Wednesday, June 29, 2016

इस्लाम के नाम पर पाकिस्तान का पतन

सन सैंतालिस में बंटवारा क्यों हुआ इसकी खोजबीन भारत में न के बराबर हुई है, हुई भी है तो राजनीतिक कारणों को जानने से आगे जाने की कोशिश नहीं की गयी है। लेकिन भारत के उलट पाकिस्तान में इस बात पर खूब बहस हुई है कि पाकिस्तान क्यों बनाया गया। बहुत सारे तर्क है, तथ्य हैं जिनमें एक तर्क है व्यापार। एक बुद्धिजीवी वर्ग ऐसा भी है जो यह मानता है कि बंटवारे के मूल में मुस्लिम व्यवसाइयों के हित थे जिन्हें डर था कि अगर आजादी आई तो हिन्दुओं के बीच व्यापार करना मुश्किल हो जाएगा।

मोहम्मद इकबाल ने अलग देश नहीं मांगा था। इलाहाबद के मुस्लिम लीग के जलसे में उन्होंने जो मांग रखी थी वह अलग राज्य की मांग थी। पहली बार इकबाल ने भारत के पश्चिमी हिस्से को चिन्हित किया था जो आगे चलकर पाकिस्तान बना। वे अलग राज्य चाहते थे जहां हिन्दुओं का दखल न हो। लेकिन अल्लामा इकबाल की मौत के बाद जिन्ना उसके आगे गये। उन्होंने अलग देश मांगा। इस अलग देश को पहला आर्थिक समर्थन दिया अवध के राजा महबूबाबाद ने। राजा महबूबाबाद मोहम्मद आमिर अहमद खान जिन्ना के मित्र भी थे और मुस्लिम लीग के नेता भी। जिन्ना को अलग पाकिस्तान के लिए शुरुआती फंडिंग उन्होंने ही की लेकिन फिर बाद में पंजाब के मुस्लिम कारोबारियों ने यह काम अपने हाथ में ले लिया।

पंजाब के मुस्लिम कारोबारी यह मानते थे कि आजादी आई तो हिन्दुओं के साथ व्यापार में बराबरी नहीं कर पायेंगे। उनका ऐसा सोचने के पीछे कारण था। पंजाब के सबसे बड़े शहर लाहौर में हिन्दू अल्पसंख्यक थे लेकिन उनका कारोबारी निजाम मुसलमानों से बड़ा था। लाहौर और कराची का कारोबार कमोबेश गैर मुस्लिमों के हाथ में था। मुस्लिम कारोबारी भी उस हिस्से में पनप रहे थे जहां हिन्दुओं या सिखों की आबादी ज्यादा थी। इन्हीं लोगों में एक बड़ा कारोबारी नाम मलिक गुलाम मोहम्मद का था। मलिक गुलाम मोहम्मद पंजाब के महिन्द्रा बंधुओं के साथ महिन्द्रा एण्ड महिन्द्रा की स्थापना कर चुके थे लेकिन उन्हें भी लगता था कारोबार के मामले में वे हिन्दुओं की बराबरी नहीं कर सकते। इसलिए पाकिस्तान बनने के बाद वे भी पाकिस्तान चले गये और पाकिस्तान के पहले वित्त मंत्री बने। वित्तमंत्री के रूप में उन्होंने पाकिस्तान केे लिए इस्लामिक अर्थव्यवस्था का प्रारूप सामने रखा।

लेकिन आज सात दशक का इतिहास उठाकर देखें तो समझ आता है कि पाकिस्तान जिस व्यापारिक हित के नाम पर इस्लाम का लिबास पहनकर अस्तित्व में आया उसे ही हासिल नहीं कर पाया। आज भी पाकिस्तान में वह इस्लामिक अर्थव्यवस्था तो लागू नहीं हो पाई जिसका ख्वाब मलिक मोहम्मद ने देखा था लेकिन उस ख्वाब ने पाकिस्तान को मटियामेट करके रख दिया। भ्रष्टाचार से निपटने के लिए जिस इस्लामिक अर्थव्यवस्था का स्वरूप सामने रखा गया वही भ्रष्टाचार इस्लामिक अर्थव्यवस्था को खा गया। आज पाकिस्तान इस बात का रोना रोता है कि उसके यहां कोई विदेशी निवेश नहीं आ रहा है। चीन के रणनीतिक निवेश को छोड़ दें तो पाकिस्तान अपने ही मुल्क में पराया हो गया है। वह शरीफ परिवार जो अमृतसर में बड़ा कारोबारी परिवार होता था और आज भी पाकिस्तान का सबसे बड़ा कारोबारी परिवार है, वह भी सीएम और पीएम बनने के बाद भी हालात को संभाल नहीं पाया।

जिसका नतीजा यह है कि आज पाकिस्तान हिन्दुस्तान के चार अरब डॉलर मूल्य के सामानों की अवैध मंडी बनकर रह गया है। पाकिस्तान के नाम पर जिस व्यापारिक हित को बचाना था उस हित को चोरी छिपे उसी हिन्दुस्तान के हाथों गिरवी रख दिया गया, जिनसे अलग हुए थे। सीधे तौर पर पाकिस्तान को हमेशा दुश्मन राज्य का दर्जा ही देकर रखा लेकिन अंदर खाने अपनी जरूरतें भी पूरी करता रहता है। भारत के रिलायंस और जिन्दल आज भी चोरी छिपे शरीफ खानदान की मदद करते हैं। भारत के इंजीनियर पाकिस्तान नहीं जा सकते क्योंकि वे हिन्दू इंजीनियर हैं लेकिन शरीफ परिवार को गन्ने की खोई से बिजली बनाने का कारखाना लगाना हुआ तो उन्होंने चोरी छिपे भारत से इंजीनियर बुलाये। वहां के कारोबारी बाघा बार्डर से माल नहीं मंगा सकते इसलिए वाया दुबई मंगाते हैं। इसी तरह पाकिस्तान में यह चर्चा आम है कि यहां के बासमती उत्पादक वाया दुबई भारत को चावल निर्यात करते हैं फिर उस पर किसी भारतीय कंपनी का ब्रांड चिपकाकर दुनिया में बेचा जाता है क्योंकि पाकिस्तान का ब्रांड दुनिया में बिकता नहीं।

जबकि पाकिस्तान के उलट और तमाम तरह की मजहबी झंझटों के बाद भी मुसलमानों ने अपना आर्थिक विकास किया है। केरल, गुजरात और महाराष्ट्र इसमें सबसे आगे हैं। भारत में मुस्लिम बड़े कारोबारियों की लिस्ट में शामिल हैं। भारत के पचास सबसे धनी लोगों में तीन मुस्लिम हैं और उनकी माली हैसियत इतनी है जितनी पाकिस्तान के सभी बड़े कारोबारियों की मिलाकर नहीं होगी। त्रिशूर के एमए युसुफ अली, सिपला के मालिक ख्वाजा हामिद, विप्रो के मालिक अजीम प्रेमजी, स्टार इन्श्योरेन्स के मालिक बीएस अब्दुल रहमान कुछ चंद नाम है जिनकी हैसियत शायद पाकिस्तान के कुल बजट के बराबर होगी।

फिर सवाल यह उठता है कि पाकिस्तान बनाकर मुसलमानों ने हासिल क्या किया? अगर कारोबार और विकास के लिए ही पाकिस्तान चाहिए था तो आज पाकिस्तान को हर लिहाज से भारत से आगे होना चाहिए था। शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी मूलभूत जरूरतों के मसले पर भी बड़ी आबादी के बाद भारत पाकिस्तान से बहुत आगे निकल चुका है। अगर लाहौर में हिन्दू कारोबारियों ने ही मुस्लिम कारोबारियों को दबा रखा था तो बंटवारे के बाद लाहौर को दिल्ली से दस गुना आगे होना चाहिए था। लेकिन वह दिल्ली से भी दस गुना पीछे क्यों चला गया? जो पाकिस्तान आर्थिक ताकत होने के लिए हिन्दुओं से अलग हुआ था उसके हर नागरिक पर सवा लाख का कर्ज क्यों लद गया है? वह पाकिस्तान जो आर्थिक समृद्धि के लिए अस्तित्व में आया था वह दिवालियेपन के कगार पर क्यों खड़ा हो गया है?

इन सवालों के जवाब पाकिस्तान में एक बहुत छोटा वर्ग ही सही लेकिन तलाश रहा है। उनके सामने सवाल है कि रेलवे का वही ढांचा लेकर हिन्दू बुलेट ट्रेन के दरवाजे तक पहुंच गये जबकि पाकिस्तान आज भी चीन के कबाड़ इंजनों और साठ के दशक की बोगियों में सफर क्यों कर रहा है? अगर बंटवारे के बाद के हालात का जायजा लेंगे तो पायेंगे कि उन्होंने मजहब और इस्लामिक विकास के नाम पर एक जमीन हासिल की और उसे आतंक और नफरत से भर दिया।

रमज़ान या रमादान?

मज़ान, रमादान, रमाधान या रमाथान? अरबी में मूल शब्द रमाधान या रमाथान है जो कि रमिधा से लिया गया है. 'रमिधा' का मतलब जला देना. भस्म कर देने की क्रिया. वैसे ही जैसे संस्कृत में यज्ञकुण्ड में भस्म की जानेवाली सामग्री को 'समिधा' कहा जाता है.

लेकिन अरबी के इस 'रमिधा' को अंग्रेजी ने छुआ तो 'एच' गायब करके 'रमिदा' बना दिया. वैसे ही जैसे अरबी का रियाध अंग्रेजी में रियाद हो गया. इसलिए अरबी का रमधान अंग्रेजी में रमदान हो गया. खुद सऊदी अरब में अब शायद ही कोई रमाधान लिखता हो. इंगलिश कल्चर वाले सउदी समाज ने भी रमदान स्वीकार कर लिया है. हां, भारत उपमहाद्वीप (भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश) में जहां फारसी भाषा स्थानीय बोलियों में घुल मिलकर उर्दू हो गई वहां अंग्रेजी के रमदान की बजाय स्थानीय शब्द इस्तेमाल होता है 'रमज़ान.'

यह बात दीगर है कि अब यहां भी कुछ लोग रमज़ान को इसलिए रमदान बनाने की कोशिश कर रहे हैं क्योंकि उन्हें लगता है यह यह शब्द सऊदी अरब से मिला है. जबकि हकीकत में यह अंग्रेजी का शब्द है.

इसी तरह अपने यहां 'रोज़ा' शब्द भी अरबी का नहीं बल्कि उर्दू की देन है. मूल अरबी में रोज़ा का कहीं कोई जिक्र नहीं है. अरबी में महीनेभर चलनेवाले इस 'व्रत' या 'तपस्या' के लिए स्वम, साम या सियाम शब्द का उल्लेख है जिसका अर्थ होता है परहेज रखना. और सियाम सिर्फ खाने पीने भर का नहीं. शरीर की जितनी इंद्रियां (आंख, नाक, कान, जिह्वा) हैं सब पर संयम रखा जाता है. यह सियाम भी संस्कृत के शब्द 'संयम' जैसा ही अर्थ प्रकट करता है. लेकिन एक बार फिर भारतीय उपमहाद्वीप में रोजा के लिए 'सियाम' या 'स्वम' शब्द को स्वीकार करने की बजाय दारी के 'रोजेह' को स्वीकार किया जो बाद में रोज़ा के रूप में प्रचलित हो गया. मलेशिया और सिंगापुर के देशों में तो रोजा को 'पुआसा' और ईद के त्यौहार को 'हरि राया पुआसा' कहा जाता है.

निश्चित तौर पर यहां कुछ लोगों के दिमाग में कुछ गंभीर सवाल उठेंगे लेकिन उन सवालों पर बहस फिर कभी. अभी तो रमजान मुबारक!

Saturday, June 11, 2016

अपने ही बनाये चक्रव्यूह में फंसा पाकिस्तान

युद्ध का एक मनोविज्ञान होता है। लेकिन एक मनोविज्ञान का भी युद्ध होता है। आप वास्तविक रूप से कभी मैदान में नहीं उतरते लेकिन युद्ध लड़ते हैं और जीत भी जाते हैं। पाकिस्तान और भारत में अब यही फर्क नजर आ रहा है। युद्ध के मनोविज्ञान में जीनेवाले कबाइली पाकिस्तान के सामने भारत ने मनोविज्ञान के युद्ध की गंभीर चुनौती पेश कर दी है।

पहले कारगिल युद्ध फिर मुंबई हमलों के बाद संभवत: भारत की रणनीति में यह बदलाव आया है कि पाकिस्तान युद्ध के मनोविज्ञान को मनोवैज्ञानिक युद्ध से ही निपटा जा सकता है। यह मनोवैज्ञानिक युद्ध कई स्तरों पर है। इसमें सबसे पहला स्तर है कि पाकिस्तान को अपनी प्राथमिकताओं से ही अलग कर दिया जाए। भारत की सैन्य ताकत मजबूत की जाए और बजाय पाकिस्तान के ट्रैप में उलझने के उसको उसके ही ट्रैप में उलझने के लिए खुला छोड़ दिया जाए। जब पाकिस्तान को यह अहसास होगा कि भारत उनसे आर्थिक और सामरिक रूप से कई गुना ताकतवर हो चुका है तो धीरे धीरे उसका युद्धोन्माद का मनोबल टूटता चला जाएगा। वे बिना लड़े ही हार मानने लगेंगे।

अगर बीते कुछ सालों की गतिविधियों पर नजर डालें तो आपको भारत पाक संबंधों में पाकिस्तान की मनोवैज्ञानिक हार साफ नजर आयेगी। मोदी सरकार आने के बाद जिस तरह से मोदी डोभाल की जोड़ी ने रणनीति अख्तियार की है उससे पाकिस्तान पर भारत के मनोवैज्ञानिक दबाव में बहुत इजाफा हुआ है। पहले अफगानिस्तान और अब ईरान के साथ संबंधों में नयी गर्मजोशी भरकर इस सरकार ने पाकिस्तान को बहुत बड़ी मनोवैज्ञानिक चुनौती दी है। ऐसा नहीं है कि यह कोई नयी नीति है। इन देशों के साथ भारत के कूटनीतिक रिश्ते पुराने हैं लेकिन इस सरकार ने उन रिश्तों में आक्रामक तेजी ला दी है जिसका सीधा असर पाकिस्तान पर पड़ रहा है।

हाल में प्रधानमंत्री मोदी के विदेश दौरों से पाकिस्तान की सियासत में ऐसा भूचाल आया है कि न सिर्फ विदेश मामलों के प्रभारी सरताज अजीज को मीडिया के सामने आकर अपनी उपलब्धियां गिनानी पड़ी बल्कि पाकिस्तान की संसद में भी चिंता जाहिर की गई कि मोदी की आक्रामक विदेश नीति से पाकिस्तान अकेला पड़ता जा रहा है। इस स्थिति से बाहर निकलने के लिए जरुरी है कि पाकिस्तान न सिर्फ अपने पड़ोसी मुल्कों अफगानिस्तान और ईरान से रिश्ते बेहतर करे बल्कि इस्लामिक मुल्कों में बढ़ती भारत की दखल को कम करने के लिए नये सिरे से प्रयास शुरू किये जाएं। सऊदी अरब और यूएई जो कि पाकिस्तान के हमेशा "मददगार" रहे हैं वे भी भारत की तरफ झुक रहे हैं और अब पाकिस्तान चीन के साथ इस पूरे इलाके में अकेला पड़ गया है।

असल में बनने के साथ ही पाकिस्तान ने जो झूठ और मक्कारी की बुनियाद पर फौजी हुकुमत कायम की उसे नाम तो दिया गया लोकतंत्र का लेकिन हकीकत में वहां कभी लोकतंत्र आया नहीं। और इस बात की उम्मीद न के बराबर है कि पाकिस्तान में कभी लोकतंत्र आयेगा। पाकिस्तान पर शासन पंजाबी फौजी हुक्मरानों का ही रहेगा भले ही वे कभी अगली सीट पर बैठकर ड्राइव करें कि पिछली सीट पर बैठकर। पाकिस्तान बनने से पहले भी यह इलाका फौज का ही इलाका था। आजादी से पहले तक ब्रिटिश इंडियन आर्मी के 60 फीसद सैनिक इसी इलाके से भर्ती होते थे। ब्रिटिश इंडिया की सबसे ताकतवर नार्दर्न कमांड इसी इलाके में बनाई गयी थी। पेशावर डिवीजन, रावलपिंडी डिविजन, लाहौर डिविजन, कोहाट ब्रिगेड, बन्नू ब्रिगेड के अलावा वेस्टर्न कमांड में भी वर्तमान पाकिस्तान का दखल होता था। पठान, हजारा, पंजाबी मुसलमान, बलोच ब्रिटिश आर्मी के प्रमुख लड़ाके हुआ करते थे।

इसलिए जो पाकिस्तान बना वह विरासत में वही ब्रिटिश फौज अपने साथ ले गया जिन्होंने कभी सिविलियन पर शासन किया था। जिन्ना की बहार और इस्लाम की फुहार चंद दिनों तक जरूर रही लेकिन धीरे फौज ने पूरे सिस्टम को अपने कब्जे में ले लिया। आज के पाकिस्तान में फौज के दायरे से बाहर कुछ भी नहीं है। शासन प्रशासन, व्यापार, बौद्धिक वर्ग यहां तक कि विदेश नीति भी फौज ही नियंत्रित करती है। फौज के ही लोग ही नीति बनाते हैं और फौज के लोग ही टेलीवीजन पर बैठकर पाकिस्तान की उन नीतियों का समर्थन भी करते हैं। ऐसा भी नहीं है कि पाकिस्तान को यह सब बुरा लगता है। कुछ थोड़े से वर्गों को छोड़ दें तो पाकिस्तान की आम जनता भी फौज के हाथ में ही अपना भविष्य सुरक्षित देखती है। टेलीवीजन की बहसों में भी लोकतंत्र को को पाकिस्तान के लिए खतरा बतानेवाले लोग बड़ी तादात में दिखते हैं। इसका कारण यह है कि एक तो फौज की विरासत दूसरे इस्लाम की समझ दोनों ही लोकतंत्र को खारिज करते हैं। अगर फौज गलती से लोकतंत्र की बात कर भी दे तो उसकी इस्लाम के हवाले से आलोचना शुरू हो जाती है।

इसलिए ऐसे पाकिस्तान ने लंबे समय तक भारत को बंधक बनाए रखा। भारत की लोकतांत्रिक और अहिंसक समझ हर वक्त पाकिस्तानी फरेब और झूठ के सामने कमजोर पड़ जाती थी। अभी भी पाकिस्तान के झूठ और फरेबी चरित्र में रत्तीभर भी बदलाव नहीं आया है लेकिन अब वे अपने उसी झूठ और फरेब में बुरी तरह फंसते जा रहे हैं जो उन्होंने हमेशा भारत के लिए बोला था। अमेरिका जैसे मुल्क को यह बात समझ में आ गयी है कि पाकिस्तानी शासन प्रशासन मूलत: फ्रॉड लोगों के हाथ में है जो मुजाहिद के नाम पर लिये जाने हथियार को तालिबान के हाथों में दे देते थे। झूठ और मक्कारी का जो चरित्र पाकिस्तान ने भारत के खिलाफ विकसित किया था अब वही चरित्र उसका सबसे बड़ा दुश्मन बन गया है।

Friday, June 3, 2016

तेजस फाइटर के पितामह

नयी सदी की वह 4 जनवरी 2001 की सुबह। बंगलौर के सर्द मौसम में हवा नम थी लेकिन एक जगह ऐसी थी जहां बहुत गर्मजोशी थी। हिन्दुस्तान एयरोनॉटिक्स का एचएएल कैंपस। दिल्ली से रक्षा मंत्री जार्ज फर्नांडीज के साथ दूसरे अफसर और डीआरडीओ चीफ बंगलौर पहुंच चुके थे। १८ साल की मेहनत के परीक्षा की घड़ी आज आ चुकी थी। लाइट कॉम्बैट एयरक्राफ्ट (एलसीए) को आज पहली उड़ान भरनी थी।

एलसीए प्रोग्राम के इंचार्ज और फादर आफ एलसीए डॉ के हरिनारायण बेचैन थे क्योंकि अब तक मीडिया में जो कुछ रपटें आ रही थीं वो एलसीए के प्रोग्राम पर सवाल खड़े कर रही थीं। रक्षामंत्री तक को यह रिपोर्ट भेजी गयी थी कि वे बंगलौर न जाएं क्योंकि यह विमान हवा में उड़ा भी तो कोई गारंटी नहीं कि जमीन पर वापस लौटेगा। भारत पहली बार वह करने जा रहा था जिसकी उससे किसी को उम्मीद नहीं थी। लड़ाकू विमानों का सबसे बड़ा आयातक भारत अपना खुद का बनाया लड़ाकू विमान उड़ाने जा रहा था।

सुबह 10.18 मिनट पर एलसीए ने उड़ान भरी और पहली परीक्षण उड़ान पूरी करके जमीन पर आ गया। जार्ज फर्नांडीज ने सभी वैज्ञानिकों को बधाई दी। देश भर के मीडिया ने यह बताया कि हमने कर दिखाया। वैज्ञानिकों को यह भरोसा होने में थोड़ा वक्त लगा कि उन्होंने कर दिखाया है। नेशनल जियोग्राफिक की एक डाक्यूमेन्ट्री में डॉ के हरिनारायण ने बताया कि उन्हें यह भरोसा होने में थोड़ा वक्त लग गया कि अब हम वो लोग नहीं हैं जो कर नहीं सकते। अब हम वो लोग हैं जो कर सकते हैं।

पंद्रह साल बाद एलसीए तेजस के रूप में भारतीय सेना में शामिल हो गया। डॉ के हरिनारायण भारत की भीड़ में कहीं खो गये लेकिन उनकी मेहनत और आत्मविश्वास ने आज भारत को वह काबिलियत दे दी है कि वह तेजस के आगे जा सकता है। तेजस प्रोग्राम के बाद भारत पांचवी पीढ़ी के जिस स्टील्थ फाइटर जेट पर काम कर रहा है वह कभी संभव नहीं होता अगर तेजस और डॉ के हरिनारायण न होते।

के हरिनारायण एक सामान्य मध्यवर्गीय परिवार से आते हैं। उनका जन्म उड़ीसा में एक ऐसे परिवार में हुआ जहां शिक्षा का स्तर बहुत अच्छा नहीं था। लेकिन पिता फ्रीडम फाइटर थे इसलिए शुरूआती शिक्षा के बाद उन्हें बनारस हिन्दू युनिवर्सिटी में इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए बनारस भेज दिया गया। बनारस में पढ़ाई पूरी करने के बाद वे एयरोनाटिकल इंडस्ट्री की तरफ झुके और आगे की पढ़ाई के बाद वे हिन्दुस्तान एयरोनाटिक्स से जुड़ गये और यहीं पर उन्होंने तेजसे के डिजाइन पर काम शुरू किया। 

डॉ हरिनारायण जैसे हीरो शून्य से पैदा जरूर होते हैं लेकिन शून्य में समाते नहीं हैं। वे अपने जीवन में कुछ ऐसा कर जाते हैं जो शून्य को निर्माण की उर्जा से भर देता है और हमारा हम पर भरोसा थोड़ा और बढ़ जाता है कि हम वो लोग नहीं हैं जो कर नहीं सकते। हम वो लोग हैं जो कर सकते हैं।

Popular Posts of the week