Sunday, September 27, 2015

सोशल मोडिया

ज्यादा पुरानी बात नहीं है. कोई चार या पांच साल पहले की बात है. 2009 का आमचुनाव बीत चुका था और आडवाणी के 'नेटीजनों' ने उनको आइना दिखा दिया था. भारत में पहली बार किसी राजनेता ने वेबसाइट और ब्लाग के जरिए अपना प्रचार किया था और वह ओबामा की तरह सफल नहीं हो पाया था.

उस वक्त भी मेरा यही कहना था कि 2009 नहीं, 2014 के चुनाव में कुछ हद तक और 2019 के चुनाव बहुत हद तक नया मीडिया (तब सोशल मीडिया की बजाय न्यू मीडिया ज्यादा चलन में था) अपनी भूमिका निभायेगा. इसके बाद का चुनाव तो नये मीडिया से ही लड़ा जाएगा. यह कैसे होगा इसका कोई खाका साफ नहीं था और सोशल नेटवर्किंग साइट्स (आर्कुट, हाई-फाइव आदि) सोशल मीडिया हो जाएगा इसका भी अंदाज नहीं था.

लेकिन फिर तभी पहले वेबसाइट के जरिए और फिर फेसबुक पर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी का आगमन हुआ. हो सकता है यह प्रेरणा उन्हें अपने राजनीतिक संरक्षक लालकृष्ण आडवाणी से ही मिली हो लेकिन निश्चित तौर पर उन्होंने इन मीडिया माध्यमों का आडवाणी से बेहतर इस्तेमाल किया.

देखते ही देखते फेसबुक पर ऐसे ग्रुप की बाढ़ आ गयी जो नरेन्द्र मोदी को राजनीति का मसीहा घोषित कर रही थी. उन दिनों मुख्यधारा की टीवी मीडिया के लिए नरेन्द्र मोदी ऐसे राजनीतिक अछूत थे जिनका नाम सिर्फ गुजरात दंगों को याद करते हुए लिया जाता था. संभवत: मोदी सरकार की अमेरिकी मीडिया सलाहकार एपको कंपनी ने ही यह रास्ता निकाला कि सोशल मीडिया के जरिए वे लोगों तक पहुंचेगे और उनका यह फार्मूला जबर्दस्त हिट रहा.

उन दिनों मीडिया के एक मित्र ने बहुत प्रभावित होते हुए कहा था नरेन्द्र मोदी बहुत पापुलर हो गये हैं. यह बहुत पापुलर वाला खिताब नरेन्द्र मोदी को सोशल मीडिया से ही मिला. जिसका असर टीवी पर हुआ और जब इंटरनेट और टीवी पर नरेन्द्र मोदी "बहुत पॉपुलर" नेता हो गये तो पार्टी ने भी यह कहते हुए उनको अपना नेता मान लिया कि वे बहुत पॉपुलर हैं. फिर जो हुआ वह हम सबके सामने हैं.

फिर भी यह तय कर पाना मुश्किल है कि भारत में सोशल मीडिया ने नरेन्द्र मोदी को स्थापित किया या नरेन्द्र मोदी ने सोशल मीडिया को. जो भी हो इतना तय है कि नरेन्द्र मोदी समकालीन नेताओं में भविष्य को देखने की क्षमता सबसे अधिक रखते हैं. उन्होंने सोशल मीडिया के घोड़े पर तब दांव लगाया जब यह ब्लाग ब्लाग के दायरे में सिमटा हुआ था. बड़े पैमाने पर कॉल सेन्टरों में लोगों की भर्ती की गयी और पोलिटिकल कैम्पेन का नया रास्ता खोला गया. कुख्यात फोटोशॉप फैक्ट्री और सोशल मीडिया की जुगलबंदी ने वास्तविकता को आभाषीय छद्म से पटक दिया. जब तक लोग इस जुगलबंदी को समझ पाते नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बन चुके थे.

इसलिए आज अगर मोदी फेसबुक के मेहमान हैं तो सम्मान का यह आपसी आदान प्रदान दोनों डिजर्व करते हैं.

Saturday, September 26, 2015

बजाज की क्यूट कार, भारत करे इंतजार

बजाज परिवार टाटा नैनो के कंपटीशन में सबसे सस्ती कार लाना चाहते थे. उन्होंने फ्रांस की रेनॉ कंपनी से समझौता भी किया लेकिन प्रोजेक्ट में इतनी संभावना थी कि दोनों के रास्ते अलग हो गये और अब सस्ती कार के उसी फार्मूले पर आगे
बढ़ते हुए रेनॉ क्विड लेकर हाजिर हो गयी लेकिन तीन साल से बजाज साहब अपनी कार को बाजार में नहीं ला पा रहे हैं. क्यों?

क्योंकि मामला सुप्रीम कोर्ट में है और केन्द्र सरकार सुप्रीम कोर्ट में अपना पक्ष नहीं बता रही है. जनहित याचिका डाली गयी है कि बजाज की इस कार को मंजूरी मिली तो कार का एक नया सेगमेन्ट खड़ा हो जाएगा जिसकी इंजन क्षमता आटोरिक्शा वाली है. बात भी यही है. बजाज ने इस चौपाये में तिपाये का ही इंजन लगाया है जो 35 किलोमीटर से ज्यादा माइलेज देता है. कीमत भी 1 लाख 35 हजार रखी गयी. आटोरिक्शा और इस कार में जो बुनियादी अंतर हैं वे भले ही इसमें बैठनेवाले को कार का सुख न दें लेकिन आटोवाला दुख भी नहीं देंगे.

सच कहें तो शुरूआत भले ही टाटा ने की हो लेकिन जनता की कार का काम बजाज ने ही पूरा किया जिसका इस्तेमाल सड़क से तिपहिया हटाने के साथ साथ सामान्य परिवार को अपना परिवहन उपलब्ध करानेवाला हो सकता है. लेकिन बजाज की इस क्यूट' कोशिश को सरकारी और कानूनी समर्थन नहीं मिल पा रहा है. हो सकता है नैनो बिरादरी इसके पीछे काम कर रही हो लेकिन नुकसान तो उनका है जो तिपाये से चौपाये पर जाना चाहते हैं लेकिन बिना खर्च बढ़ाये हुए.

बहरहार इंडिया का यह इन्नोवेशन अब दूसरी दुनिया के बाजारों की तरफ बढ़ चला है. हम चाहेें तो मुंह ताक सकते हैं.

Sunday, September 13, 2015

भारत में बहावी पैसे का बहाव

इस साल रमजान के महीने में दो खबर कमोबेश एकसाथ ही आई हैं. पहली खबर यह कि सऊदी भारत में बहावी इस्लाम को बढ़ावा देने के लिए पूंजी निवेश कर रहा है और दूसरी खबर केरल से जहां मुस्लिम एजुकेशन सोसायटी ने अपने कालेज में जीन्स पहनने पर पाबंदी लगा दिया हैं. दोनों खबर अलग अलग जरूर हैं लेकिन हैं एक दूसरे से जुड़ी हुई.

सऊदी से आनेवाले बहावी इस्लाम का सबसे ज्यादा जोर केरल पर ही है क्योंकि वहां न केवल मुस्लिम आबादी बहुतायत है बल्कि केरल का अरब देशों से जबर्दस्त व्यावसायिक रिश्ता भी है. वैसे भी भारत की पहली मस्जिद केरल में ही बनी थी इसलिए सऊदी अरब अपने बहावी धर्म सुधार का ज्यादा जोर केरल पर ही दे रहा है.

हो सकता है जिस मुस्लिम एजूकेशन सोसायटी ने जीन्स के खिलाफ फतवा दिया है उसे भी सऊदी के 1700 करोड़ में कुछ मिला हो क्योंकि ऐसे दकियानूसी फैसले सऊदी के उस बहावी इस्लाम को बहुत सुहाते हैं जिससे भारत के उदारवादी शिया और सुन्नी मुसलमान पीछा छुड़ाना चाहते हैं.

जो भी हो इतना साफ दिख रहा है कि सऊदी इस्लाम में बहावी कट्टरता पैदा करने के लिए पूरी दुनिया में काम कर रहा है. भारत में भी अपने हजारों धर्म प्रचारकों के जरिए भारत के मुसलमानों को एक बहावी रुलबुक पहुंचाई जा रही है. रुलबुक इस्लाम के कुछ नियम कानून कहती है-

!)  किसी पीर, औलिया या फकीर की मजार पर मत जाओ.
!) कानून को भूल जाओ और शरीयत को अपनाओ
!) औरतों को बुर्का पहनाओ और उन्हें काम पर जाने से रोको
!) मर्दों की दाढ़ी बढ़ाओ और पाजामा चार इंच ऊंचा करवाओ.
!) सार्वजनिक जगहों पर औरत मर्द का मिलना जुलना बंद करवाओ.
!) गीत संगीत, हंसना रोना सब बंद करो. न जोर से हंसना है और न किसी की मैयत में जोर से रोना है.

ऐसी और भी अनेक बातें जो मुसलमान को आपस में तो अलग करती ही हैं मुसलमानों के एक वर्ग विशेष में कट्टरता भी भरती हैं. और यह सब हो रहा है इस्लाम के नाम पर. अगर भारत सरकार एनजीओ की विदेशी फण्डिग रोककर विदेशी हस्तक्षेप कम करना चाहती है तो उसे इस बहावी पैसे के बहाव पर भी रोक लगानी चाहिए ताकि जो इस्लाम भारतीय है वह भारतीय ही बना रहे.

आधुनिक भारत के योगस्तंभ- स्वामी शिवानंद सरस्वती

दुनिया में बीसवीं सदी योग के प्रसार की सदी थी. योग के इस प्रसार में सैकड़ों नहीं हजारों योगियों ने चुपचाप अपना योगदान दिया और पूरी दुनिया में योग के महत्व को स्थापित किया. लेकिन बीसवीं सदी में योग के इस प्रसार को बिना स्वामी शिवानंद सरस्वती को जाने समझा नहीं जा सकेगा.

तमिलनाडु में 1887 में जन्मे स्वामी शिवानंद सरस्वती पेशे से ब्रिटिश मलेशिया में डॉक्टर थे. चिकित्सा करते करते ही उन्हें एक दिन यह महसूस हुआ कि शरीर के सब अंग तो समझ लिए लेकिन आत्मा का पता न चला? बस इतना सवाल मन में उठते ही वे आत्मा की खोज में फिर से भारत लौट आये और ऋषिकेश में स्थित हो गये. यही गुरुदीक्षा ली और यहीं से उन्होंने वह किया जिसने पश्चिमी जगत में योग की आधारशिला रखने में महत्वपूर्ण योगदान दिया.

1936 में डिवाइन लाइफ सोसायटी की स्थापना करनेवाले स्वामी शिवानंद सरस्वती ने अपने कई शिष्यों को पश्चिम में योग प्रसार के लिए भेजा. योग और आध्यात्म पर 200 से अधिक किताबें लिखीं. करीब साठ, सत्तर साल पहले अमेरिका, दक्षिण अफ्रीका और कनाडा में डिवाइन लाइफ सोसायटी के संरक्षण में योग प्रसार का काम शुरू हुआ जो आज तक चल रहा है.

पूरी दुनिया में योग की सबसे प्रामाणिक संस्थाओं में एक बिहार स्कूल आफ योग के संस्थापक स्वामी सत्यानंद सरस्वती स्वामी शिवानंद सरस्वती के ही शिष्य थे और पचास के दशक में उन्हें यह कहते आश्रम से विदा किया था कि "जाओ सत्यानंद दुनिया को योग सिखाओ."

आधुनिक भारत के योग स्तंभ- स्वामी राम

साठ के दशक में योग के सामने तब तो और भी कठिन दौर था वैज्ञानिक साबित होने का. क्योंकि अमेरिका के लैब में योग सफल न हुआ तो उसका पश्चिम में प्रवेश निषेध हो जाता. इसी कठिन दौर में हिमालय के एक महान योगी स्वामी राम डॉ एल्मर ग्रीन के बुलावे पर 1969 में अमेरिका जाते हैं.

मैनिन्जर फाउण्डेशन की लेबोरेटरी में उनके योग संबंधी दावों की लंबी जांच पड़ताल चलती है लेकिन स्वामी राम की पराभौतिक शक्तियों के आगे विज्ञान असंभव को संभव मान लेता है. परीक्षण के दौरान उन्होंने16 सेकेण्ड के लिए हृदय गति रोक दी लेकिन वे जिन्दा रहे और सबसे बात करते रहे. उन्होंने अपने हथेली के अलग अलग हिस्से में 11 डिग्री का तापमान अंतर पैदा करके शरीर विज्ञान के असंभव को संभव कर दिखाया.

लेकिन योग का इससे भी बड़ा एक अचंभा उन्होंने कैमरे में कैद किया. और वह था चक्र की शक्ति. शरीर के भीतर षट्चक्रों को विज्ञान कल्पना ही मानता था. लेकिन स्वामी राम ने दावा किया कि वे हर चक्र पर आभामंडल (औरा) पैदा करेंगे जिसे कैमरे में कैद किया जा सकता है. उनके हृदय स्थल (अनाहत चक्र) पर उभरा आभामंडल न सिर्फ कैमरे में कैद हुआ बल्कि विज्ञान के सामने पहली बार योग का षट्चक्र सिद्धांत भी साबित हुआ जो अभी तक विज्ञान में कपोल कल्पना समझा जाता था.

स्वामी राम जैसे महान योगियों के कारण आधुनिक दुनिया में योग अपनी वैज्ञानिकता सिद्ध कर सका है. योग दिवस पर स्वामी राम को शत शत नमन!

(चित्र में स्वामी राम के अनाहत चक्र (हृदय मंडल) पर उभरा आभामंडल जो कि मैनिन्जर फाउण्डेशन में दर्ज किया गया.)

आधुनिक भारत के योग स्तंभ - स्वामी कुवलयानंद

भारत में योग क्रांति और योग पुनर्जागरण की बात हो और स्वामी कुवलयानंद जी का जिक्र न हो तो जानकारी पूरी नहीं होगी.

1883 में गुजरात में जन्में स्वामी कुवलयानंद (जगन्नाथ गणेश गुने) बंबई और बड़ौदा से पढ़ाई के बाद आजादी आंदोलन का हिस्सा हो गये थे. वे श्री अरविन्द से प्रभावित थे और बाद में तिलक के होमरूल मूवमेन्ट में शामिल हो गये थे. इसी दौरान भारतीय संस्कृति का पठन पाठन करते हुए 1907 में उनका परिचय बड़ौदा के जुम्ममदादा व्यायामशाला से हुआ. यहां मानिकराव दादा ने उन्हें तीन साल शरीर के भारतीय शास्त्र से उनका शुरूआती परिचय करवाया. लेकिन उनके जीवन में योग के विधिवत प्रवेश की शुरूआत हुई 1919 में जब बड़ौदा में पहली बार उनकी मुलाकात बंगाली योगी परमहंस माधवदास से हुई. और यहां से कुवलयानंद के जीवन की दिशा बदल गयी.

स्वामी कुवलयानंद योग को आधुनिक वैज्ञानिक कसौटी पर कसकर इसका प्रसार करना चाहते थे ताकि योग के चिकत्सकीय पहलू को लोगों के सामने लाया जा सके. इसके लिए उन्होंने 1924 में दुनिया का पहला योग रिचर्स इंस्टीट्यूट स्थापित किया जिसका नाम था कैवल्यधाम.  मुंबई पुणे के बीच में लोनावाला में स्थापित कैवल्यधाम ने एक रिसर्च मैगजीन "योग मीमांसा" का प्रकाशन भी शुरू किया जो पूरी तरह से योग के चिकत्सकीय पहलू को समर्पित है.

स्वामी कुवलयानंद का 1966 में निधन हो गया लेकिन उन्होंने जिस योग क्रांति के बीज बोये थे वे समय के साथ पल्लवित होते रहे. और आज पूरब में चीन से लेकर पश्चिम में कनाडा तक कैवल्यधाम योग पर एक प्रामाणिक संस्था के रूप में कार्यरत है. यह स्वामी कुवलयानंद ही थे जिन्होंने पहली बार योग को चिकित्सा के रूप में सामने रखा.

Tuesday, September 1, 2015

मारा गया मुल्ला उमर

मुल्ला उमर 2013 में ही मारा गया. आज अफगान तालिबान ने भी यह मान लिया कि मुल्ला उमर 2013 में ही मारा जा चुका है. वही मुल्ला उमर जिसने पाकिस्तान की मदद से अफगानिस्तान में तालिबानी शासन की स्थापना किया और दुनिया में आतंक के दूसरे नाम के रूप में पहचाना गया. लेकिन मुल्ला उमर ऐसा था नहीं जैसा हो गया. मुल्ला मोहम्मद उमर के जीवन का शुरुआती पहलू ऐसा रहा है जो निहायत इंसानी जज्बा रखता था. 

कंधार में पैदा होनेवाला अनाथ मुल्ला उमर थोड़ा बड़ा हुआ तो पाकिस्तान तालीम लेने आया था. यहां उसने मदरसों में इस्लाम की तालीम ली और कराची में एक धार्मिक शिक्षक के बतौर काम करता रहा. मौलवी नाम का सम्मान उसे यहीं मिला जो बाद में मुल्ला हो गया. अफगानिस्तान की उथल पुथल उसे बेचैन कर रही थी और सबसे पहले मुल्ला उमर ने ही उन चालीस लड़कों की एक "तालिबान" फौज बनाई जो उससे इस्लाम की तालीम लेते थे. इसी फौज के साथ उसने सीमावर्ती अफगानिस्तान के दो गांवों पर हमला कर दिया. मकसद था, "बच्चाबाजी" के खिलाफ आवाज उठाना. बच्चों को शोहदों की कैद से आजाद कराने के बाद वह दोबारा कराची लौट आया और तालीम के अपने काम में लग गया. 

लेकिन अफगानिस्तान के बदलते हालात में उसका यह फार्मूला पाकिस्तान को बहुत पसंद आया. आईएसआई के हामिद गुल और कर्नल सुल्तान आमिर तरार ने मुजाहिदीन प्रोजेक्ट के लिए देओबंदी दारुल उलूम हक्कानिया से संपर्क साधा तो उन्हें मुल्ला उमर का पता मिल गया जो हक्कानियां में इस्लाम की शिक्षा ले चुका था. यह मुल्ला उमर ही था जिसने "लड़ाकों" के लिए मुजाहिद की बजाय तालिबान शब्द का इस्तेमाल किया था जिसका मतलब होता है विद्यार्थी. 

क्योंकि अपने छापामार कारनामों की वजह से वह अफगानिस्तान के सोवियत विरोधी धड़े की नजर में आ चुका था इसलिए उसकी मुलाकात ओसामा बिन लादेन से हो चुकी थी. बस फिर क्या था, पाकिस्तान ने मुल्ला उमर को पैसा, हथियार और ट्रेनिंग दी और देखते ही देखते पाकिस्तान के भीतर अफगान तालिबान तैयार हो गया. 

यहां से मुल्ला उमर जो हुआ उसे पूरी दुनिया जानती है. उसने करीब एक दशक तक अफगानिस्तान को परेशान करके रखा जिसमें चार साल तालिबान शासन के भी शामिल हैं. अफगानिस्तान से तालिबान शासन के खात्मे के बाद मुल्ला उमर कहां गया, कहां रहा वह सब रहस्य ही बना रहा. इस दौरान अफगान तालिबान के कई टुकड़े हो गये. पाकिस्तान ने भी मुल्ला उमर से किनारे करते हुए हक्कानी नेटवर्क को सपोर्ट कर दिया और वह मुल्ला उमर जिसने अफगानिस्तान की घृणित "बच्चाबाजी" के खिलाफ तालिबानी फौज बनाई थी उसे पाकिस्तान ने आतंकवाद का सरगना बना दिया.

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