Sunday, October 20, 2013

आप का सर्वे, आपकी सरकार

सिसरो एसोसिएट भी किसी नयी बला का ही नाम है जो भारत में लोकतंत्र को सुधारने की दिशा में काम करने के लिए नयी नयी मैदान में आई है। पिछले दो आम चुनावों से कारपोरेट अंदाज में पूंजीखोरी के लिए लोकतंत्र का भला करने का जो चलन शुरू हुआ यह उसी कड़ी में एक और नाम लगता है। इधर दो चुनावों से जब से यह जुमला ज्यादा प्रचलित हो चला है कि राजनीति सबसे बड़ा व्यापार है, कारपोरेट घरानों को नाना प्रकार के लोकतांत्रिक हित समझ में आने लगे हैं। सर्वे, ओपिनियन पोल, सोशल मीडिया पर ब्रांडिंग, कैम्पेन के नाना रूपों और रंगों को रंग रोगन करने जैसे कामों को लोकतंत्र और ओपिनियन मेकिंग के लिए जरूरी मानकर कारपोरेट कंपनियों की पहल पर लोकतंत्र का भला करने के लिए कुकुरमुत्तों की तरह सैकड़ों चुनावी दुकानें खुल गई हैं। राजनीतिक कार्यकर्ता अब सिर्फ नारा लगाने के काम में शेष रह गये हैं। बाकी सारा काम धीरे धीरे इलेक्शन मैनेजमेन्ट के जिम्मे होता जा रहा है। लोकतंत्र को मजबूत करने का यह नया प्रयास लोकतंत्र को कितना कमजोर करेगा इसका अंदाज लगाना ज्यादा मुश्किल नहीं है लेकिन अभी तो सिर्फ सिसरो एसोसिएट के जरिए उस आप की चर्चा जिसने अपने ही सर्वे में अपने आपको दिल्ली का सरताज घोषित कर दिया है।

सामान्य परिस्थिति में अगर यह सर्वे सामने आता तो खबर बनाने की बजाय शायद हम इस सर्वे की खबर लेते कि भला कौन सी ऐसी पार्टी है जो अपना सर्वे सार्वजनिक करे और यह न कहे कि उसकी सरकार नहीं बन रही है? अरविन्द केजरीवाल जिस सर्वे के हवाले से अपनी सरकार बनाने का दावा कर रहे हैं वह उन्हीं की पार्टी द्वारा उन्हीं की चहेती कंपनी ने करवाया है जिसका नाम सिसरो एसोसिएट है। सिसरो एसोसिएट से कौन कौन जुड़ा है यह जानने जब हम उसकी वेबसाइट पर पहुंचे तो "प्रोफाइल" पेज अंडर कंस्ट्रक्शन था लेकिन योगेन्दर यादव खुद आगे आये हैं इसलिए इस बात की पूरी संभावना जताई जा सकती है कि सिसरो का कुछ न कुछ योगेन्दर कनेक्शन जरूर होना चाहिए। योगेन्दर सर्वे सिंडिकेट के बेताज सरताज हैं। सीएसडीएस में रहते हुए उन्होंने अपने सर्वेक्षणों के जरिए अभी तक कमोबेश सटीक नतीजे ही दिये हैं और सरताज के सर्वे नतीजों पर सबको कमोबेश भरोसा होता रहा है।

लेकिन सरताज के कहने पर भी सिसको के सर्वे पर एकबारगी भरोसा इसलिए नहीं हो रहा है कि यह उन्हीं के लिए उन्हीं के द्वारा उन्हीं का सर्वे है। सिसको के धनंजय जोशी या सुनीत माथुर वैसे भी इतने जाने पहचाने नाम नहीं है कि मनमानी रिजल्ट देने से पहले बहुत सोच विचार करें। इसे जनमत इसलिए नहीं माना जा सकता क्योंकि इसमें थर्ड पार्टी इंटरवेन्शन (तीसरे पक्ष की सहभागिता) कहीं नहीं है। पार्टियों द्वारा जो आंतरिक सर्वे होते हैं उसके नतीजे तब भी सार्वजनिक नहीं किये जाते जबकि वे अपने ही द्वारा करवाये गये सर्वे में जीत रहे होते हैं। (विजय गोयल जैसे लोगों द्वारा प्रायोजित सर्वे की बात दूसरी है।) वैसी परिस्थिति में भी जीत जाने का दावा किया जाता है अपने ही द्वारा किये गये सर्वे का हवाला नहीं दिया जाता। क्योंकि यह लोकतंत्र के लिए सामान्य परिस्थिति नहीं है इसलिए अब हम सवाल उठाने की बजाय सवाल दबा रहे हैं। मामला मोदी और अरविन्द केजरीवाल से जुड़ा हो तो वैसे भी हमारे सारे सवाल बेमतलब और बेमानी हो जाते हैं।

जैसे प्रचार कंपनियों के जरिए मोदी पूरे देश में छा जाने की कोशिश कर रहे हैं कुछ कुछ उसी तर्ज पर अरविन्द केजरीवाल ने दिल्ली में अपने आपको स्थापित करने की कोशिश की है। कितने स्थापित हुए हैं यह तो वक्त बताएगा लेकिन उनकी ओर से कोशिश में कोई कमी नहीं है। यह अरविन्द केजरीवाल ही थे जिन्होंने पार्टी सबसे बाद में बनाई लेकिन दिल्ली में टिकट का बंटवारा सबसे पहले शुरू किया। यह अरविन्द केजरीवाल ही थे जिन्होंने दिल्ली के आटोरिक्शावालों के पिछवाड़े शीला दीक्षित को गाली देते हुए से पोस्टर लगवाये। उनके प्रचार अभियान का एक महत्वपूर्ण हिस्सा यह बना कि उन्होंने अपनी अच्छाइयों का प्रचार करने की बजाय शीला दीक्षित की बुराइयों का घोषित प्रचार शुरू किया। पोस्टर बैनर लगाकर। दिल्ली की राजनीति में अरविन्द केजरीवाल के कुछ दुस्साहसिक प्रयोगों में एक प्रयोग यह भी था कि दिल्ली में किसी सर्वे के हवाले से उन्होंने यह घोषणा भी कर दी थी कि वे दिल्ली के सबसे पसंदीदा मुख्यमंत्री बन चुके हैं।

अगर अरविन्द का यह सर्वे बिल्कुल सही और सटीक है, योगेन्दर यादव की मौजूदगी के कारण, तो उस सर्वे का क्या जो भाजपा ने करवाया है। विजय गोयल के सर्वे में तो वे दिल्ली के सबसे लोकप्रिय मुख्यमंत्री बनकर उभर रहे हैं और उनके काबिल नेतृत्व के कारण दिल्ली में भाजपा को 37 फीसदी मत मिल रहा है। दूसरे नंबर पर कांग्रेस है जिसे 34 फीसदी मत मिल रहा है। विजय गोयल के सर्वे में अरविन्द की पार्टी को दिल्ली में महज 6 प्रतिशत मत मिल रहा है। जबकि अरविन्द के अपने सर्वे में वे अपनी पार्टी को 32 फीसदी वोट दे रहे हैं। तो इस सर्वे युद्ध में कौन सही बोल रहा है? या फिर कोई सही नहीं बोल रहा है?

यानी आप आगे क्या सोचेंगे इसका निर्धारण अरविन्द केजरीवाल अपने विज्ञापनों से पहले ही सुनिश्चित कर देते हैं। वे कितनी सीट पायेंगे यह तो उनके सर्वे बता ही देते हैं, वे मुख्यमंत्री के बतौर शपथ कहां लेंगे इसकी भी जानकारी वे तब दे देते हैं जबकि बाकी दलों ने अपने अपने प्रत्याशियों तक की घोषणा न की हो। अरविन्द की इसी आक्रामकता के कारण उन्होंने पिछले तीन सालों में वह मुकाम हासिल कर लिया है जो उनके विरोधियों को सिर्फ उनकी आलोचना करने का मौका देता है, वे उनको कोई नुकसान नहीं पहुंचा सकते। ऐसी आक्रामकता हमेशा तब आती है जब आप बहुत गहरे आत्मविश्वास से भरे हों। लेकिन यही गहरा आत्मविश्वास कभी कभी आपको बहुत सूक्ष्म में अहंकार से भरना शुरू कर देती है जो धीरे धीरे आत्मविश्वास को घोर अहंकार में तब्दील कर देती है। हमारे दौर के नरेन्द्र मोदी हों कि अरविन्द केजरीवाल दोनों ही इसी सूक्ष्म अहंकार से पीड़ित प्राणी नजर आते हैं।

अगर ऐसा नहीं होता तो अरविन्द केजरीवाल एकबार को ही सही अपनी ही पार्टी द्वारा करवाये गये सर्वे में अपनी पार्टी को सबसे बड़ी पार्टी का दर्जा दिलवाने से खुद को बचाते। हो सकता है उनका सर्वे सही भी हो लेकिन क्योंकि अपनी जीत का दावा किसी ऐसे माध्यम के जरिए वे खुद कर रहे हैं जो माध्यम कभी भी दलों के दायरे में नहीं हुआ करता तो उनका दावा आत्मविश्वास से ज्यादा अहंकारी दिखाई देता है। ऐसा नहीं है कि अरविन्द केजरीवाल और उनकी टीम इस हकीकत को नहीं जानती होगी लेकिन वे सब कुछ जानते हुए भी अगला एजेण्डा सेट कर रहे हैं। अगर आप सर्वे देखेंगे तो पायेंगे कि अरविन्द ने बड़ी चालाकी से अपने आपको दिल्ली की सबसे बड़ी पार्टी घोषित कर दिया है। कुछ कुछ उसी तरह जिस तरह से अपने सर्वे के सहारे विजय गोयल ने अपने आपको दिल्ली का सबसे लोकप्रिय मुख्यमंत्री घोषित कर दिया है। खबर में उनकी ओर से यह प्रचारित किया गया कि उनकी पार्टी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभर रही है, लेकिन उनके सर्वे में ही साफ साफ कहा गया है कि वे सीधे तौर पर 21 सीटें सीधे तौर पर जीत रहे हैं जबकि 12 सीटों पर उन्हें मार्जिनल विक्ट्री मिल रही है। 21 सीटों पर उन्हें न्यूनतम रूप से हार का सामना करना पड़ रहा है। यानी अगर टोपीवालों ने मेहनत किया तो पार्टी की टीआरपी इतनी हाई हो जाएगी कि दिल्ली में आम आदमी पार्टी के अलावा और बाकी दलों की जमानत जब्त हो जाएगी।

क्या सचमुच ऐसा हो जाएगा? लगता इसलिए नहीं है कि जिस दिन आप पार्टी का अपना सर्वे सामने आया है उसी दिन बाप पार्टी (भाजपा) का भी एक सर्वे सामने आया है। इस सर्वे में नतीजा निकाला गया है कि दिल्ली में विजय गोयल सबसे पसंदीदा मुख्यमंत्री बन गये हैं। दिल्ली की 20 प्रतिशत जनता चाहती है कि विजय गोयल मुख्यमंत्री बनें जबकि 12 प्रतिशत जनता अरविन्द केजरीवाल के पक्ष में है। विजय गोयल द्वारा प्रायोजित भाजपा का सर्वे यह भी कह रहा है कि उसे दिल्ली में 39 सीटें मिल रही हैं जबकि आम आदमी पार्टी को महज 2 सीटें मिल रही हैं। वह दिल्ली में भाजपा के नहीं बल्कि बसपा के बराबर बैठ रही है। और मजेदार बात यह है कि अरविन्द के 34 हजार सैंपल सर्वे के मुकाबले विजय गोयल ने 71 हजार लोगों के सैंपल सर्वे के जरिए ये नतीजे निकाले हैं। तो क्या भाजपा के इस सर्वे को दिल्ली में आनेवाले जनादेश का रुख मान लिया जाए? अगर विजय गोयल अरविन्द केजरीवाल से मीलों आगे जाकर दिल्ली की जनता की पसंद हो सकते हैं तो निश्चित रूप से आम आदमी पार्टी भाजपा से भी बड़े दल के रूप में उभर सकती है। लेकिन अगर ऐसा नहीं है तो वैसा भी नहीं है जैसा कि अरविन्द केजरीवाल एण्ड कंपनी दावा कर रही है। आप का सर्वे है, आप जो चाहें वह नतीजा निकाल सकते हैं। कोई क्या कर सकता है?

Friday, October 11, 2013

लीलाधरों की लीला का लंकादहन

लालकिला मैदान में बगल से जानेवाले रास्ते को रोक दिया गया है। पुलिसवाले किसी भी गाड़ी को अंदर नहीं जाने दे रहे हैं। वीवीआईपी पास होने के बाद भी। पुलिसवालों का कहना है कि आज बहुत भीड़ हो गई है। कल तक जो पार्किंग सौ गाड़ियों के लिए तरसती थी, आज वहां हजार से ज्यादा गाड़िया ठसाठस भरी हुई है। पुलिसवाले भी हैरान थे कि न जाने कहां से और क्यों आज इतने लोग आ गये। काफी देर बाहर ही रोकने के बाद आखिरकार उसने इस शर्त पर अंदर जाने की बात कही कि एक बार हेमा मालिनी को चले जाने दीजिए, रश कम हो जाएगा। उसके बाद जाने देंगे। लेकिन वह नौबत नहीं आई। हेमा मालिनी के बाहर गये बिना ही उसने जिन कुछ गाड़ियों को अंदर जाने दिया उसमें हम रामभक्त भी शामिल थे।

कुछ लाल पीली बत्ती गाड़ियां आ जा रही थीं लेकिन लालकिले पर सजनेवाली दिल्ली की प्रसिद्ध लवकुश रामलीला कमेटी का लंका दहन हो चुका था, फिर भी लीला जारी थी। मंच पर हेमा मालिनी अभी भी मौजूद थीं। उनके आस पास लीलाधर लोगों की भीड़ लगी हुई थी। अग्रवाल जी, शर्मा जी, गुप्ता जी, जैन साहब सभी लीलाधर मौका मिलने पर बारी बारी से हेमा मालिनी को लीला का महत्व समझा रहे थे और लंका दहन के बाद का आइटम सांग भी देख रहे थे। नव सभ्यता में जो नाच रहे थे उन्हें डीजे कहा जा सकता है। एक ही सुर में कई सुरूर। जिसमें चेन्नई एक्सप्रेस का लुंगी डांस भी शामिल था और गणपति उत्सव का बप्पा मोरया भी। पलक झपकते धुन बदल रही थी लेकिन नाचनेवाले लड़के और लड़कियां न जाने लंका दहन की खुशी में या फिर हेमा मालिनी की मौजूदगी की वजह से, उत्साह में दोहरे हुए जा रहे थे। ज्यादातर मोबाइल कैमरे इस अभूतपूर्व क्षण को अपने कैमरे में कैद कर रहे थे और जनता खचाखच खड़ी होकर लंकादहन के इस देहदर्शना उत्सव का भरपूर आनंद ले रही थी।

हम ज्यादा देर तक इस लुंगी डांस में शरीक नहीं रह सकते थे और न ही अग्रवाल जी, गुप्ता जी या जैन साहब की तरह हेमा मालिनी को निहार सकते थे क्योंकि अभी भी बगल की समानधर्मी नवधार्मिक लीला कमेटी का लंका दहन होना बाकी था। दिल्ली में अकेले लालकिला परिसर में तीन रामलीला होती है। परेडग्राउण्ड की धार्मिक लीला कमेटी। लाल किले की नवधार्मिक और लवकुश रामलीला कमेटी। एक ही परिसर में तीन तीन रामलीला राम जी की भक्ति है या फिर आपस की तनातनी इसे समझने के लिए आपसी झगड़ों की गहरी खाईं को लांघना पड़ेगा लेकिन तीनों ही लीला बहुत धार्मिक भाव से एक सप्ताह तक राम की लीला का मंचन करती हैं। इन तीनों लीला कमेटियों में नवधार्मिक लीला कमेटी की रामलीला सबसे कमजोर इसलिए जाती है क्योंकि वे लोग अभी तक न तो डीजे डांस तक पहुंच पाये हैं और न ही दशहरे के दिन प्रधानमंत्री उनके रावण को जलाने के लिए आते हैं। शायद लवकुश लीला कमेटी के हेमामालिनी का दबाव था या फिर कारण कुछ और। उन्होंने लवकुश लीला के लंकादहन का इंतजार किया। अब उनकी लंका में आग लगनेवाली थी, इसलिए हम टेंट का एक दरवाजा पार करके उस तरफ हो गये।

टेंट के उस पार रावण का दरबार सजा था। हनुमान लंका में प्रवेश कर चुके थे और रावण उन्हें पकड़ने के लिए अशोक वाटिका में अपने रणबाकुरों को भेज रहा था। अक्षय कुमार के निधन की सूचना के बाद मेघनाथ को भेजा गया। मेघनाथ हनुमान को पकड़कर दरबार में ले आते हैं। अब रावण और हनुमान में कुछ संवाद हो रहा है। संवाद अदायगी अच्छी है और सबकुछ डब किया हुआ है इसलिए संवाद में कहीं कोई त्रुणि या दोष नहीं है। लेकिन सामने बैठी और खड़ी जनता रामलीला मंच की बजाय उस सोने की लंका की तरफ टकटकी लगाये देख रही है जहां अब थोड़ी ही देर में लंका दहन होनेवाला है। क्योंकि घासफूस और चमकदार पन्नियों के समायोजन से सोने की वह लंका बिल्कुल मंच के सामने बनाई गई है इसलिए लोग मंच की तरफ देखने की बजाय लंका की तरफ ही देख रहे हैं। छुटपुट आतिशबाजी उनको निराश भी नहीं कर रही है। इसलिए रावण हनुमान संवाद को लेकर दर्शकगण बिल्कुल भी चिंतित नहीं है, उनकी चिंता सिर्फ लंका दहन को लेकर है। इस चिंता को दूर करने के लिए धर्मपारायण लाला जी बच्चों को पुरानी दिल्ली की मशहूर चाट खिलाकर शांत रखे हुए हैं। वैसे भी लीलाओं के लिए बंटे पास में विशेष रूप से इस बात का जिक्र किया गया है कि अगर आप लीला देखने आते हैं तो पुरानी दिल्ली की मशहूर चाट का स्वाद चखने का मौका मिलेगा।

आखिरकार वह समय आ ही गया जब रावण ने हनुमान की पूछ में आग लगाने का हुक्म दे दिया। अपने एक हाथ में पूछ रूपी मशाल थामे हनुमान मंच से नीचे उतर आते हैं और कुछ सहयोगियों के साथ पुआल, चमकीली पन्नियों से बनाई उस सोने की लंका की तरफ आगे बढ़ते हैं जिसमें आग लगाने के बाद उसमें रखे पटाखे फोड़ने का पावन कर्म करेंगे और दर्शकगण का इंतजार खत्म करेंगे। अब वीवीआईपी दर्शकदीर्घा में खड़ी, बैठी कुछ महिलाओं को याद आता है कि रामायण में हनुमान भी होता है जो लंका में आग लगाता है, तो सहसा उनके मुंह से निकलता है, इस बार हनुमान तो बहुत मोटा है। हनुमान ऐसी टिप्पणियों से बिना प्रभावित हुए लंका में आग लगाने आगे बढ़ जाते हैं और फाइनली उस लंका तक पहुंच ही जाते हैं जिसका दहन देखने के लिए आज इतनी भीड़ भरभराकर दौड़ी चली आई है।

घासफूस से बनी उस स्वर्णलंका में मशाल घुसाते ही पटाखों की तेज आवाज से पूरा वातावरण पटाखामय हो जाता है। हर हाथ अगल बगल से भागकर कानों को अपनी सुरक्षा के घेरे में ले लेते हैं। इधर जब तक लंकादहन जारी है, उधर हनुमान अपने साथियों संग फिर से मंच की तरफ अग्रसर हो जाते हैं। लोग लंकादन में डूब जाते हैं और हनुमान मंच पर पहुंचकर बाकी लीला को पूरा करने में व्यस्त हो जाते हैं। लंका दहन के बाद उन्हें राम नाम का कीर्तन करना है। वे कर भी रहे हैं, जो रामधुन बज रही है, वह सचमुच बहुत चित्ताकर्षक है। लेकिन किसी को हनुमान के राम नाम में कोई खास इंटरेस्ट नहीं है। वैसे भी 'मोटा हनुमान' डांस में उस डीजे डांस की बराबरी भी तो नहीं कर सकता जो लवकुश वाले करवाते हैं।

लीलाधरों की लीला का इससे अच्छा लंकादहन और क्या हो सकता है?

Thursday, October 10, 2013

कांग्रेस की कमजोर कड़ी

कौन क्या बोल रहा है इसका महत्व इस बात से तय होता है कि वह कहां से बोल रहा है। अगर बोलनेवाला बहुत ऊंचे से बोल रहा है तो बोलने की बाकी विशेषताओं का विश्लेषण धरा रह जाता है और सिर्फ यह देखा जाता है कि वह क्या बोल रहा है। ऐसा शायद इसलिए क्योंकि वहां जहां खड़ा होता है वहां उसको सुननेवालों को आकर्षित करने के लिए उसका पद और प्रतिष्ठा पर्याप्त होती है इसलिए उसे बाकी किसी कला के इस्तेमाल की जरूरत नहीं रह जाती है। लेकिन बोलने वाला ऐसे किसी ओहदे पर न हो तो बोलनेवाले को बहुत तराजुओं पर तौला जाता है। उसका कथ्य। उसका कथानक। उसकी शैली। उसके शब्द। उसके शरीर की भाव भंगिमा और सबसे आखिर में यह कि वह जो बोल रहा है, वह कितना समयानुकूल है। राहुल गांधी के रामपुर और अलीगढ़ में दिये गये भाषणों की बहुचर्चा के बीच अगर आप उन भाषणों के अंशमात्र भी स्रोता बन पायें होंगे तो आपके लिए भी मुश्किल यही होगी कि राहुल के भाषण का आंकलन किस पैमाने पर करें?

राहुल गांधी की ओहदेदारी ऊंची है, इसमें कोई शक नहीं हो सकता। वर्तमान समय में देश की सत्ताधीश कांग्रेस पार्टी में अध्यक्ष से पहलेवाले उपाध्यक्ष हैं। सोनिया गांधी अपनी घोषणा पर अडिग रहीं तो 2016 के बाद राहुल गांधी ही कांग्रेस के दस जनपथ हो जाएंगे। इसलिए आज वे जो बोल रहे हैं, एक ओहदे से बोल रहे हैं। और ओहदा भी कोई ऐसा वैसा नहीं। कांग्रेस का भावी कर्णधार। इसलिए उनके बोलने में हमें हमेशा यह ध्यान रखना होता है कि वे क्या बोल रहे हैं। कैसे बोल रहे हैं इसका आंकलन दूसरे नंबर पर आता है।

इस लिहाज से अगर बुधवार को राहुल गांधी की रामपुर और अलीगढ़ में दो संक्षिप्त रैलियों में दिये गये उनके भाषणों को परखें तो बातें उन्होंने बड़ी कहीं, लेकिन कहने का अंदाज ऐसा था कि वे बड़ी बातें भी छोटी ही लगीं। मसलन, दंगे हुए नहीं करवाये गये। अगर कांग्रेस का कर्णधार यह बात बोलता है तो राजनीतिक रूप से यह बड़ी बात है, लेकिन जब राहुल गांधी के मुंह से यह बात सुनाई पड़ती है तो बचकानी सी लगती है। वह शायद इसलिए कि बड़े ओहदेदार के बोलते समय हमारी मानसिकता बोलने में उस बड़पप्पन की खोज करती रहती है जो किसी व्यक्ति को नेता और नेतृत्व बना देता है।

राहुल गांधी के एक दशक की एक दशक की राजनीतिक ट्रेनिंग के बाद भी वे कमोबेश वहीं खड़े नजर आते हैं जहां से उन्होंने ट्रेनिंग लेने की शुरूआत की थी। ऐसे में एक दशक की यात्रा के बाद राहुल गांधी नेतृत्व हो गये हैं इस बात की संभावना कांग्रेस को भले ही दिखाई दे रही हो लेकिन फिलहाल अभी तो वे नेता होने की ही प्रक्रिया पूरी नहीं कर पाये हैं।

राहुल गांधी के शुरूआती दिनों के भाषणों की अगर आपको याद हो तो आप आसानी से याद कर सकते हैं कि राहुल गांधी बहुत सीखनेवाली शैली में भाषण दिया करते थे। उनको सुनते हुए लगता था मानों वे कुछ सीखकर आये हैं और उनकी कोशिश होती थी कि जो सीखकर आयें हैं वह पूरा बोल पायें। इसलिए उनके भाषणों में नौसिखिएपन की वह हड़बड़ाहट साफ झलकती थी जो किसी भी नौसिखिए में होती ही है। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान उन्होंने यूपीवालों को मुंबई में भीख मांगने की नौबत न आने देने की जो दलील दी थी, उस दलील में जान थी लेकिन न तो उनके कहने का अंदाज ऐसा था कि उससे एक आम यूपीवाला अपने आपको जोड़ पाता और न ही यह नजर आया कि यह कहते हुए खुद राहुल गांधी उस दर्द को बहुत गहरे में समझ सकते हैं। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव तक उनकी छवि एक ऐसे व्यक्ति की बन चुकी थी जिसके बारे में कांग्रेस बार बार कह रही थी अब वही देश का भविष्य होने जा रहे हैं। लेकिन आम आदमी के मन मष्तिष्क में खुद राहुल गांधी के भाषण कांग्रेसियों की इस दलील की चुगली कर देते थे।

कांग्रेस राहुल गांधी का प्रचार करे यह कांग्रेस और राहुल गांधी दोनों के लिए फायदे का सौदा है। लेकिन अगर कांग्रेस के प्रचार का जिम्मा राहुल गांधी को सौंप दिया गया तो कांग्रेस भी घाटे में रहेगी और राहुल गांधी भी। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में राहुल गांधी की राजनीतिक शिकस्त ने उन्हें राजनीतिक रूप से जितना महत्वहीन साबित कर दिया था, राहुल गांधी के एक वाक्य ने उनमें गजब की संभावना दिखा दी थी। यह एक वाक्य किसी रैली में नहीं बोला गया था बल्कि दिल्ली के दस जनपथ में पत्रकारों के सामने बोला गया था। बहन प्रियंका के साथ मीडिया से मिलने आये राहुल गांधी ने अपनी हार को स्वीकार कर लिया था। कांग्रेस की राजतिलक वाली राजनीति में राहुल गांधी द्वारा हार को स्वीकार करनेवाले इस एक वाक्य ने उन्हें एकदम से एक नयी संभावना से भरा नेता साबित कर दिया। अगर राहुल गांधी जनता के सामने आकर अपनी हार को स्वीकार नहीं करते तो वे कांग्रेस की उसी राजतिलक वाली राजनीति का हिस्सा हो जाते जिसका बोला गया हर वाक्य ब्रह्मवाक्य होता है और कांग्रेसी नेता उसे ही देश का भविष्य साबित करके अपनी राजनीतिक दुकानदारी करते हैं। राहुल गांधी ने शायद यहां कांग्रेसी रणनीतिकारों की वह सलाह नहीं मानी होगी जब राजकुमार से हार स्वीकार न करने का दबाव बनाया गया होगा। निश्चित रूप से वह राहुल गांधी का स्वविवेक रहा होगा, इसीलिए हार का वह स्वीकार कांग्रेस की जीत से भी बड़ा बना रहा था।

लेकिन शायद कांग्रेस की राजनीति में दस जनपथ के पास स्वविवेक से निर्णय लेने का बहुत कुछ अधिकार होता नहीं है। कांग्रेस का दस जनपथ अमेरिका के उस ह्वाइट हाउस की तरह है जहां राष्ट्रपति के नाम पर हर निर्णय लिये जाते हैं और शायद ही कोई निर्णय ऐसा हो जिसमें राष्ट्रपति पद पर बैठे व्यक्ति की अपनी मर्जी चलती हो। उसे वही कहना होता है जो अमेरिकी प्रशासन तंत्र उसे कहने के लिए कहता है। उसे वही करना होता है जो अमेरिकी प्रशासन तंत्र उसे करने के लिए कहता है। कांग्रेस में दस जनपथ की संप्रभु सत्ता भी कुछ ऐसी ही है। जो सर्वोपरि है वह न जाने कितने स्तंभों के सहारे ऊपर टिका हुआ है। उसे यह भी पता नहीं कि कौन सा स्तंभ कब कहां और कैसे उसको धराशायी कर देगा। आधार को कलश चाहिए तो कलश बिना आधार के वहां तक पहुंच ही नहीं पायेगा। इस तरह दोनों एक दूसरे के पूरक होकर रह जाते हैं।

राहुल गांधी भी इस पूरकता के अपवाद नहीं रह सकते। कांग्रेस का भविष्य अगर राहुल गांधी हैं तो राहुल गांधी का भविष्य भी कोई भारतीय जनता पार्टी नहीं है। आखिरकार उन्हें वही करना और कहना होगा जो कांग्रेस की राजनीतिक परंपरा और विरासत बन गई है। बताने की जरूरत नहीं कि इंदिरा गांधी ने कांग्रेस को गांधी केन्द्रित करने के लिए जो नींव रखी उसकी परंपरा और विरासत क्या है। राहुल गांधी उसी विरासत के एक छोर पर खड़े हैं। इसलिए जैसे ही राहल गांधी एक स्वतंत्र नौजवान होते हैं, वे उसी तरह से व्यवहार करने लगते हैं जैसे उनके जैसा कोई नौजवान कर सकता है। लेकिन जैसे ही उनके कंधों पर कांग्रेस की राजनीतिक विरासत धर दी जाती है, राहुल गांधी धराशायी हो जाते हैं। अलीगढ़ और रामपुर की रैलियों में जब तक राहुल गांधी एक स्वतंत्र नौजवान की तरह बोलते रहे, तो जाहिर सी बात है वे सामान्य नौजवान की तरह ही बात करते रहे लेकिन जैसे ही उनके कंधों पर कांग्रेस की विरासत का बोझ आया और उन्होंने कांग्रेस सरकार की योजनाओं का महत्व समझाना शुरू किया वे फिसलकर फिसड्डी हो गये।

अलीगढ़ में अपने भाषण के दौरान उन्होंने जो राजनीतिक और विकास की बातें कहीं वह तो खबर इसलिए बनी क्योंकि बोलनेवाला ऊंचा ओहदेदार था, लेकिन जो खबर नहीं बनी उसे खबर बना दिया जाए तो? क्योंकि बोलनेवाला कैसे बोल रहा है, कम से कम राहुल गांधी को अभी यही कसौटी पूरी करना पूरी तरह से बाकी है। इसलिए अगर वे अपने भाषण के दौरान सबको खाना खिलाने की योजना का बखान करते हुए यह कहते हैं कि "नहीं, सुनो मैं आपको बताना चाह रहा हूं।" तो अचानक मुशर्ऱफ याद आने लगते हैं जो सैन्य तानाशाह से नेता बने तो बिल्कुल इसी शैली में बात करते थे कि जब बिजली की मोटर चलेगी, तो पानी निकलेगा। और जब पानी निकलेगा तो वह खेतों में जाएगा और फिर वे लोगों से पूछते थे कि खेतों में पानी जाने के बाद क्या होगा, यह आपको मालूम है न? अपनी सभा के दौरान हो सकता है राहुल गांधी ने बहुत सहज होने के लिए भाषण की मुशर्ऱफ शैली का इस्तेमाल किया हो लेकिन साफ दिख रहा था कि वे यह सब सिर्फ अपने आपको सहज बनाने के लिए कर रहे हैं। उन्हें यह फर्क शायद समझ में नहीं आया कि वे पार्टी वर्करों की मीटिंग नहीं बल्कि पार्टी द्वारा ही इकट्ठा की गई जन रैली को संबोधित कर रहे हैं।

इसलिए अगर उनके कहे को नेता का भाषण मान लें तो अखबारों में वही सारी अच्छी अच्छी रिपोर्टिंग पढ़ लें तो जरूर वे हमें भी भावी कर्णधार नजर आने लगेंगे। लेकिन अब जमाना अखबार और बयान का नहीं बल्कि टेलीवीजन और टेलिकास्ट का है। और इस युग में समूहगत रूप से झांसा देना नरेन्द्र मोदी और उनकी पीआर कंपनी तक के लिए संभव नहीं हो पा रहा है तो राहुल गांधी और कांग्रेस के लिए कहां से संभव हो पायेगा। इसलिए अच्छा हो कि केन्द्र की कांग्रेस सरकार उन्हें अपना प्रचारक नियुक्त करने की बजाय अभी कुछ और वक्त सिर्फ सपनों का राजकुमार ही बने रहने दे। राहुल गांधी जिस अंदाज में यथार्थ का भाष्य करते हैं वह कांग्रेस के लिए इस टेलिकॉस्ट युग में घाटे का सौदा भी साबित हो सकता है। मुशर्ऱफ की योजनाएं और उपलब्धियां अगर पाकिस्तान को समझ में आ गई होतीं तो पाकिस्तान में आज नवाज शरीफ के पाकिस्तान मुस्लिम लीग की नहीं बल्कि मुशर्ऱफ के आल पाकिस्तान पीपुल्स लीग की सरकार होती।

Wednesday, October 9, 2013

हरेन हत्याकांड का जिन्न

आज वंजारा जो बात सीबीआई से कह रहे हैं वही बात कल तक हरेन पंड्या के पिता विट्ठल पंड्या सुप्रीम कोर्ट से और पत्नी जागृति पांड्या जनता से कहती रही हैं कि हरेन की हत्या के पीछे कोई गहरी राजनीतिक साजिश है। तो कहीं ऐसा तो नहीं है कि सोहराबुद्दीन और तुलसीराम प्रजापति की हत्याएं सिर्फ इसलिए कर दी गईं ताकि हरेन पंड्या की हत्या का राज हमेशा के लिए राज ही रह जाए? वंजारा के संकेतों से तो यही संदेह उभर रहा है।  
 
उस दिन भोपाल में गिनीज बुक में दर्ज होनेवाली भाजपा की रैली में भी वह शेर वहां दहाड़ने ही आया था। आडवाणी और मोदी के मिलन प्रसंग के परे वह शेर मंच से दहाड़ा भी लेकिन उसकी दहाड़ में चिंताभरी एक ऐसी लाइन भी सामने आई थी जिस पर मीडिया ने बहुत ध्यान हीं दिया। भाजपा के इस शेर ने उस रैली में वह बोला था जो अब तक उसने कभी और कहीं नहीं कहा था। मुलायम और  मायावती की तर्ज पर भाजपा के इस शेर ने अपना वह डर पहली बार प्रकट किया कि इस बार कांग्रेस की ओर से सीबीआई आम चुनाव लड़ेगी। नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता और प्रचार के बीच उनका यह डर सचमुच चौंकानेवाला था। क्योंकि अपनी राजनीतिक हैसियत और कद के लिहाज से नरेन्द्र मोदी न तो मुलायम सिंह यादव हैं और न ही मायावती कि उन्हें यह कहना पड़े कि कांग्रेस उनके खिलाफ सीबीआई का दुरूपयोग कर सकती है। फिर, आखिरकार नरेन्द्र मोदी ने पार्टी कार्यकर्ताओं के सबसे बड़े मंच से यह बात क्यों कही?

जिस वक्त नरेन्द्र मोदी यह बात बोल रहे थे उससे थोड़े ही समय पहले डीजी वंजारा ने एक चिट्ठी लिखकर सनसनी पैदा कर दी थी। अपनी चिट्ठी में उन्होने राज्य सरकार को कटघरे में खड़ा करते हुए कहा था कि वे तो आदेश का पालन कर रहे थे, और वे जेल में हैं लेकिन जो लोग उनसे वह सबकुछ करवा रहे थे उनको आजादी क्यों है? नरेन्द्र मोदी के करीबी और तत्कालीन गृहमंत्री अमित शाह का तो उन्होंने अपनी चिट्ठी में नाम भी लिया है। लेकिन यह तो वह किस्सा था जो मीडिया के जरिए लोगों के सामने आया। जो सिर्फ सूत्रों के हवाले से या फिर गोपनीय सूचना के तौर पर बताया जा रहा है, वह यह कि वंजारा ने सीबीआई को हरेन पांड्या की हत्या को नये सिरे से जांच करने के कुछ जरूरी टिप्स भी दिये हैं। सीबीआई टीम से मुलाकात के दौरान कथित तौर पर वंजारा ने कहा है कि पंड्या की हत्या राजनीतिक साजिश थी। जिस वक्त 2003 में भाजपा के कद्दावर नेता हरेन पांड्या की हत्या हुई थी उस वक्त वंजारा उसी एटीएस के चीफ थे जो जिसके छह आईपीएस अफसर और 32 दूसरे पुलिसकर्मी इस वक्त जेल में बंद हैं। खुद शोहराबुद्दीन, तुलसीराम प्रजापति, और इशरत जहां के फर्जी मुटभेड़ में अहमदाबाद की सेन्ट्रल जेल में बंद वंजारा ने अगर यह सूत्र सीबीआई को दिया है तो जाहिर है, यह नरेन्द्र मोदी के लिए चिंता की बात होगी।

सीबीआई को लेकर नरेन्द्र मोदी चिंतित हैं इसका प्रमाण सिर्फ भोपाल की रैली में ही नहीं मिला। इसके बाद अचानक दिल्ली में नरेन्द्र मोदी की टीम सक्रिय हुई। बताते हैं कि दिल्ली में पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह नरेन्द्र मोदी और अरुण जेटली के बीच एक महत्वपूर्ण बैठक हुई जिसके बाद भाजपा नेता अरुण जेटली की ओर से एक नहीं दो दो पत्र प्रधानमंत्री कार्यालय को भेजे गये जिसमें नरेन्द्र मोदी के खिलाफ सीबीआई के दुरूपयोग की आशंका जताई गई। और सिर्फ पत्र ही नहीं भेजे गये। बाकायदा प्रेस कांफ्रेस करके अरुण जेटली ने कहा कि केन्द्र सरकार मोदी के खिलाफ सीबीआई की दुरूपयोग कर सकती है। अरुण जेटली ने इसके बाद दिल्ली होते हुए मुंबई की जो यात्रा की उसमें एक बार फिर उन्होंने उनके खिलाफ सीबीआई के दुरूपयोग की बात की। अब यह कुछ ऐसा था जैसे रामदेव हर जगह कांग्रेस को घेरने के लिए सीबीआई के दुरूपयोग का हवाला देते रहते हैं। रामदेव के गुरू शंकरदेव की हत्या का मामला भी सीबीआई के पास है। और जब से सीबीआई ने इस मामले की जांच शुरू की है रामदेव कांग्रेस के खिलाफ खुलकर खड़े हो गये हैं। तो क्या नरेन्द्र मोदी को भी किसी ऐसे हत्याकांड का डर सताने लगा है जिसमें सीबाआई उनके खिलाफ कोई ऐसी कार्रवाई कर सकती है जिससे उनका राजनीतिक कैरियर तबाह हो सकता है? क्या सचमुच उन अफवाहों में कोई दम है कि डीजी वंजारा ने हरेन पांड्या हत्याकांड की नये सिरे से जांच के सूत्र सीबीआई को दिये हैं, जिसके कारण भाजपा के भीतर मोदी और उनके मित्रों की चिंता बढ़ गई है?

सिर्फ अरुण जेटली और नरेन्द्र मोदी की सार्वजनिक चिंता को छोड़ दें तो फिलहाल ऐसे कोई पुख्ता प्रमाण नहीं हैं कि सीबीआई हरेन पांड्या के हत्यारों को पकड़ने का नये सिरे से कोई अभियान शुरू करनेवाली है। लेकिन लंबे समय से हरेन पांड्या की विधवा जागृति पंड्या इस बात की मांग तो कर ही रही हैं कि उनके पति के हत्याकांड की नये सिरे से जांच होनी चाहिए। 2009 में हरेन पांड्या के पिता विट्ठल पांड्या खुद सुप्रीम कोर्ट आये थे यह अर्जी लेकर कि सुप्रीम कोर्ट उनके बेटे के हत्यारों तक पहुंचने के लिए अमित शाह और नरेन्द्र मोदी से भी पूछताछ की जाए। विट्ठल पांड्या ने उस वक्त शिकायत की थी कि सीबीआई उनकी बहू जागृति पांड्या (हरेन पांड्या की पत्नी) से भी बतौर गवाह पूछताछ नहीं कर रही है। उस वक्त सुप्रीम कोर्ट ने हरेन पांड्या की याचिका यह कहते हुए वापस कर दी कि वे सीबीआई को ऐसा निर्देश नहीं दे सकते। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि किसी पर आरोप लगाने का कोई आधार होना चाहिए। सिर्फ शिकायत के आधार पर इस तरह से पूछताछ की इजाजत नहीं दी जा सकती। उस वक्त निश्चित ही सीबीआई के पास हरेन पांड्या हत्याकांड में नरेन्द्र मोदी या अमित शाह से पूछताछ का कोई आधार नहीं रहा होगा इसलिए बाप से सहानुभूति रखते हुए भी सुप्रीम कोर्ट ने बेटे की हत्या में नरेन्द्र मोदी और अमित शाह पर संदेह करने से मना कर दिया।

तो क्या अब जेल में बंद वंजारा ने सीबीआई को सचमुच कोई ऐसा सूत्र दे दिया है जिसके आधार पर हरेन पांड्या हत्याकांड में सीबीआई नरेन्द्र मोदी तक अपनी पहुंच बना सकती है? भाजपा की घबराहट और एक दशक में बदली हुई परिस्थितियां तो यही संदेह पैदा कर रही हैं। जिस वक्त जुलाई 2009 में सुप्रीम कोर्ट ने विट्ठल पांड्या की अर्जी को खारिज किया था उस वक्त कथित तौर पर हरेन के हत्यारे सलाखों के भीतर थे। उनमें से एक प्रमुख अभियुक्त था असगर अली। असगर अली उन 12 संदिग्ध में से एक था जिन्हें सीबीआई द्वारा हरेन पंड्या की हत्या में गिरफ्तार किया गया था। करीब एक दशक की कानूनी लड़ाई के बाद आखिरकार जुलाई 2011 में गुजरात हाईकोर्ट ने सभी अभियुक्तों को हत्या के साक्ष्य के अभाव में बरी कर दिया था। हालांकि बरी होने के बाद भी असगर अली अभी भी आंध्र प्रदेश के विशाखापत्तनम जेल में बंद है क्योंकि साजिश का मामला अभी भी उसके ऊपर दर्ज है।

इस बीच हरेन के पिता विट्ठल का देहांत हो चुका है और अब हरेन पांड्या की पत्नी जागृति पांड्या अकेले न्याय के लिए जंग लड़ रही हैं। जागृति पांड्या ने अभी इसी साल जून 2013 में असगर अली से विशाखापत्तन जेल में जाकर मुलाकात की थी। मुलाकात के बाद जागृति पांड्या ने तीन बातें साफ तौर पर कहीं थीं। एक, हैदराबाद का रहनेवाला असगर पहली बार अप्रैल 2013 में गुजरात तब गया था जब उसे गुजरात पुलिस द्वारा हरेन की हत्या के आरोप में गिरफ्तार करके गुजरात ले जाया गया जिसके बाद उसे सीबीआई को सुपुर्द कर दिया गया। दो, आईबी का वह संदिग्ध अधिकारी राजेन्द्र कुमार ही इसे पूरे घटनाक्रम के पीछे कहीं न कहीं मौजूद रहा है जिसे लेकर अभी सीबीआई और आईबी के बीच नूरा कुश्ती हो चुकी है। और तीन, एनडीए सरकार के दौरान असली दोषियों को बचाने के लिए सीबीआई का जमकर दुरूपयोग किया गया। जागृति पांड्या की इन तीन बातों को आपस में जोड़े तो जो तस्वीर उभरती है वह यह कि हरेन पांड्या की हत्या उसी फर्जी एनकाउण्टर समूह द्वारा किया गया जो गुजरात को आतंकवाद से मुक्त कराने के नाम पर कुछ खास लोगों को निपटाने का काम कर रहा था। इनमें शोहराबुद्दीन और तुलसीराम प्रजापति दो ऐसे नाम हैं जो कम से कम पाकिस्तान से आये आतंकवादी नहीं थे।

उलटे भट्ट के शपथपत्र के बाद तुलसीराम प्रजापति का नाम हरेन पांड्या की हत्या में सामने आ चुका है। गुजरात भाजपा में केशुभाई पटेल के करीबी और इंसानियत की राजनीति के प्रतीक समझेजाने भाजपा के कद्दावर नेता हरेन पांड्या की हत्या 26 मार्च 2003 को हुई। अहमदाबाद के लॉ पार्क में खड़ी कार में उनकी लाश मिली। हत्या संदेहास्पद थी और उस वक्त भी हरेन पांड्या की हत्या पर यह कहते हुए शक जाहिर किया गया था कि जिस तरह से गोली उनके शरीर में निचले हिस्से से ऊपरी हिस्से की ओर गई है उससे यह साबित होता है कि कार में उन्हें गोली नहीं मारी गई है। बल्कि उनकी हत्या कहीं और की गई और बाद में उन्हें कार में डाल दिया गया है। हरेन की हत्या के तीन साल बाद तुलसीराम प्रजापति की भी गुजरात एनकाउण्टर टीम ने 2006 में हत्या कर दी। तुलसीराम प्रजापति का एनकाउण्टर करने के साल भर पहले 2005 में शोहराबुद्दीन को भी उसी  एनकाउण्टर टीम ने निपटा दिया था जिसके ज्यादातर अधिकारी इस वक्त जेल में हैं।

हरेन पंड्या की हत्या में तुलसीराम प्रजापति का पहली बार नाम संजीव भट्ट ने। पूर्व आईपीएस अधिकारी संजीव ने 2011 में कहा था कि 2003 में असगर अली ने उनसे व्यक्तिगत रूप से कहा था कि हरेन पंड्या पर गोली चलानेवाला कोई और नहीं तुलसीराम प्रजापति ही था। गुजरात हाईकोर्ट में एपिडेविट देकर भट्ट ने कहा था कि उस वक्त वे साबरमती जेल सुपरिटेन्डेन्ट थे और उनके पास इस बात के बहुत पुख्ता सबूत हैं कि हरेन पंड्या की हत्या के पीछे कोई बहुत बड़ी गहरी राजनीतिक साजिश थी। संजीव भट्ट के तर्कों और आरोपों को कोई बहुत महत्व नहीं मिला क्योंकि संजीव भट्ट मोदी विरोधी अधिकारी घोषित हो चुके थे। लेकिन अब कमोबेश वही बात अगर कथित तौर पर वंजारा सीबीआई अधिकारियों से कह रहे हैं तब? वंजारा न सिर्फ मोदी के विश्वासपात्र आईपीएस अधिकारी थे बल्कि उस दौर में गुजरात एटीएस के चीफ थे जिस दौर में ये हत्याकांड हो रहे थे।

गुजरात में मोदी के राजनीतिक उभार के वक्त गुजरात में सिर्फ हरेन पंड्या ही वह आखिरी नौजवान नेता बचे थे जो गुजरात भाजपा का भविष्य बनकर उभर रहे थे। केशुभाई पटेल, संजय जोशी और गोरधन झड़पिया के करीबी कहे जानेवाले पंड्या को मोदी पहले ही राजनीतिक रूप से असक्त बना चुके थे। 2001 में जिस वक्त नरेन्द्र मोदी को गुजरात का मुख्यमंत्री बनाकर भेजा गया उस वक्त हरेन पंड्या गुजरात के गृहमंत्री थे। वे एलिसब्रिज सीट से चुनकर गुजरात विधानसभा पहुंचे थे। बताते हैं कि गुजरात दंगों के दौरान उन्होंने गुजरात सरकार के रूख का कैबिनेट की बैठकों में कड़ा विरोध किया था जिसका खामियाजा उन्हें मोदी विरोधी के रूप में भोगना पड़ा। उस वक्त मोदी सरकार में गृहमंत्री होते हुए भी उन्होंने दंगों के विरोध में हो रही जनसुनवाईयों में हिस्सा लिया था। जाहिर है, गुजरात में नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में जिस नई राजनीति की शुरूआत हो रही थी, वे उसका विरोध कर रहे थे। इसका खामियाजा उन्हें अगले ही चुनाव में उठाना पड़ा। पहले मोदी ने एलिसब्रिज से उनका टिकट काट दिया और केन्द्र के हस्तक्षेप के बाद पंड्या को टिकट मिला भी तो जीतने के बाद मोदी मंत्रिमंडल में कोई जगह नहीं मिली।

लेकिन हरेन पंड्या को सिर्फ राजनीतिक रूप से कमजोर करके ही नरेन्द्र मोदी संतुष्ट नहीं थे। विरोधी को समाप्त करने की अपनी विशिष्ट शैली के लिए पहचाने जानेवाले नरेन्द्र मोदी हरेन पंड्या पर अपने खुफिया तंत्र के जरिए पूरी नजर रख रहे थे। मीडिया रपटों के अनुसार उस वक्त गुजरात सरकार न सिर्फ हरेन पंड्या के हर मूवमेन्ट पर नजर रख रही थी बल्कि हरेन पंड्या का फोन भी टेप हो रहा था। ऐसा संभवत: इसलिए कि हरेन पंड्य ही गुजरात की राजनीति में वह शख्सियत बचे थे जिनके नेतृत्व में गुजरात भाजपा के मोदी विरोधी नेता मोदी के खिलाफ विद्रोह कर सकते थे। और यह सब बहुत दिन नहीं चला जब अचानक मार्च 2003 में बहुत संदेहास्पद परिस्थितियों में हरेन पंड्या की हत्या कर दी गई। इसके बाद सिलसिलेवार चले हत्याकांड के क्रम में मोदी का कद लगातार ऊंचा ही उठता गया और पार्टी के भीतर भी हरेन की हत्या अतीत का एक हादसा बनकर रह गई।

अब एक दशक बाद वंजारा के विद्रोह ने हरेन पंड्या की हत्या को नये सिरे से जिंदा कर दिया है। हरेन के तथाकथित हत्यारों को हाईकोर्ट ने मुक्त कर दिया है और सीबीआई अब सुप्रीम कोर्ट में है। इसलिए हरेन की हत्या में नये सिरे से खोजबीन शुरू हो सकती है। सोहराबुद्दीन और तुलसीराम प्रजापति हत्याकांडों के जरिए इस खोजबीन की आंच पहली बार अमित शाह और नरेन्द्र मोदी तक पहुंच सकती है। निश्चित रूप से मोदी के बढ़ते राजनीतिक कद के लिए यह हरेन हत्याकांड का जिन्न कभी भी प्रेतछाया की तरह उनके पीछे पड़ सकता है। कम से कम भाजपा का डर और मोदी का सीबीआई पर संदेह तो इसी शक को पुख्ता कर रहे हैं।

Popular Posts of the week