुफ्र

इस्लामिक देश पाकिस्तान में आखिरकार 'कुफ्र' कामयाब हुआ। वह कुफ्र जिसे दुनिया डेमोक्रेसी के नाम से जानती है। वह पाकिस्तान भी, जो अपने आपको दारुल इस्लाम कहता है। दारुल इस्लाम के इस देश में 'कुफ्र' की ऐसी कामयाबी बिल्कुल सीधी सपाट घोड़े पर सवार दनादन दौड़ लगाते हुए तो नहीं आई है। अटक अटक कर आई है। भटक भटक कर आई है। गिरते पड़ते ही सही दारुल इस्लाम के देश में कुफ्र ने कामयाबी का झंडा गाड़ ही दिया।

'कुफ्र' की इस कामयाबी पर जीत का साफा भले ही मियां नवाज शरीफ के सिर बंधा हो लेकिन कामयाबी के लिए 'मिस्टर टेन परसेन्ट' भी कम जिम्मेदार नहीं है। पाकिस्तान में करीब नौ साल के फौजी शासन के बाद सितंबर 2007 में बेनजीर भुट्टो और नवाज शरीफ दोनों ने घोषणा की कि वे पाकिस्तान लौट रहे हैं। दोनों लौटे भी लेकिन जिस जम्हूरिय के लिए दोनों नेता पाकिस्तान लौटे थे, उस जम्हूरियत का एहकाम आने से पहले ही दिसंबर 2007 में बेनजीर भुट्टो कत्ल कर दी गईं। हालांकि इसके बाद भी फरवरी 2008 के जनरल असेम्बली इलेक्शन हुए लेकिन मियां नवाज शरीफ की पार्टी दूसरे नंबर पर रही। सरकार बेनजीर विहीन पीपीपी ने बनाई और नवाज शरीफ ने सरकार चलाने का पूरा समर्थन दिया। उस वक्त पाकिस्तान में पक्ष विपक्ष जैसी कोई बात नहीं थी। उस वक्त सबसे जरूरी था पाकिस्तान में लोकतंत्र को लौटा लाना। जो लोकतंत्र पाकिस्तान के लिए मजाक बनकर रह गया है, उस लोकंत्र पर लोगों का विश्वास और लोगों के विश्वास पर लोकतंत्र की नींव मजबूत करना था। हालांकि जल्दी ही नवाज शरीफ की पार्टी और पीपीपी के रास्ते जुदा हो गये और दोनों ने एक दूसरे पर धोखा देने का आरोप लगाना शुरू कर दिया लेकिन 'कुफ्र' का आगाज तो हो चुका था।

अक्टूबर 2008 में जरदारी राष्ट्रपति चुन लिये गये और राष्ट्रपति बनने के बाद उन्होंने कई काम ऐसे किये जिसने पाकिस्तान में लोकतंत्र की नींव मजबूत की। अपने अतीत की छवि के उलट जरदारी ने सत्ता का विकेन्द्रीकरण शुरू किया और राष्ट्रपति के पास संग्रहित समस्त शक्तियों को कायदे के अनुसार संसद, मंत्रिमंडल और प्रधानमंत्री में वितरित करना शुरू कर दिया। उन्होंने कई ऐसे विधेयकों पर हस्ताक्षर किया जो सचमुच पाकिस्तान को लोकतांत्रिक बनाता था। मसलन, नवंबर 2009 में न सिर्फ उन्होंने राष्ट्रपति के पास सुरक्षित परमाणु शक्ति और उसको संभालनेवाली नेशनल कमाण्ड अथारिटी प्रधानमंत्री को सौंप दी बल्कि पाकिस्तानी संविधान का 18 संशोधन भी करवा दिया जिसने पाकिस्तानी राष्ट्रपति को लगभग शक्तिहीन कर दिया। इस संशोधन के बाद पाकिस्तानी राष्ट्रपति के पास से संसद भंग करने, सरकार को बर्खास्त करने और सैन्य प्रमुखों की नियुक्ति का एकाधिकार खत्म हो गया। न्यायपालिका को भी लोकंत्र में न्यायोचित दर्जा देने के लिए जरदारी ने संविधान के 19 वें संशोधन को मंजूरी दे दी जिसके बाद पाकिस्तान में चीफ जस्टिस की पोजीशन राष्ट्रपति के बराबर हो चली थी।

एक दिन वह बदलाव आयेगा। सभी लड़के और लड़कियां स्कूल जाएंगे। सब तरफ शांति होगी। (तालिबानी हमले का शिकार बनी मलाला युसुफजई का चुनाव के दिन दिया गया संदेश)

पाकिस्तान के जरदारी काल में यह कुछ ऐसे महत्वपूर्ण संशोधन थे जिन्होंने वहां लोकतंत्र में आस्था को मजबूत किया, सेना को लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत लाया गया और न्यायपालिका को मजबूती मिली। पाकिस्तान में आग अगर नवाज शरीफ की पार्टी को सत्ता में वापस लौटने का मौका मिला है और उन्हें सत्ता से बेदखल करनेवाले मियां मुशर्ऱफ सलाखों के पीछे बैठें हैं तो उसके मूल में ऐसे उपाय ही हैं जो जरदारी काल में किये गये। यह बात दीगर है कि पाकिस्तान में लोकतंत्र को मजबूत करनेवाली पीपीपी खुद अपने ही किये गये उपायों की शिकार हो गई, और पिछले असेम्बली इलेक्शन में 124 सीटें जीतनेवाली पीपीपी इस बार 33 सीटों पर सिमट गई है। लेकिन लोकतंत्र में हार जीत का यह खेल चलता रहता है। अगर लोकतांत्रिक प्रणाली मजबूत रहती है तो सत्ता और विपक्ष बदलते रहते हैं। जब प्रणाली ही कमजोर पड़ जाए तो न सत्ता बचती है और न ही विपक्ष। लेकिन पक्ष विपक्ष भी अगर निरंकुश हा जाएं तो तानाशाही को पैर पसारने का मौका मिल जाता है।

इसलिए पाकिस्तानी आम चुनाव को नवाज की जीत या फिर जरदारी की पार्टी के हार के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए। पाकिस्तान के भीतर एक पार्टी की हार और दूसरे की जीत कोई मुद्दा हो सकता है लेकिन दुनिया के लिए उससे बड़ा मुद्दा यह है कि पाकिस्तान में लोकतंत्र कामयाब हुआ है। इस्लामाबाद में तहिरुल कादरी की मांग के बाद चुनाव से पहले कार्यवाहक सरकार का गठन, ज्यूडिशियरी की सर्वोच्चता, पाकिस्तानी चुनाव आयोग द्वारा आमतौर पर 'शांतिपूर्ण मतदान' संपन्न करवाने की कवायद और जनरल कयानी द्वारा चुनाव को आंतरिक युद्ध घोषित कर लोकतंत्र को कामयाब करने की कोशिश कुछ ऐसे लक्षण हैं जो लंबे समय बाद पाकिस्तान में प्रकट हुए हैं। इसलिए भारत जैसे देशों के लिए नवाज की जीत और जरदारी की हार से ज्यादा महत्वपूर्ण उस लोकतंत्र की जीत है जिसे आतंक के तालिब न जाने कब से 'कुफ्र' घोषित किये बैठे हैं।

आज पाकिस्तान के जो हालात हैं, उन हालात में लोकतंत्र पाकिस्तान की जरूरत नहीं मजबूरी है। पाकिस्तान अपने निर्माण के पैंसठ छाछठ साल बाद ही सभ्यता के ऐसे मुहाने पर खड़ा नजर आता है जहां एक ओर आधुनिक दुनिया के साथ दो चार कदम आगे बढ़ने वाली कौम है तो दूसरी तरफ वह आवाम भी है जो अब तक धर्म और व्यवस्था के बीच अंतर नहीं कर पाई है। गहरे अर्थों में धर्म भी व्यवस्था ही है लेकिन वर्तमान समय में ऐसा संभव नहीं है। पाकिस्तान को इस्लामी व्यवस्था के आधार पर खड़ा करने का विरोध दुनिया में ही नहीं, खुद उनके अपने देश में दुनिया से ज्यादा हो रहा है। इस आम चुनाव में एक ओर जहां पाकिस्तान की कट्टरपंथी ताकतों ने अपनी पूरी ताकत लगाकर चुनावों को बेमानी साबित करने की कोशिश की तो वहीं दूसरी ओर उसी पाकिस्तान की नयी पौध ने लोकतंत्र को धार्मिक या फिर सैनिक तानाशाही से बेहतर साबित कर दिखाया है। पाकिस्तानी के बाहर और भीतर रहनेवाली नौजवान फौज ने सोशल मीडिया के जरिए पाकिस्तान के जनरल असेम्बली इलेक्शन को जिस तरह हाथों हाथ लिया है, उससे यह संकेत भी मिलता है कि पाकिस्तान के भीतर बहुत बड़ा वर्ग ऐसा है जो तबलीगी जमात बनकर नहीं जीना चाहती है। इस इलेक्शन में अगर 60 से 80 फीसदी के बीच वोटिंग हुई है तो जाहिर है जमातें कुछ भी कहें, जनता लोकतंत्र को कुफ्र नहीं मानती है। अब इस 'कुफ्र' के 'काफिरों' की जिम्मेदारी है कि वे आवाम की इस मेहर की मर्यादा बचाकर रखें।

Thursday, May 9, 2013

बांग्लादेश में ब्लडबाथ

सचमुच बांग्लादेश अपने 42-43 साल के इतिहास में दूसरी बार बहुत खूनी दौर से गुजर रहा है। 1971 के जिस खूनी संघर्ष से बांग्लादेश अस्तित्व में आया और पश्चिमी पाकिस्तान से अलग होकर स्वतंत्र बांग्लादेश बना, उसी इकहत्तर का भूत एक बार फिर बांग्लादेश के सिर पर सवार है। करीब तीन दशक बाद बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना वह काम कर रही हैं जो कम से कम तीन दशक पहले ही हो जाना चाहिए था। 1975 में पिता शेख मुजीब सहित पूरे परिवार की हत्या सिर्फ शेख हसीना के लिए व्यक्तिगत क्षति नहीं थी, बल्कि 71 की मुक्ति 75 में शेख मुजीफ की हत्या के बाद एक बार फिर गुलामी में तब्दील हो गई थी। 78 में बांग्लादेश के आर्मी चीफ जिया उर रहमान ने अपने आपको राष्ट्रपति घोषित करते ही सबसे पहला काम यही किया कि 71 के युद्ध अपराधियों और 75 में शेख मुजीफ की हत्यारों को अपराध मुक्त घोषित कर दिया। अब शेख हसीना सरकार द्वारा गठित विशेष अदालत उन्हीं दोषियों को चुन चुन कर सजा दे रही है जिन्हें बांग्लादेशी जनरल में मुक्त कर दिया था।

अगर उस वक्त उन लोगों को सजा देना आसान नहीं था, तो आज चौंतीस साल बाद भी जमात-ए-इस्लामी और अल बद्र के जेहादियों को सजा देना बहुत साहस का काम है। बुधवार को अल बद्र की हिंसक गतिविधियों में दोषी पाये जाने पर मोहम्मद कमरूज्जमा को जब फांसी की सजा सुनाई गई तो बांग्लादेश सरकार द्वारा गठित की गई विशेष ट्रिब्यूनल द्वारा यह चौथी सजा थी। इससे पहले बांग्लादेश के साथ धोखा करने, अल्पसंख्यकों का उत्पीड़न करने तथा लोगों की हत्या और लूट में दोषी पाये गये तीन लोगों को सजा सुनाई जा चुकी है। ये सब बांग्लादेश की जमात-ए-इस्लामी पार्टी से जुड़े हुए हैं।

लेकिन क्या इस सजा सुनवाई का बांग्लादेश में बहुत स्वागत हो रहा है? बांग्लादेश में स्वागत भी हो रहा है ब्लडबाथ भी चल रहा है। जैसे जैसे विशेष ट्रिब्यूनल फैसले सुनाती जा रही है बांग्लादेश में खूनी संघर्ष परवान चढ़ता जा रहा है। बांग्लादेश के शाहबाग आंदोलन की खबरें पूरी दुनिया में फैली जिसमें 71 के युद्ध अपराधियों को फांसी देने की मांग की गई और देश के नौजवानों तथा धर्मनिर्पेक्ष ताकतों ने लंबी लड़ाई लड़ी लेकिन धर्म निर्पेक्ष ताकतें भले ही थम गईं हो परन्तु लड़ाई रुकने का नाम नहीं ले रही है। बांग्लादेश की कट्टरपंथी इस्लामी ताकतें पूरा जोर लगा रही हैं कि वे एक बार फिर वह करने में कामयाब हो जाएं जो उन्होंने 71 में मुजीब का विरोध या फिर 75 में शेख मुजीब की हत्या करके किया था। लेकिन इस बार शेख हसीना भी कहीं से कमजोर पड़ती नहीं दिख रही हैं। एक तरफ जहां ट्रिब्यूनल का फैसला आ रहा है और उसका जमकर विरोध हो रहा है वहीं बांग्लादेश का अर्धसैनिक बल इन सांप्रदायिक विरोध को कुचलने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा है।

1971 के मुक्ति संग्राम का विरोध करनेवाले अल बद्र और रजाकार भले ही अतीत की बात हो गये हों, लेकिन उनको पैदा करनेवाले आका और उनकी औलादों से बांग्लादेश आज भी आजाद नहीं हुआ है। पाकिस्तान में सिर्फ सेना और आईएसआई ही नहीं हैं जिन्हें 71 का मुक्ति संग्राम आज भी शूल की तरह चुभ रहा है, पाकिस्तान के आतंकी संगठन भी बांग्लादेश का बदला न सिर्फ भारत से बल्कि बांग्लादेश से भी लेना चाहते हैं। हाफिज सईद तो खुलेआम बोलता है कि उसकी लश्कर को वह करना है जो पश्चिमी पाकिस्तान को पूर्वी पाकिस्तान से मिला सके। जाहिर है, ऐसी ताकतें बांग्लादेश में बिल्कुल चुप बैंठी होंगी, यह सोचा भी नहीं जा सकता। इसलिए इस बार मार्च महीने से ही जमात-ए-इस्लामी और उसके समर्थक छात्र शिबिर के अलावा एक और नया संगठन बांग्लादेश में ट्रिब्युनल के फैसलों का जमकर विरोध कर रहा है। उसका नाम है हिफाजत-ए-इस्लाम। यह हिफाजत-ए-इस्लाम कथित तौर पर उन्हीं रजाकरों (स्वयंसेवकों) और अल बद्र के लड़ाकों से प्रेरित मजहबी संगठन है जो बांग्लादेश को पाकिस्तान की तर्ज पर इस्लामी राष्ट्र बनाना चाहता है।
अगर जमात, छात्र शिबिर और हिफाजत-ए-इस्लाम के धर्मांध प्रदर्शनों और हिंसक गतिविधियों को किसी भी सूरत में जायज नहीं ठहराया जा सकता तो सरकार की ओर से प्रदर्शनकारियों के दमन को भी किसी भी सूरत में सही नहीं कहा जा सकता। 5-6 मई की आधी रात को हिफाजत के समर्थकों का अगर उसी तरह दमन किया गया है जिस तरह की खबरें छिपाई जा रही हैं तो निश्चित रूप से बांग्लादेश की शेख हसीना सरकार को आज नहीं तो कल अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के विरोध का सामना करना पड़ेगा। कुछ उसी तरह जैसे लिट्टे के सफाये का खामियाजा श्रीलंका को भुगतना पड़ रहा है।

हिफाजत-ए-इस्लाम ने हाल फिलहाल में ढाका कब्जा करने की एक नायाब योजना बनाई थी। उसके समर्थकों और प्रदर्शनकारियों ने मई की शुरूआत में ही पूरे ढाका को कई हिस्सों में घेर लिया था। हालांकि यह प्रदर्शनकारी बांग्लादेश में कठोर ईश निंदा कानून और शरीयत लागू करने की बात कर रहे थे लेकिन साथ ही बांग्लादेश ट्रिब्यूनल द्वारा जमात के नेताओं को दी जा रही सजा का विरोध भी कर रहे थे। हिफाजत-ए-इस्लाम के प्रदर्शनकारियों ने 'सीज ढाका' का जो अहिंसक अभियान शुरू किया था उसका आखिरी मकसद संभवत: ढाका मैं बैठी सरकार को नेस्तनाबूत कर देना था। अगर ऐसा था तो निश्चित तौर पर यह एक खतरनाक मंसूबा था जिसके जवाब में बांग्लादेश सरकार ने 5-6 मई की आधी रात में वह किया, जो शेख मुजीब राष्ट्रपति रहते नहीं कर पाये थे।

औपचारिक खबर यह है कि 5-6 मई की आधी रात को ढाका में हिफाजत-ए-इस्लाम के इन प्रदर्शनकारियों पर बांग्लादेश सरकार ने क्रैकडाउन करते हुए शांतिपूर्वक तरीसे उनके प्रदर्शनों को तितर बितर कर दिया। कुछ खोजी खबरनवीस इतना बता रहे हैं कि इस तितर बितर करनेवाले कार्यक्रम में हिफाजत-ए-इस्लाम के 5 से 10 लोग मारे भी गये। लेकिन कुछ स्वयंसेवी समूह, और मानवाधिकार संगठन जो जानकारी दे रहे हैं वह बांग्लादेश में ब्लडबाथ की ही नहीं बल्कि बांग्लादेश सरकार पर मंडराते संकट की तरफ भी इशारा कर रहा है। ऐसे समूहों द्वार जो रिपोर्ट तैयार की गई है उसमें बताया गया है कि 5-6 मई की आधी रात बांग्लादेश सरकार ने करीब 10 हजार पुलिस और अर्धसैनिक बल लगाकर हिफाजत के लोगों का कत्लेआम करवा दिया। इस रिपोर्ट का दावा है कि इस आधी रात को अकेले ढाका में 400 से 2,500 के बीच, लोगों को सरेआम गोली मार दी गई। सबसे ज्यादा हिंसक दमन बांग्लादेश के मोतीझील इलाके में हुई जहां बड़ी संख्या में हिफाजत के प्रदर्शनकारी जमें हुए थे। सैकड़ों की संख्या में प्रदर्शनकारी मारे गये, हजारों की तादात में घायल हुए। यानी, इस एक अकेली रात में हिफाजत-ए-इस्लाम और बांग्लादेश सरकार के बीच ऐसी हिंसक झड़प हुई है जो किसी कत्लेआम से कम नहीं है।

यानी, बांग्लादेश में इस वक्त ऐसा कुछ जरूर चल रहा है जो सिर्फ बांग्लादेश ही नहीं बल्कि उसके पड़ोसी भारत के लिए भी खतरे की घंटी है। अगर जमात और हिफाजत जैसे चरमपंथी संगठन बांग्लादेश में इतने ताकतवर हो चले हैं कि ढाका कब्जा करने की योजना बना रहे हैं, और उस पर अमल लाने के लिए लाखों लोगों के साथ ढाका पहुंच रहे हैं तो निश्चित ही उनके पीछे कोई न कोई ऐसी ताकत काम कर रही है जिसे स्वतंत्र बांग्लादेश का अस्तित्व पसंद नहीं है। इसलिए यह सिर्फ बांग्लादेश का आंतरिक मामला हो, ऐसा भी नहीं है। बांग्लादेश इस वक्त इतिहास के ऐसे मोड़ पर खड़ा है जहां उसे कट्टरपंथ और उदार लोकतंत्र में से किसी एक को चुनना है। शाहबाग आंदोलन जहां उसे उदारवादी और लोकतांत्रिक राष्ट्र की तरफ आगे बढ़ने के लिए प्रेरित कर रहा है वहीं पश्चिमी पाकिस्तान के बूते एक बड़ा वर्ग बांग्लादेश में अब भी सक्रिय दिख रहा है जो कम से कम बांग्लादेश को उसी तरह कट्टर इस्लामी राष्ट्र बनाना चाहता है जैसा आज का पाकिस्तान है। निश्चित रूप से ऐसे विचार को हवा देकर पश्चिमी पाकिस्तान भारत को घेरने की लंबी योजना पर काम कर रहा है लेकिन ऐसी योजनाओं का दुष्परिणाम खुद बांग्लादेश भुगत रहा है। अगर हम उन खबरों को खारिज न करें कि एक काली रात में बांग्लादेश के सुरक्षा बलों ने ढाई हजार लोगों को कत्ल कर दिया तो क्या यह कत्लेआम बांग्लादेश के हित में है?

शेख मुजीब ने ढाका की जिस सरजमी पर 7 मार्च 1971 को दिये भाषण में जय बांग्ला का नारा देकर अपने अस्तित्व का अहसास कराया था, उस बांग्लादेश का बांग्ला चरित्र ही खत्म हो जाए तो यह भला किसके हित में होगा? उन हिफाजत-ए-इस्लामियों के हित में भी नहीं जो हिंसा और प्रतिहिंसा का अन्तहीन सिलसिला चला रहे हैं। भारत को भी चाहिए कि वह देश के भीतर ही नहीं बल्कि देश के बाहर भी मजहबी ताकतों को कमजोर करने के लिए 'सक्रिय भूमिका' की जरूरी जिम्मेदारी को जरूर निभाए। अन्यथा ऐसे खूनी संघर्ष के छीटे आज नहीं तो कल भारत के दामन पर 'गहरे दाग' जरूर बन जाएंगे।

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