Thursday, November 20, 2014

बरवाला का बैरी

शायद यही होना था जो हुआ। कबीरपंथी संत रामपाल की अदालत से अदावत इतनी मंहगी पड़ जाएगी यह संत रामपाल ने सपने में भी नहीं सोचा होगा। आखिरकार पुलिस प्रशासन ने अदालत के सामने अपनी लाज बचाने के लिए वह सब कुछ किया जो सामान्य परिस्थितियों में शायद कभी न करती। अदालत के एक सम्मन के सम्मान में तीस हजार की तादात में सुरक्षाबलों की तैनानी, आला अधिकारियों का जमावड़ा, लाठी डंडा, आंसू गैस, जेसीबी, क्रशर, बस गाड़ी और एम्बुलेन्स सबकुछ का इंतजाम करते हुए आखिरकार संत रामपाल तक पहुंचने में पुलिस कामयाब हुई और संत रामपाल ने भी इसी में भलाई समझी कि अब और खून खराबा करवाये बिना वे कानून के सामने आत्मसमर्पण कर दें। करीब हफ्तेभर की दबिश के बाद बुधवार की शाम उन्होंने पुलिस के सामने समर्पण कर दिया और पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। लेकिन इस समर्पण और गिरफ्तारी ने न सिर्फ भारत में संत परम्परा के सामने बल्कि सामाजिक व्यवस्था और कानून व्यवस्था के सामने भी कई गंभीर सवाल खड़े कर दिये हैं। इन सवालों का जवाब बिना यह जाने नहीं जाना जा सकता कि आखिर यह रामपाल हैं कौन और उन्होंने ऐसा क्या किया है कि कानून के सामने चुनौती बनकर खड़े हो गये?

हरियाणा के दलित समाज में पैदा होनेवाले रामपाल सिंह जाटिन (जतिन, जातिन) कोई ऐसे विख्यात संत न थे कि देश की आधुनिक संत परंपरा में उनका कोई स्थान होता। सोनीपत के गोहाना तहसील में पिता नंदलाल और माता इंदिरा देवी की संतान रामपाल ने आईटीआई की डिग्री लेने के बाद हरियाणा सिंचाई विभाग में जूनियर इंजीनियर की नौकरी कर ली थी। शुरूआत में एक धर्मनिष्ठ हिन्दू की तरह वे भी हनुमान के भक्त थे और देवी देवताओं की पूजा किया करते थे। लेकिन अपनी जीवनी में संत रामपाल कहते हैं कि देवी देवताओं की पूजा करते हुए भी उन्हें वह मानसिक शांति प्राप्त नहीं हो पा रही थी जो धर्म मार्ग पर चलते हुए वे पाना चाहते थे। इसी उधेड़बुन में नब्बे के दशक में एक बार उनकी मुलाकात के एक कबीरपंथी संत रामदेवानंद से हो गयी। 1994 में रामदेवानंद से हुई इस मुलाकात के बाद रामपाल सिह के जीवन में बहुत क्रांतिकारी बदलाव आया और वे कहते हैं कि रामदेवानंद ने जो उन्हें नामजप का उपदेश किया उससे उन्हें वह मानसिक शांति प्राप्त हुई जिसकी तलाश में वे भटक रहे थे।

रामदेवानंद से मुलाकात के बाद अगले ही साल 1995 में उन्होंने अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दिया और पूरी तरह से नाम संकीर्तन और कबीर बाणी के प्रचार और प्रसार के धार्मिक कार्य में लग गये। हालांकि सन 2000 तक सरकार ने उनकी इस्तीफा मंजूर नहीं किया था लेकिन 1995 के बाद से ही वे एक कबीरपंथी संत के रूप में कबीर वाणी और आत्मज्ञान की शिक्षा देने लगे थे। 2000 में सरकार द्वारा इस्तीफा स्वीकार किये जाने से पहले संत रामपाल की इतनी अधिक मान्यता हो चली थी कि 1999 में उन्होंने रोहतक के करौंथा में एक कबीर मठ की स्थापना कर दी। सतलोक नामक इस आश्रम की स्थापना के साथ ही संत रामपाल पर विवादों का साया मंडराने लगा और जल्द ही उनके ऊपर इस बात का दबाव बनने लगा कि वे अपना आश्रम बंद कर दें। सतलोक आश्रम के खिलाफ हरियाणा में जो लोग उठ खड़े हुए थे वे आर्यसमाज से जुड़े लोग थे और उनका कहना था कि संत रामपाल आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती का अपमान कर रहे हैं और आर्य समाज की शिक्षाओं का मजाक उड़ा रहे हैं। संत रामपाल पर यह आरोप भी लगे कि उन्होंंने करौंथा में जो आश्रम बनाया है वह जबरन कब्जा की गयी जमीन पर बनाया है। हालांकि बहुत बाद में 2009 में पंजाब हरियाणा हाईकोर्ट ने जमीन विवाद में फैसला देते हुए जमीन को वैध ठहरा दिया लेकिन जब तक यह फैसला आया संत रामपाल करौंथा से जा चुके थे।

करौंथा में रहते हुए संत रामपाल की ख्याति पिछड़े और दलित समाज के बीच इतनी बढ़ी कि उनके भक्त उन्हें दूध से नहलाने लगे थे और उसी दूध से खीर बनाकर प्रसाद बांटने लगे थे। रोहतक और झज्जर में उनका प्रभाव और प्रसार तेजी से फैल रहा था जो हरियाणा की अगड़ी जातियों और आर्यसमाज को शायद स्वीकार नहीं था। इसलिए 2006 में सत्यार्थ प्रकाश के अपमान के बहाने पहली बार रोहतक में संत रामपाल के खिलाफ आर्य समाज से जुड़े लोगों ने जमकर उत्पात मचाया था। उस वक्त रोहतक में कई जगह हिंसक प्रदर्शन और पत्थरबाजी हुई थी और करौंथा के आसपास रोडवेज की बसों को आग लगा दी गई थी। आश्रम के बाहर आर्यसमाज और सतलोक आश्रम के समर्थकों के बीच हुई भिड़ंत में एक नौजवान की मौत हो गयी थी जिसके
आरोप में संत रामपाल को भी हत्या का दोषी ठहराया गया था। उस वक्त संत रामपाल की गिरफ्तारी भी हुई थी लेकिन 2008 में जमानत पर छूटने के बाद संत रामपाल फिर लौटकर करौंथा नहीं गये। बरवाला चले आये और यहां नये सिरे से सतलोक आश्रम की स्थापना की।

लेकिन बरवाला में भी न तो आर्य समाज ने संत रामपाल का पीछा छोड़ा और न ही विवादों ने। धर्म और मजहब के बारे में अपनी तल्ख टिप्पणियों की वजह से लोगों को उत्तेजित कर देनेवाले रामपाल के समर्थकों और आर्य समाज के अनुयायियों के बीच 2013 में एक बार फिर भिड़ंत हुई और इस बार तीन लोगों की जान चली गयी। संत रामपाल के समर्थकों और आर्यसमाज के बीच जारी यह अदावत बढ़ते बढ़ते यहां तक पहुंच गई कि आर्य प्रितनिधि सभा किसी भी कीमत पर संत रामपाल को हरियाणा में मौजूद नहीं रहने देना चाहते थे। संत रामपाल पहले ही 2006 में हुए हत्याकांड में आरोपित थे और उनसे जुड़े मामले की सुनवाई स्थानीय अदालतों में चल रही थी। इसी सब के बीच इसी साल मई के महीने में संत रामपाल वीडियो कांफ्रेन्सिंग के जरिए कोर्ट की कार्रवाई में शामिल हुए तो उनके समर्थकों ने कोर्ट परिसर में पहुंचकर हंगामा कर दिया। इसके बाद जुलाई में चंडीगढ़ हाईकोर्ट में भी पहुंचकर समर्थकों ने हंगामा किया तो स्थानीय वकीलों ने अदालत में याचिका दाखिल करके उनके ऊपर अदालत की अवमानना का केस दाखिल कर दिया। पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने आदेश दिया कि स्वयं संत रामपाल अदालत के सामने हाजिर हों।

अदालत के आदेश के बावजूद संत रामपाल अदालत के सामने जाने से कतराते रहे और बीमारी का बहाना बनाते रहे। पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने अपने आखिरी आदेश में यहां तक कहा कि अगर वे अवमानना के मामले में अदालत में हाजिर नहीं होते हैं तो उनकी जमानत भी खारिज की जा सकती है, फिर भी रामपाल ने बीमारी के बहाने अदालत में पहुंचने में असमर्थता जता दी। यहीं से मामला बिगड़ गया और अदालत ने सख्त रुख अख्तियार करते हुए प्रशासन को आदेश दे दिया कि किसी भी तरह से वह संत रामपाल को अदालत के सामने हाजिर करे। अदालत से बार बार मिली फटकार का नतीजा यह हुआ कि प्रशासन ने रामपाल को गिरफ्तार करके अदालत के सामने प्रस्तुत होने के लिए अपनी सारी ताकत झोंक दी। करीब तीस हजार पुलिस और अर्धसैनिक बलों के साथ सतलोक आश्रम की घेरेबंदी कर दी तो उधर संत रामपाल भी इस जिद पर अड़ गये कि वे पुलिस द्वारा गिरफ्तार नहीं होंगे। हालांकि उनके समर्थकों का कहना है कि वे 21 नवंबर को अदालत के सामने प्रस्तुत होने के लिए पहले ही एफिडेविट लगा चुके थे लेकिन जब तक उनकी तरफ से यह किया गया मामला बहुत बिगड़ चुका था। आखिरकार पुलिस प्रशासन ने पूरी ताकत झोकते रामपाल तक पहुंचने में कामयाबी हासिल कर ली।

लेकिन जब तक यह सब हुआ सतलोक आश्रम में पांच निर्दोष जानें चली गईं। संत रामपाल की तरफ से सिर्फ अदालत के सामने ही नहीं बल्कि प्रशासन के सामने भी बहुत ही मूर्खतापूर्ण ढंग से अपनी शक्ति का प्रदर्शन किया गया। काले कपड़ों में आश्रम की चारदीवारी पर खड़े नौजवान हों कि आश्रण के बाहर भीतर मौजूद उनके भक्त उन सबने यही संदेश दिया कि वे सीधे सीधे कानून व्यवस्था को चुनौती दे रहे हैं। जाहिर है, अगर ऐसा होता है तो कानून किसी भी कीमत पर न्याय की सर्वोच्चता कायम करने के लिए बाध्य है। और प्रशासन ने वही किया। इसलिए इस पूरे मामले में अगर कुछ हद तक प्रशासन की कार्रवाई अतिरंजित लगती है तो कुछ हद तक संत रामपाल का मूर्खतापूर्ण व्यवहार भी समझ से परे है। अपने हठ में उन्होंने वह सबकुछ नष्ट कर दिया जिसे जोर जबर्दस्ती करके बचाना चाहते थे। अगर अदालत के आदेश की अवमानना करने की बजाय वे सीधे सीदे अदालत के सामने प्रस्तुत होते तो शायद न वे खुद सलाखों के भीतर पहुंचते और न ही सतलोक आश्रम इस तरह जमींदोज हो पाता। फिलहाल पुलिस और प्रशासन की कार्रवाई ऐसी है कि अब संत रामपाल का मुसीबतों से बाहर निकल पाना बहुत मुश्किल है। कत्ल के केस के साथ साथ देशद्रोह जैसे गंभीर मामले उन्हें लंबे समय तक फिर जेल के अंदर ले गये हैं।

रामपाल के मामले में अब आगे क्या होगा, यह अदालत तय करेगी लेकिन इस पूरे प्रकरण में एक बात साफ सामने आ गयी है कि दलित और पिछड़े वर्ग का धार्मिक या सामाजिक एकीकरण आज भी किसी चुनौती से कम नहीं है। हरियाणा और पंजाब के पिछड़े वर्ग में लोकप्रिय हो चले संत रामपाल आखिर आर्यसमाज को इतना क्यों खटक रहे थे जबकि दोनों की शिक्षाओं में आश्चर्यजनक रूप से बहुत अधिक समानता है? खटक शायद इसीलिए रहे थे कि जिन शिक्षाओं के बल पर उत्तर में अस्तित्वहीन हो चुका आर्यसमाज हरियणा में जड़ जमाए बैठा है, वह भला किसी नये पंथ को क्योंकर उभरने देता? झगड़ा वही है जो अकालियों और गुरमीत बाबा राम रहीम के बीच है। इसलिए संत रामपाल की गिरफ्तारी का स्वागत करते समय जो लोग कानून और व्यवस्था की जीत को बधाई दे रहे हैं वे यह न भूलें कि आखिरकार कानून और व्यवस्था सामाजिक हित के लिए होते हैं, अहित के लिए नहीं। रामपाल की कुछ मूर्खतापूर्ण हरकतों के लिए उन्हें दोषी कहा जा सकता है लेकिन रामपाल के नाम पर पूरे सतलोक आश्रम को जिस तरह बर्बाद किया गया है और कबीरपंथियों को ठिकाने लगाने की कोशिश की गई है उसके सामाजिक दुष्परिणाम सामने नहीं आयेंगे, इसका आश्वासन कौन देगा? आश्वासन की जरूरत भी नहीं है। सरकार, कानून और मीडिया के लिए रामपाल की गिरफ्तारी एक ''मिशन'' हो गयी थी, और गिरफ्तारी के साथ ही हरियाणा के मुख्यमंत्री ने साफ संदेश दिया कि ''मिशन पूरा हुआ''। मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर के इस संदेश का यह ''मिशन'' क्या सिर्फ कानून व्यवस्था के नाम पर रामपाल की गिरफ्तारी ही था? या फिर इस गिरफ्तारी के साथ ही हरियाणा के जातीय और वर्गीय समीकरण को समतल करने का कोई और मिशन था, जिसे सतलोक आश्रम को जमींदोज करके पूरा कर लिया गया है?

Wednesday, November 19, 2014

हिन्दुवन की हिन्दुवाई

दुनिया को देखने का यह नया हिन्दूवादी नजरिया है। आप चाहें तो इसे प्रगतिशील हिन्दुत्व भी कह सकते हैं जो परंपरागत हिन्दुत्व की जड़ से नयी कोंपल लिए बाहर निकलने को बेताब है। हिन्दुत्व का नया नया प्रोग्रेसिव नजरिया बाजार के आधार पर अपनी प्रासंगिकता तलाशते हुए आगे बढ़ रहा है। विश्व हिन्दू कांग्रेस इसी प्रगतिशील हिन्दुत्व का नया नमूना है। दिल्ली के पांच सितारा अशोक होटल में 21 से 23 नवंबर तक दुनिया के 1500 से अधिक हिन्दू इकट्ठा होकर धर्म के विविध आयामों का पारायण करेंगे। इस पारायण से कौन सा पुराण निकलेगा यह तो वक्त बतायेगा लेकिन आयोजन को लेकर आशावाद अपने चरम पर है। धर्म अर्थ काम और मोक्ष के चतुष्टय को जाननेवाले हिन्दू समाज के सामने एक नया चतुष्टय प्रस्तुत किया जा रहा है। वह मानेगा या मना कर देगा यह भी आयोजन नहीं वक्त बतायेगा लेकिन इस हिन्दुवाई के नव चतुष्टय को समझना जरूरी है।

विश्व हिन्दू कांग्रेस का आयोजन दिल्ली में हो इसमें कोई आश्चर्य नहीं। दिल्ली में एक ऐसी पार्टी की सरकार बन चुकी है जो अपने आपको हिन्दू धर्म का प्रतिनिधि दल मानता है। है या नहीं है इस पर बहस अपनी जगह लेकिन राजनीतिक हिन्दुत्व का जो उभार बीते दो दशकों में हुआ है उसके लहर पर सवार यह दल और इस दल को नियंत्रित करनेवाले वैचारिक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राजनीतिक हिन्दू निष्ठा पर शक नहीं किया जा सकता। सरकार बनने के बाद इस निष्ठा ने नये आयाम तलाशने शुरू कर दिये और विश्व हिन्दू कांग्रेस नये आयाम की इसी तलाश का परिणाम है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा स्थापित विश्व हिन्दू परिषद को बने पचास साल हो गये। देश दुनिया में जगह जगह हिन्दू शक्ति के उभार के जलसे चल भी रहे हैं, लेकिन जरूरी यह था कि दिल्ली में कुछ ऐसा आयोजन किया जाता जो विश्व हिन्दू परिषद के वैश्विक उपस्थिति का अहसास करा देता। विश्व हिन्दू कांग्रेस विश्व हिन्दू परिषद के उसी ग्लोबल फुटप्रिंट को अहसास कराने का आयोजन है।

इसलिए आयोजन से जुड़ी जो जानकारियां दी जा रही हैं उसमें सिर्फ यह नहीं बताया जा रहा है कि दुनिया के कितने देशों से कितने बुद्धिजीवी, विचारक या उद्योगपति पधार रहे हैं बल्कि यह भी बताया जा रहा है कि दुनिया के कितने देशों से कितनी संस्थाएं इस आयोजन की सहभागी हैं। विश्व हिन्दू परिषद के ही सचिव स्वामी विज्ञानानंद इस पूरे आयोजन की देखभाल कर रहे हैं और अमेरिका, कनाडा, आष्ट्रेलिया, केन्या सहित दुनिया के एक दर्जन देशों से 171 संगठनों को इस आयोजन का साझीदार बनाया गया है। आयोजन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सभी बड़े नेताओं का प्रमुखता से उपस्थिति रहेगी और आयोजन को सफल बनाने के लिए संघ और विश्व हिन्दू परिषद के कार्यकर्ता दिन रात मेहनत कर रहे हैं। तो फिर इस समूची मेहनत और कवायद का आखिरी लक्ष्य क्या है? क्या यह सिर्फ विश्व हिन्दू परिषद के स्वर्ण जयंती वर्ष को याद करने के लिए किया जा रहा है या फिर हिन्दुत्व से प्रगतिशील हो रहे हिन्दुत्व के इरादे कुछ और हैं?

इस पूरे आयोजन पर नजर पड़ते ही जो सबसे पहली बात समझ आती है वह यह कि संघ परिवार सनातन हिन्दू धर्म को नये माहौल के अनुसार परिभाषित करके उसकी जड़े सनातन हिन्दू धर्म से जोड़ना चाहता है। पुरुषार्थ चतुष्टय के सनातन सिद्धांत पर कायम सनातन हिन्दू धर्म का एक सिरा उस बाजार से जोड़ने की कोशिश है जिसके बल पर ईसाई अपने आपको आधुनिक सभ्यता का संवाहक मान बैठे हैं। वह सिरा कुछ और नहीं बल्कि वही बाजार है जो समाज और धर्म दोनों को नियंत्रित करता है। इसलिए अगर आप इस आयोजन के आयोजकों पर नजर दौड़ाएंगे तो आपको प्रायोजक भी नजर आयेंगे जिन्हें यह भरोसा दिया गया है कि अगर वे इस आयोजन का प्रायोजन करेंगे तो उन्हें एक बेहतर संभावनाओं वाला बाजार मौजूद कराया जाएगा। इसलिए 171 आयोजक ही नहीं 43 प्रायोजकों की लिस्ट भी सार्वजनिक रूप से सामने रखी गयी है और इन प्रायोजकों के विज्ञापन आयोजन स्थल पर जरूर दिखाये ही जाएंगे। बाजार की इतिश्री यहीं नहीं होती। तीन दिवसीय आयोजन में सबसे पहली बहस हिन्दू अर्थव्यवस्था को लेकर ही शुरू की जाएगी। हिन्दू अर्थव्यवस्था क्या होती है इस पर बहस करने की बजाय उन उद्योगपतियों को हिन्दू होने का अहसास कराकर हिन्दुवाई को मजबूत कर लिया जाएगा जो संयोग से हिन्दू धर्म में पैदा हो गये हैं और अपने क्षेत्र के सफल कारोबारी हैं। यही नजरिया बाकी दूसरी बहसों में बनाकर रखा जाएगा।

सनातन हिन्दू जीवन व्यवस्था क्या है, इस गढ़ने की जरूरत नहीं है। यह सनातन और अक्षुण्ण रूप से विद्यमान है। उसकी सिर्फ पहचान करने की जरूरत है। लेकिन ऐसे आयोजन उस सनातन हिन्दू व्यवस्था की पहचान भी कर पायेंगे इसमें संदेह है। पहले ही कदम से भटका हुए ऐसे आयोजन किसी धार्मिक संगठन को अपने सफल होने का अहसास तो करा सकते हैं लेकिन समूचे सनातन हिन्दू धर्म को कुछ उपलब्ध करा पायेंगे ऐसा लगता नहीं है क्योंकि जैसे ही आप संगठित होकर सोचने की शुरूआत करते हैं सनातन हिन्दू व्यवस्था पहले ही सिरे पर खारिज हो जाती है। संगठित व्यवस्था कभी सनातन नहीं हो सकती क्योंकि प्रकृति में सनातन वही है जो असंगठित है। जो नित निरंतर परिवर्तनशील है। विचार भी इससे अछूते नहीं है। तो क्या वैचारिक स्तर पर यह दावा किया जा सकता है कि एक खास किस्म के विचार को ही हिन्दू विचार कहकर स्थापित कर दिया तो हिन्दू व्यवस्था कायम हो जाएगी? यह ईसाई और इस्लाम की प्रतिक्रिया तो हो सकती है सनातन हिन्दू विचार कभी नहीं हो सकता।

लेकिन आयोजक यह करने जा रहे हैं। इस दावे के साथ कि वे हिन्दू युवा, हिन्दू महिला, हिन्दू मीडिया और हिन्दू शिक्षा की पहचान करेंगे। यह पहचान सिर्फ अपनी पहचान पाने का प्रयास होता तो शायद इस आयोजन पर कोई सवाल नहीं उठता लेकिन निष्पक्ष व्यवस्था को पक्षपाती पहचान तभी दी जाती है जब कोई निहित स्वार्थ काम कर रहा होता है। भारत को हिन्दुस्थान बनाने के आह्वान बताते हैं कि ऐसी पहचानों का एक निहित राजनीतिक स्वार्थ भी है। यह आयोजन ऐसे निहित राजनीतिक स्वार्थ की कांग्रेस तो बन सकता है विचार विमर्श का नैमिशारण्य नहीं हो सकता।

Wednesday, November 12, 2014

सत्ता के सौदागरों की सुपर कांग्रेस

याद करिए कांग्रेस और वामपंथी दलों की जबर्दस्त खेमेबंदी के बीच भाजपा की वह पहली सरकार जिसकी तेरहवें दिन तेरही हो गयी थी। बहुत जोड़ जुगाड़ करने के बाद भी बीजेपी 200 से ज्यादा सांसदों का समर्थन जुटाने में नाकामयाब रही। अटल बिहारी वाजपेयी ने तेरहवें दिन शंकर दयाल शर्मा को यह कहते हुए अपना इस्तीफा सौंप दिया कि उनके पास जरूरी समर्थन नहीं है इसलिए विश्वासमत हासिल करने के लिए सदन के भीतर जाने की जरूरत नहीं है। घोर सांप्रदायिकता के कलंक से जूझकर उभरती भाजपा के पास 161 सांसद थे, और पहली बार वह देश में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी। राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा की मजबूरी थी कि वे भाजपा के नेता को प्रधानमंत्री की शपथ लेने के लिए बुलाते। उन्होंने बुलाया। बतौर नेता अटल बिहारी वाजपेयी गये और उन्होंने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली यह जानते हुए भी कि वे किसी भी कीमत पर 272 सांसदों का समर्थन हासिल नहीं कर सकते। क्यों किया उन्होंने ऐसा? और आज उसका जिक्र करने की जरूरत क्यों है?

राष्ट्रपति के पास मिलने जाने से पहले अटल बिहारी वाजपेयी ने कुछ नजदीकी लोगों से सलाह मशविरा किया था और कुछ लोगों ने उन्हें बिन मांगे सलाह भी दिया था। कमोबेश सबकी राय यही थी कि समर्थन के अभाव में सत्ता पर दावा नहीं करना चाहिए। लेकिन आखिरकार लालकृष्ण आडवाणी के साथ वे रायसीना रोड के अपने घर से निकले और सरकार बनाने का दावा पेश कर दिया। अटल बिहारी वाजपेयी संभवत: यह जानते थे कि सत्ता को छूकर ही सत्ता तक पहुंचने का मार्ग निकाला जा सकता है। और हुआ वही। भले ही इसे लोगों ने अटल बिहारी वाजपेयी का प्रधानमंत्री पद का मोह बताया हो लेकिन उनके निर्णय ने उनका साथ दिया और देश में उनके प्रति एक ऐसी सद्भावना पैदा हुई कि पहले 13 महीने और फिर पूरे पांच साल की सरकार बनाने चलाने का मौका दिया। इन पांच सालों में अटल सरकार की उपलब्धियां और पार्टी की नीतियां एक तरफ लेकिन इन्हीं पांच सालों में बीजेपी को सत्ता का पहला सफल सौदागर हासिल हुआ। प्रमोद महाजन। प्रमोद महाजन ही वह शख्स थे जिन्होंने सत्ता को मैनेजमेन्ट माना और अटल बिहारी वाजपेयी के मना करने के बावजूद समय से पहले चुनाव करवाने का निर्णय लिया। मीडिया मैनेजमेन्ट के जरिए देशभर में इंडिया शाइनिंग का नारा दिया और नतीजा यह हुआ कि आनेवाले एक दशक के लिए बीजेपी सत्ता से बाहर हो गयी।

आपके पतन की शुरूआत तब नहीं होती जब आप नीचे गिर रहे होते हैं बल्कि उसकी शुरूआत उसी वक्त से हो जाती है जब आप अपने उत्थान के चरम पर होते हैं। प्रकृति के इस शास्वत नियम से बीजेपी भी अछूती न रह सकी और महाराष्ट्र में शरद पवार का समर्थन लेकर सत्ता के लिए अपने वैचारिक पतन का ऐलान कर दिया है।

एक तरफ नेता अटल बिहारी वाजपेयी का वह निर्णय था जिसने अल्पमत को समय के साथ बहुमत में तब्दील कर दिया और दूसरी तरफ प्रमोद महाजन का वह निर्णय था जिसने एनडीए के बहुमत को अल्पमत में तब्दील कर दिया। समय बीतने के साथ बीजेपी राज्यों से भी हाथ धोती गई और केन्द्र में भी उसके सदस्यों की संख्या में गिरावट ही दर्ज होती रही। इसे पहली बार पूर्ण बहुमत का दर्जा दिलवाया नरेन्द्र मोदी ने जब 2014 के आम चुनाव में कांग्रेसमुक्त भारत के नारे को उन्होंने एक आंदोलन बना दिया। कभी आपातकाल के आंदोलनकारी रहे नरेन्द्र मोदी के जेहन में गैर कांग्रेसवाद कुछ उसी तरह भरा होगा जैसे उस वक्त के इंदिरा विरोधियों के जेहन में आज भी मौजूद दिखाई देता है। लेकिन इस बार वे गैर कांग्रेसवाद की बजाय कांग्रेस मुक्त भारत का निर्माण करने का संकल्प दोहरा रहे थे। लेकिन नरेन्द्र मोदी का यह वैचारिक अभियान व्यावहारिक धरातल पर बिल्कुल वैसा ही था, नहीं कहा जा सकता। कांग्रेस छोड़कर आये नेताओं को बड़ी संख्या में बीजेपी का टिकट दिया गया और एक अनुमान के मुताबिक इस साल बीजेपी के टिकट पर जो सांसद चुनकर आये हैं उनमें करीब 110 सांसद ऐसे हैं जिनका अतीत कांग्रेसी रहा है।

यह कांग्रेस का अतीत लिए नेताओं का कमाल था कि नरेन्द्र मोदी के नारे का लेकिन केन्द्र में बीजेपी ने अकेले बहुमत का वह आंकड़ा हासिल कर लिया जो अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में संभव नहीं हो पाया था। जाहिर है, नरेन्द्र मोदी जीत हार के आंकड़ों के मामले में अटल बिहारी वाजपेयी से भी दो कदम आगे निकल गये। लेकिन आगे निकलने की इसी होड़ में नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की बीजेपी ने वह सब भी करना शुरू कर दिया जो छह महीने के भीतर ही उनकी बीजेपी को सुपर कांग्रेस में तब्दील करने लगी। हरियाणा में राव इंद्रजीत सिंह, वीरेन्द्र सिंह हों कि अब महाराष्ट्र में शरद पवार। जिन लोगों के खिलाफ बीजेपी खड़ी हो रही है उन्हीं लोगों को अपने यहां सम्मान की जगह भी दे रही है। समर्थन ले रही है और मंत्री भी बना रही है। तब सवाल यह उठता है कि क्या यह बीजेपी उसी जनसंघ से उपजी बीजेपी है जिसकी आधारशिला कभी उन दीनदयाल उपाध्याय ने रखी थी और राजनीति को सत्ता संघर्ष से ज्यादा वैचारिक संघर्ष मानते थे। हो सकता है आज भारतीय जनता पार्टी के नये गुजराती संस्करण में ऐसे वैचारिक संघर्ष के लिए कहीं कोई जगह नहीं हो लेकिन अभी तक बीजेपी के नेता और कार्यकर्ता अपनी इसी विशिष्टता के कारण दूसरों से अलग होने का दावा करते थे। अब उनके सामने सचमुच बड़ा संकट होगा कि वे सत्ता के लिए विचार त्यागें कि विचार के लिए सत्ता। मोदी शाह की बीजेपी में दोनों का साथ रह पाना तो संभव नहीं है।

विधानसभा चुनाव से पहले बीजेपी ने महाराष्ट्र में शरद पवार की जमकर निंदा की थी और खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उनकी पार्टी को नेचुलर करप्ट पार्टी का दर्जा देते हुए न सिर्फ कांग्रेस बल्कि एनसीपी के खिलाफ भी जनसमर्थन हासिल किया था। लेकिन सत्ता के समीकरण में शिवसेना को किनारे करने के चक्कर में आखिरकार बीजेपी ने उन्हीं शरद पवार से मौन समर्थन लेना स्वीकार कर लिया जिन्हें भ्रष्ट बताकर जनादेश हासिल किया था। यह कुछ कुछ वैसा ही हुआ जैसे केजरीवाल के साथ दिल्ली में हुआ था। यह सच है कि केजरीवाल समर्थन मांगने कांग्रेस के पास नहीं गये थे लेकिन कांग्रेस ने उन्हें खत्म करने के लिए जबर्दस्ती समर्थन दे दिया था। तब से लेकर अब तक अरविन्द केजरीवाल चाहे जितनी सफाई देते रहें लेकिन खुद भारतीय जनता पार्टी ने ही इसे सबसे बड़ा मुद्दा बना दिया। और यह मुद्दा था भी। राजनीति में जिसकी बुराईयों के खिलाफ आप जनता का समर्थन हासिल करते हैं सत्ता हासिल करने के लिए उसी का समर्थन कैसे ले सकते हैं? यह तो सीधे सीधे जनादेश का मजाक होता है। और यही मजाक अब बीजेपी ने महाराष्ट्र में किया है।

विचार की राजनीति को तिलांजलि देते हुए हेजमनी (एकाधिकार) कायम करने निकली मोदी शाह की बीजेपी एक ही लक्ष्य के साथ आगे बढ़ रही है कि देश में न तो कोई दूसरा दल होनी चाहिए और न ही दूसरी सरकार। अगर वे अपने वैचारिक अभियान के जरिए ऐसा करने की कोशिश करते तो इस पर सवाल उठाने की जरूरत नहीं थी। लेकिन विचार की राजनीति को जब सत्ता के सौदागर छू लेते हैं तो उसे व्यभिचार की राजनीति में तब्दील कर देते हैं। तब एकमात्र ध्येय सत्ता होती है और उसके लिए किसी भी व्यक्ति ही नहीं किसी भी विचार से समझौता किया जा सकता है। अगर आपको लगता है कि यह महज राजनीतिक फायदे के लिए होता है, तो आप गलत हैं। सत्ता तंत्र के पीछे व्यापार और अपराध का एक ऐसा संगठित तंत्र काम करता है जो किसी भी कीमत पर सत्ता को अपने नियंत्रण में रखना चाहता है। सत्ता के असली सौदागर यही होते हैं जो राजनीतिक दलों के जरिए अपनी जीत सुनिश्चित करते हैं। कोई भी दल ऐसा नहीं है जो इन सौदागरों की पहुंच से दूर हो। लेकिन फिलहाल महाराष्ट्र में शरद पवार से भी समर्थन ले लेने की मजबूरी यह साबित करती है कि मोदी शाह की बीजेपी वह बीजेपी नहीं है जिसे अटल आडवाणी की बीजेपी कहा जा सके। पता नहीं, इस कदम से राष्ट्रवादी विचारधारा भ्रष्ट हुई है कि भ्रष्ट राष्ट्रवादी हो गये हैं। लेकिन इतना तो तय हो गया है कि मोदी शाह ने जिस गैर कांग्रेसवाद का नारा दिया था उस नारे के ठीक उलट जाते हुए बीजेपी को ही सुपर कांग्रेस बना दिया है।

Tuesday, November 11, 2014

घाटी में गिलानी बनाम गनी

अढ़तालीस साल के सज्जाद गनी लोन फिलहाल कश्मीर की सूबाई राजनीति में अपने आपको इतना स्थापित नहीं कर पाये हैं कि वे कश्मीर में बनाम की राजनीति का हिस्सा हो सकें। लेकिन इस बार वे हैं। खुद सज्जाद भी न कभी अलगाववादी नेता रहे हैं और न ही मुख्यधारा के राजनीतिज्ञ कि कश्मीर पर बात करते समय उनका जिक्र करना जरूरी हो। लेकिन इस बार जरूरी हैं। कश्मीर की राजनीति में अलगाववादी नेता अब्दुल गनी लोन के दो बेटों में से एक सज्जाद गनी लोन दूसरी बार विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए मैदान में हैं और जम्मू कश्मीर में घाटी की महज 19 सीटों पर मैदान में उतर रहे हैं। फिर भी उनका जिक्र जरूरी है। उनके जरिए इस बार पूरे जम्मू कश्मीर का जिक्र जरूरी है।

अब्दुल गनी लोन साठ के दशक में जब अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से कानून की पढ़ाई करके वापस कश्मीर लौटे तो उन्होंने कांग्रेस की राजनीति शुरू की थी। वे एक बार विधायक भी रहे लेकिन एक दशक के भीतर ही उन्हें कश्मीर की आजादी की कसक सताने लगी और उन्होंने 1978 में पीपुल्स कांफ्रेस की स्थापना कर आजादी की हिमायत शुरू कर दी। करीब डेढ़ दशक तक कश्मीर की आजादी की अलग लगाने के बाद नब्बे के दशक में उन्हें यह अहसास हो गया गया कि वे जिसे कश्मीर की आजादी कह रहे हैं वह असल में पाकिस्तान की गुलामी है। इसलिए उन्होंने अपना राजनीतिक रास्ता अलगाववादियों से धीरे धीरे अलग करना शुरू कर दिया। और इस अलगाव की पहली कीमत उन्हें चुकानी पड़ी 1996 में जब उनकी कार पर हमला हुआ और बम मारकर उन्हें मारने की कोशिश की गई। वे बच तो गये लेकिन उस हुर्रियत कांफ्रेस के निशाने पर हमेशा बने रहे जो कश्मीर की आजादी के लिए पाकिस्तान की गुलामी की हिमायत करता था।
पाकिस्तान से आनेवाले आतंकियों और आईएसआई के खिलाफ वे अपनी आवाज बुलंद करते रहे और उन्हें मेहमान आतंकी कहकर संबोधित करते रहे। शायद यही कारण है कि 2002 में जब वे मीरवाइज मोहम्मद फारुख की बरसी में शरीक होने के लिए पहुंचे तो पांच हजार लोगों के बीच आतंकियों ने पुलिस भेष में पहुंचकर उनकी हत्या कर दी। उस वक्त भी और आज भी अब्दुल गनी लोन के बेटे सज्जाद गनी लोन अपने पिता की मौत के लिए दो लोगों को जिम्मेदार मानते थे। पहला पाकिस्तान की खुफिया एजंसी आईएसआई और दूसरा कश्मीर की आजादी के पैरोकार और हुर्रियत नेता सैय्यद अली शाह गिलानी। उन्होंने सार्वजनिक रूप से गिलानी का नाम तो कभी नहीं लिया लेकिन पिता की मौत के करीब एक दशक बाद एक अखबार से बात करते हुए सज्जाद ने साफ साफ कहा कि ''मेरे पिता की हत्या सफेदपोश लोगों ने करवाई है। उन्होंने कहा कि मैंने हत्यारों के बारे में बहुत कुछ संकेत दे दिया है लेकिन अब मैं सार्वजनिक रूप से कुछ कहना नहीं चाहता। सिर्फ इतना कहना चाहता हूं कि अगर उन्हें रोका नहीं गया तो कश्मीर में और भी हत्याएं हो सकती हैं।" यह गिलानी के खिलाफ सज्जाद का गुस्सा ही था कि उन्होंने अपने पिता के क्रियाकर्म में गिलानी को मौजूद नहीं रहने दिया था।

पिता की हत्या के करीब छह साल बाद सज्जाद गनी लोन ने उसी पीपुल्स कांफ्रेस के जरिए अपनी राजनीतिक यात्रा दोबारा शुरू की जिसकी शुरुआत अब्दुल गनी लोन ने कश्मीर की आजादी के लिए किया था। 2008 में उन्होंने पीपुल्स कांफ्रेस की तरफ से पहली बार चुनावी मैदान में हाथ आजमाया और कुछ नहीं पाया। ऐसा स्वाभाविक भी था। कश्मीर घाटी में नेशनल कांफ्रेस और पीडीपी के मौजूद रहते पीपुल्स कांफ्रेस के लिए अपनी जगह बना पाना इतना आसान भी नहीं है। लेकिन 2008 में सज्जाद गनी लोन ने जो शुरूआत की वह राजनीतिक असफलताओं के साथ 2009 और 2014 में भी जारी रहा। वे अपने सीमित समर्थन के साथ चुनावी मैदान में डटे हुए हैं और शायद केन्द्र की सत्ता में दशकभर बाद लौटी बीजेपी को कश्मीर में ऐसे ही किसी साथी की तलाश थी जो जम्मू कश्मीर में एक दूसरे की जरूरतें पूरी कर सकें।

जम्मू कश्मीर में बीते विधानसभा चुनाव में इकाई से दहाई का आंकड़ा पार कर चुकी बीजेपी का मुख्य जोर जम्मू की 36 और लद्दाख की 4 सीटों पर ही रहा है। कश्मीर घाटी की 47 सीटों पर 'कश्मीर विरोधी' बीजेपी का कोई नामलेवा नहीं है। जम्मू कश्मीर विधानसभा में बहुमत के लिए अगर 44 सीटों का आंकड़ा जुटाना है तो बिना कश्मीर में मजबूत मौजूदगी के किसी के लिए भी सरकार बनाने का सपना पूरा कर पाना मुश्किल है। शायद यही कारण है कि बीजेपी ने सज्जाद का साथ पकड़ना जरूरी समझा। संघ के रणनीतिकारों ने सज्जाद गनी लोन से संपर्क बढ़ाया और बीजेपी के बड़े नेताओं की तरफ से बातचीत शुरू कर दी गई। जो सहमति बनी वह मिलकर चुनाव लड़ने की नहीं थी बल्कि चुनाव बाद समझौता करने की थी। यूपीए सरकार के कार्यकाल में भी दिल्ली से नजदीकी रखनेवाले सज्जाद गनी लोन के लिए नरेन्द्र मोदी सरकार से वास्ता रखना इतना मुश्किल काम नहीं था। इसलिए दोनों के बीच बात बन गयी। सज्जाद गनी लोन को जम्मू कश्मीर में मुख्यमंत्री की कुर्सी दिख रही है जबकि केन्द्र की बीजेपी सरकार इस चुनाव में 'कश्मीर समस्या का समाधान' खोज रही है।

और कश्मीर समस्या का वह समाधान कुछ और नहीं बल्कि गिलानी जैसे नेताओं का राजनीतिक सफाया है जिसके लिए सज्जाद गनी लोन से बेहतर दूसरा विकल्प फिलहाल बीजेपी के पास मौजूद नहीं है। इसलिए बीजेपी ही नहीं पीएमओ भी इस बार सक्रिय होकर बाढ़ पीड़ित कश्मीर की पूरी मदद कर रहा है। अमित शाह की अगुवाई में बीजेपी के सैकड़ों रणनीतिकार और हजारों वालन्टियर जम्मू में क्लीन स्वीप करने की तैयारियों को अंजाम दे रहे हैं। बीते विधानसभा चुनाव के मुकाबले इस बार सज्जाद की पीपुल्स कांफ्रेस को भी घाटी में बेहतर समर्थन मिल रहा है। अगर इस चुनाव में सज्जाद गनी लोन का 'शेर' घाटी में दहाड़ता है और बीजेपी अपने 'शेर' के सहारे जम्मू में क्लीन स्वीप का झाड़ू लगा देती है तो इस बात की पूरी संभावना है कि हुर्रियत कांफ्रेस का हिस्सा रहे कुछ और लोग इस नयी राजनीति में हिस्सेदारी शुरू कर देंगे जो गिलानी की पाक परस्त नीतियों से त्रस्त हैं। कहने की जरूरत नहीं कि इन त्रस्त लोगों में एक बड़ा नाम उन मीरवाइज उमर का भी है जिनके पिता की बरसी के दिन सज्जाद गनी लोन के पिता की कुर्बानी ले ली गयी थी।

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