Friday, August 18, 2023
अपने अतीत से इंकार क्यों करता है मुसलमान?
Monday, August 7, 2023
राम को छोड़ रब्ब से रिश्ता
बागेश्वर धाम वाले कथावाचक धीरेन्द्र शास्त्री ने हाल में ही सिक्खों को सनानत धर्म का सैनिक या योद्धा क्या बताया शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के महासचिव गुरुचरण सिंह ग्रेवाल ने विरोध दर्ज करा दिया। उन्हें सिक्खों को सनातन धर्म का सैनिक बताये जाने पर ऐतराज है। केवल ऐतराज ही नहीं है बल्कि उन्होंने बागेश्वर धाम वाले बाबा के बयान को सिक्ख धर्म के अपमान से भी जोड़ दिया। बागेश्वर वाले बाबा को अज्ञानी बताते हुए एसजीपीसी के महासचिव ने यह भी कहा कि सिक्ख अलग धर्म है। सनातन धर्म की सेना बताने पर उन्हें सिक्खों से माफी मांगनी चाहिए।
एसजीपीसी पंजाब में और पंजाब के बाहर भी गुरुद्वारों के प्रबंधन से जुड़ी सबसे बड़ी संस्था है जिसका जन्म अकाली आंदोलन से हुआ था। सिक्खों के सबसे बड़े गुरुद्वारे हरिमंदिर साहिब का प्रबंधन भी इसी एसजीपीसी के पास है। 1920 में एसजीपीसी का जन्म ही सिक्खों को अलग धर्म साबित करने के लिए हुआ था इसलिए उनके इस विरोध में कुछ भी अन्यथा नहीं है। यह एसजीपीसी ही है जो सिक्खों को अलग धर्म बताकर समान नागरिक संहिता का विरोध कर रही है। हालांकि इस विरोध में वो कोई ऐसा मजबूत तर्क प्रस्तुत नहीं कर पाये हैं जिससे उनकी आपत्ति सही लगे लेकिन सिक्खों को सनातन धर्म व्यवस्था से अलग दिखाने के लिए बीते सौ सालों में एसजीपीसी ने सिक्ख परंपरा से जुड़े सिद्धांतों की समय समय पर ऐसी व्याख्या प्रस्तुत किया है ताकि सिक्खों को हिन्दुओं से अलग साबित किया जा सके।
एसजीपीसी ने बीते सौ सालों में सिक्ख धर्म के लिए जो रास्ता बनाया है वह राम से दूर होकर रब्ब के करीब ले जाता है। यह सिर्फ उपरी तौर पर नहीं दिखता कि एसजीपीसी से जुड़े सिक्ख राम की जगह रब्ब और हरिमंदिर के लिए दरबार साहिब शब्द का प्रयोग करते हैं। असल में इसके पीछे एक सोची समझी रणनीति दिखती है। अगर सिक्खों को हिन्दुओं से अलग दिखना है तो उसकी शब्दावली, लोकाचार या फिर धार्मिक आस्था में अंतर दिखना चाहिए। इस अंतर को पैदा करने के लिए एलजीपीसी ने हरिमंदिर साहिब ने ऐसे शबद के गायन तक पर रोक लगा रखा है जो राम और कृष्ण का साकार रूप प्रकट करते हो।
लेकिन एसजीपीसी सिर्फ हरिमंदिर साहिब में शबद गायन पर सावधानी नहीं बरत रहा। शब्दावली में असली फेरबदल अलगाववादी सिखों में बातचीत और संवाद के स्तर पर दिखता है। जैसे रब शब्द का प्रयोग किसी गुरु ने अपनी बाणी में नहीं किया है। गुरुग्रंथ में एक बार इस शब्द का उल्लेख आता है जो बाबा फरीद के बचन हैं। बाबा फरीद सिखों के गुरु नहीं है, न रविदास सिखों के गुरु हैं और न ही कबीरदास। ये सभी भगत कवि हैं जिनकी बाणी गुरुग्रंथ में समाहित है। बाबा फरीद की चार बाणी गुरुग्रंथ में है जिसमें ये एक बाणी में वो कहते हैं " "बाज पये तिसु रब दे केलां बिसरियां।" इस बाणी या वचन में वो 'रब' शब्द का प्रयोग करते हैं जिसका संकेत ब्रह्म या ईश्वर के लिए है।
रब या रब्ब शब्द का उद्गम भारत में नहीं हुआ। मूलरूप से ये शब्द एक लुप्त हो चुकी भाषा अरामिक से आता है। अरामिक भाषा की एक उपबोली मैंडेक में पहली बार रब्बा शब्द का इस्तेमाल दिखता है। आज मैंडेक बोलनेवाले संसार में शायद पांच हजार भी नहीं होंगे। जो कुछ हैं वो ईरान या यूरोप आदि में कहीं बिखरे पड़े हैं। फिर भी उनकी ये भाषा बची हुई है तो उनकी पवित्र किताब के कारण जिसे "गिन्जा रब्बा" कहा जाता है।
ऐसा समझा जाता है कि पहली सदी में "गिन्जा रब्बा" का संकलन हुआ या इसे लिखा गया। यह मैंडेइज्म को माननेवालों की किताब है जिसके मानने वाले आज संसार में लगभग उतने ही बचे हैं जितने मैंडेक बोलनेवाले हैं। फिर भी पहली बार ईश्वर के लिए रब्बा शब्द का प्रयोग यही लोग करते दिखाई देते हैं। अरामिक भाषा में रब्बा का अर्थ पवित्रता से जुड़ा हुआ है। एक समय में अरब पर इनका प्रभाव था। वो अध्ययनशील लोग होते थे और बौद्धिक रूप से सहिष्णु भी। उनके साथ संघर्ष में भले ही इस्लाम ने उन्हें लगभग खत्म कर दिया हो लेकिन कुरान में अल्लाह के लिए रब्ब या रब शब्द का इस्तेमाल इन्हीं के गिन्जा रब्बा की देन है।
इसका कारण संभवत: ईरान ही था जहां अपेक्षाकृत कम हिंसक शिया इस्लाम का प्रसार अधिक हुआ। कुछ सिख जानकार ये बताते हैं कि सिखों ने रब्ब या रब शब्द का इस्तेमाल फारसी संस्कृति के प्रभाव में ही शुरु किया। यह सिख ही करते थे ऐसा नहीं है। उनके अनुसार पश्चिमी पंजाब (पाकिस्तान) से लेकर पूर्वी पंजाब तक ईश्वर के लिए रब शब्द का प्रयोग होता था। जैसे फारसी के बहुत सारे शब्द उत्तर की अधिकांश बोलियों में पहुंच गये उसी तरह पंजाबी बोली पर भी इसका प्रभाव हुआ। रब सहित अनेक शब्द पंजाबी भाषा का अनिवार्य हिस्सा हो गये।
जो सिख जानकार ये तर्क देकर रब्ब को सही ठहराते हैं वो यह भूल जाते हैं कि जिस काल में सबसे ज्यादा फारसी का भारत पर प्रभाव था उस काल में ही सभी सिख गुरु पैदा हुए हैं। अगर ऐसा था तो फिर उन्होंने रब या रब्बा शब्द का प्रयोग ईश्वर या ब्रह्म के लिए क्यों नहीं किया? वो तो ब्रह्म, राम, गोपाल, हरि, कृष्ण आदि शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं। गुरुग्रंथ में राम शब्द का प्रयोग 2,533 बार हुआ है जबकि कृष्ण के ही एक उपनाम गोविन्द का प्रयोग 475 बार आया है। इनमें अधिकांश बार राम और गोविन्द का उल्लेख गुरुग्रंथ में उन 6 गुरुओं की बाणी में ही होता है जिनके वचन इसमें समाहित हैं। बाद के चार गुरुओं की बाणी गुरुग्रंथ में नहीं है वरना माता, भगौती आदि शब्द भी गुरुग्रंथ में पाये जाते। अब सवाल यह है कि अगर गुरुओं के काल में रब शब्द का इतना प्रभाव हो गया था तो गुरुग्रंथ में एक या दो बार ही क्यों आया है, वह भी उनकी बाणी में जो इस्लामिक पृष्ठभूमि से आते थे?
असल में ऊपर से इस बात का जितना सरलीकरण किया जाता है, मामला उतना सरल है नहीं। सनातन धर्म परंपरा से अपने आप को अलग करने के लिए 1873 में 'सिंह सभा' नाम से जो मुहिम शुरु हुई थी, इस अलगाव के बीज वहां बोये गये। सिंह सभा की शुरुआत ही अंग्रेजों का संरक्षण पाने के लिए हुई थी ताकि सिखों का अलग वजूद बनाया जा सके। अंग्रेज शासकों का इन्हें भरपूर समर्थन भी मिला।
एक ब्रिटिश सिविल सर्वेन्ट मैक्स आर्थर मैक्लिफ 1864 में पंजाब का डिप्टी कमिश्नर नियुक्त किया गया था। कहते हैं पंजाब का डिपुटी कमिश्नर नियुक्त होने से पहले ही 1860 में उसने 'सिख धर्म' स्वीकार कर लिया था। संभवत: मैक्लिफ को स्पष्ट था कि अगले पच्चीस तीस सालों में उसे करना क्या है, इसकी पूर्व तैयारी में वह सिख बन गया था। हालांकि यह तथ्य विवादास्पद है। कुछ लोग उसे आखिरी समय में सिख होने की बात करते हैं। खैर 1893 में रिटायर होने से पहले उसने सिखों को अलग धर्म के रूप में स्थापित करने का हर बुनियादी काम कर दिया था।
मैक्लिफ ने सिख गुरुओं का छह खण्डों में इतिहास लिखा जो उनके मरने से चार साल पहले 1909 में प्रकाशित हो गया था। इसी बहाने उन्होंने न सिर्फ सिख गुरुओं का जीवन परिचय लिखा बल्कि उनकी बाणी का भी अनुवाद किया। ''सिख रिलीजन इट्स गुरुज, सेक्रेड राइटिंड एण्ड आथर्स" की प्रस्तावना में मैक्लिफ लिखते हैं कि "गुरुबाणी का अंग्रेजी में अनुवाद करने के लिए कुछ सिख प्रतिनिधियों ने उससे आग्रह किया था। क्योंकि वह 'सिख धर्म' से पहले ही प्रभावित थे इसलिए उन्होंने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया।"
अपने इस अनुवाद के काम में आर्थर मैक्लिफ ने सिख अलगाववाद की बहुत महीन बुनियाद डाल दी। गुरुग्रंथ में जहां जहां राम, गोविन्द, गोपाल, हरि या ऐसे ही भगवान माने जानेवाले नामों का उल्लेख था वहां वहां उसने अनुवाद में 'गॉड' कर दिया। इसके साथ ही क्योंकि उन्हें सिखों को अब्रहमिक परंपरा के एकेश्वरवाद की ओर धकेलकर ले आना था इसलिए साथ में कई जगह 'वन गॉड' भी लिख दिया। ऊपरी तौर पर देखने में यह कोई गड़बड़ नहीं थी। ईश्वर को अंग्रेजी में गॉड ही कहा जाता है लेकिन इसका असर सिख संगत पर यह हुआ कि गुरुग्रंथ के ईश्वरीय नाम जैसे राम, कृष्ण, गोविन्द, गोपाल, विश्वंभर आदि का जप उन्होंने छोड़ दिया।
उसकी जगह उन्होंने आम बोलचाल की भाषा में रब या रब्बा का प्रयोग शुरु किया तो लिखने और शास्त्रीय सिद्धांतों में वन गॉड को वाहेगुरु बना दिया। आज जितने अलगाववादी सिख हैं वो वाहेगुरु को अपने गुरु परंपरा का सिमरन मानने की बजाय एकेश्वरवाद का प्रतीक मानते हैं। सिख संगत को अलग धर्म के रूप में मान्यता देने का जो प्रस्ताव 1925 में अकाली आंदोलन द्वारा रखा गया उसकी पृष्ठभूमि मैक्लिफ तैयार कर चुके थे। भाई वीर सिंह और कान्ह सिंह नाभा जैसे सिख इतिहासकारों ने अपने अपने तरीके से इसमें योगदान दिया। कान्ह सिंह नाभा की पुस्तक "सिख हिन्दू नहीं हैं" का इसमें बड़ा योगदान बताया जाता है।
कहने का आशय यह है कि मैक्लिफ ने गुरुओं की बाणी से जो छेड़छाड़ किया उसका विरोध करने की बजाय सिख इतिहासकारों और शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी ने आगे बढाया। इसका परिणाम आज यह है कि जिस सिख परंपरा में राम नाम जाप को गुरु नानक सबसे बड़ा कर्म मानते हैं उस सिख धर्म के एक बड़े वर्ग में राम नाम विदा हो चुका है। उसकी जगह रब्ब या रब्बा ने ले लिया है। राम की जगह रब्ब का प्रचलन का ही प्रभाव है जो सिखों को सनातन धर्म के वटवृक्ष से अलग हटाकर अब्राहमिक परंपरा के करीब लाकर खड़ा कर देता है।
एसजीपीसी आज अगर रेहत मर्यादा या बानी बाना का हवाला देकर सिक्खों को यूसीसी से बाहर रखने की मांग कर रहे हैं तो वो जानते हैं कि ये कोई इतना बड़ा आधार नहीं है कि अलग धर्म के रूप में स्थापित हो सकें। लेकिन अलग दिखने के लिए बानी-बाना (वाणी-पहनावा) में जितना बदलाव जरूरी था बीते सौ सालों में इसे वो कर चुके हैं। लेकिन मुश्किल यह है कि वो गुरुग्रंथ को नहीं बदल सकते। जब तक गुरुग्रंथ अपने मूल रूप में विद्यमान है तब तक आर्थर मैक्लिफ हो या फिर एसजीपीसी, अलग होने की उनकी कोशिशें बेकार ही जाएंगी।
Saturday, August 5, 2023
तब्लीगी जमात के गढ मेवात में हिंसा और उपद्रव
देश की राजधानी दिल्ली से हरियाणा का नूह 100 किलोमीटर भी नहीं है। गुरुग्राम पार करते ही नूंह जिला शुरु हो जाता है। लेकिन देश की राजधानी से इतना करीब होने के बाद भी वहां सोमवार को करीब ढाई तीन हजार हिन्दुओं को अपनी जान बचाने के लिए एक मंदिर में शरण लेनी पड़ी। इतना ही नहीं, उनकी जान बचाने के लिए उन्हें वहां से एयरलिफ्ट तक करना पड़ा। यह सब तब हो रहा है जब देश दुनिया में यह शोर है कि केन्द्र में एक ऐसी कट्टरपंथी आरएसएसवादी सरकार है जिसका एक ही काम है कि 'वह मुस्लिम समुदाय का दमन करे।'
संयोग से न केवल केन्द्र में 'कट्टरपंथी' मोदी की सरकार है बल्कि राज्य में भी भाजपा की ही सरकार है और मनोहरलाल खट्टर मुख्यमंत्री है। वह अनिल विज उस राज्य के गृहमंत्री हैं जिन्हें समय समय पर एक 'कट्टरपंथी हिन्दू' बताकर प्रचारित किया जाता है। इतने सारे 'कट्टरपंथियों' के सरकार में होने के बावजूद अगर उनकी नाक के नीचे 'सुनियोजित' तरीके से हिन्दुओं के खिलाफ दंगा भड़काया जाता है और वो दंगाइयों से अपनी जान बचाने के लिए किसी मंदिर में शरण लें तो फिर पीड़ित किस अल्पसंख्यक को कहा जाए और उपद्रवी किस बहुसंख्यक को ठहराया जाए?
अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक का बहुप्रचारित सिद्धांत असल मामले में कहीं लागू होता है तो वह मेवात रीजन का नूह जिला ही है। इस जिले की कुल जनसंख्या 11 लाख है जिसमें लगभग 80 प्रतिशत 'मुस्लिम अल्पसंख्यक' हैं। कश्मीर के बाहर नूह एकमात्र ऐसा जिला है जहां 80 प्रतिशत के आसपास मुस्लिम बसते हैं। 2011 की जनगणना के मुताबिक इस जिले के पुन्हाना तहसील में सर्वाधिक मुस्लिम जनसंख्या 87.38 प्रतिशत है। सेन्टर फॉर पॉलिसी स्टडीज द्वारा मेवात रीजन पर किये गये एक अध्ययन से पता चलता है कि 1981 से 2011 के बीच ही नूह जिले की जनसंख्या में बड़ा बदलाव आया है। 1981 में नूह जिले (तब मेवात) में मुस्लिम जनसंख्या का प्रतिशत 66.33 था जो तीन दशक में ही 2011 में बढकर 79.20 हो गया।
जनसंख्या का ऐसा असंतुलन जब कहीं पैदा होता है तो वहां क्या होता है इसे जानने के लिए नूह को जानना जरूरी है। ऊपरी तौर पर ऐसे दंगे अनियोजित और परिस्थितिजन्य कारणों से उत्पन्न हुआ बताये जाते हैं लेकिन ऐसा नहीं है। वो पूरी तरह से सुनियोजित होते हैं। ऐसे दंगों के पीछे आमतौर पर जो बात ऊपरी तौर पर दिखती है वह गैर मुस्लिमों में भय पैदा करना होता है ताकि वो अपने जान माल की रखवाली करते हुए वहां से चले जाएं। हम बार बार लौटकर कश्मीर की ओर देखते हैं लेकिन ये प्रयोग तो यूपी, बिहार के कई इलाकों में बार बार दोहराया जा चुका है। नूह और सोहना में भी यही हुआ है। वहां से सैकड़ों परिवारों के पलायन की खबर सामने आने लगी है जो सुरक्षित ठिकानों की तलाश में अपना घर बार छोड़कर निकल गये हैं।
मुस्लिम समुदाय द्वारा ऐसा सुनियोजित दंगा न पहली बार किया गया है और न यह आखिरी है। जब तक समुदाय के मजहबी मौलवी मौलाना उसके दिमाग में दिन रात 'काफिर, मुशरिक' का भेद भरते रहेंगे और दूसरे समुदायों के प्रति उकसाते रहेंगे, ऐसे दंगे कभी रुकनेवाले नहीं हैं। फिर मेवात तो ऐसे भेद पैदा करनेवालों का गढ है। मेवाती या मेव मुसलमानों के बारे में कभी से कहा जाता था कि वो उतने ही मुस्लिम हैं जितने जाट हिन्दू। अर्थात कहने के लिए तो इन्होंने दबाव में इस्लाम स्वीकार कर लिया लेकिन अपनी हिन्दू जड़ों से जुड़े रहे।
इसीलिए 1920 के दशक में जब स्वामी श्रद्धानंद ने शुद्धि आंदोलन चलाया तो इसी मेवात रीजन के कम से कम डेढ लाख मलकाने राजपूत पुन: हिन्दू धर्म में लौट आये। उस समय स्वामी श्रद्धानंद का शुद्धि आंदोलन बड़ा मुद्दा बना था। कांग्रेस ने स्वामी श्रद्धानंद की अगुवाई में एक बैठक भी करवाई थी। इस बैठक में स्वामी श्रद्धानंद ने प्रस्ताव किया कि अगर मुस्लिम धर्म प्रचारक धर्मांतरण का काम रोक दें तो वो भी शुद्धि अभियान को रोक देंगे। मुस्लिम मौलवी इसके लिए तैयार नहीं हुए। इसके उलट दिल्ली के निजामुद्दीन से सच्चे इस्लाम की शिक्षा देकर मेवाती नौजवानों को इस काम में लगाया गया कि वो धर्मांतरित हिन्दुओं को सच्चा मुसलमान बनाये।
1926 में सहारनपुर के कांधला कस्बे में पैदा होनेवाले इलियास कंधालवी ने सच्चा मुसलमान बनाने की मुहिम शुरु किया जिसके जरिए धर्मांतरित हिन्दुओं को सही इस्लाम की शिक्षा देनी थी। इस मसले पर मिल्ली गजट लिखता है "अब यह जरूरी हो गया था कि हर मुसलमान ईमान का पक्का हो। उसे इस्लाम के बुनियादी सिद्धांतों की समझ हो।" इस्लाम की इसी बुनियादी समझ को विकसित करनेवाले अभियान को तब्लीगी जमात कहा गया जो आज लगभग पूरे देश में काम कर रहा है। देओबंदी फिरके से जुड़ी तब्लीगी जमात द्वारा दी जानेवाली सच्चे इस्लाम की शिक्षाएं समाज में शांति और सद्भाव के लिए कितनी घातक हैं वह इससे समझा जा सकता है कि खुद सऊदी अरब ने तब्लीगी जमात पर बैन लगा रखा है। दिसंबर 2021 में बैन लगाते हुए सऊदी अरब ने तब्लीगी जमात को 'आतंक का दरवाजा' और 'समाज के लिए खतरा' बताया था।
लेकिन ऊंचे पाजामे और लंबे कुर्ते की यह 'लोटा मुहिम' नूह में ही नहीं आज देश के छोटे छोटे गांव कस्बों में भी सच्चा मुसलमान बनाने की गारंटी बन गया है। बीते लगभग सौ सालों से यह मुहिम मेवात से निकलकर पूरे देश में फैल गयी है जिसका सिर्फ एक काम है कि वह मुस्लिम समुदाय को हिन्दू मूर्तिपूजकों से अलग करे। हिन्दू या कोई भी मूर्तिपूजक इस्लाम के लिए नापाक हैं, उनसे दोस्ती करना या संबंध रखना इस्लाम की तौहीन करने तथा जहन्नुम की आग में जलने जैसा है। गैर मुस्लिमों का कन्वर्जन इस जमात का घोषित उद्देश्य है जिसे ये लोग 'दावा' कहते हैं।
इसलिए लोगों को यह समझना होगा कि नूंह का दंगा ये कोई तात्कालिक समस्या नहीं है। इस समस्या को पैदा करने और उसे बढाते जाने का काम एक सौ साल से अनवरत चल रहा है। जब तक उस सोच पर रोक नहीं लगायी जाएगी, समाज में स्थाई शांति कभी नहीं आ पायेगी। लेकिन जैसा कि बीते कई दशकों से हो रहा है, हम भारत की सांप्रदायिक समस्या की बुनियाद तक पहुंचने की बजाय उसका राजनीतिकरण करते हैं। लोग समस्या की जड़ तक न पहुंच सके इसके लिए देश में इन कट्टरपंथियों का एक बड़ा समर्थक नेता, बुद्धिजीवी और मीडिया वर्ग भी है। ऐसे दंगों और उपद्रव के बाद यह वर्ग सक्रिय हो जाता है और समस्या के मूल से ध्यान भटकाकर कहीं और ले जाता है तथा उपद्रवी को ही विक्टिम साबित करने में जुट जाता है।
जैसे दिल्ली दंगे के समय सारा मलवा कपिल मिश्रा के सिर पर डालने की कोशिश की गयी। वैसा ही कुछ काम नूह में भी किया जा रहा है। मीडिया और बौद्धिक समूह का एक वर्ग यह बताने में जुट गया है कि कैसे बजरंग दल के मोनू मानेसर की वजह से दंगा भड़क गया। या फिर यह कि मेव मुस्लिम तो आधे हिन्दू होते हैं। वो भला हिन्दुओं के खिलाफ दंगा क्यों करेंगे? लेकिन ऐसा कहते समय बड़ी चालाकी से तब्लीगी जमात की कट्टरपंथी सोच और उसके प्रभाव को छिपा ले जाते हैं। इसमें जमात की ही साथी जमीयत ए उलमा ए हिन्द से लेकर कट्टरपंथी बुद्धिजीवी और तुष्टिकरण की राजनीति करने वाले नेता सब शामिल हैं।
स्वाभाविक है जो लोग ऐसे नैरेटिव गढते हैं वो दंगाइयों के बी टीम की तरह होते हैं जिनका काम एक ऐसा छद्म विक्टिम कार्ड खेलना होता है जिसमें पीड़ित को दंगाई और दंगाई को पीड़ित साबित किया जा सके। जैसे दंगाइयों की बी टीम जमीयत ए उलमा ए हिन्द तत्काल नूह में सक्रिय हो गयी है और दंगे का सारा दोष उन पर डाल रही है जो पीड़ित हैं।
शासन प्रशासन का रवैया अब दंगा को रोकने की बजाय दंगा हो जाने के बाद पीस कमेटी बनाने और तत्काल शांति कायम करनेवाला ही रहा है ताकि प्रतिक्रिया में हालात और अधिक न बिगड़ें। इससे आगे जाकर दंगाई मानसिकता पर प्रहार करने, उनका निशस्त्रीकरण करने का प्रयास स्वतंत्र भारत में कभी किया ही नहीं गया।
हाल फिलहाल में उत्तर प्रदेश एकमात्र ऐसा राज्य बनकर उभरा है जिसने दंगाइयों को रोकने की बजाय उनकी दंगाई मानसिकता को कुछ हद तक सीमित करने का काम किया है। यूपी में दंगाई मानसिकता वाले लोगों के मन यह भय बैठा है कि अगर वो ऐसा करते हैं तो शासन प्रशासन उन्हें बर्बाद कर देगा। अगर हरियाणा सरकार नूह में दंगा शुरु करनेवाले दंगाइयों के खिलाफ ऐसी ही कठोर इच्छाशक्ति दिखाती है तभी दंगाइयों और उनके समर्थक वर्ग का मनोबल टूटेगा। यही समाज में स्थाई शांति की गारंटी भी होगी।
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