Friday, July 22, 2016

बिहार में फिर पाकिस्तान की बहार

हिन्दुस्तान के बंटवारे का सबसे बड़ा आंदोलन दो जगह चला। उस पंजाब में जो कि अब पाकिस्तान है और बिहार में। यूपी के मुसलमान बंटवारे के बहुत पक्ष में नहीं थे लेकिन दिल्ली और दिल्ली से सटे यूपी के कुछ शहरों से जरूर मुसलमान पाकिस्तान गये। इसमें सबसे प्रमुख शहर था आगरा जहां से पाकिस्तान जाने वालों में मोहाजिर कौमी मूवमेन्ट के अल्ताफ हुसैन और वर्तमान राष्ट्रपति ममनून हुसैन के परिवारवाले भी शामिल थे। फिर भी सीमाओं से सूदूर बिहार का उत्साह काबिले गौर था। पाकिस्तान बना। कुछ बिहारी मुसलमान पश्चिमी पाकिस्तान गये और कुछ पूर्वी पाकिस्तान। जो पश्चिमी पाकिस्तान गये उन्हें कराची के पास बसाया गया जो कि उस वक्त पाकिस्तान की राजधानी थी। जो बिहारी मुसलमान पूर्वी पाकिस्तान गये उन्हें ढाका के आसपास अस्थाई कालोनियां बनाने की जगह दी गयी। अब दोनों जगह इनकी दुर्दशा है।

पश्चिमी पाकिस्तान में आज इनकी पहचान गुंडों और मवालियों के तौर पर होती है। कराची के जिस औरंगी टाउन में सबसे ज्यादा बिहारी रहते हैं उसका नाम इतना बदनाम है कि सिर्फ औरंगी टाउन कह देने से लोग समझ जाते है कि यह जरूर गुंडा मवाली होगा। यही हाल पूर्वी पाकिस्तान के बिहारी मुसलमानों का है। इकहत्तर के बांग्लादेश युद्ध के बाद बांग्लादेश ने उन बिहारियों को अपने यहां रखने से मना कर दिया लेकिन पाकिस्तान उन पांच लाख मुसलमानों को इस्लाम के नाम पर भी कबूल करने को तैयार नहीं है। इस्लामी मुल्क में जाकर भी बिहारी मुसलमान बिहारी ही रहे। उन्हें इस्लाम के नाम पर न तो बंगाली मुसलमानों ने स्वीकार किया और न ही सिन्धियों या पंजाबियोंं ने। उल्टे सिंधियों की बिहारी मुसलमानों से सबसे ज्यादा शिकायत यह है कि यूपी बिहार से आये मुसलमानों की वजह से उनकी सिन्धी सभ्यता को नुकसान पहुंचा है। ऐसे में एक बार जब फिर बिहार की धरती पर पाकिस्तान जिन्दाबाद का नारा लगता है तो भारतीय मुसलमानों की दशा और मनोदशा दोनों का अंदाज हो जाता है कि भारत के मुसलमान या तो इतने मूर्ख हैं कि वे इतिहास से कोई सबक लेना नहीं चाहते या फिर इतने धूर्त हैं कि जानबूझकर इतिहास झूठला रहे हैं।

 जाकिर नाईक के समर्थन में निकाली गयी रैली में जिस तरह से पटना में पाकिस्तान जिन्दाबाद का नारा लगा और पाकिस्तान का झंडा फहराया गया वह चौंकाने वाला है। जाकिर नाईक जिस मानसिकता का प्रचार कर रहे हैं उसके मूल में देश नहीं है। उसमें सिर्फ इस्लाम है और देश को दारुल हरब बनाने का ख्वाब। जिस पापुलर फ्रंट आफ इंडिया के बैनर पर बिहार में यह रैली निकाली गयी थी उसका गठन केरल में हुआ है। पापुलर फ्रंट आफ इंडिया के चेहरे पर कई तरह के दाग है। मसलन, वह आतंकी नेटवर्क तैयार करने में मदद करती है, दंगे भड़काती है, केरल में लव जिहाद चलाती है और हर तरह के धार्मिक उन्माद भड़काने वाले काम करती है जिससे समाज में और देश में टकराव बढ़े। पापुलर फ्रंट नामक यह जिहादी संगठन तब पहली बार चर्चा में आया था जब इसने केरल में एक ईसाई प्रोफेसर जोसेफ पर हमला करवाया था। प्रोफेसर जोसेफ पर पापुलर फ्रंट ने आरोप लगाया था कि उसने मुसलमानों के पैगंबर मोहम्मद का अपमान किया है। इसिलए पापुलर फ्रंट आफ इंडिया का जाकिर नाईक के समर्थन में उतरना अस्वाभाविक नहीं है क्योंकि दोनों एक ही तरह के अतिवादी इस्लाम को बढ़ावा दे रहे हैं, लेकिन बिहार के मुसलमानों का पापुलर फ्रंट के बैनर पर रैली करना चौंकानेवाला है।

क्या बिहार के मुसलमान यह भूल गये कि उनके पुरखों ने जो लड़कर पाकिस्तान लिया था वहां उनका क्या हश्र हुआ? पाकिस्तान के शासन प्रशासन, व्यापार में तो कोई भागीदारी नहीं बन पाई है लेकिन बिहार में वे सत्ता और शासन में बराबर के भागीदार हैं। सवाल यह है कि शासन से लेकर माफिया जगत तक जब धर्म के नाम पर किसी प्रकार के भेदभाव के शिकार नहीं है तो फिर धर्म के नाम पर उनके जेहन में पाकिस्तान क्यों जिन्दा है? क्या सिर्फ इसलिए इस्लाम उन्हें गैर मुस्लिमों के साथ रहने से मना करता है? 

लेकिन  यह कोई ऐसी पहली घटना नहीं है जो सामने आयी है। अब केवल कश्मीर ही वह जगह नहीं रही जहां पाकिस्तान जिन्दाबाद के नारे लगते हैं। राजस्थान से लेकर असम तक जहां जहां मुसलमान विद्रोह पर उतरते हैं वे पाकिस्तान जिन्दाबाद के नारे लगाते हैं। कुछ समय पहले राजस्थान के कोटा में इसी तरह से कुछ मुसलमानों ने पाकिस्तान जिन्दाबाद के नारे लगाये थे और पाकिस्तान के झंडे फहराये थे। ऐसा करके ये लोग संभवत: यह संदेश देना चाहते हैं कि मुसलमानों के दिल में आज भी पाकिस्तान जिन्दा है वे अपनी टू नेशन थ्योरी पर कायम हैं। हालांकि ऐसे लोगों की तादात कम है फिर भी कट्टरपंथी हिन्दुओं और कट्टरपंथी मुसलमानों के बीच पाकिस्तान बंटवारे का एक भावनात्मक आधार बना हुआ है। जो लोग इस आधार को बनाए हुए हैं उन्हें एक बार पाकिस्तान के मुसलमानों के हालात को भी देख लेना चाहिए। होश ठिकाने आ जाएंगे। मजहब के आधार पर जो देश बनते हैं वो पाकिस्तान हो जाते हैं। 

Wednesday, July 20, 2016

कश्मीर में किसका आत्मनिर्णय?

बंटवारे के एक महीने बाद ही फेफड़े के रोगी मोहम्मद अली जिन्ना कश्मीर में छुट्टियां मनाने के लिए आना चाहते थे। उन्हें तब तक 'यह नहीं पता था' कि कश्मीर के महाराजा ने उसी तरह कोई फैसला नहीं लिया है जैसे जूनागढ़, हैदराबाद और बलोचिस्तान के नवाबों ने कोई फैसला नहीं लिया है कि उन्हें करना क्या है? क्या वे स्वतंत्र देश बनें या अपनी मर्जी के मुताबिक जहां चाहें वहां चले जाएं। हैदराबाद के पास पाकिस्तान जाने की कोई भौगोलिक संभावना नहीं थी तो बलोचिस्तान चाहकर भी भारत के साथ नहीं आ सकता था। सिर्फ कश्मीर और जूनागढ़ के शासकों के पास यह अवसर था कि वे भारत या पाकिस्तान में से किसी एक को चुन लें या फिर दोनों को ठुकरा दें।

जूनागढ़ के नवाब बहुत देर तक टिक न सके। बहुसंख्यक जनता हिन्दू थी इसलिए चाहकर भी वे जूनागढ़ को पाकिस्तान न ले जा सके। आखिरकार खुद उड़कर पाकिस्तान चले गये। अब बच गया कश्मीर जहां के महाराजा हरि सिंह के सामने वैसी ही दुविधा थी जैसी जूनागढ़ के नवाब के सामने। कश्मीर जिसे उनके पुरखों ने ९० लाख रूपये में खरीदा था उसकी बहुसंख्यक प्रजा मुस्लिम थी। हिन्दुओं से सवाई ज्यादा। लेकिन महाराजा हरि सिंह ने इस तथ्य के बावजूद जिन्ना को श्रीनगर प्रवेश की अनुमति नहीं दी। वे उस वक्त १५ सितंबर तक स्वतंत्र थे और उन्होंने कोई निर्णय नहीं लिया था। जिन्ना को जब उनके अंग्रेज गुप्तचरों ने खबर दी कि महाराजा हरिसिंह ने उनके श्रीनगर प्रवेश की अनुमति नहीं दी है तो जिन्ना बौखला गये। उन्होंने अपने प्रधानमंत्री लियाकत अली खान को बुलाया और कहा कि यह कैसे हो सकता है? जब वहां की आधी से ज्यादा आबादी मुस्लिम है तो वह स्वाभाविक तौर पर पाकिस्तान का हिस्सा है। फिर महाराजा कैसे हमें वहां रोक सकता है?

वह सितंबर का ही महीना रहा होगा जब जिन्ना और लियाकत अली की बात हुई। कश्मीर पर "जायज" कब्जा करने के अपने इरादे से लियाकत अली खान ने कश्मीर में विद्रोह का सहारा लेने का रास्ता अख्तियार किया। लेकिन कश्मीर के भीतर मुजाहिद तैयार करने में वक्त लगता। इतना वक्त और धैर्य न जिन्ना के पास था और न ही लियाकत अली के पास। उन्हें नये देश की माली हालत से ज्यादा कश्मीर को पाकिस्तान में मिलाने की चिंता सताने लगी। फौरी तौर पर जो रास्ता अख्तियार किया गया वह यह कि खूंखार पठानों को कश्मीर में जिहाद के लिए तैयार किया गया। हो सकता है, उन्हें हूरों का लालच भी दिया गया हो जो कि बलात्कारों के जरिए कश्मीर में हासिल भी किया, कारण जो भी रहा हो, पठान तैयार हो गये। मुजफ्फराबाद होते हुए वे श्रीनगर से ३५ मील पहले बारामुला के एक गिरजाघर में १४ ईसाई कुंआरियों के बलात्कार में रत थे कि इधर महाराजा हरिसिंह ने मेनन के जरिए भारत की मदद मांग ली थी।

दरअसल जिन्ना की गुप्त योजना अंग्रेज सैन्य अधिकारियों के जरिए ही भारत के अंग्रेज सैन्य अधिकारी तक पहुंच गयी थी। बंटवारे का खाका खीचकर लंदन से भारत पहुंचे लार्ड माउण्टबेटन बंटवारे के बाद वॉयसराय के बतौर नई दिल्ली में मौजूद थे। पुराने किले में खून से लथपथ लहुलुहान लोगों की तंगहाली और बदहाली से बस चंद मील दूर आलीशान वॉयसराय हाउस में नयी सरकार का कामकाज सामान्य करने में वे मदद कर रहे थे। उन्होंने ही प्रधानमंत्री नेहरू को एक सरकारी भोज कार्यक्रम के बाद बताया कि कबाइली कश्मीर में घुस आये हैं। २२ अक्टूूबर की रात माउण्टबेटेन ने नेहरू को यह सूचना दी और २६ अक्टूबर की सुबह सेना की पहली टुकड़ी श्रीनगर एयरपोर्ट पर थी। इन चार दिनों के भीतर कश्मीर में बहुत सारे घटनाक्रम घटित हो चुके थे। वीके मेनन जो कि उस वक्त रजवाड़ों के विलय का काम देख रहे थे वे श्रीनगर पहुंच चुके थे और उन्होंने महाराजा हरिसिंह को सलाह दी थी कि वे श्रीनगर छोड़कर जम्मू चले जाएं। महाराजा ने मेनन की सलाह मान ली थी और जम्मू पहुंचकर उन्होंने अपने निजी सचिव को यह आदेश दिया कि उन्हें तभी उठाया जाए जब मेनन का प्लेन दिल्ली से वापस आ जाए। अगर सुबह तक प्लेन नहीं आता है तो उन्हें नींद में ही गोली मार दी जाए। क्योंकि वो उठकर भी क्या हासिल करेंगे? तब तक सबकुछ खत्म हो चुका होगा।

लेकिन उन्हें गोली मारने की नौबत नहीं आई। उनके जागने से पहले ही मेनन उनके पास थे जिनके हाथ में एक संधिपत्र था जिस पर सिर्फ महाराजा हरि सिंह के हस्ताक्षर होने थे। इस संधि पत्र का प्रस्ताव लार्ड माउण्टबेटेन के साथ उस बातचीत में आया था जब उन्होंने नेहरू को कश्मीर में जिहाद की जानकारी दी थी। उस वक्त नेहरू बहुत हताश हो गये थे। तब माउण्टबेटन ने ही उनके सामने लाचारी दिखाई थी कि हम चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते। सैकड़ों की तादात में उस समय ब्रिटिश सैलानी श्रीनगर में मौजूद थे फिर भी वे सीधे सैन्य हस्तक्षेप नहीं कर सकते थे क्योंकि कश्मीर के महाराजा ने कोई "अंतिम" निर्णय नहीं लिया है। लेकिन नेहरू अपनी मातृभूमि को इस तरह कबाइली जिहादियों के हाथ बर्बाद होते हुए नहीं देख सकते थे। वे बहुत भावुक हो गये थे। तब नेहरू के सामने लार्ड माउण्टबेटेन ने ही प्रस्ताव रखा था कि कश्मीर में एक ही स्थिति में सैन्य हस्तक्षेप हो सकता है कि वहां परिस्थिति सामान्य हो जाने के बाद हम वहां के लोगों से पूछेंगे कि वे किसके साथ रहना चाहते हैं, तभी कोई अंतिम फैसला होगा। भारी मन से ही सही, नेहरू तैयार हो गये।

यह माउण्टबेटन की वह आखिरी चाल थी जिसने भारत को हमेशा के लिए एक रिसता हुआ घाव दे दिया। देश के जितने छोटे बड़े रजवाड़े थे उनमें से सिर्फ प्रिंसली स्टेट को यह अधिकार दिया गया था कि वहां के राजा यह फैसला करें कि वे किसके साथ जाना चाहते हैं, या फिर स्वतंत्र रहना चाहते हैं। जाहिर है यह फैसला उस वक्त राजा या नवाब ही ले रहे थे लेकिन पहली बार बड़ी चालाकी से माउण्टबेटन ने कश्मीर में वहां की "जनता की इच्छा" को जोड़ दिया जो कि अब तक किये गये रजवाड़ों के विलय के बिल्कुल उलट था। अगर सभी रजवाड़ों में राजा की इच्छा का सम्मान किया गया तो फिर कश्मीर में प्रजा की इच्छा को बीच में क्यों लाया गया?

यह वह सवाल है जो कश्मीर समस्या की बुनियाद बन गया। वादा न तो भारत सरकार ने कश्मीर की जनता से किया था और न ही पाकिस्तान से। यह वायसराय और प्रधानमंत्री के बीच एक नैतिक और वैधानिक संकट से उभरने की चर्चा थी। क्या २२ अक्टूबर को जब मेनन श्रीनगर गये थे तब ही संधि पत्र पर हस्ताक्षर नहीं हो सकता था? हो सकता है उस वक्त दो दिन की यह देरी दशकों की मुसीबत का सबब न नजर आया हो लेकिन महाराजा कबाइली हमले की सूचना मिलने के दिन से भारत में विलय को तैयार थे। वे मुस्लिम सैनिक जो उनकी सेना में थे वे उन्हें छोड़कर जा चुके थे इसलिए सैन्य रूप से वे इतने ताकतवर नहीं रह गये थे कि अकेले कबाइली हमले का सामना कर पाते। लिहाजा, कश्मीर के भारत में विलय के अलावा उनके पास और कोई रास्ता नहीं था।
इसलिए आज अगर संसद में कांग्रेस पार्टी की चौथी पीढ़ी का कोई सांसद अगर यह कहता है कि कश्मीर में जनमत सर्वेक्षण होना चाहिए तो वह महाराजा हरि सिंह की उस इच्छा का ही अपमान करता है जो उन्होंने भारत में विलय के साथ प्रकट की थी। उसे चाहिए कि वह कश्मीर को उसी राजनीतिक चश्मे से देखे जिससे नेहरू ने १९४७ में देखा था।

Sunday, July 17, 2016

यूं ही नहीं होता किसी फौजिया का कंदील हो जाना

कुछ लोग कंदील की तुलना राखी सावंत या पूनम पांडे से करते रहे हैं जो ऐसा करते हैं वो न तो कंदील को जानते हैं और न ही उसके साहस को समझते हैं। उसने कभी पब्लिसिटी स्टंट नहीं किया बल्कि जो किया वह पब्लिसिटी स्टंट बन गया। उसके पास कोई फिल्म या टीवी का कैरियर नहीं था। उसने फेसबुक और ट्विटर को अपना जरिया बनाया और देखते ही देखते चर्चा में आ गयी।

सबसे बड़ी बात। वह मुंबई या दिल्ली जैसे मेट्रोपोलिटन में नहीं रहती थी। वह मुजफ्फराबाद में पैदा हुई थी जो कि तालिबानी सोच का गढ़ है और लाहौर कराची उसके शहर थे जहां बुर्का इस्लामिक औरत की पहचान हो गया है। ऐसे कट्टरपंथी माहौल में पैदा होकर उसने अपनी देह पर बम नहीं बांधा लेकिन देह को कट्टरता के खिलाफ बम की तरह ही इस्तेमाल किया। करती क्या थी वो? स्विमिंग पूल में लड़कों के साथ तैराकी करती थी। वीडियो बनाकर अपने मैसेज फेसबुक पर पोस्ट करती थी। कठमुल्लों के स्टिंग आपरेशन करती थी। खुलेआम टीवी पर बैठकर उनके झूठ का नकाब उतार देती थी।

उसके इस जिहाद का असर यह हुआ कि पूरा पाकिस्तानी कट्टरपंथ उसके खिलाफ उठ खड़ा हुआ। टीवी चैनलों पर उसे समझाने की कोशिश की जाती कि वह जो कर रही है वह इस्लाम के खिलाफ है। एक बार तो कराची के एक मशहूर मुफ्ती ने उसे अपने यहां आने की सलाह दी कि उनकी शिक्षाओं से बिगड़ी हुई वीना मलिक रास्ते पर आ गयी हैं और हिजाब निकाब पर्दे की पाबंद हो गयी हैं। अगर कंदील चाहे तो उसे भी इस्लाम की शिक्षाओं का पाबंद कर सकते हैं ताकि वह हिजाब निकाब की दुनिया में वापस लौट सके। उसे घेरने की हर तरह से कोशिश की गयी लेकिन हिरणी की तरह जब वह किसी की पकड़ में नहीं आयी तो उसके फौजी भाई ने ही उसका गला घोंट दिया।

उसकी तुलना किसी से नहीं हो सकती। अपने तरह की वह अकेली बिंदास और बहादुर लड़की थी। अपने बारे में इतनी आत्मनिर्भर कि अपना नाम भी उसने खुद तय किया कि दुनिया उसे किस नाम से जानेगी। फौजिया से अपना नाम बदलकर कंदील बलोच कर लिया। घर परिवार से अलग हटकर एक ऐसे देश में अपना कैरियर बनाने का फैसला किया जहां खुलेआम मर्दों के साफ दफ्तर में काम न किये जाने के फतवे दिये जाते हों। फिर शो बिज तो कोई सोच भी नहीं सकता। लेकिन कंदील ने किया और बहुत बेफिक्र होकर किया।

लेकिन ऐसा नहीं है कि वह यह जानती नहीं थी कि वह क्या कर रही है। वह खूब अच्छे से जानती थी। उसे पता था कि उसके आसपास कैसा कट्टरपंथी समाज है जो मजहब के नाम पर औरतों पर गुलाम बनाने में माहिर है। दुनिया के दूसरे धर्मों में जहां इस स्थिति में समय के साथ बदलाव आया वहीं इस्लाम में मजहब के नाम पर कट्टरपंथ लगातार लोगों पर हावी होता गया। वह उसी कट्टरपंथी मानसिकता से लड़ रही थी इसका उसे खूब अहसास था। 

अपनी बहादुरी और निडरता के मामले में कहीं न कहीं वह मलाला से भी बड़ी शख्सियत थी। मलाला को दुनिया का समर्थन और सपोर्ट मिला लेकिन वह जिस रास्ते पर थी, बिल्कुल अकेली थी। वह कहती थी कि वह लड़कियों को आजाद ख्याल बनना सिखा रही है। लड़कियों पर जो पाबंदियां लगाई जाती हैं वह उसके खिलाफ बोल नही रही थी बल्कि अपने व्यवहार से खारिज करके दिखा रही थी। किसी फौजिया का कंदील हो जाना यूं ही नहीं होता उसके पीछे शोषण का त्रासद इतिहास छिपा होता है। इस शोषण के खिलाफ करोड़ों में कोई एक लड़की कभी कभार कंदील हो पाती है, लेकिन पाकिस्तान जैसे बंद दिमाग वाले मजहबी देश में अब किसी लड़की का कंदील होना अब शायद मुमकिन न हो। लेकिन इतना जरूर होगा कि कंदील की यह कुर्बानी बर्बाद नहीं जाएगी।

Friday, July 1, 2016

तेजस का जस

कोटा हरिनारायण आज जहां कहीं भी होंगे, बहुत खुश होंगे। उनका "बच्चा" सेना की सेवा में शामिल हो गया। सीरियल प्रोडक्शन सीरिज के दो लड़ाकू विमान तेजस मार्क-1 को लेकर आज पहले स्कवार्डन का गठन हो गया। वायुसेना ने पहले ही तेजस के स्वागत के लिए सारी जरूरी तैयारियां कर ली हैं और ऐलान किया है जैसे जैसे तेजस की डिलिवरी मिलती जाएगी वे सुविधाओं में विस्तार करते जाएंगे। अभी हिन्दुस्तान एयरॉनॉटिक्स लिमिटेड सालाना छह तेजस का उत्पादन कर रहा है जिसे अगले दो साल में बारह तेजस सालाना करने की योजना है। इसलिए तेजस का पूरा बेड़ा तैयार होने में अभी भी कम से कम एक दशक का समय लगेगा लेकिन तीन दशक की कोशिशों ने आज अपने अंजाम को हासिल कर लिया।

स्वेदशी जंगी विमान बनाने का सपना एयरफोर्स ने उसी दिन देख लिया था जिस दिन देश आजाद हुआ था। उसकी पहली कोशिश कुर्त टैंक के 'मारुत' डिजाइन से शुरू हुई लेकिन यह प्रयोग कुछ विदेशी हथियार लॉबी और कुछ तकनीकि के तेजी से बदलते दौर में बहुत जल्द गायब हो गया। इस विमान को इसकी उम्र से पहले रिटायर कर दिया गया। वायुसेना ने अपनी निर्भरता मिग-२१ और मिग-२७ विमानों पर बढ़ा दी। इकहत्तर की भारत पाक जंग के बाद वायुसेना ने विदेशों से बड़ी संख्या में फाइटर जेट खरीदे जिसमें मिराज-२०००, जगुआर स्पेशकैट जैसे चौथी पीढ़ी के उन्नत विमान शामिल थे लेकिन मुख्यरूप से उसकी निर्भरता सोवियत संघ के मिग विमानों पर ही थी। लेकिन जैसा कि दुनियाभर की एयरफोर्स इंडस्ट्री में होता है यहां भविष्य की तैयारियां बहुत पहले शुरू कर दी जाती हैं, इसलिए अस्सी के दशक में आधिकारिक रूप से स्वदेशी हल्केे लड़ाकू विमान की बुनियाद रख दी गयी। इसे लाइट कॉबैट एयरक्राफ्ट का नाम दिया गया।

मूल योजना थी कि बीस साल के भीतर इन विमानों को सेना में शामिल कर लिया जाएगा। १९८३ से अगर देखें तो यह विमान परियोजना एक दशक से भी ज्यादा देरी से पीछे चल रही है। लेकिन अगर आप भारत की हथियार लॉबी की सक्रियता को जरा भी समझते हैं तो आपको इसी बात पर संतोष हो जाएगा कि यही क्या कम है कि हल्के लड़ाकू विमान बनाने की यह परियोजना जिंदा बची रह गयी और आज उसको विधिवत सेना में शामिल किया जा रहा है। हथियार लॉबी की पूरी कोशिश थी यह विमान बनने न पाये। बन जाए तो उड़ने न पाये और अगर उड़ जाए तो फिर सेना में शामिल न होने पाये। हथियार लॉबी की आखिरी कोशिश हाल फिलहाल तक दिखाई दी है जब मीडिया में तेजस को सेना के लिए नाकाफी बताया गया। लेकिन यहां कम से कम देश सौभाग्यशाली रहा है कि अटल, मनमोहन और मोदी सरकार के तीनों रक्षामंत्री मजबूती के साथ तेजस के साथ खड़े रहे और सेना को तेजस के लिए राजी करने में कामयाब रहे। सेना की जो कुछ शिकायतें तेजस से थीं वह आनेवाले कुछ सालों में दूर करके तेजस मार्क-१ए का मॉडल विकसित किया जाएगा जो वर्तमान मॉडल से ज्यादा उन्नत होगा।

लड़ाकू विमानों के लिए यह कोई नई बात नहीं है। विमान का ढांचा एक बार विकसित हो जाने के बाद समय के साथ उसमें बदलाव किये जाते हैं ताकि वे लंबे समय तक सेना का साथ दे सकें। लेकिन वर्तमान स्वरूप में भी तेेजस कहीं से कमतर नहीं है। यह दुनिया का सबसे हल्का लड़ाकू विमान है। हवा में इसकी काबिलियत किसी भी और चौथी पीढ़ी के मुकाबले कमतर नहीं है। बहरीन एयर शो में तेजस ने अपने प्रदर्शन से साबित कर दिया कि हवा में यह किसी भी दूसरे विमान के मुकाबला उतनी की तत्परता से कर सकता है जितना कि आज की पीढ़ी के विमान कर रहे हैं। हवा से हवा में और हवा से जमीन पर मार करने की क्षमता के कारण यह फाइटर और बॉम्बर दोनों ही भूमिकाएं निभा सकता है। अत्याधुनिक फ्लाई बाई वायर तकनीकि का कमाल है कि 3100 परीक्षण उड़ान के दौरान एक भी विमान दुर्घटना का शिकार नहीं हुआ। यह अपने आप में पहली बार विकसित किये गये किसी परीक्षण विमान के लिए बड़ी उपलब्धि है। लेकिन इन सबसे आगे इसकी खूबी यह है कि यह हिमालय की ऊंची चोटियों पर भी कार्रवाई करने में सक्षम है जहां जगुआर या मिराज २००० जैसे अग्रिम पंक्ति के विमान कारगिल युद्ध के दौरान कमजोर पड़ गये थे।

निश्चित रूप से तेजस न सिर्फ भारत की एक बड़ी उपलब्धि है बल्कि तीस सालों की मेहनत मशक्कत ने भारत के सामने लड़ाकू विमानों का एक नया क्षेत्र खोल दिया है जहां अभी तक हम सिर्फ आयातक थे। तेजस विकास कार्यक्रम के लिए न सिर्फ एयरॉनिटकल डेवलमेन्ट एजंसी अस्तित्व में आयी जो पूरी तरह से जंगी विमानों के डिजाइन और निर्माण को समर्पित है बल्कि देशभर में एक तकनीकि विकसित करने में मदद मिली जिसका देश को दूरगामी फायदा होगा। तेजस के लिए ६५ फीसदी से अधिक विकास और निर्माण का कार्य देश के भीतर किया गया जिससे यह पूरा एविएशन सेक्टर विकसित हुआ है। यह बात सही है कि तेजस के लिए कावेरी इंजन का कार्यक्रम सफल नहीं हो पाया लेकिन भविष्य के लिए फ्रांस के साथ मिलकर कावेरी इंजन को दोबारा विकसित करने की योजना पर काम चल रहा है ताकि अगली पीढ़ी का विमान जब भारत बनाये तो इंजन तकनीकि भी भारतीय हो।

तेजस कार्यक्रम के कारण देशभर में सरकारी और निजी स्तर पर जो संस्थाएं विकसित हुई हैं उसी का परिणाम है कि आज भारत पांचवी पीढ़ी के मिडियम कॉम्बैट एयरक्राफ्ट के डिजाइन और डेवलपमेन्ट पर काम कर रहा है। देशभर के सरकारी और निजी क्षेत्र को मिलाकर करीब दस हजार वैज्ञानिक, तकनीशियन अगली पीढ़ी के विमान को विकसित कर रहे हैं। अगले कुछ सालों में जब यह लड़ाकू विमान परीक्षण के लिए उड़ान भरने की शुरूआत करेगा तो निश्चित रूप से भारत दुनिया के कुछ चुनिंदा देशों के साथ खड़ा हो जाएगा जो पांचवी पीढ़ी के स्टील्थ लड़ाकू विमान बनाने की क्षमता रखते हैं। अगर तेजस न होता तो भविष्य की यह परियोजना भी कभी आकार न लेती। तेजस ने बहुत सारी तकनीकि और व्यावसायिक बाधाओं को पार करते हुए अपनी मंजिल हासिल कर ली है लेकिन यह मंजिल सिर्फ शुरूआत है। ४ जनवरी २००१ को तेजस की पहली परीक्षण उड़ान के सफल रहने पर तेजस के पितामह कहे जाने वाले के हरिनारायण ने कहा था, "हम वो लोग नहीं रहे जो कर नहीं सकते। अब हम वो लोग हैं जो कर सकते हैं।" तेजस के विकास ने भारत के एविएशन सेक्टर में वह आत्मविश्वास भर दिया है जिसके बल पर वह लंबी छलांग लगाने के लिए तैयार है।

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