Tuesday, January 17, 2017

कश्मीर का रोल मॉडल कौन?

एक साल के भीतर ही कश्मीर ने दो रोल मॉडल दिये। एक वो जिसने सिर पर जिहाद का साफा बांधा, बंदूक उठाई और कश्मीर को भारत से अलग करने की पाकिस्तानी जंग का हिस्सा हुआ, दूसरा वो जो कश्मीर से दूर बंबई में रहती है,साल की सबसे सफल फिल्म में एक महिला पहलवान का किरदार करती है और देखते ही देखते लोगों की आंख का तारा बन जाती है। पहले रोल मॉडल की सेना से मुटभेड़ में मौत हो जाती है और कमोबेश पूरी कश्मीर घाटी महीनों तक उस मौत का गम मनाती है। दूसरा रोल मॉडल फिल्म के जरिए पूरे देश में एक संदेश देती है कि लड़कियों के लिए कुश्ती जैसे परपंरागत मर्दों के अखाड़े बंद नहीं होने चाहिए। पूरे देश में उसकी सराहना होती है, खासकर हरियाणा में लड़कियों की कम होती जनसंख्या को संभालने का एक संदेश जाता है। सवाल है कि कश्मीर का रोल मॉडल कौन है और किसे होना चाहिए? बुरहान वानी में अपना रोल मॉडल खोजनेवाले चरमपंथी कश्मीरी मुसलमान आखिर जायरा वसीम में खलनायक क्यों देखने लगते हैं? 

साल भर के भीतर घटित इन दो बड़ी घटनाएओं को समझेंगे तो हमें वह कश्मीर समस्या भी समझ में आयेगी जिससे हम दशकों से दो चार हो रहे हैं। कश्मीर जो कभी भारतीय फिल्मों का स्वर्ग हुआ करता था आतंकवाद और मजहबी कट्टरता की चपेट में आनेे के बाद दोजख में तब्दील में हो गया। जिन वादियों में कभी फिल्मों की लोकेशन ढूंढी जाती थी वहां उन वादियों में आतंकवादी खोजे जाने लगे। तीन दशक के उहापोह भरे दौर में कश्मीर कम ही वक्त शांत रह पाया है। ऐसा क्यों हुआ इसके मूल में जितना आजादी की आवाज थी उससे ज्यादा मजहबी कट्टरता का उभार था। 

कश्मीर घाटी में सैन्य हस्तक्षेप में असफल रहने और बांग्लादेश बनने के बाद पाकिस्तान और पाकिस्तान के आकाओं ने अपनी रणनीति में बदलाव किया और धार्मिक जिहाद के जरिए हासिल करने का रास्ता अख्तियार किया। अपने सूफी इस्लाम पर नाज करनेवाले कश्मीर घाटी में धीरे धीरे बहावी इस्लाम को बढ़ावा दिया गया। कश्मीर के वो मुसलमान जो अपनी कश्मीरियत पर नाज करते थे अब वे अपने इस्लामियत पर नाज करने लगे। सूफी धारा धीरे धीरे लुप्त होती गयी और चरारे शरीफ दरगाह सिर्फ प्रतीकों में दर्ज होकर रह गया। जिस चरारे शरीफ का अतीत शैव परंपरा से गहरे जुड़ा हुआ था अब उसके दर्शनार्थी नज्दी इस्लाम के बहावी संस्करण के वाहक हो गये। घाटी के हिन्दू भगा दिये गये और शिया दबा दिये गये। कश्मीर घाटी के खान पान, पहनावे, पोशाक और स्त्रियों के साथ व्यवहार में भी कश्मीरियत पर कट्टर नज्दी संस्कृति हावी हो गयी। 

यह इसलिए हुआ क्योंकि कश्मीर के इस्लाम से कश्मीरियत बाहर हो गयी। जिस कश्मीर में लल्ल द्यद् (लल्लेश्वरी देवी) से इस्लाम की बुनियाद पड़ती हो उस कश्मीर घाटी से न केवल हिन्दू भगा दिये गये बल्कि महिलाओं के साथ बुरा सलूक किया गया। नब्बे के दशक में जब हिन्दुओं को वहां से भगाया गया तब उन्हें यही धमकी दी गयी थी कि मर्दों को मारकर औरतें छीन लेंगे। यह कश्मीरी मुसलमान नहीं बोल रहा था। यह पाकिस्तान बोल रहा था और उसके पीछे खड़ा सऊदी अरब बोल रहा था जो पूरी दुनिया में नज्दी संस्कृति को इस्लामिक संस्कृति बताकर प्रचारित कर रहा है। कश्मीर घाटी के इतिहास में ऐसा संभवत: पहली बार हुआ जब लल्ल द्यद् की महान विरासत धूल धूसरित हो गयी थी। 

लल्ल द्यद् कश्मीर की आत्मा है। हिन्दुओं के लिए भी और मुसलमानों के लिए भी। लल्ल द्दद् की वख (बोली, गीत) कश्मीर की वादियों में गूंजती रही हैं। लल्ल द्दद् से कश्मीरी जनता कितना जुड़ाव रखती रही है इसको आप इस बात से भी समझ सकते हैं कि कश्मीर के सबसे बड़े सूफी पीर नंद ऋषि (शेख नूरुद्दीन वली) पैदा हुए तो अपनी मां का दूध नहीं पिया। कहते हैं जब उन्हें लल्ल द्दद् के पास लाया गया तो उन्होंने लल्ल द्दद् की छाती से दूध पिया। हो सकता है यह कहानी ही हो लेकिन इस कहानी में छिपा संदेश यही है कि कश्मीर में इस्लाम लल्लेश्वरी देवी का दूध पीकर पला बढ़ा है। इसलिए यहां के इस्लाम के मूल में नंद ऋषि और लल्ल द्यद्द हैं। वही नंद ऋषि जिनकी मजार चरारे शरीफ आतंकवादियों के निशाने पर आ चुकी है।

लेकिन इस्लामिक चरमपंथ के उभार ने न केवल मूल निवासियों को उजाड़ दिया बल्कि इस्लाम में भी महिलाओं को दुर्गति शुरू कर दी। स्कूल कालेजों में बुर्का और हिजाब को इस्लामिक कायदा बताकर लागू किया जाने लगा और सार्वजनिक जीवन से स्त्रियों को दूर रखा जाने लगा। आज उस कश्मीर का इस्लाम इतना पतित हो गया कि उसने अपनी बेटी को भी इतना मजबूर कर दिया कि उसे कहना पड़ा कि मैं किसी के लिए रोल मॉडल नहीं हूं। वह हो भी नहीं सकती। वह पूरे देश और पूरी दुनिया का रोल मॉडल हो सकती है लेकिन कश्मीर की नहीं हो सकती क्योंकि उस कश्मीर ने बुरहान वानी को अपना रोल मॉडल जो चुन लिया है।

Wednesday, January 11, 2017

लोकतंत्र को समझना है तो इस भीड़तंत्र को समझिए

​भीड़ का अपना नशा होता है। जब भीड़ आपको घेरती है तो आप मदहोश हो जाते हैं। एक अजीब सा नशा आप पर छा जाता है। आपके भीतर गुणात्मक परिवर्तन आ जाते हैं। फिर आप वह नहीं बोलते जो आप बोलना चाहते हैं। आप वह नहीं करते जो आप करना चाहते हैं। फिर आप वह बोलते हैं जो भीड़ आप से बुलवाना चाहती है। आप वह करते हैं जो भीड़ आपसे करवाना चाहती है। 

यह जो लोकतंत्र है, यह भीड़तंत्र है। हर नेता के आस पास एक भीड़ है। या फिर ऐसा भी कह सकते हैं कि हर भीड़ के पास एक नेता है। वह वही बोल रहा है, जो भीड़ सुनना चाहती है। वह वही कर रहा है जो भीड़ करवाना चाहती है। इस करनेवालों में क्या मोदी, क्या केजरीवाल, क्या मुलायम और क्या ममता। वे कुछ नहीं हैं। वे भीड़ की भाड़ में अकेले चने जैसे हैं। उन्हें लगता है उन्होंने भीड़ को फंसा लिया है लेकिन हकीकत में भीड़ ने उन्हें फंसा रखा है। 

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की सबसे बड़ी भीड़ के भीतर भांति भांति की भीड़ है। कुछ अवसादी भीड़ तो कुछ अवसरवादी भीड़। कुछ सामंतवादी भीड़ तो कुछ समतावादी भीड़। कुछ सांप्रदायिक भीड़ तो कुछ साम्यवादी भीड़। हर भीड़ के प्रतिलोम में एक भीड़ खड़ी है और हर भीड़ ने अपना एक नेता खड़ा कर रखा है। मजमा लगा है। भाषण हो रहे हैं। तालियां बज रही हैं। वोट बंट रहे हैं। लोकतंत्र खतरनाक हालात में होकर भी खतरे में नहीं है। सब इसी भीड़ की माया है। हर भीड़ दूसरी भीड़ से संतुलन साध रही है। 

भीड़ का अपना एक व्यवस्थित तंत्र है। ऊपर से दिखने में नरमुंडों का झुंड भले ही समझ में न आये लेकिन खुद वह झुंड नासमझ नहीं है। बहुत सधा हुआ तंत्र है। धर्म की भीड़ में भले ही भगदड़ हो जाती हो, सैकड़ों हजारों लोग पलक झपकते काल के गाल मे समा जाते हों लेकिन राजनीति की भीड़ में कभी भगदड़ नहीं होती। वह एक सधा हुआ समुदाय है। अनेकता में एकता लिए हुए। समान रूप से समझदार। 

इसलिए अगर आपको लोकतंत्र समझना है तो इस भीड़ को समझिए। जिस दिन आपको यह भीड़तंत्र समझ में आ जाएगा लोकतंत्र के प्रति आपकी समस्त शंकाओं का समाधान हो जाएगा। नेताओं को समझने से यह लोकतंत्र कभी समझ में नहीं आयेगा।

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