Thursday, July 31, 2014

इराक में हरी हुई हथियारों की खेती

जिस वक्त इराक में आइसिस के चरमपंथी उत्तरी इराक पर कब्जा करते हुए आगे बढ़ रहे थे, उस वक्त एक बहुत मामूली सी घटना अमेरिकी में भी घट रही थी जिसका इराक से गहरा नाता था। जून के पहले हफ्ते में अमेरिका ने इराक को पहला फाइटर जेट एफ-16 (डी) सौंप दिया था। और अब उसे इराक ले जाना था, जहां अमेरिका में ही ट्रेनिंग पाये पायलट उसे उड़ाने का अभ्यास करनेवाले थे। लेकिन वह पहला (और शायद आखिरी भी) एफ-16 लड़ाकू विमान इराक पहुंचता इससे पहले ही आइसिस के चरमपंथियों ने उत्तरी इराक पर कब्जे की शुरूआत कर दी। जून के दूसरे हफ्ते में जैसे ही आइसिस के चरमपंथी आगे बढ़ने लगे इराक के प्रधानमंत्री नूर अल मलीकी ने अमेरिका से पहली गुजारिश की। जल्दी से एफ-16 भेजिए। अमेरिका ने सुनकर अनसुना कर दिया। वह अकेला एफ-16 (डी) फाइटर जेट भी इराक पहुंचा कि नहीं, पता नहीं लेकिन इराक और अमेरिका के बीच कुल 36 एफ-16 लड़ाकू विमान खरीदने का जो सौदा हुआ था, वह आईसिस के हमले के कारण खटाई में पड़ गया।

हालांकि अमेरिका ने अपने जंगी बेड़े जार्जबुश को फारस की खाड़ी में तत्काल तैनात जरूर कर दिया लेकिन उस बेड़े में खड़े एफ-18 लड़ाकू विमान जंगी बेड़े पर खड़े के खड़े ही रह गये। इराक की कुछ खबरों में यह जरूर कहा गया कि जंगी जहाज इराक के आसमान पर मंडराये जरूर लेकिन बम बारूद गिराने की बजाय उन्होंने सिर्फ हवाई सर्वेक्षण किया और वापस लौट गये। इराक की सरकार के लिए यह बहुत असहज स्थिति थी। एक तरफ जब हमर गाड़ियों में सवार आइसिस के चरमपंथी बगदाद पर चढ़े आ रहे थे, खाली हाथ खड़ा इराक क्या कर सकता था? हवाई हमले ही वह जरिया थे जब इराक की सरकार चरमपंथियों को तुरंत पीछे खदेड़ सकती थी, लेकिन इराक युद्ध के बाद इराक का हवाई बेड़ा पूरा हवा हवाई है। इराक के पास ऐसा कुछ नहीं है जिसके बूते वह अपने आपको 'हवाई ताकत' कह सके। 2004 में कुल तीन दर्जन लोगों को लेकर दोबारा खड़ी की गई इराक की हवाई सैन्य क्षमता पूरी तरह से अमेरिका के भरोसे थी, लेकिन एक दशक बाद जैसे ही इराक संकट में फंसा ऐन मौके पर अमेरिका ने इराक को धोखा दे दिया।

सद्दाम के खात्मे के साथ ही इराक को दोबारा खड़ा करने का जिम्मा उन्हीं दो प्रमुख देशोंं को मिला जिन्होंने सद्दाम के शासन को समाप्त किया था। अमेरिका और ब्रिटेन जैसे मित्र देश। अमेरिका सैन्य साजो सामान पर ध्यान देने लगा तो ब्रिटेन ने लोकतंत्र के निर्माण का ठेका ले लिया। हालांकि 2004 में दोबारा से इराक के पुनर्निमाण में जुड़ी अप्रशिक्षित राजनीतिक जमात ने इन दो देशों के अलावा कुछ और देशोंं की तरफ देखना शुरू कर दिया जिसमें रूस सबसे अहम था। शुरू के दो तीन साल तो कुछ खास नहीं थे लेकिन 2007 में इराक ने रुस की तरफ सैन्य साजो सामान के लिए हाथ बढ़ाना शुरू कर दिया। सद्दाम युग में अमेरिका से हुई दुश्मनी के बाद इराक में हथियारों की ज्यादातर खेती फ्रांस और रुस ने ही की थी। मिग लड़ाकू विमान से लेकर टी-72 टैंक तक रूस हथियारों के लिए इराक का सबसे बड़ा सौदागर था। इराक वार में भी अमेरिका ने असल में सद्दाम हुसैन से नहीं बल्कि रूसी सैन्य साजो सामान से ही सामना किया और दुर्भाग्य से इराक में रुस अमेरिका का सामना नहीं कर पाया।

2003 में सद्दाम के सफाये के बाद पूरी दुनिया में यह बात सामने आई कि इराक में अमेरिका ने तेल के लिए एक छद्म युद्ध लड़ा और सद्दाम को समाप्त कर दिया लेकिन यह बात बहुत नहीं कही गयी कि एक युद्ध के बाद उसने दूसरे युद्ध के साजो सामान बेचने का ठेका भी चाहिए था। 2004 में ही शुरू हुए पुनर्निर्माण प्रक्रिया में इराक ने अमेरिका को ठेकादारी देनी शुरू भी कर दी जिसमें नये टैंक, मिसाइल और लड़ाकू विमान सबकी सप्लाई शामिल थी। लेकिन इराक का राजनीतिक तकाजा ऐसा था कि उसे सिर्फ अमेरिका के ही भरोसे नहीं रहना था। इसलिए रूस और यूक्रेन की तरफ उसने दोबारा देखना शुरू कर दिया। हो सकता है ऐसा इसलिए भी हुआ हो कि अमेरिका की तरफ से ट्रेनिंग और हथियारों की सप्लाई में देरी हो रही थी या फिर यह भी हो सकता है कि इराक में एन्टी अमेरिकी सेन्टिमेन्ट पूरी तरह से अमेरिका पर निर्भर होने से रोक रहा हो। कारण जो भी हो, इराक की आजादी के साथ ही इराक में अमेरिका के लिए नये सिरे से संकट के दिन शुरू हो गये थे। इस बार संकट सद्दाम नहीं बल्कि वे अल मलीकी नजर आ रहे थे जिन्हें अमेरिकी रणनीतिकारों ने ही इराक का प्रधानमंत्री बनने में मदद की थी।

अभी हालात संभलते कि इराक पर आइसिस का हमला हो गया। अब बहुत सारे लोग यह सवाल भी उठा रहे हैं कि इराक पर आइसिस के इस कब्जे के पीछे भी कहीं न कहीं अमेरिकी खुफिया एजंसियां सक्रिय हैं क्योंकि सीरिया आइसिस अमेरिका संदिग्ध गठजोड़ के प्रमाण सामने आ चुके हैं। तो क्या अमेरिकी हथियार लॉबी ने ही आइसिस को इराक की तरफ आगे बढ़ने के लिए धकेला ताकि नूर अल मलीकी को रास्ते से हटाकर इराक में नये तरह का राजनीतिक माहौल तैयार किया जा सके जो इराक में लोकतांत्रिक तरीके से अमेरिकी हितों की रक्षा कर सके? हालात तो कुछ ऐसे ही परिणाम सामने रखते हैं। अमेरिका द्वारा पहले राजनीतिक समाधान की शर्त, फिर अग्रिम राशि लेने के बाद भी लड़ाकू विमानों की आपूर्ति पर रोक और इराक के कहने पर भी आतंकियों पर हवाई हमले करने से इंकार कर देना ऐसे संदेह पैदा करते हैं कि आइसिस संकट के जरिए अमेरिका इराक में कोई और समाधान खोज रहा है। लेकिन इस समाधान में भी सबसे बड़ा संकट बना अल मलीकी का वह निर्णय जो उन्होने युद्ध के दौरान ले लिया। रूस से लड़ाकू विमानों की सप्लाई।

जून के आखिरी हफ्ते में इराक ने रूस को उसी 12 सुखोई-25 लड़ाकू विमानों का आर्डर दे दिया जो कभी इराक की वायुसेना का हिस्सा होती थी। 28 जून को आधिकारिक रूप से आर्डर दिया गया और 1 जुलाई को ये लड़ाकू विमान रूस पहुंच गये और जुलाई के पहले हफ्ते से उन्होंने आइसिस चरमपंथियों के खिलाफ मुहिम की शुरूआत भी कर दी। इसका नतीजा यह हुआ कि पूरे जुलाई के महीने में इराकी सेना ने आइसिस आतंकियों पर निर्णायक बढ़त बनाना शुरू कर दिया और हर रोज इराकी सैनिक आइसिस पर भारी पड़ने लगे। इराक की तरफ से जो दो सैन्य विमान इस अभियान में शामिल किये गये थे वे दोनों ही इराक को रूस की देन थे। एमआई सीरीज के अटैक हेलिकॉप्टर और सुखोई लड़ाकू विमान। अगर आप बीते दस साल का इराक सैन्य साजो सामान की सप्लाई का अध्ययन करेंगे तो पायेंगे अमेरिका ने इराक की हवाई आक्रमण की क्षमता को बढ़ने नहीं दिया है। अमेरिका की तरफ से जितने भी सैन्य साजो सामान की आपूर्ति की गई है वह ज्यादातर सैन्य परिवहन, मेन्टेनेन्स और निर्माण से जुड़ी हुई है। तो क्या अमेरिका जानबूझकर इराक को सैन्य की आक्रमण की क्षमता से लैस नहीं होने देना चाहता था? तब तक जब तक कि राजनीतिक रूप से उसका पूरा नियंत्रण न हो जाए?

कारण जो भी हो लेकिन अल मलीकी ने रूस की तरफ जो कदम बढ़ाया था अब वह एक अरब डॉलर के नये समझौते में तब्दील हो गया है। रूस के ही एक अखबार ने दावा किया है कि इराक संकट के बीच इराक के रक्षामंत्री सदायूं अल दुमैनी ने रूस की एक गुपचुप यात्रा की है और इराक तथा रूस के बीच एक अरब डॉलर के रक्षा समझौते को मंजूरी दे दी है। इसमें इराक मुख्य रूप से सुखोई के 10 नये उन्नत लड़ाकू विमान, रॉकेट लांचर और मिसाइल लांचर हासिल करेगा। रूस इराक को यह हथियार कब देगा इसकी जानकारी तो नहीं दी गई है लेकिन गृहयुद्ध में फंसे इराक के लिए इस सैन्य साजो सामान की अदायगी में रूस वैसी ही फुर्ती जरूर दिखायेगा जैसा सुखोई-25 विमानों की डिलिवरी के मामले में किया गया। अगर इराक को आइसिस के आतंकियों से लड़ने के लिए तत्काल हथियार चाहिए तो रूस को भी अपना खोया हुआ इराक चाहिए। और रूस के प्रवेश का असर यह हुआ है कि अमेरिका ने भी इराक के लिए रुकी पड़ी हेलफायर मिसाइलों की सप्लाई शुरू कर दी है। इराक और अमेरिका के बीच इस मिसाइल सप्लाई का ही सौदा 700 मिलियन डॉलर का है। जाहिर है, इराक की जंग अमेरिका और रूस जैसे हथियार के सौदागरों के लिए सुनहरा मौका लेकर आई है। रेत के बीच हथियारों की नयी खेती लहलहाने लगी है, और खुद इराक घूम फिरकर फिर वही खड़ा हो गया है जहां से आगे जाने की कोशिश वह बीते चार दशकों से कर रहा है।

Friday, July 25, 2014

भारत के खिलाफ भाषा की साजिश

सरकारें झूठ बोलती हैं इसमें कोई नई बात नहीं है लेकिन कोई सरकार संसद में खड़े होकर झूठ बोल दे यह नहीं होता। ऐसा इसलिए क्योंकि जब कोई सरकारी नुमाइंदा संसद में किसी सवाल का जवाब दे रहा होता है तो वह जवाब सिर्फ किसी सांसद द्वारा पूछे गये सवाल का जवाब नहीं होता। वह जवाब पूरे देश को दिया जाता है। उस देश को जिस देश के लोगों ने सरकार होने का प्रमाणपत्र दिया है। लेकिन न जाने कैसे इस सरकार के एक मंत्री ने यह काम कर दिया। इसी संसद सत्र में भरी संसद में खड़े होकर प्रधानमंत्री कार्यालय के प्रभारी मंत्री जीतेन्द्र सिंह ने कहा था कि सीसैट के मुद्दे पर सरकार बच्चों के भविष्य का पूरा ख्याल रखेगी। एक तीन सदस्यीय समिति काम कर रही है। जल्द ही रिपोर्ट आ जाएगी और हम फैसला ले लेंगे। जो सिविल सेवा की परीक्षा देने की तैयारी कर रहे हैं उन्हें घबराने की जरूरत नहीं है। वे अपनी तैयारी करें।

जिस वक्त मंत्री महोदय संसद में यह वक्तव्य दे रहे थे, उस वक्त दिल्ली के ही मुखर्जी नगर इलाके में दो छात्रों का आमरण अनशन चल रहा था। इन दोनों छात्रों के समर्थन में वहां नियमित तौर पर धरना प्रदर्शन और सभाओं का सिलसिला जारी था। उनके धरने के नौंवे दिन जब सरकार ने संसद में यह ऐलान किया तो उम्मीद बंधी थी कि मोदी सरकार संजीदा है और जरूर भाषाई परीक्षण में अंग्रेजी की अनिवार्यता को खत्म करेगी। उम्मीद इसलिए भी बंधी थी कि बीजेपी की नयी सरकार के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनके गृहमंत्री हिन्दी की हिमायत कर चुके थे। लेकिन लगता है दो महीने के भीतर ही सरकार की नौकरशाही इन दोनों पर इतना हावी हो गयी कि अपनी हिमायत को उन्होंने खुद रद्दी की टोकरी में डाल दिया और यूपीएससी ने सिविल सर्विसेज के लिए प्राथमिक परीक्षाओं की तारीख घोषित कर दी। बस फिर क्या था, छात्रों का गुस्सा फूट पड़ा और इस बार गुस्सा दिल्ली विश्वविद्यालय से सटे मुखर्जी नगर तक सीमित नहीं रहा बल्कि संसद भवन के दरवाजे तक पहुंच गया।

शुक्रवार को संसद भवन पहुंचने से पहले गुरूवार की शाम मुखर्जी नगर इलाके में ही सिविल सेवा की परीक्षा की तैयारी कर रहे छात्रों ने अपना विरोध दर्ज कराया था और एक पुलिस वाहन में आग तक लगा दी थी। रिंग रोड जाम कर दिया था और सरकार पर धोखा देने का आरोप लगा रहे थे। उनका आरोप निराधार नहीं है। अगर संसद भवन में खड़े होकर प्रधानमंत्री कार्यालय के जिम्मेदार मंत्री यह कह रहे थे कि वे विचार करेंगे और कमेटी की रिपोर्ट का इंताजर कर रहे हैं, तब यूपीएससी ने सिविल सर्विसेज के लिए प्राथमिक परीक्षाओं की तारीख (24 अगस्त) के लिए एडमिट कार्ड कैसे जारी करना शुरू कर दिया? जाहिर है, या तो सरकार की मंशा साफ नहीं है या फिर यह सरकार भी पूरी तरह से नौकरशाहों के दबाव में काम कर रही है। वही नौकरशाह जो भारत में गोरे अंग्रेजी की काली परछाई बनकर अब तक मौजूद हैं।

इसी परछाई ने अंग्रेजी का रोना रोकर 2011 में सीसैट प्रणाली लागू की थी। नौकरशाही का निर्माण करनेवाली संस्था यूनियन पब्लिक सर्विस कमीशन का कहना है कि क्योंकि सरकारी काम काज के दौरान एक अधिकारी को अंग्रेजी की बहुत सख्त जरूरत पड़ती है इसलिए उनकी तरफ से यह अंग्रेजी जाननेवाली परीक्षा को पास करना जरूरी किया गया है। क्यों किसी नौकरशाह को अंग्रेजी जानना जरूरी होना चाहिए? क्या सिर्फ इसलिए कि वह नौकरशाह है और इस पदवी को पाकर उसे सत्ता के भद्रलोक का संचालन करना है इसलिए उसके लिए जरूरी है कि वह विलायती बनकर ही यहां तक पहुंचे? विलायती बनाने का यह काम अभी तक लाल बहादुर शास्त्री अकादमी के जिम्मे था। नौकरशाह होने की तृस्तरीय परीक्षा पास कर लेने के बाद मसूरी की लाल बहादुर शास्त्री अकादमी एक पढ़े लिखे नौजवान को नौकरशाह बनाने की ट्रेनिंग देती है। ट्रेनिंग के बाद एक नौकरशाह क्या हो जाता है वह इस देश की नौकरशाही को देखकर समझा जा सकता है। लेकिन शायद, हमारी नौकरशाही को यह फिल्टर भी कमजोर नजर आ रहा था इसलिए उन्होंने प्राथमिक परीक्षा में ही अंग्रेजी की अनिवार्यता लाद दी ताकि ग्रामीण और भाषाई पृष्ठभूमि से आनेवाले बच्चों के लिए सिविल सर्विसेज का दरवाजा बहुत शुरूआती स्तर पर ही बंद हो जाए।

संसद में हुए सवाल जवाब के आंकड़े देखें तो यह बात और सही लगती है कि यूनियन पब्लिक सर्विस कमीशन किस तरह के लोगों को नौकरशाह बनाना चाहती है। 2011 में सीसैट लागू होने से पहले हिन्दी माध्यम से सिविल सेवा में सफलता की दर 35.6 प्रतिशत थी लेकिन 2011 में सीसैट लागू होते ही सफलता की यह दर घटकर 15.3 प्रतिशत रह गई। जबकि अंग्रेजी माध्यम से सिविल सेवा की परीक्षा देनेवाले विद्यार्थियों की सफलता दर में तेजी से बढ़ोत्तरी हुई। 2008 में जहां अंग्रेजी माध्यम के छात्रों की सफलता की दर 50.57 प्रतिशत थी वहीं 2011 में सीसैट लागू होने के बाद आज सफलता की यह दर बढ़कर 82 प्रतिशत हो गई है। क्या यह साफ साफ संकेत नहीं है कि सीसैट के जरिए यूनियन पब्लिक सर्विस कमीशन देश के पब्लिक की कौन सी सेवा करना चाहता है? और असर केवल हिन्दीभाषी छात्रों पर हो रहा है ऐसा भी नहीं है। भाषाई माध्यम से नौकरशाही की इस परीक्षा को पास करने की चाहत रखनेवाले अन्य भाषा भाषी छात्रों का भी उत्साह ठंडा हुआ है। तमिल और तेलगु में जिस तरह से छात्र परीक्षा देने के लिए आगे आ रहे थे, 2011 में सीसैट प्रणाली लागू होते ही वे सिफर हो गये।

अच्छा हो कि भारत सरकार इस मामले में किसी रिपोर्ट का बहाना बनाने की बजाय सीधे सीधे फैसला दे और वही व्यवस्था लागू करे जो 2011 से पहले लागू थी। इस देश के नौकरशाह पहले ही देश को कम गुमराह नहीं कर रहे हैं कि उनकी किसी सिफारिश को जरूरत मानकर मान ही लिया जाए। प्राथमिक परीक्षा में अंग्रेजी की यह अनिवार्यता नौकरशाहों की बहुत सोची समझी भाषाई साजिश है भारत के खिलाफ। उस भारत के खिलाफ जो बड़ी हसरत से देश की सर्वोच्च प्रशासनिक व्यवस्था में पहुंचकर देश के कुछ करना चाहता है। जब कोई नौजवान सिविल सर्विसेज की तैयारी शुरू करता है तो यह उसके लिए कैरियर का ही बेहतर विकल्प नहीं होता बल्कि देश के लिए उसके मन में कुछ ख्वाब होते हैं। निश्चित तौर पर ये ख्वाब उसने अंग्रेजी में नहीं देखे होते और न ही वह अंग्रेजी में पूरा करना चाहता है। वह जिस भाषा भाषी समाज का हिस्सा होता है अगर उसका प्रतिनिधित्व हमारे देश की शीर्ष नौकरशाही में नहीं दिखेगा तो कहां दिखेगा? रही बात अंग्रेजी की तो इस देश में अच्छे अंग्रेजी के अनुवादक तैयार करने की परीक्षा अलग से भी आयोजित की जा सकती है। उसके लिए नौकरशाही को अंग्रेजीभाषी बनाने की जरूरत कहां है?

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