Wednesday, February 24, 2016

डिफेन्स दलालों के दलदल में तेजस

2016-17 बारहवें रक्षा पंचवर्षीय योजना का आखिरी वित्तीय वर्ष होगा जिसमें एक लाख चार हजार करोड़ रूपये सिर्फ खरीदारी पर खर्च किये जाएंगे। इस खर्च में थल सेना के लिए 23731 करोड़, नौसेना के लिए 28932 करोड़ और वायुसेना के लिए 38092 करोड़ रूपये का सैन्य साजो सामान की खरीदारी शामिल है। साफ है सबसे ज्यादा पैसा वायुसेना पर खरीदारी के लिए खर्च किया जा रहा है। और यह सिर्फ एक वित्तीय वर्ष या एक पंचवर्षीय योजना की बात नहीं है। तेरहवीं और चौदहवीं पंचवर्षीय योजना में भी आनेवाले दस  सालों में सबसे ज्यादा नेवी और एयरफोर्स पर ही खर्च किया जाना है।

रक्षा खरीदारी के लिए तेरहवीं और चौदहवीं रक्षा पंचवर्षीय योजना में 22 लाख 50 हजार करोड़ रूपये रक्षा खरीदारी पर खर्च करने का बजट निर्धारित किया गया है। इसमें एयरफोर्स के हिस्से में 7 लाख 58 हजार करोड़ रूपये की खरीदारी होगी। जाहिर सी बात है 2015 में दुनिया का सबसे बड़ा हथियार आयातक देश संभवत: एक दशक तक दुनिया के सबसे बड़े खरीदार के पायदान  पर खड़ा रहेगा। इसलिए दुनियाभर के डिफेन्स सौदागर और दलाल दिल्ली में डेरा जमाये रहेंगे। रूस, ब्रिटेन, फ्रांस, इजरायल और अमेरिका हमेशा से भारत को सैन्य साजो सामान बेचनेवाले सबसे बड़े देश रहे हैं। बरतानिया हकूमत से आजादी के बाद भी ब्रिटेन ही भारत का सबसे बड़ा हथियार सप्लायर था। फिर भारत के समाजवादी झुकाव ने यह जगह रूस को दे दी। इस बीच फ्रांस अमेरिका और इजरायल भी भारत के हथियार सप्लायरों की लिस्ट में शामिल होते गये और आज 2016 में रूस और अमेरिका भारत में हथियारों की सप्लाई के लिए बढ़त हासिल करने की जंग लड़ रहे हैं।

जंगे मैदान के एयरफोर्स में एक तीसरा किरदार भी शामिल हुआ और वह था फ्रांस। फ्रांस की जिस डसां एविएशन ने भारत को मिराज 2000 लड़ाकू विमान दिया था उसने एडवांस मल्टीरोल फाइटर जेट राफेल बेचने की लॉबिंग की। लंबी जद्दोजहद के बाद सवा लाख करोड़ में सवा सौ लड़ाकू विमान खरीदने का यह सौदा 36 राफेल विमान खरीदने पर आकर अटक गया। कीमत को लेकर उठापटक जारी है लेकिन उम्मीद है कि 1700 करोड़ प्रति विमान की दर पर यह सौदा हो सकता है। विमान फ्रांस की डसां एविएशन कंपनी में ही बनेगा और जांच पड़ताल के बाद उसे भारत को सौंप दिया जाएगा। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि जब भारतीय वायु सेना पूरी शिद्दत से राफेल खरीदने का जोर डाल रही थी तब वर्तमान मोदी सरकार ने 126 विमानों का सौदा रद्द करके 36 विमान खरीदने का फैसला किया?

इस सवाल के दो संभावित जवाब हो सकते हैं। पहला, भारत सरकार स्वदेश में निर्मित तेजस लड़ाकू विमान को तरजीह देने के हक में हो सकती है या फिर दूसरा, अमेरिकी लॉकहीड मार्टिन कंपनी की लॉबिंग का असर भी हो सकता है जिसने हाल में ही सिंगापुर एयरशो में यह संकेत दिया है कि अगर सरकार चाहेगी तो वह मेक इन इंडिया पॉलिसी के तहत भारत में ही एफ-16 लड़ाकू विमानों का निर्माण कर सकती है। एफ-16 का लेटेस्ट वर्जन चौथी पीढ़ी का लड़ाकू विमान है जिसे अमेरिका सहित दुनिया के अधिकांश देश अपनी हवाई सुरक्षा के लिए इस्तेमाल करते हैं। तेजस, राफेल और एफ-16 एक ही पीढ़ी और एक ही श्रेणी के लड़ाकू विमान हैं। अगर राफेल के साथ 36 विमानों का सौदा हो जाता है तो भी मिग-21 विमानों के रिटायर होने से होनेवाली कमी को पूरा करने के लिए तेजस या एफ-16 में से किसी एक के साथ आगे बढ़ना होगा। तो फिर सवाल यह है कि बाजी कौन जीतेगा?

चासील साल पहले की कल्पना और तीस साल में बनकर तैयार हुए तेजस के सामने संकट के बाद आज 2016 में भी मंडरा रहे हैं। एयरफोर्स तेजस के परफार्मेन्स से बहुत खुश नहीं है इसलिए उसने हिन्दुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड से तेजस के प्रोडक्शन ढांचे में 43 बदलाव करने के लिए कहे हैं। इन बदलावों के बाद तेजस मार्क 1ए का जो मॉडल तैयार होगा उसका उत्पादन 2019 के पहले संभव नहीं है। इस बीच एचएएल प्रोटोटाइप सहित कुल 16 तेजस तैयार किये हैं। सरकार की तरफ से जनवरी 2015 में इनीशिएल आपरेशन क्लियरेन्स दिया जा चुका है और एयरफोर्स अपनी जरूरतों के हिसाब से परीक्षण कर रहा है।

लेकिन आज भी हथियारों की दलाल लॉबी तेजस के राह में रोड़ा अटका रही है और इस बात की कोशिशें जारी है कि तेजस का उत्पादन चालीस विमान तक सीमीत कर दिया जाए और बाकी आपूर्ति किसी विदेशी आपूर्तिकर्ता के जरिए की जाए। लॉकहीड मार्टिन की घोषणा इसी कोशिश का हिस्सा है। दूसरी तरफ तेजस के नेवी संस्करण का परीक्षण के सफल होते ही अमेरिका की ही एक दूसरी आर्म्स कंपनी बोईंग ने एफ/ए 18 को बेचने की लॉबिंग शुरू कर दी है। अगले साल तक भारत में निर्मित विमानवाहक पोत आईएनएस विक्रांत का सैन्य परीक्षण शुरू हो जाएगा तब विक्रांत के लिए 35 नौसेनिक विमानों की जरूरत होगी। अभी तक की योजना में यह जरूरत मिग-29 और तेजस से पूरी की जानी है लेकिन अगर बोईंग मैदान में उतरता है तो यहां भी तेजस के लिए खतरा खड़ा हो जाता है।

डिफेन्स लॉबी लगातार यह बताने की कोशिश कर रही हैं कि तेजस एक फेल परियोजना है जिसे बंद कर देना ही बेहतर होगा। कभी एचएएल की क्षमता पर सवाल खड़े किये जाते हैं तो कभी तेजस की क्षमता पर। हर ऐसे सवाल का जवाब यह होता है कि लड़ाकू विमानों की आपूर्ति विदेश से कर ली जाए। इसमें एक नयी मुसीबत यह हो गयी है कि विदेशी कंपनियों के देशी साझीदार डिफेन्स में सौदों की संभावना को देखते हुए अब तक हुए समूचे विकास को ध्वस्त करना चाहते हैं। टाटा, महिन्द्रा, रिलायंस, एलएण्डटी और कल्याणी समूह भारत के बड़े डिफेन्स प्रोड्यूसर हैं। विदेश की कंपनियों के साथ यही समझौते कर रहे हैं और जोर दे रहे हैं कि डिफेन्स खरीदारी में निजी भागीदारी को बढ़ाया जाए।

तेजस इस दोहरे प्रहार का शिकार हो रहा है। अभी तक की रिपोर्ट के मुताबिक लगता यही है कि तेजस 120 विमानों के साथ एयरफोर्स में शामिल होगा। हालांकि निर्धारित समयसीमा 2022 है लेकिन जैसे जैसे इधर बजट का पिटारा खुलेगा उधर विदेशी कंपनियों का दबाव भी बढ़ेगा कि उनके विमानों की खरीदारी की जाए जिसमें मेक इन इंडिया उनके लिए एक हथियार की तरह काम कर रहा है। लेकिन मेक इन इंडिया करने भर से डिफेन्स क्षेत्र में आत्मनिर्भरता नहीं आयेगी। चौरासी में आकर भारत ने विधिवत इस दिशा में कोशिश शुरू की और तीस साल के भीतर आपके पास चौथी और पांचवी पीढ़ी के बीच का लड़ाकू विमान है। महज 190 करोड़ की कीमत वाला तेजस राफेल के 1700 करोड़ और एफ-16 के 1200 करोड़ के मुकाबले बहुत मुफीद सौदा है।
बहरीन एयरशो में तेजस ने साबित कर दिया है कि उसकी कमियां उतनी नहीं है जितना उसे बदनाम किया गया है। बहरीन एयर शो में तेजस का परफार्मेन्स देखने के बाद श्रीलंका ने पाकिस्तान के जेएफ-17 से मुंह मोड़कर तेजस खरीदने में रुचि दिखाई है। श्रीलंका की रुचि अस्वाभाविक नहीं है। रूस के प्रोजेक्ट-33 के डिजाइन को खरीदकर चीन ने यह विमान 90 के दशक में अपने लिए बनाया था। लेकिन खुद इस्तेमाल न करके इसने यह विमान और इसकी तकनीकि पाकिस्तान को दे दी। अब चीन की चेंगदू कंपनी पाकिस्तान में ही यह लड़ाकू विमान बनाती है और पाकिस्तान को बेचती है। जबकि इसके उलट तेजस किसी विमान की नकल नहीं है और कावेरी के असफल हो जाने के बाद जीई इंजन और राडार के अलावा ज्यादातर हिस्सा स्वदेशी अनुसंधान का नतीजा है।

तेजस को डिजाइन करनेवाली एयरोनॉटिकल डेवलपमेन्ट एजेन्सी पांचवी पीढ़ी का स्टील्थ लड़ाकू विमान 'एम्का' डिजाइन कर रही है जो भविष्य में पांचवी पीढ़ी के मध्यम श्रेणा के विमानों में शुमार होंगे। परियोजना डिजाइन और डेवलपमेन्ट के महत्वपूर्ण दौर में है। अगर आज हथियार लॉबी तेजस को दरकिनार करके एफ-16 को आगे बढ़ाने में कामयाब हो जाती हैं तो निश्चित रूप से एम्का परियोजना कभी आगे नहीं बढ़ पायेगी और न ही तेजस के विकास से हुए अनुभव का लाभ मिल पायेगा। आजादी के चार दशक बाद भारत ने जिस हवाई सुरक्षा में आत्मनिर्भरता की पहल की थी उसे मेक इन इंडिया के नाम पर देशी विदेशी निजी कंपनियों के हाथ में गिरवी नहीं रखा जाना चाहिए। तात्कालिक तौर पर भले ही देश फायदे में दिखाई दे लेकिन उसे दीर्घकालिक फायदा कभी नहीं होगा। फिलहाल सरकार के रुख से लगता है कि वह तेजस और एम्का को कोई नुकसान नहीं पहुंचाना चाहती। देशी विदेशी कंपनियों की लॉबिंग के बीच यह एक अच्छा संकेत है।
(फोटो: लाइट कॉम्बैट फाइटर जेट तेजस)

Tuesday, February 23, 2016

आर्टीफिसिएल इन्टेलिजेन्स का उभरता खतरा

गूगल की एक महत्वाकांक्षी परियोजना है आर्टीफिसिएल इन्टेलिजेन्स प्रोजेक्ट। वर्चुअल टेक्नॉलाजी हमें जहां ले जा रही है उसका भविष्य। गूगल अब जिस अल्फाबेट कंपनी का हिस्सा है उसका एक हिस्सा बोस्टन डायनमिक्स है। बोस्टन डॉयनामिक्स ऐसे मशीन तैयार कर रहा है जिसमें इंसानों की तरह सोचने समझने और निर्णय लेने की काबिलियत पैदा की जा सके। कुछ कुछ वैसा ही जैसा हॉलीवुड की साइंस फिक्शन फिल्मों में दिखता है। वह स्काईनेट जो आर्नाल्ड की फिल्मों में कल्पना था उसे हकीकत बनाने पर काम चल रहा है।

और यह काम करनेवाला अकेला गूगल नहीं है। अमेरिका की टेसला मोटर्स गाड़ियों को सुपर इंटेलिजेन्ट बनाने के लिए उनमें दिमाग भर रहा है तो बीएमडब्लू, मर्सिडीज और फॉक्सवैगन जैसी यूरोपीय कंपनियां भी पीछे नहीं हैं। और भी न जाने कहां कहां क्या क्या प्रयोग किये जा रहे हैं। घर में। दफ्तर में। फील्ड में हर जगह अलग अलग कंपनिया हर जगह इस आर्टीफिशिएल इंटेलीजेन्स के प्रयोग कर रही हैं। इसकी एक झलक मोबाइल फोन में फिंगरप्रिंट स्कैन तकनीकि या फिर कम्यूटर लैपटॉप में फेस रिकॉग्निशन है जहां मशीन इस बात का निर्णय लेती है कि आप उसका इस्तेमाल कर सकते हैं या नहीं।

लेकिन मसला ये सब नहीं है। इस पर बात करने के लिए तो बहुत कुछ लिखना समझना पड़ेगा। फिलहाल मसला है यह एक शब्द। आर्टीफिसिएल इन्टेलिजेन्स। अभी तक इन्टेलीजेन्स पर मनुष्य का एकाधिकार था। भारतीय शास्त्र कहते हैं कि खाना, पीना, सोना और मैथुन करना तो पशु पक्षी भी करते हैं। मनुष्य इन सबसे अलग इसलिए है क्योंकि उसके पास बुद्धि है। इन्टेलीजेन्स हैं। इस बुद्धि के दो हिस्से हैं। पहला है विवेक और दूसरा है स्मृति। विवेक हमें सही गलत की पहचान करने की ताकत देता है तो स्मृति हमें पहल करने के लिए प्रेरित करता है। बुद्धि की जटिल संरचना में यह दो ऐसे कार्य हैं जिसे हम आसानी से समझ सकते हैं। तो क्या व्यक्ति के उस इन्टेलिजेन्स को चुनौती मिलनेवाली है?

मिलनेवाली नहीं है। मिल चुकी है। जैसे जैसे तकनीकि बढ़ रही है व्यक्ति का इंटेलीजेन्स घट रहा है। बुद्धि के दोनों हिस्सों स्मृति और विवेक दोनों कमजोर हो रहे हैं जिसका सीधा असर उसके व्यक्तित्व पर पड़ रहा है। बीसवीं सदी का आदमी अगर ज्यादा सुविधा संपन्न होने के बावजूद उन्नीसवीं सदी के आदमी से ज्यादा कमजोर था तो इक्कीसवीं सदी का आदमी बीसवीं सदी के मुकाबले ज्यादा सूचना और जानकारी होने के बाद मानसिक रूप से कमजोर हो रहा है। एक सूचनाग्रस्त दिमाग की स्मृति बहुत सीमित होती जा रही है। जो जितना अधिक तकनीकि के संपर्क में उसका इंटेलीजेन्स उतना कमजोर। होना चाहिए था उल्टा। लेकिन सूचनाग्रस्त आदमी का 'इंटेलीजेन्स' बढ़ने की बजाय कम कैसे हो गया?

तकनीकि का यह गंभीर पहलू है जिस पर कंपनियां नहीं सोचेंगी लेकिन नये दौर के मानवशास्त्र और समाजशास्त्र को इस बारे में सोचना होगा। क्योंकि यह मनुष्य द्वारा मनुष्य के मष्तिष्क पर किया गया अब तक का सबसे भीषण हमला है।

Monday, February 22, 2016

होम क्रेडिट फाइनेन्स का फ्रॉड

जिस वक्त बाइक फाइनेन्स कराने होन्डा के शोरूम पर पहुंचे तो वहां पहले से घात लगाये बैठे होम क्रेडिट फाइनेन्स का बंदा टूट पड़ा। बहुत कम कागजात में कुछ ही घण्टों के अंदर उसने करीब पैंतीस हजार रुपये का लोन पास कर दिया। फार्मेलिटी के नाम पर उसने यह जरूर किया कि आपसे तीन ऐसे लोगों के नाम और नंबर ले लिए जो आपके करीबी पहचान के हों। उनके दफ्तर से उन तीनों ही लोगों को फोन गये और मुतमईन होने के बाद कंपनी की तरफ से 55 हजार की बाइक दिला दी।

जब रिपेमेन्ट की स्कीम बताई गयी तो कहा गया कि जो व्याज लगाया गया है उसमें पांच हजार रुपये आपसे ज्यादा लिये जा रहे हैं। जब आप पूरी पेमेन्ट कर देंगे और रिपेमेन्ट में आपका रिकार्ड ठीक रहा तो यह पांच हजार रुपया आपको वापस मिल जाएगा।

सोलह महीने तक सब ठीक रहा। जो निर्धारित राशि थी वह बैंक से जाती रही। बीच बीच में होम क्रेडिट फाइनेन्स से फोन भी आते रहे कि आपका रिपेमेन्ट रिकार्ड बहुत अच्छा है। अगर आप चाहें तो हमसे एक लाख रुपये तक कैश लोन भी ले सकते हैं। लेकिन सोलहवें महीने के बाद अचानक सबकुछ बदल गया। शायद ईमानदारी से किया जा रहा रिपेमेन्ट होम क्रेडिट फाइनेन्स को अच्छा सौदा नहीं लग रहा था इसलिए सत्रहवें महीने पहला खेल हुआ।

बैंक में पर्याप्त बैलेन्स होने के बावजूद एकाउण्ट से पैसा नहीं कटा। मेरा रजिस्टर्ड नंबर बंद था लिहाजा दो तीन के अंदर तीनों ही उन संपर्क नंबरों पर दर्जनों फोन कॉल पहुंच गये जो लोन देते समय लिये गये थे। करीब एक हफ्ते बाद जब तक सूचना मिलती मेरे तीन संबंधों में एक ने यह कहते हुए रिश्ता तोड़ लिया कि रोज रोज क्रेडिट कंपनी से फोन आते हैं। जीना हराम कर दिया है। मेरे लिए यह बहुत आश्चर्य की बात थी। कोई इतनी बड़ी रकम नहीं थी कि होम क्रेडिट इतना पैनिक मचाती। महज दो हजार रूपये महीने की बात थी। अगर कोई दिक्कत हुई भी थी तो कुछ दिन इंतजार किया जा सकता था।

खैर, मैंने होम क्रेडिट के कॉल सेन्टर पर बात की तो पता चला पैसा डिडक्ट नहीं हुआ है। मैंने कहा कि मेरे एकाउण्ट में पैसा है तो फिर डिडक्ट क्यों नहीं हुआ? उन्होंने कहा, आप अपने बैंक से बात करिए। बैंक में बात की तो उन्होंने कहा, अगर आपके एकाउण्ट में बैलेंस है तो पेमेन्ट रिक्वेस्ट आने पर हम कौन होते हैं रोकनेवाले? दोबारा होम क्रेडिट को फोन करके जब यह जानने की कोशिश की कि बैंक ने आपको क्या कारण बताये हैं तो उनके एक्सक्यूटिव ने जवाब दिया कि 'मिसलेनिस' कारण है। मतलब उन्हें भी नहीं पता कि पैसा क्यों डिडक्ट नहीं हुआ। अगर एकाउण्ट बैलेन्स कम होता तो बैंक उन्हें वहीं कारण बताता और वे हमें वही कारण बता देते।

लेकिन यहां तो बैंक का कोई रोल ही नहीं था। सारा खेल तो क्रेडिट फाइनेन्स कंपनी का था। सत्रहवें और अठारहवें महीने भी यही खेल हुआ। बैंक में पैसा होने के बाद भी उन्होंने एकाउण्ट से इलेक्ट्रानिक क्लियरेन्स के जरिए डिडक्ट नहीं किया और कैश में आकर किश्त ले जाते रहे। उन्नीसवें महीने से कंपनी ने टार्चर और ह्रासमेन्ट का दूसरा खेल शुरू किया। अब किश्त की ड्यू डेट के तीन दिन पहले से दिन में दस दस फोन आने शुरू हुए रोजाना। जो सिर्फ यह जानना चाहते थे कि मेरे एकाउण्ट का बैलेन्स मेन्टेन है या नहीं। मेरे मना करने के बाद कि आप ड्यू डेट से पहले इस तरह फोन करके टार्चर नहीं कर सकते तो अगले दिन फिर होम क्रेडिट कंपनी से फोन आ गया। अगर आप एक टार्चर से बचना चाहते थे तो उन्होंने पूरे सिस्टम को आपके खिलाफ टार्चर करने के काम में लगा दिया।

अब सवाल यह है कि अगर लोन लेनेवाला व्यक्ति बहुत ईमानदारी से अपनी किश्त भर रहा है तो फिर कंपनी यह फ्रॉड क्यों कर रही थी? कारण है वही पांच हजार रूपये जो आपसे लोन देते वक्त ज्यादा व्याज के नाम पर ज्यादा वसूल लिये गये थे। अगर आप ईमानदारी से अपना लोन भर रहे हैं तो कंपनी को वह पांच हजार रुपये अवधि समाप्त होने के बाद वापस करने पड़ते। लिहाजा उन्होंने प्लानिंग करके आपका केस खराब कर दिया। अब क्योंकि आपका केस कंपनी के रिकार्ड में खराब हो चुका है इसलिए उस पांच हजार पर आप दावा नहीं कर सकते। और न कंपनी आपको वह पैसा देगी।

यह किसी एक व्यक्ति का मसला नहीं है। यह एक प्रकार की संगठित लूट है जो होम क्रेडिट फाइनेन्स अपने ग्राहकों को लूटने के लिए इस्तेमाल करती है। ज्यादातर कन्ज्यूमर आइटम पर फाइनेन्स देनेवाली कंपनी अगर महज पैंतीस हजार रूपये देकर पांच हजार रूपये व्याज के अतिरिक्त वसूल लेती है तो कल्पना करिए हर साल उसका लूट का यह मुनाफा कितने सौ करोड़ का बनता होगा? सरकार को चाहिए कि तत्काल होम क्रेडिट इंडिया के स्कीम की जांच करवाये और उसकी ठगी और लूट पर रोक लगाये नहीं तो हर रोज हजारों लोग होम क्रेडिट इंडिया कंपनी के जाल में फंस रहे हैं और लुट पिटकर बर्बाद हो रहे हैं।

Saturday, February 20, 2016

तोप की खरीदारी और ईमानदारी का तमाशा

बात 1986 की है जब भारत की राजीव गांधी सरकार ने स्वीडेन की बोफोर्स कंपनी के साथ 410 बोफोर्स होवित्जर तोप खरीदने का फैसला किया। सौदे के कुछ समय बाद ही स्वीडिश रेडियो ने खबर दी कि बोफोर्स तोप सौदे में कंपनी ने भारतीय हुक्मरानों को दलाली दिया है। तोप का सौदा हो चुका था और तोप भारत लायी भी गयी लेकिन आते आते अपने साथ राजीव गांधी सरकार को भी ले गयी।

दस साल का समय बीत गया। बोफोर्स दलाली के दलदल से उपजे ईमानदारी के मसीहा वीपी सिंह भी अतीत हो गये। बोफोर्स छाप ईमानदारी के जिस आधार पर भाजपा ने वीपी सिंह सरकार को समर्थन दिया था उनकी सरकार आ गयी। कारगिल में पाकिस्तानी सैनिकों की घुसपैठ बीजेपी सरकार के गले में अटक गयी। तब उसी बोफोर्स ने बीजेपी सरकार के हलक से कारगिल का कांटा निकालने में सबसे ज्यादा मदद की जिसे कभी बीजेपी ने वीपी सिंह की अगुवाई में कांग्रेस के गले में अटकाया था।

कारगिल वार खत्म हुआ। तब सेना को लगा कि बोफोर्स ने उम्मीद से बेहतर प्रदर्शन किया है इसलिए सेना के पहाड़ी सीमाओं की रक्षा के लिए और अधिक होवित्जर तोपों की खरीदारी करनी चाहिए। 2001 से कोशिश शुरु हुई और 2009 तक जारी रही लेकिन बेफोर्स का भूत इतना हावी था कि कोई निर्णय नहीं हो सका। आखिरी कोशिश यूपीए सरकार की तरफ से 2010 में हुई लेकिन बात नहीं बनी। कारण? सेना की जरूरतों के मुताबिक सिर्फ एक कंपनी क्वालिफाई कर रही थी। ब्रिटेन की बीएई सिस्टम्स। लेकिन दिक्कत यह थी कि यह बीएई सिस्टम्स सरकार के ब्लैक लिस्टेड कंपनी के दायरे में आ चुकी थी। क्यों? क्योंकि अब बीएई सिस्टम्स स्वीडन की बोफोर्स कंपनी की मालिक थी। इसलिए अगर बीएई को आर्डर दिया जाता है तो फिर बोफोर्स डाल पर बैठ जाएगा। लिहाजा सिंगल वेन्डर की मजबूरी दिखाकर टेन्डर रद्द कर दिया गया।

लेकिन सरकार के तोप खरीदारी की इसी उधेड़बुन में एक बात और पता चली कि बोफोर्स तोप सौदे के साथ तकनीकि हस्तांतरण का समझौता भी हुआ था जो बोफोर्स के भूत के डर से गर्द में फेंक दिया गया था। झाड़ पोछकर उस तकनीकि हस्तांतरण वाले मसौदे से बोफोर्स तोप से बेहतर स्वदेशी होवित्जर तैयार करने का डीसीजन लिया गया। डीआरडीओ को यह जिम्मेदारी सौंपी गयी। डीआरडीओ ने दो प्राइवेट कंपनियों को साथ लिया, भारत फोर्ज और लार्सन एण्ड टुब्रो। तेजी से काम किया और 2013 तक बोफोर्स से ज्यादा बेहतर 'धनुष' होवित्जर तोप तैयार कर लिया। सेना की तरफ से 114 होवित्जर तोपों का आर्डर भी दे दिया गया जिसकी आपूर्ति भी डीआरडीओ द्वारा शुरू की जा चुकी है। डीआरडीओ धनुष का उन्नत संस्करण (52 कैलिबर) डेवलप कर रहा है जिसके बाद उम्मीद है कि सेना कुल 450 होवित्सर तोप डीआरडीओ से खरीद कर अपनी सचल तोप जरूरत को पूरी कर सकेगा।

यह तो रही 2015 की कहानी। अब आइये 2016 में। केवल सचल तोप से सेना की जरूरतें पूरी नहीं होती। सरकार सेना की एक माउण्टेनरी डिविजन विकसित कर रही है जो पहाड़ी सीमा की सुरक्षा और चीन तथा पाकिस्तान की तरफ से किसी युद्ध की स्थिति के लिए तैयार रहेगी। सरकार इस डिविजन को तैयार करने पर 70 हजार करोड़ रूपये खर्च कर रही है। इस डिवीजन के लिए जिस अल्ट्रालाइट तोप की जरुरत है जिन्हे हेलिकॉप्टर के जरिए यहां से वहां ले जाया जा सके। वह एम-777 तोप अमेरिका से खरीदने का निर्णय किया गया है। वर्तमान भारत सरकार ने उसी बीएई सिस्टम से 145 अल्ट्रा लाइट होवित्जर तोप खरीदने का समझौता कर लिया है जो बोफोर्स की पैरेण्ट कंपनी है। इस समझौते में भारत की किसी सरकारी कंपनी को शामिल करने की बजाय बीएई को अधिकार दिया गया है कि वह भारत में किसी प्राइवेट कंपनी को अपना हिस्सेदार बना सकती है। बीएई ने महिन्द्रा डिफेन्स को अपना भारतीय साझीदार बनाया है जो तोप के निर्माण में मदद के साथ साथ रख रखाव और मरम्मत की जिम्मेदारी उठायेगा। तोप का कारखाना भारत में लगेगा जरूर लेकिन सारा सामान बीएई सिस्टम बाहर से सप्लाई करेगा। उम्मीद है कि उत्पादन में तीस फीसदी हिस्सा लोकल रखा जाएगा।

अब सवाल यह उठता है कि घूमफिरकर अगर बोफोर्स की डाल पर ही बैठना था तो पंद्रह साल की देरी क्यों की गयी? रक्षा सौदों में ईमानदारी और पारदर्शिता अच्छी बात है लेकिन ऐसी ईमानदारी का क्या मतलब जैसा बोफोर्स और आगस्टा वेस्टलैण्ड सौदे में जबर्दस्ती दिखाने की कोशिश की गयी? कई बार रक्षा सौदों में दलाली से उतना नुकसान नहीं होता जितना इस ईमानदारी के तमाशे से होता है। बोफोर्स और आगस्टा वैस्टलैंड इसकी बहुत कड़वी नजीर हैं।
(चित्र: स्वदेश में निर्मित पहली होवित्जर तोप धनुष जिसका उत्पादन शुरू किया जा चुका है।)

जाट और जेट दोनों लूट रहे हैं

आंदोलन के नाम पर जाट दंगा और लूटपाट कर रहे हैं। दुकानें, मॉल, घर जहां मौका मिल रहा है लूट रहे हैं। गाड़ियां जला रहे हैं। ट्रेनों को रोक दिया है और दिल्ली को मिलनेवाले पानी की सप्लाई भी बंद कर दी है। हरियाणा में हर तरफ हाहाकार मचा हुआ है। सेना भी अब तक इन दंगाइयों को रोक पाने में असफल साबित हुई है।

इस बीच बहुत सारे लोग दिल्ली से चंडीगढ़ के बीच फंसे हुए हैं। सड़क और रेल परिवहन बंद है। जाएं भी तो कैसे आये जाएं? तीन सौ किलोमीटर की छोटी सी दूरी पाटने का एक ही जरिया बचता है कि फ्लाइट ले लें। वैसे तो दिल्ली चंडीगढ़ के बीच कोई बहुत हवाई सेवा का जोर नहीं है इस लिए जाटों के साथ मिलकर लूटने में जेट एयरवेज भी शामिल हो गया है।

डायरेक्ट फ्लाइट न होने के कारण जेट एयर वाया वाया चंडीगढ़ पहुंचा रहा है। मसलन दिल्ली से चंडीगढ़ जाना हो तो पहले वह आपको बंबई ले जाएगा फिर वहां से जो चंडीगढ़ की फ्लाइट होगी उसमें बिठा देगा तो आप चंडीगढ़ पहुंच जाएंगे। और इस 'सेवा' के लिए यात्री से ज्यादा नहीं सिर्फ दस गुना किराया वसूल किया जा रहा है। जिस दिल्ली चंडीगढ़ और दिल्ली के बीच तीन हजार रुपये का किराया है उसके लिए जेट एयरवेज तीस हजार से एक लाख रूपये तक वसूल रहा है।

Saturday, February 13, 2016

अभिव्यक्ति की आजादी से भारत की बर्बादी तक

दो साल में यह तीसरा ऐसा मौका है जह "अभिव्यक्ति की आजादी" की सुरक्षा की जा रही है। पहले दादरी में। फिर हैदराबाद में और अब जेएनयू में। तीसरी आजादी की ये तीनों ही शुरुआत सोशल मीडिया से हुई फिर मुख्यधारा की मीडिया के जरिए जनता तक पहुंच गयी। अच्छा है। लोकतंत्र के लिए बहुत ही अच्छा कि अब विपक्ष की शून्यता के दौर में 'जनता' विपक्ष बन गयी है।

अभिव्यक्ति की आजादी के इन तीनों "इवेन्ट" की समीक्षा करें तो दो तीन बातें सामान्य तौर पर दिखती हैं। पहली, तीनों मुहिम के पीछे वामपंथी बुद्धिजीवी हैं। दूसरा तीनों ही इवेन्ट में मुस्लिम वामपंथी गठजोड़ है और तीसरा तीनों ही इवेन्ट वैचारिक विरोधी सरकार को प्रैक्टिकल ग्राउण्ड पर घेरने की बजाय आइडियोलॉजिकल ग्राउण्ड पर घेरने की कोशिश है। हालांकि विरोध क्रमश: मजबूत होने की बजाय कमजोर हुआ है क्योंकि दादरी का जितना जोर था, उतना हैदराबाद का नहीं रहा। हैदराबाद में वे गफलत में फंस गये और जेएनयू में आकर तो उन्होंने खुद के ही पैर पर कुल्हाड़ी मार लिया। लेकिन वामपंथ के जनवादी वैचारिक विरोध के तीसरे इवेन्ट में ही हवा क्यों निकल गयी? हालात अभिव्यक्ति की आजादी से भारत की बर्बादी तक कैसे पहुंच गये, आइये थोड़ा समझते हैं।

याद करिए मिडिल इस्ट का वह स्वर्णकाल जब सोशलिस्ट मूवमेन्ट ने ईरान, इराक, सीरिया अफगानिस्तान और मिस्र को इतना प्रगतिशील बना दिया था कि पश्चिम भी उनके आगे पानी भरता था।  लेकिन फिर सत्तर के दशक से पासा पलट गया। शुरुआत 'ईश्वर के अंश' खोमैनी ने की लेकिन समय और राजनीति की करवटों ने अदलते बदलते समूचे मिडिल इस्ट को बीसवीं सदी से खींचकर दोबारा दो सौ साल पीछे खड़ा कर दिया।

बाथिस्ट सोशलिस्ट मूवमेन्ट को अमेरिका और सऊदी अरब की जोड़ी ने उखाड़कर फेंक दिया। एक सीरिया बच गया था उसे भी बर्बाद किया जा रहा है। मिडिल इस्ट के प्रगतिशील सोशलिस्ट रेडिकल इस्लामिस्ट बन गये और अब उसी के लिए जंग लड़ रहे हैं कभी जिसके खिलाफ खड़े हुए थे।

इधर भारत में वही हुआ लेकिन तरीका जरा अलग था। यहां कम्युनिस्ट विचारधारा पर इस बात का कोई दबाव नहीं था कि वे रेडिकल इस्लाम को कबूल करते लेकिन आजादी के बाद की शुरूआती नाकामियों ने उन्हें शायद मजबूर कर दिया होगा कि वे सेकुलरिज्म के आदर्श को वोटबैंक की तरह इस्तेमाल करें। इसलिए स्टेट का सेकुलरिज्म उन्होंने पॉलिटिक्स आइडियोलॉजी बना दिया और सरकार से नहीं बल्कि राजनीतिक दलों को सेकुलर और कम्युनल में चिन्हित करना शुरू कर दिया। दिखाने के लिए तो यह काम हिन्दूवादी दल या संगठन के खिलाफ था लेकिन उनके इस काम के मूल में कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति काम कर रही थी। वामपंथ के इस सेकुलर तुष्टीकरण से मुस्लिम वोटबैंक सधता था लिहाजा समूचे उत्तर भारत में हर छोटे बड़े दल ने इसे अपना लिया।

तो जिस सेकुलर तुष्टीकरण का इस्तेमाल वामपंथी अपना वोटबैंक बढ़ाने के लिए करना चाहते थे वह भी उनके हाथ से निकल गया। लेकिन तब तक वामपंथी दलों, छात्र संगठनों, वैचारिक समूहों ने मुस्लिम तुष्टीकरण को सेकुलरिज्म के बतौर इतना स्थापित कर दिया था कि वे अब पीछे नहीं लौट सकते थे। नब्बे के दशक की राजनीति बड़ी सफलता से उन्होंने इसी एक गलतफहमी के सहारे संचालित की। लेकिन जैसा कि प्रकृति का नियम है अतिवाद विपरीत को आकर्षित करता है वैसा ही वामपंथियों के मुस्लिम तुष्टीकरण के साथ भी हुआ। जिस "फासीवाद" और "कम्युनल" आइडियोलॉजी के खिलाफ मुस्लिम तुष्टीकरण को राजनीतिक विचारधारा बना़या वह फासीवाद इन्हीं के लिए भस्मासुर बन गया। पहली बार केन्द्र में उनकी पूर्ण बहुमत वाली सरकार बन गयी।

तब से अब तक लगातार वामपंथ वैचारिक विपक्ष के रूप में सक्रिय है। और वह आनेवाले समय में भी निष्क्रिय नहीं होगा। पर सवाल यह है कि क्या वामपंथ वैचारिक पुनर्जागरण कर रहा है या फिर अपने ताबूत में आखिरी कील मार रहा है? पुनर्जागरण की गुंजाइश जरूर रहती लेकिन वामपंथ वैचारिक अतिवाद के ऐसे पायदान पर जा खड़ा हुआ है जहां उसके साथी के रूप में सिर्फ रेडिकल लोग ही बचे हैं। फिर चाहे वो रेडिकल इस्लाम हो कि रेडिकल ईसाईयत। भारत में आज वामपंथ मुस्लिम तुष्टीकरण से भी आगे निकलते हुए वहाबियत का सबसे बड़ा राजनीतिक पैरोकार बन गया है। वही बहावियत जिसने मिडिल इस्ट से सोशलिस्ट मूवमेन्ट को उखाड़कर फेंक दिया।

भले ही मिडिल इस्ट में बहावियों ने सोशलिस्टों के सामने नस्लीय संकट पैदा कर दिया हो लेकिन यहां वामपंथी खुद ही बहावियों के साथ गठजोड़ करके अपने अस्तित्व को खतरे में डाल रहे हैं। लेकिन वामपंथ अभी ऐसी कोई भी बात कहने पर उसे नकार देगा। यह बात उनको उस दिन समझ आयेगी जिस दिन विचार करने के लिए भरी सभा में वह अकेला रह जाएगा। तब तक अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर देश की बर्बादी का उनका पसंदीदा "कैण्डीक्रश सागा" खेल जारी रहेगा। उन्हें कभी यह समझ नहीं आयेगा कि चाहे जितने "इन्वीटेशन" भेज दें वे लोग यह खेल नहीं खेलना चाहते जिनके नाम पर ये खेलना चाहते हैं।
(जेएनयू में भारत की बर्बादी का नारा लगानेवाला आरोपी नौजवान उमर खालिद)

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