Friday, October 17, 2014

काला धन पर काला मन

दिन में सुप्रीम कोर्ट के भीतर भारत सरकार के एटॉर्नी जनरल जो कर आये थे, शाम को उसका डैमेज कन्ट्रोल रोकने के लिए वित्त मंत्री अरुण जेटली को बाहर आना पड़ा। मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में काले धन पर सुनवाई कर रही खँडपीट के सामने अपना पक्ष रखते हुए एटार्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने वही लाचारगी व्यक्त कर दी जो कभी यूपीए सरकार के एटार्नी जनरल किया करते थे। "हम नाम सार्वजनिक नहीं कर सकते मी लार्ड।" यहां हम का मतलब केन्द्र सरकार से है। मुकुल रोहतगी ने सुप्रीम कोर्ट के सामने सरकार का जो पक्ष रखा वह तकनीकि तौर पर वही था जो इससे पहले यूपीए सरकार रखती आई थी। इस तकनीकि पक्ष को थोड़ा तकनीकि पहलुओंं के साथ ही समझने की कोशिश करनी होगी।

2011 से सुप्रीम कोर्ट वरिष्ठ अधिकवक्ता राम जेठमलानी की शिकायत पर एक विशेष जांच दल (एसआईटी) बनाकर काले धन का पता लगाने की कोशिश कर रही है। सुप्रीम कोर्ट में जब जब केन्द्र सरकार से जवाब मांगा गया तत्कालीन यूपीए सरकार के प्रतिनिधि (एटार्नी जनरल) ने यही कहा कि नाम सार्वजनिक कर पाना संभव नहीं है। तत्कालीन केन्द्र सरकार का तर्क था कि इसमें मुख्य रूप से दो दिक्कत है। पहली दिक्कत यह है कि जिन देशोंं में भारत के लोगों का बेनामी या अवैध धन जमा है उनसे हम किस आधार पर सूचना मांगे। सूचना सिर्फ उसी व्यक्ति के बारे में मांगी जा सकती है जिसके बारे में भारत सरकार की एजंसियां कोई आर्थिक धोखाधड़ी की जांच कर रही होंं। जब अवैध या बेनामी धन रखनेवाले का नाम ही पता नहीं है तो फिर उसके खिलाफ कार्रवाई किस आधार पर करें। अब अगर केन्द्र सरकार टैक्स हैवेन देशोंं में भारत का काला धन जमा करनेवालोंं का नाम पता पूछने जाए तो वहले से ऐसी संधियां हुई पड़ी हैं कि वे अपने यहां भारतीय मूल के लोगोंं के धन का बखान ही नहीं कर सकते। जाहिर है, केन्द्र सरकार के सामने यह दोहरी मुश्किल थी। यही मुश्किल आज भी है जिसका उल्लेख मुकुल रोहतगी ने सुप्रीम कोर्ट के सामने किया।

मुकुल रोहतगी ने सीधे सपाट तौर पर अदालत से जो कहा उससे साफ संदेश गया कि सरकार विदेश में काला धन जमा करनेवालों का नाम सार्वजनिक नहीं कर सकती। शायद इसलिए शाम होते होते वरिष्ठ अधिवक्ता और वित्त मंत्री अरुण जेटली खुद बीमारी के बावजूद मीडिया के सामने आ गये। उन्होंंने जो स्पष्टीकरण दिया वह इतना उलझा हुआ है कि उससे कोई निष्कर्ष ही नहीं निकलता है। कहा तो उन्होंने भी वही जो मुकुल रोहतगी ने माननीय सुप्रीम कोर्ट के सामने कहा था लेकिन थोड़ा घुमा फिराकर। बकौल अरुण जेटली सरकार काला धन बाहर जमा करनेवालों का नाम तो सार्वजनिक करना चाहती है लेकिन इसके लिए कानूनी दिक्कते हैं। उन्होंंने उन कानूनी दिक्कतों का सिलसिलेवार विवरण तो नहीं दिया लेकिन ये कानूनी दिक्कतें वहीं हैं जिसके कारण एटार्नी जनरल सुप्रीम कोर्ट के सामने नाम न जाहिर कर पाने की मोदी सरकार की मजबूरी जता चुके थे। अरुण जेटली ने जर्मनी के लिंचेस्टर बैंक का उल्लेख करते हुए 1995 में जर्मनी के साथ की गई एक काराधान संधि का भी हवाला दिया जिसके तहत जर्मनी अपने यहां के खाताधारकोंं की गोपनीयता को साझा नहीं कर सकता। और क्योंकि वे सूचना साझा नहीं कर सकते इसलिए भारत सरकार अपनी तरफ से लोगों के नाम सार्वजनिक नहीं कर सकती। उनका तो नाम भी नहीं ले सकती जिनके खिलाफ कोई केस ही नहीं है। लेकिन जिनके खिलाफ केस है उनका नाम भी तब लेगी जब सारी कानूनी अड़चने खत्म हो जाएं। लेकिन जेटली ने सब नकारात्मक बात ही नहीं कही। उन्होंने राजनीतिक तौर पर कुछ सकारात्मक संदेश भी दिये।

काले धन पर अगर यूपीए सरकार की नीयत में खोट था तो एनडीए सरकार की मंशा भी कोई साफ नहीं है। जिन कानूनी अड़चनों और मजबूरियों की आड़ लेकर यूपीए सरकार अपना बचाव कर रही थी उन्हीं मजबूरियों का उल्लेख अब एनडीए सरकार कर रही है। काले धन के मुद्दे पर सरकार तो बदली लेकिन बदली हुई सरकार की नीयत नहीं बदली। अब कांग्रेस बीजेपी हो गयी है और बीजेपी ने कांग्रेस का रूप धारण कर लिया है। 

मसलन, रेवेन्यू सेक्रेटरी की अध्यक्षता में एक तीन सदस्यीय जांच समिति स्विटजरलैंड गयी थी। उसने वहां स्विस सरकार के वित्त और वाणिज्य विभागों से संपर्क किया और जानकारी हासिल करने के लिए रास्ता बनाने की कोशिश की। रास्ता बनाने में उसे सफलता भी मिली है। स्विस सरकार के प्रतिनिधि उन सौ लोगों के नाम देने की सहमति जताई है जिनके खिलाफ भारत में कोई न कोई वाणिज्यिक जांच पड़ताल चल रही है। इससे पहले इन्हीं लोगों के बारे में जानकारी देने से स्विस सरकार ने मना कर दिया था। इसके अलावा अरुण जेटली ने यह भी कहा कि भविष्य में सूचनाओं के आदान प्रदान के लिए एक साझा सहमति पत्र तैयार करने की दिशा में बातचीत शुरू हो सके इसका प्रयास भी किया गया है। ये सारे प्रयास सरकार की नजर में सराहनीय उपलब्धि हैं। लेकिन क्या वास्तव में केन्द्र की मोदी सरकार के ये सारे प्रयास सराहनीय हैं?

शायद नहीं। काले धन पर सुप्रीम कोर्ट में केस दायर करनेवाले वरिष्ठ वकील राम जेठमलानी ने सुप्रीम कोर्ट के भीतर और बाहर सरकार के इस कदम को चोरी और सीनाजोरी करार दिया। राम जेठमलानी का कहना है कि यह सब ''सरकार का दोहरा चरित्र सामने ला रहा है।'' राम जेठमलानी का कहना है कि उनकी प्रधानमंत्री मोदी से कोई बात तो नहीं होती लेकिन इस बारे में उन्होंंने मोदी को पत्र लिखा है और उन्हें उनके जवाब का इंतजार है। जेठमलानी को पीएम मोदी का कार्यालय क्या जवाब देता है यह तो वक्त बतायेगा लेकिन एटार्नी जनरल और अरुण जेटली के विरोधाभाषी बयानों से यह तो साबित हो गया कि कालेधन पर इस सरकार का मन भी कोई बहुत साफ नहीं है। कुछ न कुछ ऐसा दबाव सरकारों पर रहता ही है कि वे चाहें तो भी उन लोगोंं के नाम तक सार्वजनिक नहीं कर सकती जिन्होंने देश की पूंजी विदेश के हवाले कर रखी है। वही दबाव यूपीए सरकार पर था और वही दबाव एनडीए सरकार पर है। वह दबाव पूंजीपतियों का है कि पूंजीपतियोंं के हित में की गई संधियों का, यह तो सिर्फ सरकार को पता होगा लेकिन जिस तरह से इस सरकार ने इस मामले में संधियों और कानूनी अड़चनों की लीपापोती की है उससे साफ है कि यह सरकार जब अभी नाम सार्वजनिक कर देने की स्थिति में नहीं आ पाई है तो काला धन वापस लाने से तो मीलों दूर हैं। तब तक जनता चाहे तो विदेश में जमा काले धन की उम्मीद छोड़कर अपनी जेब से बैंकों में धन जमा कराती रहे ताकि मोदी सरकार की जन धन योजना सफल हो और भारत के बैंकों के पास जन के धन से इतनी पूंजी इकट्ठा हो जाए कि अर्थव्यवस्था को थोड़ी और बेहतर बनाया जा सके।

Wednesday, October 15, 2014

मतगणना से पहले मनगणना

हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के लिए अभी मतदान शुरू भी नहीं हुआ था कि चैनलोंं ने बताना शुरू कर दिया कि शाम पांच बजे मतदान खत्म होने के उनके चैनल का विशेष इक्जिट पोल देखना न भूलें। शाम पांच बजे? मतदान की अवधि तो शाम छह बजे तक थी और नियम यह है कि उस वक्त तक अगर कोई लाइन में खड़ा है तो बिना उसके मतदान के पोलिंग बूथ बंद नहीं किया जा सकता। शायद इसलिए चुनाव आयोग मतदान की आधिकारिक अवधि खत्म हो जाने के बाद भी आधे घण्टे का मार्जिन रखता है। इसलिए अगर कोई न्यूज चैनल अपना इक्जिट पोल दिखाना ही चाहता है तो वह साढ़े छह बजे के पहले दिखा ही नहीं सकता था। तो फिर शाम को पांच बजे वाला प्रचार क्यों किया गया?

जाहिर है, बाजार का हथियार हो चुके न्यूज चैनलों ने झूठ बोला। कमोबेश हर उस चैनल ने पांच बजे की दुहाई दी जिसके झोले में कोई न कोई सर्वे एजंसी बैठी हुई थी। इधर मतदान शुरू हुआ और उधर सर्वे एजंसियोंं के लोग मैदान में मौजूद (अगर रहे हों तो) लोगों से पूछताछ करके अपनी रिपोर्ट तैयार करने लगे होंगे। निश्चित रूप से हर चैनल जानता रहा होगा कि वे साढ़े छह बजे के पहले कोई आंकलन प्रसारित नहीं कर सकते लेकिन पांच से साढ़े छह बजे के बीच का मार्जिन लेने की कोशिश कमोबेश हर चैनल ने की। जो लोकतंत्र के यज्ञ में मत की आहुति दे रहे थे हो सकता है उनके लिए यह डेढ़ घण्टे का मार्जिन कोई मायने न रखता हो लेकिन जो लोकतंत्र का कारोबार करते हैं उनके लिए एक मिनट में दस सेकेण्ड के छह स्लॉट होते हैं और हर स्लॉट की कीमत बाजार में मौजूद दर्शकों की मांग से तय होती है। दर्शकों से झूठ बोलकर हासिल किये गये डेढ़ घण्टे की मार्जिन में लोकतंत्र के पहरेदारों ने कितने स्लॉट बनाये होंगे और हर स्लॉट की क्या कीमत वसूली होगी यह उनका मार्केटिंग डिपार्टमेन्ट ही जानता होगा इतना तय है कि ये घण्टे डेढ़ घण्टे टीवी के भाग्य में रोज रोज नहीं आते इसलिए इतना झूठ चलता है कि आप अपने दर्शकों को डेढ़ घण्टा पहले से अपने पास बिठा लें और काउण्ट डाउन शुरू करके उनके नाम पर दस दस सेकेण्ड के प्लॉट काट दें।

टीवी के झूठ की बुनियाद ऐसे ही छोटे छोटे छद्म से भरा पड़ा है। जैसे जैसे टीवी मुख्यधारा की मीडिया का दर्जा हासिल करता गया है उसने अपने 'लाइव' और 'ब्रेकिंग' का हर संभव दोहन किया है। कुछ सेकेण्डों के हेर फेर से 'सबसे पहले' का दर्जा हासिल करने या फिर खो देनेवाले इस टीवी समाज में झूठ कब कहां कितना हिस्सा हासिल कर चुका है इसका आंकलन करने के लिए न तो हमारे पास मानसिकता है और न ही कोई मैकेनिज्म है। समाचार का टेलीवीजन समाज इस सच्चाई को जानता है इसलिए वह जब तब अपने फायदे के मुताबिक करामात करता रहता है। गढ्ढे से लेकर मंच तक लाइव का लिव-इन रिश्ता हो कि डेढ़ घण्टे का एहतियाती झूठ, टीवी समाज सब कुछ जानते हुए सबकुछ करता है। मतदान करनेवाली जनता भी उसके लिए वही मायने रखती है जो विकास का वादा करनेवाले नेता के लिए रखती है।

फिर भी हमारी व्याकुलता टीवी की इस व्यावसायिक छटपटाहट से ज्यादा उस आतुरता पर है जिसमें 'सबसे पहले' की जंग समय से पहले हो चली है। शाम साढ़े छह बजे तक अगर रोक है तो क्या ठीक साढ़े छह बजे ही मतदान का अवास्तविक आंकड़ा सामने रख देना सही हो सकता है? मतदान से मतगणना के बीच के अंतर को ये फौरी सर्वेक्षण पाटकर जनता को क्या संदेश देना चाहते हैं? कि लोकतंत्र के नाम पर वे जो काम करके आये हैं उसका नतीजा यह है? अगर आपने टीवी की बहसों को देखा हो तो आप अंदाज लगा सकते हैं कि टेलीवीजन अपने सर्वेक्षण कंपनियों के अवास्तविक आंकड़ों को वास्तविक मानकर न सिर्फ जीत हार का ऐलान कर देते हैं बल्कि उन दलों के प्रतिनिधियों और अपने विशेषज्ञों के जरिए परिणामों पर चर्चा भी शुरू कर देते हैं। जो जीत रहा है तो उसके जीत के क्या कारण है और जो हार रहा है तो उसकी हार के लिए क्या कारण जिम्मेदार हैं। यह सब तब जबकि अभी मतदान खत्म ही हुआ है और मतपेटियां या मशीनें पोलिंग बूथ से बाहर भी नहीं जा पायी हैं।

सबसे पहले तो इन एक्जिट पोल की विश्वसनीयता हमेशा संदिग्ध रहती है। भारतीय मतदाता का बहुत सहज स्वभाव है कि अगर वह किसी पार्टी का कार्यकर्ता या सक्रिय सदस्य नहीं है तो वह यह सच कभी नहीं बताता कि आखिरकार उसने अपना वोट किसे दिया है। इसलिए अगर कोई सर्वेक्षण एजंसी यह दावा करती है कि उसके पास सटीक आंकड़े हैं तो बुनियादी तौर पर उसका दावा गलत ही होता है। फिर उन सभी सर्वेक्षणों की डाटा प्रोसेसिंग, गणना और विश्लेषण ऐसा काम है जिसे पूरी ताकत से भी किया जाए तो अच्छा खासा वक्त लगता है। इसके बाद भी इनके सटीक होने का दावा नहीं किया जा सकता। लेकिन यहीं पर मैदान में मौजूद सर्वेक्षण एजंसियां उसी माहौल के मुताबिक सट्टेबाजी वाली प्रक्रिया से अपना निष्कर्ष निकालने की प्रक्रिया अपनाती हैं जिसे बनाने के लिए उसी टीवी का जमकर इस्तेमाल किया गया होता है जिसके लिए ये एजंसियां सर्वेक्षण कर रही होती हैं। यह सब आपस में एक दूसरे से इतना घुला मिला है कि एक पूरा बिजनेस मॉडल बन चुका है।

और इस बिजनेस मॉडल में मतदान से मतगणना के बीच मनगड़ना की एक मनगढ़ंत विधा विकसित कर ली गई है जिसकी वैज्ञानिकता और प्रामाणिकता हमेशा से संदिग्ध रही है। हो सकता है इन सबके बीच कोई सर्वेक्षण एजंसी सटीक नतीजों का आंकलन करने में सक्षम हो फिर भी मतगणना से पूर्व टीवी और सर्वे एजंसियों की इस मनगणना पर भी रोक लगनी चाहिए। चैनलों के मुनाफाखोरी को एक मिनट के लिए माफ भी कर दें तो लोकतांत्रिक प्रक्रिया के लिए यह बहुत खतरनाक है। ये मनगढंत गणनाएं अगर इसी तरह प्रभावी होती रहीं तो एक दिन लोगों के मन में लोकतंत्र के वे निकाय ही अप्रासंगिक हो जाएंगे जिनके जरिए भविष्य की भविष्यवाणी करने का कारोबार चल रहा है। एक्जिट पोल से नतीजोंं पर भले ही कोई फर्क न पड़ता हो लेकिन पूरी लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर फर्क जरूर पड़ता है।

Popular Posts of the week