Tuesday, May 24, 2016

मुल्ला मंसूर का नासूर

भारत में एक कहावत आम है। झूठ अपने को ही खा जाता है। यह कहावत इन दिनों पाकिस्तान पर बखूबी लागू हो रही है। आतंकवाद का जो झूठ पाकिस्तान तीन दशक से बोलता हा है अब वही आतंकवाद उसे खा रहा है। तालिबान के रूप में पाकिस्तान के देओबंदी मदरसों ने जो घाव पाकिस्तान के शरीर पर दिये थे अब वही घाव नासूर बनकर पाकिस्तान से रिस रहे हैं। हालात यहां तक बिगड़ चुके हैं कि बीते एक दशक से पाकिस्तान की फौज अपनी ही जमीन पर जंग लड़ने के लिए मैदान में है और इस बात के कोई आसार नजर नहीं आ रहे हैं कि हाल फिलहाल में यह जंग कभी खत्म होगी या नहीं।

जनरल जिया के जमाने में पाकिस्तान ने घोषित तौर पर आतंकवाद को अपनी स्टेट पॉलिसी का हिस्सा बना लिया था। पाकिस्तान में उस मुल्ला मिलिट्री एलायंस को मजबूत किया गया जो कि इकहत्तर की जंग में अलग अलग होकर बांग्लादेश में लड़ रही थी। भुट्टो की राख पर खड़े हुए जनरल जिया ने इसे आधिकारिक जामा पहनाते हुए मुजाहिद घोषित किया और अमेरिका के कहने पर अफगानिस्तान में सोवियत फौजों के खिलाफ इस्तेमाल करना शुरू किया। जिया उल हक का पहला अफगान मुजाहिद बना गुलबुद्दीन हिकमतियार। अफगान मूल का गुलबुद्दीन अफगानिस्तान पर शासन करना चाहता था। अफगानिस्तान के सोशलिस्ट सांचे में वह फिट नहीं हुआ तो उसने इस्लामिक स्टेट का रास्ता अख्तियार किया। इसी रास्ते को जिया उल हक ने वह सच्चा रास्ता माना जो किसी मुसलमान का आखिरी लक्ष्य होता है।

गुलबुद्दीन से शुरू हुई अफगानिस्तान में तालिबान की कहानी आज मुल्ला मंसूर तक आ गयी है। जिस तालिबान को पाकिस्तान ने अफगानिस्तान पर कब्जा करने के लिए पैदा किया था वह खुद उसके कब्जे में आ गया। अफगानिस्तान में तालिबान अमेरिकी रणनीति का हिस्सा था। तालिबान के जरिए उसने सोवियत संघ को बाहर निकाला और फिर खुद सामने आकर तालिबान को बाहर निकाल दिया। उस नार्दर्न एलायंस को अपना साथी बना लिया जो कभी खुद तालिबान मूवमेन्ट का हिस्सा था और जिस पाकिस्तान से उसने कहा था कि तुम मुजाहिद तैयार करो उसी से कहने लगा कि तालिबान को खत्म करने में अमेरिका का साथ दो।

अब पाकिस्तान के लिए यह ऐसी स्थिति थी जिसे वह उगल भी नहीं सकता था और निगल भी नहीं सकता था। जिन तालिबान को उन्होंने हक्कानिया मदरसे से तैयार किया था अब उनके हक को कैसे मार सकते थे। वह मिलिट्री मुल्ला एलांयस जिसका पौधा जिया उल हक ने लगाया था अब वह पूरे पाकिस्तान को अपने छांव में ले चुका था। काबुल में इस्लामिक स्टेट कायम करने में असफल रहने के बाद तालिबान ने पाकिस्तान में ही इस्लामिक स्टेट कायम करने का ऐलान कर दिया। पाक अफगान बार्डर से सटे इलाकों में जहां कभी आइएसआई ने तालिबान का भर्ती अभियान चलाया था अब वही इलाका तालिबान के कब्जे वाला पाकिस्तान बन गया।

ऊंट तंबू के भीतर आ चुका था और तालिबान के पैरोकार रेत में मुंह छिपा रहे थे। लाहौर में बैठे तालिबान के इस्लामिक आका उन्हें कश्मीर में इस्तेमाल करना चाहते थे लेकिन सफल नहीं हुए। तालिबान की अपनी रुचि सिर्फ अफगानिस्तान में थी। इसलिए फॉदर आफ तालिबान मुहम्मद शमीउल हक और उनके साझीदार हाफिज सईद और हामिद गुल जैसे नुमाइंदे पाकिस्तान को बचाने के लिए भारत की तरफ हमलावर हो गये। उन्होंने तालिबान से खुद को अलग कर लिया। उधर खुद तालिबान मूवमेन्ट कई हिस्सों में तक्सीम हो गया। तहरीके तालिबान पाकिस्तान और अफगान तालिबान का बंटवारा हो गया। वह तालिबान जो पाकिस्तान को निशाना बना रहा था उसके खिलाफ पाकिस्तान की फौज मैदान में उतर गई जबकि वह तालिबान जो अफगानिस्तान में आतंकवादी हमले कर रही थी वह फौज की जेब में चली गयी। अब पाकिस्तान इन्हीं दो तालिबान में एक से लड़ रहा है और दूसरे से लड़ा रहा है।

तालिबान पैदा करने के वे इदारे (संस्थाएं) जो बेरोजगार हो गयी थीं वे अब कश्मीर के लिए मुजाहिद पैदा करने लगीं और एक बार फिर उन संस्थाओं को पाकिस्तान सरकार उसी तरह समर्थन कर रही है जैसे उसने अफगानिस्तान में किया था। इसलिए आप कह सकते हैं कि कल भी पाकिस्तान आतंकवाद की फैक्ट्री था और आज भी वह आतंकवाद की फैक्ट्री है। एक तरफ तालिबान हैं तो दूसरी तरफ जिहादी। इनमें से कुछ पाकिस्तान के खिलाफ हैं तो कुछ पाकिस्तान के हाथ में खिलौना। मुल्ला मंसूर पाकिस्तान के हाथ में तालिबान का ऐसा ही एक खिलौना था जिसे अमेरिका ने ड्रोन हमले में मार गिराया है। लेकिन न तो मुल्ला मंसूर आखिरी तालिबान है और न ही अमेरिका का आखिरी ड्रोन हमला।

पाकिस्तान ने इस्लामिक आतंकवाद की जो आग लगाई थी उसमें खुद ही घिर चुका है इसके बावजूद वह आग को बुझाने की बजाय उसकी लपटों से भारत को जलने की ख्वाहिश रखता है। जो सिर्फ भारत के लिए ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के लिए चिंता की बात है। एशिया में पाकिस्तान एक ऐसे टेरर सेन्टर के रूप में विकसित हो चुका है जिसकी लपटों से दुनिया का कोई देश सुरक्षित नहीं है। संभवत: अमेरिका भी इस बात को समझ गया है इसीलिए ओबामा ने कह दिया है कि आनेवाले दस सालों तक अफगान पाकिस्तान का इलाका अशांत ही रहनेवाला है। इस अशांति के बीच शांति की खोज के प्रयास भी जारी रहने चाहिए।

Monday, May 23, 2016

भारत के साथ ईरान, परेशान पाकिस्तान

रान वह पहला मुल्क था जिसने पाकिस्तान बनने के बाद सबसे पहले मान्यता दी थी। लेकिन बनते बनते पाकिस्तान पहले एक मुस्लिम मुल्क बना फिर सुन्नी मुस्लिम मुल्क बन गया जिसमें कायदे आजम जिन्ना की जमात शिया मुसलमानों को काफिर घोषित कर दिया गया। कहने के लिए इस्लामाबाद पाकिस्तान की राजधानी है लेकिन हकीकत में पाकिस्तान में पांच राजधानियां हैं। लाहौर, कराची, पेशावर और क्वेटा। इन चार के बाद के बाद पांचवी राजधानी है इस्लामाबाद।

जाहिर है, सबके अपने निजाम और मंसूबे हैं। इनमें लाहौर का मंसूबा सबसे मुखर है। लाहौर में बैठे मौलवी, जनरल, कमांडर और जाट सियासतदान पाकिस्तान को अघोषित रूप से एक सुन्नी मुल्क घोषित कर चुके हैं। इसलिए हिन्दुओं, सिखों के खात्मे के बाद पाकिस्तान के नये अल्पसंख्यक शिया, अहमदिया और मोहाजिर हमेशा उनके निशाने पर होते हैं। जिसका असर ईरान के साथ रिश्तों पर अब साफ दिखाई देने लगा है।

हाल में ही कथित रूप से गिरफ्तार रॉ एजेन्ट कुलभूषण याधव की गिरफ्तारी को जिस तरह से ईरान ने खारिज किया और पूरे मामले को प्रोपेगेण्डा करार दिया उससे पाकिस्तान के सुन्नी हुक्मरान काफी नाराज हुए। पाकिस्तान के टीवी चैनलों पर खुलकर ईरान की निंदा की गयी और ईरान के ही बहाने शिया मुसलमानों को भी मुल्क का गैर वफादार वाशिंदा बताया गया। जाहिर है, यह पाकिस्तान नहीं बल्कि सुन्नी इस्लाम बोल रहा था। इन लोगों ने यह भी याद कराया कि यमन में सऊदी अरब के कहने के बाद भी हऊदियों के खिलाफ पाकिस्तान जंग में शामिल नहीं हुआ लेकिन ईरान इसका बदला यह दे रहा है कि वह पाकिस्तान के खिलाफ होनेवाली गतिविधियों को बढ़ावा दे रहा है।

असल में ईरान और पाकिस्तान का संबंध इतना भी नीचे नहीं गिरा है जितना टीवी पर बैठे सनकी 'विचारक बोलते रहते हैं लेकिन नीचे की तरफ बहुत तेजी से जा रहा है। उसके कुछ बड़े कारण हैं। पाकिस्तान में शिया मुसलमानों के साथ पाकिस्तानी हुक्मरानों का व्यवहार, बलोचिस्तान में चीन की मौजूदगी से बननेवाला ग्वादर बंदरगाह, पाकिस्तान द्वारा अफगानिस्तान में आतंकवाद को समर्थन और पाकिस्तान का सऊदी अरब की तरफ झुकाव। शिया मुसलमानों के साथ बीते कुछ सालों में पाकिस्तान के हुक्मरान बहुत सख्त हुए हैं। खासकर नवाज शरीफ की सरकार आने के बाद सेना के रेन्जर्स लगातार कराची में शिया और मोहाजिर के खिलाफ कार्रवाई कर रहे हैं। पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के कुछ बड़े नेताओं की गिरफ्तारियां भी हुई हैं। मोहाजिरों की तरह ही अब शियाओं पर आरोप लगाया जाता है कि वे भारतीय खुफिया एजंसी रॉ के एजेन्ट के बतौर काम कर रहे हैं। हालात इतने बिगड़ गये हैं कि खुद जरदारी को आगे आकर कहना पड़ा कि "जंग लड़ना हम भी जानते हैं। हमारे ऊपर इस तरह के आरोप लगाकर हमें देशद्रोही साबित करना बंद करें।"

लेकिन इससे भी बड़ा एक मसला बन गया है ग्वादर में चीन का बंदरगाह। बलोचिस्तान में चीन की मौजूदगी से सिर्फ ईरान ही नहीं बल्कि पूरा अरब समुदाय खफा है क्योंकि इसका सीधा असर अरब देशों के व्यापार पर पड़ने वाला है। यूएई और ईरान नहीं चाहते कि अरब सागर में चीन आकर खड़ा हो जाए लेकिन पाकिस्तान किसी भी कीमत पर इस परियोजना को पूरा कराना चाहता है। ग्वादर में पोर्ट के अलावा चीन ग्वादर से काशगर तक एक सड़क बना रहा है ताकि वह ग्वादर पोर्ट से चीन को सीधे जोड़ सके। चीन की योजना न सिर्फ पोर्ट बनाने की है बल्कि चीनी सेना का नौसेनिक अड्डा भी बनाया जाएगा। जाहिर है इस्लामिक मुल्कों को साम्यवादी चीन की ये हरकतें भला क्योंकर बर्दाश्त होंगी। वे पाकिस्तान को रोक नहीं सकते लेकिन पाकिस्तान से खुद को अलग तो कर ही सकते हैं। और यही वे कर रहे हैं।

पाकिस्तान से ईरान की नाराजगी की एक और वजह अफगानिस्तान में पाकिस्तान द्वारा आतंकवाद का समर्थन है। ईरान सिर्फ पाकिस्तान का ही पड़ोसी नहीं है बल्कि वह अफगानिस्तान का भी पड़ोसी है और अगर अफगानिस्तान में सुन्नी आतंकवाद बढ़ता है तो इसका सीधा असर ईरान पर पड़ता है। हेरात में तालिबान की मौजूदगी से जितना खतरा अफगानिस्तान को है उतना ही खतरा ईरानको है। ईरान इस खित्ते में भारत और अफगानिस्तान को पाकिस्तान के मुकाबले ज्यादा अहमियत दे रहा है। चाबहार पोर्ट इसी अहमियत का नतीजा है क्योंकि इससे सिर्फ ईरान ही नहीं बल्कि भारत और अफगानिस्तान को भी व्यावसायिक फायदा पहुंचेगा। यह बात पाकिस्तान के सुन्नी हुक्मरानों को कहीं से बर्दाश्त नहीं है।

लेकिन पाकिस्तान की इन हरकतों का फायदा भारत को मिल रहा है। अगर पाकिस्तान ने जीटी रोड के जरिए भारत को अफगानिस्तान पहुंचने का रास्ता दे दिया होता तो शायद चाबहार पोर्ट को लेकर भारत इतना बड़ा निवेश करने के लिए तैयार न होता। भारत और अफगानिस्तान दोनों चाहते थे कि बाघा बार्डर खुल जाए ताकि अफगानिस्तान, पाकिस्तान और भारत के बीच व्यापारिक आवाजाही खुल सके। लेकिन पाकिस्तान की यह अफगान भारत विरोधी नीति भारत के हित में गयी और उसकी पहुंच वाया ईरान अफगानिस्तान तक हो गयी। इसमें अफगानिस्तान के साथ साथ ईरान और यूएई से भी रिश्ते बेहतर करने में भारत को मदद मिल रही है। हालांकि भारत और ईरान के रिश्ते ऐतिहासिक हैं लेकिन पाकिस्तान की नीतियों ने उसमें नया जोश भर दिया है।

चाबहार में बंदरगाह बनने से भारत न सिर्फ ईरान बल्कि अफगानिस्तान और दूसरे सोवियत मुल्कों तक अपनी पहुंच कायम कर सकेगा। रूस और यूरोप के लिए भी एक दरवाजा खुलेगा। लेकिन यह सब इतना आसान भी नहीं होगा। ईरान से अफगानिस्तान के रास्ते में तालिबान बैठा है जिसका इस्तेमाल पाकिस्तान कर सकता है। अगर अफगान तालिबान इस व्यावसायिक गलियारे का हिस्सा बनते हैं तो शायद वे रुकावट न पैदा करें लेकिन मुल्ला मंसूर के मरने के बाद तालिबान की कमान किसके हाथ में जाती है, यह उस पर निर्भर करेगा। 

Saturday, May 21, 2016

अल्लामा इकबाल का हिन्दुस्तानी इस्लाम

"पंडित" अल्लामा इकबाल इलाहाबाद में मुस्लिम लीग के सम्मेलन में बोलने के लिए बुलाये गये। वे बोले और दो बातों पर बोले। पहली बात ब्रिटिश हुक्मरानों से कही कि, मुुसलमानों के विकास के लिए जरूरी है कि हिन्दुस्तान में अलग राज्य दिया जाए। वे हिन्दुओं के साथ नहीं रह सकते क्योंकि हिन्दुओं और मुसलमानों की तहजीब, संस्कार, खान पान, रहन सहन में बहुत भिन्नता है। दूसरी बात मुसलमानों से बोली। उन्होंने मुसलमानों से कहा कि हमें जिस दिशा में आगे बढ़ना है वह अरबी इस्लाम नहीं होगा। वह हिन्दुस्तानी इस्लाम होगा। उस इस्लाम की जड़ें अरब में नहीं बल्कि हिन्दुस्तान में होगीं।

अल्लामा इकबाल ने जिस अलग राज्य की मांग की थी वह मुस्लिम लीग को इतनी पसंद आयी कि उसने अल्लामा इकबाल को अपना अध्यक्ष निर्वाचित कर लिया। यहीं मांग आगे चलकर पाकिस्तान की मांग बन गयी और 1947 में हिन्दुस्तान तीन हिस्सों में बंट गया। उधर जिस हिस्से के साथ अल्लामा इकबाल ने पाकिस्तान मांगा था वही हिस्सा पाकिस्तान बना लेकिन अंग्रेजों ने बोनस में बंगाल का भी विभाजन कर दिया। इकहत्तर में बोनस वाला पाकिस्तान माइनस होकर बांग्लादेश बन गया और उसी रास्ते पर आगे बढ़ गया जिसका जिक्र इकबाल ने इलाहाबाद के सम्मेलन में किया था। हालांकि उसने इकबाल को अपनाने की बजाय कवि नजरूल इस्लाम और रवीन्द्र नाथ टैगोर को अपनाया लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है? अल्लामा इकबाल ने जिन जड़ों की बात की थी वह बांग्लादेश ने पकड़ ली थी।

लेकिन वह पाकिस्तान चूक गया जिसके लिए अल्लामा इकबाल ने हिन्दुस्तानी इस्लाम का ख्वाब देखा था। पंजाबी, सिन्धी और पख्तूनों को मिलाकर बने पाकिस्तान में समय के साथ इन तीनों का ही सांस्कृतिक सफाया हो गया। मुहाजिरों के साथ भागकर पाकिस्तान पहुंची दिल्ली दरबार की उर्दू ने पाकिस्तान के लिए पूरब के दरवाजे बंद करके अरबी और फारसी के लिए पश्चिम के दरवाजे खोल दिये। लेकिन ये दरवाजे सिर्फ भाषा के लिए ही नहीं खुले। उस अरबी संस्कृति के लिए भी रास्ता तैयार हो गया जिससे बचने की सलाह 1930 में अल्लामा इकबाल ने दिया था। अब आज पाकिस्तान अल्लामा इकबाल को अपना मसीहा तो मानता है लेकिन उनकी बात नहीं मानता।

लेकिन यह त्रासदी अकले पाकिस्तान की नहीं है। इस त्रासदी का शिकार भारत भी है। भारत के मुसलमान बांग्लादेश का उदाहरण सामने नहीं रखते। वे पाकिस्तान का पीछा करते हैं। हालांकि धार्मिक रूप से भारत के मुसलमान पाकिस्तान के मुसलमानों से बहुत आगे हैं और दीनी मामलात में पाकिस्तान का मुसलमान भारत का पीछा करता है लेकिन बराबर की आबादी होने के बाद भी वे पाकिस्तान के मुसलमानों के सामने अपनी हीनभावना से उबर नहीं पाते हैं। इसलिए पाकिस्तान की देखा देखी भारत में भी शिया और सुन्नी दोनों ही पाकिस्तानी पंजाब और सिन्ध को अपना आदर्श मानते हैं। वे यह भूल जाचे हैं कि देवबंदी और बरेलवी और शिया इस्लाम के तीनों बड़े इदारे (संस्थाएं) पाकिस्तान में नहीं भारत में हैं। हिन्दुस्तान (भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश) में मुसलमानों का सबसे बड़ा तीर्थ अजमेर शरीफ पाकिस्तान में नहीं, भारत में है।

लेकिन यह हीनभावना अनायास नहीं है। बांग्लादेश और बलोचिस्तान को छोड़ दें तो हिन्दुस्तान का हर मुसलमान अरब में अपनी जड़ें खोजने में लगा है। सुन्नी है तो सऊदी की तरफ देख रहा है और शिया है तो इरान की तरफ। पंजाब से लेकर बिहार तक और सिन्ध से लेकर हैदराबाद तक मुसलमान कहीं भी अपनी जड़ों से उखड़ने को "सच्चा इस्लाम" मान बैठा है। पाकिस्तान के रास्ते भारत में फैले बहावी और सलाफी इस्लाम के इमामों और बुद्धिजीवियों ने मुसलमानों के भीतर एक आम धारणा बिठा दी है कि जितना ज्यादा से ज्यादा हम अरबी रहन सहन, खान पान, वेशभूषा हम अपनाते जाएंगे उतने ही सच्चे मुसलमान बनते जाएंगे। दाढ़ी, पाजामे, बुर्के का तर्क इतना हावी है कि इन मुद्दों पर दूसरी कोई राय होने का मतलब इस्लाम और कुरान की हुकुम उदूली है। असर इतना गहरा है कि गमछा भी वह सिर पर रखने की रिवायत शुरू हो गयी है जो सउदी अरब के लोग अपने सिर पर रखते हैं।

1930 से पहले भी निश्चित रूप से ऐसे कुछ लक्षण दिख रहे होंगे इसीलिए अल्लामा इकबाल ने इस ओर इशारा किया था लेकिन 1947 के बाद तो जैसे बांध ही टूट गया। गंगा के किनारे का मुसलमान भी नखलिस्तान में सांस्कृतिक स्वर्ग की तलाश में जुट गया है। इस्लाम के नाम पर उन्हीं जड़ों को खोद रहा है जिससे उसका अस्तित्व जुड़ा हुआ है।

अमेरिका से सैन्य साझीदारी के खतरे

ब आप सफलता की सीढ़ी चढ़ रहे होते हैं उस वक्त जाने अनजाने कोई न कोई ऐसी गलती जरूर करते हैं जो एक दिन आपकी असफलता का कारण बन जाती है। सफलता के नशे में चूर भारत की मोदी सरकार भी ऐसी ही एक गलती की तरफ बहुत तेजी से आगे बढ़ रही है।

मोदी सरकार की उस गलती का नाम है, अमेरिका के साथ सैन्य साझीदारी का समझौता। आनेवाले कुछ महीनों में दोनों देश ऐसा समझौता कर लेंगे जिसके नतीजतन अमेरिका न केवल भारत में सैन्य ठिकाने बना सकेगा बल्कि वह भारत के खुफिया सैन्य सूचनाओं तक आधिकारिक रूप से अपनी पहुंच हासिल कर लेगा। हालांकि यह समझौता दोतरफा है और भारत भी अमेरिका में अपने सैन्य ठिकाने बनाने के लिए स्वतंत्र होगा लेकिन इसका कोई मतलब तब नहीं है जब अमेरिका के बार्डर पर भारत का न कोई दोस्त है न दुश्मन। असल खेल होगा भारत की सीमाओं पर। जहां भारत के एक तरफ चीन है तो दूसरी तरफ पाकिस्तान है।

साम्यवाद के उभरते पूंजीवादी खतरे से निपटने के लिए अमेरिका कई सालों से कई स्तरों पर सक्रिय है। अमेरिकी मीडिया पहले से ही चीन को एक खतरा घोषित कर रही हैं और सैन्य स्तर पर जापान को मदद करके अमेरिका ने चीन को घेरने की कोशिश की है। अब उसी रणनीतिक हिस्से में उसने भारत को भी शामिल कर लिया है। भारत के साथ सैन्य समझौते के तहत अमेरिका उसी तरह चीन के खिलाफ भारत का इस्तेमाल करेगा जैसे कभी उसने रूस के खिलाफ पाकिस्तान का किया था।

बंटवारे के बाद जहां एक ओर भारत ने नॉन एलायन मूवमेन्ट चलाई वहीं पाकिस्तान अमेरिका के दरवाजे पर जाकर खड़ा हो गया था। पचास के दशक में अमेरिका को लगा कि दक्षिण पूर्व एशिया में सोवियत संघ को कमजोर करने के लिए पाकिस्तान के एक महत्वपूर्ण केन्द्र हो सकता है तो उन्होंने उसी तरह पाकिस्तान को सैन्य और असैन्य साझीदार बना लिया जैसे वह आज भारत को बना रहा है। चार दशक तक अमेरिका में पाकिस्तान की तूती बोलती रही। जिया उल हक जैसे तानाशाह को भी उन्होंने लाल कालीन बिछाकर स्वागत किया लेकिन वापसी के वक्त एक लाल कपड़ा बांध दिया जिसे लेकर उन्हें अफगानिस्तान में जिहाद की जंग पर जाना था। इकहत्तर के युद्ध में अमेरिका अपने सातवें बेड़े के साथ हमलावर हो ही जाता अगर सोवियत संघ ने भारत का साथ न दिया होता। लेकिन सोवियत संघ के साथ ने भारत को उस वक्त बर्बाद होने से बचा लिया।

लेकिन सोवियत संघ के विघटन और अफगानिस्तान में रूस की पराजय के साथ ही अमेरिका को पाकिस्तान की वह सारी बुराइयां नजर आने लगीं जो लाल कालीन के नीचे दबा दी गयी थीं। जिस सीआईए ने सऊदी अरब के साथ मिलकर पाकिस्तान में तालिबान बनवाया अब उनके एजंटों को आईएसआई के दफ्तरों में तालिबान का नेटवर्क नजर आने लगा। 2011 में एबटाबाद आपरेशन के बाद तो उनकी आंखें फट गयीं कि जिस ओसामा बिन लादेन को वे तोरा बोरा में खोजते रहे वह एबटाबाद की मिलिट्री छावनी में बैठा है। जाहिर सी बात है दक्षिण एशिया में अब उन्हें पाकिस्तान की कोई जरूरत नहीं रह गयी थी क्योंकि वह उनके नये साम्यवादी दुश्मन का गहरा दोस्त बन गया था।

ऐसे हालात में भारत एक बेहतर विकल्प है जिसकी एक बड़ी आबादी पहले ही अमेरिका में घुल मिल गयी है और वह भी उसी तरह अमेरिका और भारत को करीब लाना चाहती थी जैसे कभी पाकिस्तान ने ख्वाहिश पाली थी। पोखरण विस्फोट के बाद भारत के अपने बूते किये सैन्य और असैन्य विकास ने भी अमेरिका को चेतावनी दे दी कि प्रतिबंधों से बहुत असर नहीं पड़ेगा। इसलिए अमेरिका अब भारत को उसी तरह सैन्य कालोनी बनाना चाहता है जैसे उसने कभी पाकिस्तान को बनाया था। अमेरिका की नजर में चीन को बैलेंस करने के लिए यह साझीदारी जरूरी है बदले में अगर पाकिस्तान की कुर्बानी भी देनी पड़े तो उसे नुकसान कुछ नहीं होगा, उल्टे कुछ पैसे ही बच जाएंगे।

लेकिन सवाल अमेरिका की प्राथमिकताओं का नहीं है। सवाल हमारी अपनी प्राथमिकताओं का है। क्या हम भारत की परंपरागत नीति से अलग हटकर कुछ हासिल कर सकेंगे? तात्कालिक तौर पर देखें तो हां। अमेरिका के भारत के साथ मजबूती से खड़े होने का असर पाकिस्तान पर पड़ेगा और वह कमजोर भी होगा लेकिन दीर्घकालिक रूप से देखें तो भारत को इसमें भयावह नुकसान की संभावना ही ज्यादा है। अमेरिका एक देश नहीं बल्कि एक इम्पीरियल सिस्टम है जो पूरी दुनिया में नफे नुकसान के हिसाब से अपनी बिसात बिछाते हैं। खेलते हैं। जीतते हैं। और चले जाते हैं। वे (इजरायल और इंग्लैंड को छोड़कर) दुनिया में न तो किसी के स्थाई दोस्त हैं न दुश्मन। इसके उलट रूस का स्वभाव और व्यवहार दुनिया में हमेशा दूसरा रहा है। उसकी दोस्ती और दुश्मनी स्थाई होती है।

इसलिए यह एक ऐसा वक्त है जब भारत को कोई भी फैसला लेने से पहले देश और संसद दोनों ही जगह पर बहस करनी चाहिए कि वह अमेरिका के साथ सैन्य सहयोग की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए या नहीं? एक ध्रुवीय विश्व में नॉन एलाइन मूवमेन्ट की प्रासंगिकता है या नहीं? चीन उसका पड़ोसी है और पड़ोसी से जंगी जुनून कायम करने की जरूरत है या नहीं? ऐसे वक्त में जब भारतीय रक्षा प्रतिष्ठान अपने दम पर भारत को सुरक्षा में आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में सफल कोशिशें कर रहे हैं तब अमेरिकी साझीदारी से फायदा अधिक होगा या नुकसान? हमारे अपने सैन्य विकास पर इसका क्या असर पड़ेगा? अमेरिकी सैन्य ठिकानों का भारत की सेना पर क्या असर पड़ेगा? बिना इन बातों पर पूरी बहस किये हुए सरकार को एक भी कदम आगे नहीं बढ़ाना चाहिए।

बंटवारे के बाद रेलवे का विकास

भारत से जाते हुए ब्रिटिश हुक्मरानों ने भारत के तीन टुकड़े कर दिये। लिहाजा ब्रिटिश हुकूमत ने जो कुछ इन्फ्रास्टक्चर विकसित किया था वह तीन हिस्सों में तक्सीम हो गया। रेलवे भी एक ऐसा ही इन्फ्रास्ट्रक्चर था जो भारत पाकिस्तान और वर्तमान बांग्लादेश में बंट गया।

बंटवारे का असर रेलवे पर क्या हुआ इसे जानने के लिए अगर हम आज तीनों देशों के रेलवे को ही देख लें तो समझ आ जाएगा कि इस्लाम के नाम पर कितना बड़ा गुनाह किया गया था। बांग्लादेश जो कि बंटवारे के तेइस साल बाद आजाद मुल्क बना उसे भी विरासत में वही रेल मिली थी जो भारत के पास थी। ढाका और चटगांव के कामर्शियल रेलवे स्टेशन उसे मिले और पूरे बांग्लादेश में रेल नेटवर्क भी। जब तक वह ईस्ट पाकिस्तान था तब तक उसके रेलवे की भी उसी तरह दुर्दशा थी जैसे वेस्ट पाकिस्तान की। लेकिन पाकिस्तान से अलग होने के बाद उसने रेलवे के विकास पर ध्यान दिया और आबादी के भारी बोझ के बाद भी रेलवे की दशा उतनी खराब नहीं है जितनी पाकिस्तान की है।

कारण? बांग्लादेश ने रेलवे का एक सीमा से ज्यादा इस्लामीकरण नहीं किया। रेलवे आधुनिकीरण के लिए उन्हें हिन्दू भारत से एलएचबी कोच लेने में कोई आपत्ति नहीं हुई। जबकि पाकिस्तान ने रेलवे का पूरी तरह से इस्लामीकरण कर दिया। पहले दिन से पाकिस्तान एक इस्लामिक अर्थव्यवस्था, इस्लामिक विज्ञान और तकनीकि यहां तक कि इस्लामिक परिवहन की उधेड़बुन में उलझा हुआ है। पाकिस्तान की रेलवे इसी इस्लामिक सोच का शिकार हो गया। लिहाजा पाकिस्तान रेलवे आज भी चालीस और पचास के दशक में अटका हुआ है। उनके ट्रेनों के नाम, डिब्बों के रंग, लोकोमोटिव, स्पीड, सुविधा, कोच सब का सब चालीस पचास साल पीछे हैं। बंटवारे के वक्त कराची और लाहौर रेलवे स्टेशन जहां छूट गये थे वहीं आज भी खड़े हैं।

इधर भारत में क्योंकि ट्रेन में नमाज कम्पार्टमेन्ट की तरह पूजाघर बनाने की कोई सोच नहीं थी लिहाजा रेलवे परिवहन ही बना रहा। साठ के दशक में ही अमेरिकी एल्को लोको के साथ समझौता करके डीएलडब्लू की स्थापना की गयी जो आज सालाना साढे तीन सौ डीजल इंजन बनाता है। इसके बाद पश्चिम बंगाल में सीएलडब्लू की स्थाना की गयी जो करीब डाई सौ इलेक्ट्रिक लोको हर साल बनाता है। मतलब जितना इस वक्त पाकिस्तान और बांग्लादेश को मिलाकर कुल डीजल इंजन हैं उतना हर साल डीएलडब्लू और सीएलडब्लू मिलकर नये इंजन बना देता है। 1952 में ही इंटीग्रल कोच फैक्ट्री की स्थापना कर दी गयी थी जो रेलवे को आधुनिक कोच मुहैया कराता। रेलवे की बढ़ती मांग को देखते हुए 1986 में दूसरी कोच फैक्ट्री कपूरथला में और 2008 में तीसरी कोच फैक्ट्री रायबरेली में स्थापित की गयी। अभी चौथी और पांचवी कोच फैक्ट्री केरल और कर्नाटक में बनायी जा रही है।

डीएलडब्लू और सीएलडब्लू के अलावा बिहार में दो रेल इंजन कारखाना लगाने की मंजूरी दे दी गयी है जो मधेपुरा और मरहौरा में लगाये जाएंगे। मधेपुरा में फ्रांस की आल्स्टम इलेक्ट्रिक लोको और अमेरिका की जीई कंपनी मरहौरा में डीजल लोको बनाएगी। यह दोनों फैक्ट्री अगले तीन साल में उत्पादन शुरू कर देंगी। इसी तरह ट्रैक में सुधार की कोशिशें अस्सी के दशक में ही शुरू हो गयी थीं नतीजा आज यह है कि 130 किलोमीटर की अधिकतम गति से ट्रेने कई रूट पर दौड़ रही हैं। दिल्ली आगरा रूट पर यह सीमा 160 किलोमीटर तक पहुंच चुकी है। उम्मीद है इसी साल रेलवे 200 किलोमीटर की अधिकतम गति के लक्ष्य को हासिल कर लेगा। स्पेन की टाल्गो कंपनी का परीक्षण अगर सफल रहा तो ट्रैक में बिना किसी बड़े बदलाव के दिल्ली मुंबई के बीच 200 किलोमीटर की स्पीड से ट्रेन चलाई जा सकेगी।

इन कोशिशों का मतलब यह बिल्कुल नहीं है कि हम यह कह सकें कि भारतीय रेलवे यूरोपीय मानकों पर पहुंच गयी है। ट्रेन परिचालन और नागरिक सुविधाओं के लिहाज से भारत शायद अपनी आबादी के कारण उस मानक तक पहुंच भी नहीं पाये लेकिन चीन ने जिस तरह से हाई स्पीड ट्रेन में निवेश किया है वह एक रास्ता दिखाता है। जैसे रेलवे की पांच श्रेणी होती है, पहला दर्जा, दूसरा, तीसरा, स्लीपर और जनरल। इसी तरह रेलवे को भी पांच दर्जों में अपना विकास करना होगा जिसमें एक सिरे पर यूरोपीय मानक के बराबर की ट्रेनें दौड़ेंगी तो दूसरे सिरे पर सिर्फ जनरल कोच वाली ट्रेन भी चलेगी। भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में दोनों सिरों के विकास के बिना रेलवे का विकास संभव नहीं है।

इस लिहाज से देखें तो वर्तमान सरकार की कोशिशें दूरगामी परिणा देनेवाली हैं। पहली बार रेल विभाग के काम काज में ऐसा दिख रहा है जब घोषणा और परिचान के बीच की दूरी घट रही है। जो घोषणा होती है वह एक ही वित्तीय वर्ष में लागू भी होती है। रेलवे जैसे सरकारी बाबूशाही वाले महकमें के लिए यह एक अच्छा संकेत है। बुलेट ट्रेन से लेकर अन्त्योदय एक्सप्रेस चलाने की योजना भारत की विविधता को समायोजित करता है।

Thursday, May 12, 2016

गजवा ए हिन्द की गुहार

तहीरुल कादरी वैसे मुसलमान मौलवी नहीं हैं जैसे मौलवी पाकिस्तान में पाये जाते हैं। वे कट्टर सुन्नी जमातों से अलग सूफी मत को माननोवाले हैं और शायद इसीलिए इस साल जब भारत में सूफी कांफ्रेस आयोजित की गयी तो सम्मानित अतिथियों में एक नाम तहीरुल कादरी का भी था।

लेकिन यह जानकर घोर निराशा होती है कि हिन्द के बारे में तहीरुल कादरी भी वही सोचते हैं जो आइएसआई स्पांसर्ड मुल्ला सोचता है। गजवा ए हिन्द (हिन्दुस्तान की फतेह) पर वे भी वही बोलते हैं तो जो कोई भी कुरान और हदीस का जानकार बोलता है। वैसे यह गजवा ए हिन्द भारत के पूरब में नहीं है। पूर्वी बंगाल से बांग्लादेश बनने के बाद अभी मौलवियों की जमात ने हिन्दुस्तान को फतेह करने का कोई फतवा तो नहीं दिया है लेकिन हिन्दुस्तान से पश्चिम में हर रोज यह फतवा दिया जाता है। कभी टीवी पर बैठकर। कभी तकरीरों में। कभी जलसों और जुलूसों में।

हिन्दुस्तान को जीतने के ये फतवे कुरान और हदीस की रोशनी में दिये जाते हैं जब मोहम्मद साहब ने अपने चाहनेवालों से कहा था कि दो फौजें निकलेंगी। एक वहां से पश्चिम जाएंगी और दूसरी हिन्द की तरफ। हिन्द के लिए जो फौज जाएगी वह जीत हासिल करेगी और वहां के राजा या राजाओं को जंजीरों में जकड़कर ले आयेगी। इस जंग में जो कुर्बान होंगे वे जन्नत जाएंगे और जो बच जाएंगे वे नर्क की आग में नहीं फेंके जाएंगे। इस तरह यह जंग आगे चीन तक जाएगी और वहां भी इस्लाम का परचम लहरायेगी और इस तरह इस खित्ते में खिलाफत कायम हो जाएगी।

मोहम्मद साहब को गये जमाना हो गया। इस बीच मोहम्मद बिन कासिम ने सिन्ध पर हमला किया। भारत में इस्लाम फैला। सदियों तक मुस्लिम शासक रहे। मुस्लिम शासकों की पनाह में सूफी संत आये और दोनों ही अपनी अपनी तईं गजवा ए हिन्द का फरमान लागू करते रहे। हजार साल की इन कोशिशों का नतीजा यह हुआ कि हिन्द का आधा हिस्सा मुसलमान हो गया। दो अलग अलग मुल्क बन गये। तीसरा बनने की मांग कर रहा है। दुनिया की कुल मुस्लिम आबादी का चालीस फीसद मुसलमान हिन्द (बांग्लादेश और पाकिस्तान सहित) का वासी हो गया। तो क्या इतना सब होने के बाद भी गजवा ए हिन्द का ख्वाब पूरा नहीं हुआ जो मौलवी हजरात आज भी गजवा ए हिन्द के हुक्म की तामील करने में लगे हुए हैं?

शायद सच्चाई यही है। अभी भी हिन्द की सौ करोड़ की आबादी ने कलमा नहीं पढ़ा है। हिन्दू, बौद्ध, सिख, जैन जैसे मजहब अलग अलग तरह से बुतपरस्ती में लगे हुए हैं जिसे आखिरकार खत्म किया जाना है। तो यह अधूरा काम पूरा कैसे होगा? जवाब पाकिस्तान में बैठे मौलवी और इस्लामिक विचारक देते हैं। वे मानते हैं कि मुहम्मद बिन कासिम ने तो महज जंग की शुरूआत की थी। उस जंग को अंजाम तक पहुंचाना पाकिस्तान का काम है। टीवी पर बैठकर सिर्फ जैद हामिद जैसे मसखरे ही यह दलील नहीं देते। मौलाना मौदूदी और डॉ इसरार अहमद जैसे कट्टर इस्लामिक दार्शनिक भी यही कहते थे और तहीरुल कादरी जैसे उदारवादी मौलवी भी इस बात पर एक राय रखते हैं कि गजवा ए हिन्द अधूरा है जिसे पूरा होना है।

डॉ इसरार अहमद मानते थे कि सिन्ध पर फतेह के साथ ही हुजूर (मोहम्मद साहब) का फरमान पूरा हो गया। लेकिन बाकी मौलवी इससे कम इत्तेफाक रखते हैं। आईएसआई स्पांयर्ड मौलवियों ने इसमें एक और सिरा जोड़ दिया है कि पाकिस्तान की फौज ही वह फौज है जो गजवा ए हिन्द के ख्वाब को पूरा करेगी। अगर आप पाकिस्तानी फौज के घोषित उद्देश्य को पढ़ें तो यह बात उतनी बेतुकी भी नहीं लगती। पाकिस्तानी फौज अरबी में कहती है कि वह "जिहाद फी सबिलियाह।" मतलब, वह अल्लाह के कायदे के लिए जिहाद पर है। अल्लाह का कायदा अर्थात, इस्लाम।

पाकिस्तान के ज्यादातर मौलवी अपनी तकरीरों में अब यही दलील देते हैं कि पाकिस्तान बना ही है गजवा ए हिन्द के लिए। यह इस्लामिक मुल्क पाकिस्तान की जिम्मेदारी है कि वह हिन्दुस्तान के खिलाफ गजवा ए हिन्द की जंग लड़े और मुसलमानों के आका (मोहम्मद साहब) की उस इच्छा को पूरा करे जो उन्होंने हिन्द के बारे में जाहिर की थी। पाकिस्तानी पंजाब के मौलाना इरफान उल हक अपनी तकरीरों में हमेशा यह कहते हैं कि सिर्फ दुनिया में भारत ही एक ऐसा देश है जहां बुतपरस्ती (मूर्तिपूजा) जिन्दा है इसलिए मोहम्मद साहब के हुक्म का तालीम करने के लिए जरूरी है कि भारत से बुतपरस्ती और बुतपरस्तों को नेस्तनाबूत कर दिया जाए। अब क्योंकि यह मोहम्मद साहब का हुक्म था इसलिए हर मुसलमान इसी मिशन पर होना चाहिए। जब उनसे पूछा गया कि इसकी चर्चा उस तरह सार्वजनिक रूप से क्यों नहीं होती तो उन्होंने कहा कि कुछ बातें मस्जिद की तकरीर में होती हैं और कुछ बातें मस्जिद में पर्दे के पीछे। गजवा ए हिन्द हर मुसलमान के लिए आका (मोहम्मद साहब) का हुक्म है जिसे उसका तालीम करना है। पूछनेवाले ने उनसे अगला सवाल यह पूछा कि इसमें पाकिस्तान का क्या रोल है तो उन्होंने साफ कहा, "पाकिस्तान बनने का और कोई मकसद ही नहीं है। इसका मकसद ही है गजवा ए हिन्द।"

जाहिर है पाकिस्तान ने अपने वजूद की बुनियाद विकसित कर ली है। पाकिस्तान और भारत में सुन्नी और सूफी भले ही बाकी सभी बातों पर अलग राय रखते हों लेकिन इस बात पर एक राय हैं कि "बुतपरस्ती (मूर्तिपूजा) और बुतपरस्तों को खत्म करना है। तहीरुल कादरी उसी परपंरा को आगे बढ़ा रहे हैं। जबकि बाबा इरफान उल हक इसे पाकिस्तानी फौज से जोड़कर इस वजूद को और मजबूत कर रहे हैं कि असल में पाकिस्तान कोई मुल्क नहीं बल्कि दूसरा मदीना है जिसे मूर्तिपूजकों को खत्म करने के लिए ही अल्लाह की मर्जी से अस्तित्व में लाया गया है।
अगर आप भारत पाकिस्तान के कभी सामान्य न रह पाने वाले रिश्तों को समझना चाहते हैं तो उसकी बुनियाद इसी सोच में है। भारत और पाकिस्तान के बीच समस्या कश्मीर नहीं है। समस्या है दो कौमी नजरिये वाली सोच जो एक मुस्लिम को सभी गैर मुस्लिमों से अलग कर देती है। इरफान उल हक बड़ी साफगोई से बताते हैं कि "यह दो कौमी नजरिया कोई आज वजूद में नहीं आया है। यह दो कौमी नजरिया उस दिन वजूद में आया जिस दिन मक्का में पहला मुसलमान बना। वहां से दुनिया दो हिस्सों में बंट गयी।" इसी बंटवारे में एक एक करके दुनिया के दूसरे हिस्से को मक्का की तरफ खींचने की कोशिश ही इस्लाम है। इसलिए भारत पाकिस्तान रिश्तों में कश्मीर को पाकिस्तान मुख्य मुद्दा बनाकर रखता है। इसलिए नहीं कि सैंतालिस के बंटवारे में कोई गड़बड़ हो गयी थी, बल्कि इसलिए कि कश्मीर में जब मूर्तिपूजकों को खत्म किया जा चुका है तो फिर उसको हिन्द में रहने का तुक क्या है?

पाकिस्तान के हुक्मरान, बौद्धिक लोग या फिर सेना में भी कुछ लोग भले ही कश्मीर को मुख्य मुद्दा न मानते हों लेकिन वे कश्मीर को भूलने या छोड़ने की बात कभी नहीं कहेंगे। कारण है वही मानसिकता जो गजवा ए हिन्द के रूप में उनके जेहन में जिन्दा है। यह पाकिस्तान का मुद्दा नहीं, मकसद है। इसमें कश्मीर का सूफी आंदोलन उनकी मदद कर रहा है। कश्मीर के बाद यह जंग दूसरे हिस्सों की तरफ आगे बढ़ाई जाएगी। पीढ़ी दर पीढ़ी यह जंग जारी रखी जाएगी और कयामत से पहले वह दिन आयेगा जब हिन्दोस्तान से सभी मूर्तिपूजक खत्म कर दिये जाएंगे और गजवा ए हिन्द की जो गुहार मोहम्मद साहब ने लगायी थी उसे पूरा कर लिया जाएगा। आमीन।

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