Friday, December 12, 2014

कमोव के साथ यह कैसा समझौता?

रुस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन के भारत दौरे पर भले ही मीडिया ने ज्यादा तवज्जो न दिया हो लेकिन रुस और भारत दोनों के लिए उनका यह दौरा बेहद अहम साबित हुआ। रूस के राष्ट्रपति और भारत के प्रधानमंत्री के बीच एक उच्च स्तरीय शिखर वार्ता हुई जिसमें दोनों देशों के बीच जो समझौते हुए उसमें परमाणु उर्जा के लिए नये रियेक्टर बनाने के साथ साथ एक महत्वपूर्ण रक्षा समझौता भी हुआ जिसके तहत एक समझौता यह भी हुआ कि भारत रूस के एक हेलिकॉप्टर का चार सौ पीस मेक इन इंडिया करेगा. रूस के जिस हेलिकॉप्टर का भारत में मेक इन इंडिया किया जाएगा उसका नाम है केए 226टी।

भारत ने जिस कमोव कंपनी के साथ चार सौ हेलिकॉप्टर बनाने का समझौता किया है न वह कमोव कंपनी भारत के लिए नयी है और न ही उसके बनाये हेलिकॉप्टर। अस्सी के दशक से भारतीय नेवी कमोव के हेलिकॉप्टर इस्तेमाल कर रही है और एक दशक पहले कमोव-31 के एक नया बेड़ा भी भारतीय नेवी में शामिल हो चुका है। लेकिन अब तक नेवी के लिए होनेवाले समझौतों से अलग पहली बार कमोव के साथ जो समझौता हुआ है वह नेवी के साथ साथ थलसेना के इस्तेमाल के लिए हेलिकॉप्टर बनाने का भी है।

समझौते के तहत भारत अपने देश में 400 कमोव हेलिकॉप्टर निर्मित करेगा। रूस की कमोव कंपनी का यह एक सैन्य यूटिलिटी हेलिकॉप्टर है जिसके केबिन को जरूरत के हिसाब सैन्य परिवहन, एंबुलेन्स, वाहन परिवहन इत्यादि के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। इसकी एक खासियत और है कि यह डबल रोटर कॉप्टर है। यानी भारी परिवहन जरूरतों और दुर्गम जगहों पर यह ज्यादा कुशलता से काम कर सकता है।

लेकिन इस दोहरी खूबी के बाद भी रूस की कमोव कंपनी के इस हेलिकॉप्टर का दुनिया में दूसरा कोई खरीदार नहीं है। कमोव के नेवल हेलिकॉप्टर रुस चीन और भारत में भी उड़ रहे हैं तो मिलिट्री वर्जन के इन हेलिकॉप्टरों का खरीदार रूस के अलावा कहीं नहीं है। शीतयुद्ध के पहले और उस दौरान भी सोवियत संघ ने ढेरों मिलिट्री हाजार्ड डिजाइन किये थे। दुनिया का सबसे बड़ा विमान हो कि सबसे ताकतवर तोप। सोवियत रूस ने एक से एक नायाब नमूने गढ़े थे जो शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद छाये शीतकाल में शीतघरों में बंद कर दिये गये। कारण क्या रहे पता नहीं लेकिन कमोव का यह 226टी मॉडल दुनिया के सैन्य बाजार में बिक नहीं पाया। कमोव का यह हेलिकॉप्टर भी शायद इसी शीतकाल का शिकार हो गया होगा।

1965 में कमोव कंपनी द्वारा विकसित किये कमोव केए226टी का दोहरा रोटर ही शायद इसके लिए दोहरा संकट बन गया। खुद कमोव कंपनी ने इस मॉडल को बहुत आगे नहीं बढ़ाया और फाइटर और अटैक कॉप्टरों के निर्माण और बिक्री पर ज्यादा जोर दिया। पहले इजरायल के साथ मिलकर सैन्य फाइटर कॉप्टर और अब चीन ने हाल में ही 74 अटैक हेलिकॉप्टरों के जिस जेड10 प्रोजेक्ट को पूरा किया है असल में वह कमोव का ही डिजाइन है जो संयुक्त रूप रूस की कमोव कंपनी और चीन ने विकसित किया है। पांचवी पीढ़ी का यह हेलिकॉप्टर हवा से हवा और हवा से जमीन पर जंग लड़ने के अलावा इलेक्ट्रानिक वार में भी कारगर हथियार है।

लेकिन अटैक और फाइटर कॉप्टर के लिए तरसते भारत ने कमोव से वह लेकर मेक इंडिया करने की कोशिश नहीं की। यह समझ पाना मुश्किल है कि जब भारत अमेरिका से फाइटर हेलिकॉप्टर अपाचे इस शर्त पर भी ले रहा है कि बोइंग कंपनी उसका मेक इन इंडिया लाइसेन्स नहीं देगी फिर हमारे रणनीतिकारों और सरकार ने सारा जोर उस केटेगरी के हेलिकॉप्टर पर क्यों दिया जिस केटेगरी के हेलिकॉप्टर हम खुद बना रहे हैं? इस समझौते से मल्टी यूटिलिटी कॉप्टर ध्रुव के प्रोडक्शन पर सीधा असर पड़ेगा, यह तय है। क्या भारत सरकार को यह बात पता नहीं है और अगर पता है तो हमने रूस से उस तकनीकि का हेलिकॉप्टर क्यों ले लिया जो पहले से ही प्रोड्यूज कर रहे हैं?

एनडीए सरकार ने आते ही कहा था कि वह रक्षा सौदों में पारदर्शिता लाने और देश के पैसे का सदुपयोग करने के लिए रक्षा उत्पादों को स्वदेश में निर्मित करने को बढ़ावा देगी। इस समझौते से ऐसा लगता है कि वह दे भी रही है लेकिन समझौते को देखकर शक होता है कि एक नये तरह का भ्रष्टाचार तो नहीं गढ़ा जा रहा है? जिस हेलिकॉप्टर को खुद कमोव कंपनी आउटडेटेड मान रही है उसे इतनी बड़ी तादात में भारत में बनाने का क्या मकसद हो सकता है? रूस के कमोव कंपनी की मजबूरी है कि अगर वह अपना उत्पाद नहीं बेंच पा रही है तो तकनीकि बेंच रही है। चीन के साथ अटैक हेलिकॉप्टर के सौदे में भी उसने यही किया है। लेकिन हमारी ऐसी कौन सी मजबूरी है कि हम अपने देश में चल रहे रक्षा उत्पादों के साथ समझौता करके विदेशी कंपनी की पुरानी पड़ चुकी तकनीकि को अपने यहां ले आये? कहीं ऐसा तो नहीं है कि इस रक्षा सौदे से रूस की कमोव कंपनी को बेल आउट करने का कोई सरकारी प्रोग्राम तो नहीं बना दिया गया?

Sunday, December 7, 2014

बहुजन समाज की साध्वी

नौ नवंबर को राष्ट्रपति भवन में जब मोदी सरकार का दूसरा मंत्रिमंडल विस्तार हो रहा था, तो राज्य मंत्री मंत्री के रूप में एक साध्वी ने भी शपथ लिया था। साध्वी का नाम पुकारा गया और साध्वी ने शपथ लेना शुरू किया तो शपथ के दौरान ही राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी को टोंकना पड़ा। टोंकना इसलिए पड़ा क्योंकि शपथग्रहण में उन्होंने एक शब्द इस्तेमाल कर लिया था जो शपथ पत्र में होता ही नहीं। केन्द्रीय मंत्रि संघ (गणराज्य) के मंत्री के रूप में शपथ लेता है लेकिन साध्वी निरंजन ज्योति ने ''भारत के मंत्री'' के रूप में शपथ लेना शुरू किया तो सतर्क प्रणव मुखर्जी ने टोंक दिया। साध्वी ने तत्काल अपनी गलती सुधार ली और 'संघ के मंत्री' के रूप में साध्वी ज्योति निरंजन ने शपथ ले ली।

अगले दिन विभागों का बंटवारा किया गया और उन्हें खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति मंत्रालय में राम विलास पासवान के साथ राज्य मंत्री का कार्यभार सौंपा गया। अभी महीनाभर भी नहीं बीता था कि साध्वी निरंजन ज्योति की जबान से फिर से एक ऐसा शब्द बाहर आ गया जिसके कारण मीडिया और संसद ने हंगामा खड़ कर दिया। दिल्ली में बीजेपी की एक सभा को संबोधित करते हुए एक जुमला गढ़ दिया जिसमें एक तरफ रामजादे थे तो दूसरी तरफ हरामजादे। हंगामा हुआ और आखिरकार साध्वी निरंजन ज्योति को संसद में माफी मांगनी पड़ी। उन्होंने माफी मांगी और अपने शब्द वापस ले लिये। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी अफसोस जताया और अपने साथी मंत्रियों से संभलकर बोलने की अपील भी की। जाहिर है, इसके बाद विवाद खत्म हो जानी चाहिए था लेकिन खत्म हुआ नहीं।

साध्वी निरंजन ज्योति के बहाने सरकार के खिलाफ कांग्रेस की सक्रियता अस्वाभाविक नहीं है। माफी से आगे अब वह साध्वी निरंजन ज्योति का इस्तीफा मांग रही है। संसद चल रही हो तो विपक्ष ऐसे मौके छोड़ता नहीं है जब सरकार को कटघरे में खड़ा किया जा सके। इसलिए कांग्रेस या विपक्षी दलों की यह सक्रियता अनायास नहीं है लेकिन जिस तरह से सभ्रांत मीडिया और उसके पिछलग्गू स्वामी निरंजन ज्योति के पीछे पड़े हैं वह थोड़ा चौंकानेवाला है। निरंजन ज्योति के बयान को सबसे पहले इसी संभ्रांत अंग्रेजी मीडिया ने ब्रेकिंग न्यूज बनाकर चलाया। तो कहीं ऐसा तो नहीं है कि संभ्रांत वर्ग का मीडिया जानबूझकर एक विवाद को तूल दे रहा है जैसा कि वह अपने इतिहास में देता आया है?

हमारा इलिट मीडिया या इलिट मीडिया पर निर्भर समाज शायद ऐसे लोगों को बर्दाश्त ही नहीं कर पाता है जो निचले तबके और वर्ग से उठकर उस जगह पहुंच जाते हैं जहां यह इलिट क्लास खड़ा होता है। बहुजन समाज की नेता मायावती हों कि उसी बहुजन समाज से आनेवाले साध्वी निरंजन ज्योति। हम इनकी "असभ्यता" पर प्रहार करने में जरा भी देर नहीं लगाते। साध्वी निरंजन ज्योति के मामले में मीडिया ने भी कुछ वैसा ही व्यवहार किया है जैसा कि वह मायावती के मामले में करता आया है। इसे संयोग ही कहेंगे कि न सिर्फ दोनों उत्तर प्रदेश की अति पिछड़ी जातियों से संबंध रखती हैं बल्कि दोनों की राजनीति और भाषा शैली भी बिल्कुल एक जैसी है। अगर मायावती दलित बहुजन का प्रतिनिधित्व करती हैं तो साध्वी निरंजन ज्योति भी साध्वी बनकर उसी बहुजन समाज का प्रतिनिधित्व करती हैं जिसे इलिट और प्रगतिशील लोग हिन्दू समाज का हिस्सा ही नहीं मानते हैं।

साध्वी निरंजन ज्योति इलाहाबाद के पास फतेहपुर सीट से पहली बार सांसद चुनकर आयी हैं। वे दलित निषाद समाज से ताल्लुक रखती हैं और अब तक रामकथा करती थीं। किसी कथावाचक का भाषा संस्कार वैसे भी इतना भद्दा नहीं हो सकता जैसा कि रोजमर्रा की जिन्दगी में लोग इस्तेमाल करते हैं। फिर भी निरंजन ज्योति के मामले में यह सवाल इसलिए खड़ा होता है क्योंकि वे केन्द्रीय मंत्री हैं और उन्होंने जो कुछ बोला वह कैमरे में कैद है। ''साला'' और 'हरामजादा' शब्द कोई ऐसा शब्द नहीं है जो बहुत ''विशिष्ट'' मौकों पर ही बोला जाता है। सामान्य से गुस्से में भी एक आदमी के मुंह से यह शब्द वैसे ही निकल जाता है जैसे कि किसी अंग्रेजी दा के मुंह से ''शिट'' या ''बुलशिट'' शब्दों का उच्चारण किया जाता है। अगर अंग्रेजी का ''फक'' ''शिट'' और ''बुलशिट'' सामान्य बोलचाल का हिस्सा है तो ''चूतिया, साला और हरामजादा'' डेरोगेटरी वर्ड कैसे हो गये?

फर्क शब्दों का नहीं है, फर्क है मानसिकता का। अंग्रेजी शिक्षित समाज अपने हिसाब से समाज को देखता और परिभाषित करता है। इसलिए ऐसे लोगों के लिए सामान्य बोलचाल की भाषा, बोली और गाली सब एक बराबर होते हैं। वे यह मानते हैं कि बोलने के लिए अंग्रेजी के अलावा जो कुछ है वह जहालत है। इसलिए साध्वी निरंजन ज्योति के शब्द पर यह हंगामा उस शब्द से ज्यादा उस मानसिकता का हमला है जो भारत के 98 फीसदी समाज को सिरे से जाहिल ही मानता है। साध्वी निरंजन ज्योति ने जो बोला वह असंसदीय हो सकता है, अमार्यदित हो सकता है, लेकिन इतना भी आपत्तिजनक नहीं है जितना अंग्रेजी मीडिया बताने में लगा है।

साध्वी निरंजन ज्योति ने जो कुछ कहा वह जानबूझकर नहीं कहा। एक तुकबंदी बनाने में उनके भाषण का तुक बिगड़ गया और बात का बतंगड़ हो गया। फिर भी उन्होंने माफी मांग ली है। अपने शब्द वापस ले लिये हैं। इसके बाद अब अगर इलिट मीडिया और इलिट मीडिया पर निर्भर समाज उनके इस्तीफे की मांग पर अड़ता है तो यह भी एक किस्म का अतिवाद ही समझा जाएगा। अच्छा हो कि इस माफीनामे के बाद इलिट क्लास अब एक दलित महिला का दमन और उत्पीड़न बंद कर दे।

Monday, December 1, 2014

तेल की कीमतों में उम्मीद से कम कटौती

एक बार फिर केन्द्र सरकार के नियंत्रण वाली तेल कंपनियों की तरफ से पेट्रोल और डीजल के दामों में आंशिक कटौती की घोषणा कर दी गई। इस बार पेट्रोल की कीमतों में 91 पैसे और डीजल की कीमतों में 84 पैसे की कटौती की गई है। इस कटौती का अलग अलग राज्यों में अलग अलग असर होगा क्योंकि पेट्रोलियम पर अलग अलग राज्य अलग से ड्यूटी भी लगाती हैं इसलिए हर राज्य में कीमतों में अंतर दिखाई देता है। लेकिन लाभ तो सभी को मिलेगा। बीते चार महीने में यह सातवां ऐसा मौका है जब पेट्रोल की कीमतों में कटौती की गई है और दिल्ली में 73 रूपये तक पहुंच चुका पेट्रोल अब दिल्ली में 63 रूपये लीटर के रेट पर उपलब्ध हो गया है। जाहिर है, चार महीने के भीतर प्रति लीटर दस रूपये की यह बचत लोगों के लिए बड़ी राहत होगी। ऐसा ही कुछ हाल डीजल का भी है। और 58 रूपये लीटर बिक रहा डीजल अब 51 रुपये लीटर पर उपलब्ध है। लेकिन सवाल यह है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जारी कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट को देखते हुए यह वास्तविक कटौती है या फिर तेल कंपनियां उतना फायदा ग्राहक तक नहीं पहुंचा रही है जितना फायदा उन्हें मिल रहा है?

सबसे पहले तो यह समझने की जरूरत है कि सरकार ने कह दिया है कि अब तेल कंपनियां बाजार की कीमतों के मुताबिक कीमतें तय करेंगी। यानी अब पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में चढ़ाव उतार के लिए सरकार जिम्मेदार नहीं होगी। लेकिन व्यावहारिक स्तर पर ऐसा समझना मुश्किल है। सारी बड़ी तेल कंपनियां सरकारी हैं और सीधे सरकार के नियंत्रण में ही काम करती हैं इसलिए उनके निर्णयों पर सरकार का दखल या अंकुश नहीं रहेगा यह सोच पाना भी मुश्किल रही है। यह कहना भी मुश्किल है कि सरकारी तेल कंपनियां किस दर पर तेल बेचकर घाटे में हैं और किस दर पर तेल बेचकर मुनाफे में, क्योंकि भारत ही नहीं पूरी दुनिया में तेल की अर्थव्यवस्था एक तरफ है तो तेल की राजनीति दूसरी तरफ। जब किसी तेल कुएं से निकला कच्चा तेल रिफाइनरी से गुजरकर पेट्रोल पंप तक पहुंचता है तब तक उसके साथ इतनी चीजें जुड़ चुकी होती हैं कि आखिरी कीमत क्या हो, यह अंदाज लगा पाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है।

लेकिन सामान्य तौर पर हम यह देखते हैं कि अगर अंततराष्ट्रीय स्तर पर तेल की कीमतों में इजाफा होता है तो भारत में भी पेट्रोल कीमतों में बढ़ोत्तरी कर दी जाती है। अगर सरकार को लगता है कि इतनी बढ़ोत्तरी अर्थव्यवस्था के लिए नुकसानदायक होगी तो कई बार इस घाटे को सब्सिडी के जरिए भी पूरा कर देती है। लेकिन वर्तमान हालात में ऐसा नहीं है। वर्तमान समय में अरब, अमेरिका और रूस के बीच तेल का युद्ध चल रहा है जिसका नतीजा यह है कि दुनिया के वे देश फायदे में हैं जिनकी अर्थव्यवस्था तेल के आयात पर ही निर्भर करती है। सबसे बड़े तेल उत्पादक रूस को पछाड़कर अमेरिका जहां एक तरफ रूस के उभार को रोकना चाहता है वहीं तेल की कीमतों में कटौती करते हुए अरब अमेरिकी तेल कंपनियोंं का बैंड बाजा बजा रही हैं। अगर कच्चे तेल की कीमत 80 डॉलर से कम होता है तो अमेरिकी कंपनियों को घाटा पहुंचता है। इसलिए तेल उत्पादक अरब के देश योजनाबद्ध तरीके से तेल की कीमतों को नित नयी निचाई तक ले जा रहे हैं और बाजार के विश्लेषक कहते हैं कि यह गिरावट 50 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच जाए तो भी कोई आश्चर्य नहीं।

अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में जारी गिरावट के बावजूद सरकारी तेल कंपनियां उम्मीद के मुताबिक तेल की कीमतों में कटौती नहीं कर रही हैं और जितना फायदा जनता को पहुंचाना चाहिए उसका एक बड़ा हिस्सा खुद अपने पास रख रही हैं। 

इन देशों की आपसी लड़ाई में अगर दुनिया के कमजोर और तेल आयातक देशों को फायदा पहुंचता है तो उनकी अर्थव्यवस्था जरूर मजबूत होगी। इस लिहाज से अगर हम भारत के बारे में देखें तो कच्चे तेल की उच्चतम कीमत और न्यूनतम कीमत पर आते हैं। 2011 से 2014 के इस दौर को समझने की कोशिश करते हैं। फरवरी 2011 से सितंबर 2014। इस दौरान अगर आप कच्चे तेल की कीमत देखें तो पायेंगे कि कीमत कमोबेश 100 डॉलर प्रति बैरेल के आसपास ही रही है। न्यूनतम हुआ तो 95 डॉलर और अधिकतम हुआ तो 120 डॉलर प्रति बैरल। लेकिन इस अधिकतम और न्यूनतम का औसत 100 डॉलर मानकर आगे बढ़ते हैं। इस समयसीमा के दौरान देश में पेट्रोल की कीमत देखें तो पायेंगे कि जैसे जैसे कच्चे तेल की कीमतों में इजाफा हुआ है वैसे वैसे पेट्रोल की कीमत बढ़ती गयी है। दिसंबर 2010 में 55 रुपये प्रति लीटर वाला पेट्रोल फरवरी 2011 में जो 58 रूपये हुआ तो बढ़ते बढ़ते 73 रूपये तक पहुंच गया। इस समयसीमा के बीच अगर हम डॉलर और रूपये के विनिमय (एक्स्चेन्ज) को देखें तो इस दौरान डॉलर के विनिमय दर में भी बढोत्तरी हुई और एक डॉलर खरीदने के लिए फरवरी 2011 में 45 रूपया खर्च करने की जगह सितंबर 2014 में 60 रुपये खर्चने पड़ रहे थे।

जाहिर है, हम कच्चा तेल खरीदने के लिए न सिर्फ डॉलर में ज्यादा कीमत दे रहे थे बल्कि डॉलर के लिए ज्यादा रूपये भी अदा कर रहे थे। अब जबकि कच्चे तेल की कीमतें गिर रही हैं तब भी डॉलर का रेट बढ़ा हुआ है। तो एकबारगी को लग सकता है कि भले ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कच्चे तेल की कीमत कम हो रही हो लेकिन मंहगे डॉलर के कारण हम कीमत तो ज्यादा ही अदा कर रहे हैं। यह बात भी सही है। लेकिन पूरी नहीं। रूपये डॉलर विनियम के हिसाब से ही हम कच्चे तेल की खरीदारी का हिसाब लगायें तो (1X45X100) फरवरी 2014 में एक बैरल कच्चा तेल खरीदने का खर्चा औसतन 4500 रुपया था। और भारत में पेट्रोल की औसत कीमत थी 58 रूपये। अब हम डॉलर के वर्तमान एक्स्चेन्ज रेट के मुताबिक 4200 रुपया (70 डॉलर प्रति बैरल) खर्च करके 1 बैरल तेल खरीद रहे हैं और पेट्रोल की बाजार में कीमत है 65 रुपये प्रति लीटर।

अब सवाल यह है कि अगर अंतराराष्ट्रीय स्तर पर कच्चे तेल की कीमतों में उतार चढ़ाव से ही कीमतें तय होती हैं तो इस वक्त देश में पेट्रोलियम पदार्थों की कीमत फरवरी 2011 के दर से भी कम होनी चाहिए जबकि हम उस दर से भी छह रूपये ज्यादा अदा कर रहे हैं। अब आप अंदाज लगाइये पेट्रोल डीजल सस्ता हो रहा है या फिर सरकारी तेल कंपनियां सस्ते तेल पर मोटा मुनाफा कमा रही हैं और जितना फायदा जनता को मिलना चाहिए उतना नहीं दे रही हैं। मोदी सरकार कहती है कि वह कीमत घटा रही है जबकि हकीकत में वह पेट्रोल पर प्रति लीटर करीब 8 रूपया ज्यादा वसूल रही है।

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आइसिस की तेल कालाबाजारी और अमेरिका, रुस की एक दूसरे को कमजोर करने की रणनीति के कारण आनेवाले कुछ दिनों में कच्चे तेल की कीमतें 50 डॉलर तक पहुंच जाने की भविष्यवाणी हो रही है। अगर ऐसा होता है तो भारत की प्रति बैरल तेल की खरीदारी वर्तमान एक्स्चेन्ज रेट पर भी 3600 रूपये प्रति बैरल से अधिक नहीं बैठेगा। तो क्या हम उम्मीद करें कि तब देश के लोग 45-50 रुपये प्रति लीटर में पेट्रोल खरीद पायेंगे? सरकारी तेल कंपनियां जिस तरह से आने कौड़ी में तेल के दाम घटा रही हैं उसे देखकर तो नहीं लगता है कि वे तेल पूल के घाटे का फायदा ग्राहकों तक पहुंचने देंगी। जबकि अगर सरकार इस वक्त पेट्रोलियम पदार्थों को बाजार के साथ कदमताल करते हुए पचास रूपये के स्लैब में पहुंचा दे निश्चित रूप से घरेलू अर्थव्यवस्था को इसका सीधा लाभ मिलेगा और मंहगाई से निपटने में भी मदद मिलेगी।

Thursday, November 20, 2014

बरवाला का बैरी

शायद यही होना था जो हुआ। कबीरपंथी संत रामपाल की अदालत से अदावत इतनी मंहगी पड़ जाएगी यह संत रामपाल ने सपने में भी नहीं सोचा होगा। आखिरकार पुलिस प्रशासन ने अदालत के सामने अपनी लाज बचाने के लिए वह सब कुछ किया जो सामान्य परिस्थितियों में शायद कभी न करती। अदालत के एक सम्मन के सम्मान में तीस हजार की तादात में सुरक्षाबलों की तैनानी, आला अधिकारियों का जमावड़ा, लाठी डंडा, आंसू गैस, जेसीबी, क्रशर, बस गाड़ी और एम्बुलेन्स सबकुछ का इंतजाम करते हुए आखिरकार संत रामपाल तक पहुंचने में पुलिस कामयाब हुई और संत रामपाल ने भी इसी में भलाई समझी कि अब और खून खराबा करवाये बिना वे कानून के सामने आत्मसमर्पण कर दें। करीब हफ्तेभर की दबिश के बाद बुधवार की शाम उन्होंने पुलिस के सामने समर्पण कर दिया और पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। लेकिन इस समर्पण और गिरफ्तारी ने न सिर्फ भारत में संत परम्परा के सामने बल्कि सामाजिक व्यवस्था और कानून व्यवस्था के सामने भी कई गंभीर सवाल खड़े कर दिये हैं। इन सवालों का जवाब बिना यह जाने नहीं जाना जा सकता कि आखिर यह रामपाल हैं कौन और उन्होंने ऐसा क्या किया है कि कानून के सामने चुनौती बनकर खड़े हो गये?

हरियाणा के दलित समाज में पैदा होनेवाले रामपाल सिंह जाटिन (जतिन, जातिन) कोई ऐसे विख्यात संत न थे कि देश की आधुनिक संत परंपरा में उनका कोई स्थान होता। सोनीपत के गोहाना तहसील में पिता नंदलाल और माता इंदिरा देवी की संतान रामपाल ने आईटीआई की डिग्री लेने के बाद हरियाणा सिंचाई विभाग में जूनियर इंजीनियर की नौकरी कर ली थी। शुरूआत में एक धर्मनिष्ठ हिन्दू की तरह वे भी हनुमान के भक्त थे और देवी देवताओं की पूजा किया करते थे। लेकिन अपनी जीवनी में संत रामपाल कहते हैं कि देवी देवताओं की पूजा करते हुए भी उन्हें वह मानसिक शांति प्राप्त नहीं हो पा रही थी जो धर्म मार्ग पर चलते हुए वे पाना चाहते थे। इसी उधेड़बुन में नब्बे के दशक में एक बार उनकी मुलाकात के एक कबीरपंथी संत रामदेवानंद से हो गयी। 1994 में रामदेवानंद से हुई इस मुलाकात के बाद रामपाल सिह के जीवन में बहुत क्रांतिकारी बदलाव आया और वे कहते हैं कि रामदेवानंद ने जो उन्हें नामजप का उपदेश किया उससे उन्हें वह मानसिक शांति प्राप्त हुई जिसकी तलाश में वे भटक रहे थे।

रामदेवानंद से मुलाकात के बाद अगले ही साल 1995 में उन्होंने अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दिया और पूरी तरह से नाम संकीर्तन और कबीर बाणी के प्रचार और प्रसार के धार्मिक कार्य में लग गये। हालांकि सन 2000 तक सरकार ने उनकी इस्तीफा मंजूर नहीं किया था लेकिन 1995 के बाद से ही वे एक कबीरपंथी संत के रूप में कबीर वाणी और आत्मज्ञान की शिक्षा देने लगे थे। 2000 में सरकार द्वारा इस्तीफा स्वीकार किये जाने से पहले संत रामपाल की इतनी अधिक मान्यता हो चली थी कि 1999 में उन्होंने रोहतक के करौंथा में एक कबीर मठ की स्थापना कर दी। सतलोक नामक इस आश्रम की स्थापना के साथ ही संत रामपाल पर विवादों का साया मंडराने लगा और जल्द ही उनके ऊपर इस बात का दबाव बनने लगा कि वे अपना आश्रम बंद कर दें। सतलोक आश्रम के खिलाफ हरियाणा में जो लोग उठ खड़े हुए थे वे आर्यसमाज से जुड़े लोग थे और उनका कहना था कि संत रामपाल आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती का अपमान कर रहे हैं और आर्य समाज की शिक्षाओं का मजाक उड़ा रहे हैं। संत रामपाल पर यह आरोप भी लगे कि उन्होंंने करौंथा में जो आश्रम बनाया है वह जबरन कब्जा की गयी जमीन पर बनाया है। हालांकि बहुत बाद में 2009 में पंजाब हरियाणा हाईकोर्ट ने जमीन विवाद में फैसला देते हुए जमीन को वैध ठहरा दिया लेकिन जब तक यह फैसला आया संत रामपाल करौंथा से जा चुके थे।

करौंथा में रहते हुए संत रामपाल की ख्याति पिछड़े और दलित समाज के बीच इतनी बढ़ी कि उनके भक्त उन्हें दूध से नहलाने लगे थे और उसी दूध से खीर बनाकर प्रसाद बांटने लगे थे। रोहतक और झज्जर में उनका प्रभाव और प्रसार तेजी से फैल रहा था जो हरियाणा की अगड़ी जातियों और आर्यसमाज को शायद स्वीकार नहीं था। इसलिए 2006 में सत्यार्थ प्रकाश के अपमान के बहाने पहली बार रोहतक में संत रामपाल के खिलाफ आर्य समाज से जुड़े लोगों ने जमकर उत्पात मचाया था। उस वक्त रोहतक में कई जगह हिंसक प्रदर्शन और पत्थरबाजी हुई थी और करौंथा के आसपास रोडवेज की बसों को आग लगा दी गई थी। आश्रम के बाहर आर्यसमाज और सतलोक आश्रम के समर्थकों के बीच हुई भिड़ंत में एक नौजवान की मौत हो गयी थी जिसके
आरोप में संत रामपाल को भी हत्या का दोषी ठहराया गया था। उस वक्त संत रामपाल की गिरफ्तारी भी हुई थी लेकिन 2008 में जमानत पर छूटने के बाद संत रामपाल फिर लौटकर करौंथा नहीं गये। बरवाला चले आये और यहां नये सिरे से सतलोक आश्रम की स्थापना की।

लेकिन बरवाला में भी न तो आर्य समाज ने संत रामपाल का पीछा छोड़ा और न ही विवादों ने। धर्म और मजहब के बारे में अपनी तल्ख टिप्पणियों की वजह से लोगों को उत्तेजित कर देनेवाले रामपाल के समर्थकों और आर्य समाज के अनुयायियों के बीच 2013 में एक बार फिर भिड़ंत हुई और इस बार तीन लोगों की जान चली गयी। संत रामपाल के समर्थकों और आर्यसमाज के बीच जारी यह अदावत बढ़ते बढ़ते यहां तक पहुंच गई कि आर्य प्रितनिधि सभा किसी भी कीमत पर संत रामपाल को हरियाणा में मौजूद नहीं रहने देना चाहते थे। संत रामपाल पहले ही 2006 में हुए हत्याकांड में आरोपित थे और उनसे जुड़े मामले की सुनवाई स्थानीय अदालतों में चल रही थी। इसी सब के बीच इसी साल मई के महीने में संत रामपाल वीडियो कांफ्रेन्सिंग के जरिए कोर्ट की कार्रवाई में शामिल हुए तो उनके समर्थकों ने कोर्ट परिसर में पहुंचकर हंगामा कर दिया। इसके बाद जुलाई में चंडीगढ़ हाईकोर्ट में भी पहुंचकर समर्थकों ने हंगामा किया तो स्थानीय वकीलों ने अदालत में याचिका दाखिल करके उनके ऊपर अदालत की अवमानना का केस दाखिल कर दिया। पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने आदेश दिया कि स्वयं संत रामपाल अदालत के सामने हाजिर हों।

अदालत के आदेश के बावजूद संत रामपाल अदालत के सामने जाने से कतराते रहे और बीमारी का बहाना बनाते रहे। पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने अपने आखिरी आदेश में यहां तक कहा कि अगर वे अवमानना के मामले में अदालत में हाजिर नहीं होते हैं तो उनकी जमानत भी खारिज की जा सकती है, फिर भी रामपाल ने बीमारी के बहाने अदालत में पहुंचने में असमर्थता जता दी। यहीं से मामला बिगड़ गया और अदालत ने सख्त रुख अख्तियार करते हुए प्रशासन को आदेश दे दिया कि किसी भी तरह से वह संत रामपाल को अदालत के सामने हाजिर करे। अदालत से बार बार मिली फटकार का नतीजा यह हुआ कि प्रशासन ने रामपाल को गिरफ्तार करके अदालत के सामने प्रस्तुत होने के लिए अपनी सारी ताकत झोंक दी। करीब तीस हजार पुलिस और अर्धसैनिक बलों के साथ सतलोक आश्रम की घेरेबंदी कर दी तो उधर संत रामपाल भी इस जिद पर अड़ गये कि वे पुलिस द्वारा गिरफ्तार नहीं होंगे। हालांकि उनके समर्थकों का कहना है कि वे 21 नवंबर को अदालत के सामने प्रस्तुत होने के लिए पहले ही एफिडेविट लगा चुके थे लेकिन जब तक उनकी तरफ से यह किया गया मामला बहुत बिगड़ चुका था। आखिरकार पुलिस प्रशासन ने पूरी ताकत झोकते रामपाल तक पहुंचने में कामयाबी हासिल कर ली।

लेकिन जब तक यह सब हुआ सतलोक आश्रम में पांच निर्दोष जानें चली गईं। संत रामपाल की तरफ से सिर्फ अदालत के सामने ही नहीं बल्कि प्रशासन के सामने भी बहुत ही मूर्खतापूर्ण ढंग से अपनी शक्ति का प्रदर्शन किया गया। काले कपड़ों में आश्रम की चारदीवारी पर खड़े नौजवान हों कि आश्रण के बाहर भीतर मौजूद उनके भक्त उन सबने यही संदेश दिया कि वे सीधे सीधे कानून व्यवस्था को चुनौती दे रहे हैं। जाहिर है, अगर ऐसा होता है तो कानून किसी भी कीमत पर न्याय की सर्वोच्चता कायम करने के लिए बाध्य है। और प्रशासन ने वही किया। इसलिए इस पूरे मामले में अगर कुछ हद तक प्रशासन की कार्रवाई अतिरंजित लगती है तो कुछ हद तक संत रामपाल का मूर्खतापूर्ण व्यवहार भी समझ से परे है। अपने हठ में उन्होंने वह सबकुछ नष्ट कर दिया जिसे जोर जबर्दस्ती करके बचाना चाहते थे। अगर अदालत के आदेश की अवमानना करने की बजाय वे सीधे सीदे अदालत के सामने प्रस्तुत होते तो शायद न वे खुद सलाखों के भीतर पहुंचते और न ही सतलोक आश्रम इस तरह जमींदोज हो पाता। फिलहाल पुलिस और प्रशासन की कार्रवाई ऐसी है कि अब संत रामपाल का मुसीबतों से बाहर निकल पाना बहुत मुश्किल है। कत्ल के केस के साथ साथ देशद्रोह जैसे गंभीर मामले उन्हें लंबे समय तक फिर जेल के अंदर ले गये हैं।

रामपाल के मामले में अब आगे क्या होगा, यह अदालत तय करेगी लेकिन इस पूरे प्रकरण में एक बात साफ सामने आ गयी है कि दलित और पिछड़े वर्ग का धार्मिक या सामाजिक एकीकरण आज भी किसी चुनौती से कम नहीं है। हरियाणा और पंजाब के पिछड़े वर्ग में लोकप्रिय हो चले संत रामपाल आखिर आर्यसमाज को इतना क्यों खटक रहे थे जबकि दोनों की शिक्षाओं में आश्चर्यजनक रूप से बहुत अधिक समानता है? खटक शायद इसीलिए रहे थे कि जिन शिक्षाओं के बल पर उत्तर में अस्तित्वहीन हो चुका आर्यसमाज हरियणा में जड़ जमाए बैठा है, वह भला किसी नये पंथ को क्योंकर उभरने देता? झगड़ा वही है जो अकालियों और गुरमीत बाबा राम रहीम के बीच है। इसलिए संत रामपाल की गिरफ्तारी का स्वागत करते समय जो लोग कानून और व्यवस्था की जीत को बधाई दे रहे हैं वे यह न भूलें कि आखिरकार कानून और व्यवस्था सामाजिक हित के लिए होते हैं, अहित के लिए नहीं। रामपाल की कुछ मूर्खतापूर्ण हरकतों के लिए उन्हें दोषी कहा जा सकता है लेकिन रामपाल के नाम पर पूरे सतलोक आश्रम को जिस तरह बर्बाद किया गया है और कबीरपंथियों को ठिकाने लगाने की कोशिश की गई है उसके सामाजिक दुष्परिणाम सामने नहीं आयेंगे, इसका आश्वासन कौन देगा? आश्वासन की जरूरत भी नहीं है। सरकार, कानून और मीडिया के लिए रामपाल की गिरफ्तारी एक ''मिशन'' हो गयी थी, और गिरफ्तारी के साथ ही हरियाणा के मुख्यमंत्री ने साफ संदेश दिया कि ''मिशन पूरा हुआ''। मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर के इस संदेश का यह ''मिशन'' क्या सिर्फ कानून व्यवस्था के नाम पर रामपाल की गिरफ्तारी ही था? या फिर इस गिरफ्तारी के साथ ही हरियाणा के जातीय और वर्गीय समीकरण को समतल करने का कोई और मिशन था, जिसे सतलोक आश्रम को जमींदोज करके पूरा कर लिया गया है?

Wednesday, November 19, 2014

हिन्दुवन की हिन्दुवाई

दुनिया को देखने का यह नया हिन्दूवादी नजरिया है। आप चाहें तो इसे प्रगतिशील हिन्दुत्व भी कह सकते हैं जो परंपरागत हिन्दुत्व की जड़ से नयी कोंपल लिए बाहर निकलने को बेताब है। हिन्दुत्व का नया नया प्रोग्रेसिव नजरिया बाजार के आधार पर अपनी प्रासंगिकता तलाशते हुए आगे बढ़ रहा है। विश्व हिन्दू कांग्रेस इसी प्रगतिशील हिन्दुत्व का नया नमूना है। दिल्ली के पांच सितारा अशोक होटल में 21 से 23 नवंबर तक दुनिया के 1500 से अधिक हिन्दू इकट्ठा होकर धर्म के विविध आयामों का पारायण करेंगे। इस पारायण से कौन सा पुराण निकलेगा यह तो वक्त बतायेगा लेकिन आयोजन को लेकर आशावाद अपने चरम पर है। धर्म अर्थ काम और मोक्ष के चतुष्टय को जाननेवाले हिन्दू समाज के सामने एक नया चतुष्टय प्रस्तुत किया जा रहा है। वह मानेगा या मना कर देगा यह भी आयोजन नहीं वक्त बतायेगा लेकिन इस हिन्दुवाई के नव चतुष्टय को समझना जरूरी है।

विश्व हिन्दू कांग्रेस का आयोजन दिल्ली में हो इसमें कोई आश्चर्य नहीं। दिल्ली में एक ऐसी पार्टी की सरकार बन चुकी है जो अपने आपको हिन्दू धर्म का प्रतिनिधि दल मानता है। है या नहीं है इस पर बहस अपनी जगह लेकिन राजनीतिक हिन्दुत्व का जो उभार बीते दो दशकों में हुआ है उसके लहर पर सवार यह दल और इस दल को नियंत्रित करनेवाले वैचारिक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राजनीतिक हिन्दू निष्ठा पर शक नहीं किया जा सकता। सरकार बनने के बाद इस निष्ठा ने नये आयाम तलाशने शुरू कर दिये और विश्व हिन्दू कांग्रेस नये आयाम की इसी तलाश का परिणाम है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा स्थापित विश्व हिन्दू परिषद को बने पचास साल हो गये। देश दुनिया में जगह जगह हिन्दू शक्ति के उभार के जलसे चल भी रहे हैं, लेकिन जरूरी यह था कि दिल्ली में कुछ ऐसा आयोजन किया जाता जो विश्व हिन्दू परिषद के वैश्विक उपस्थिति का अहसास करा देता। विश्व हिन्दू कांग्रेस विश्व हिन्दू परिषद के उसी ग्लोबल फुटप्रिंट को अहसास कराने का आयोजन है।

इसलिए आयोजन से जुड़ी जो जानकारियां दी जा रही हैं उसमें सिर्फ यह नहीं बताया जा रहा है कि दुनिया के कितने देशों से कितने बुद्धिजीवी, विचारक या उद्योगपति पधार रहे हैं बल्कि यह भी बताया जा रहा है कि दुनिया के कितने देशों से कितनी संस्थाएं इस आयोजन की सहभागी हैं। विश्व हिन्दू परिषद के ही सचिव स्वामी विज्ञानानंद इस पूरे आयोजन की देखभाल कर रहे हैं और अमेरिका, कनाडा, आष्ट्रेलिया, केन्या सहित दुनिया के एक दर्जन देशों से 171 संगठनों को इस आयोजन का साझीदार बनाया गया है। आयोजन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सभी बड़े नेताओं का प्रमुखता से उपस्थिति रहेगी और आयोजन को सफल बनाने के लिए संघ और विश्व हिन्दू परिषद के कार्यकर्ता दिन रात मेहनत कर रहे हैं। तो फिर इस समूची मेहनत और कवायद का आखिरी लक्ष्य क्या है? क्या यह सिर्फ विश्व हिन्दू परिषद के स्वर्ण जयंती वर्ष को याद करने के लिए किया जा रहा है या फिर हिन्दुत्व से प्रगतिशील हो रहे हिन्दुत्व के इरादे कुछ और हैं?

इस पूरे आयोजन पर नजर पड़ते ही जो सबसे पहली बात समझ आती है वह यह कि संघ परिवार सनातन हिन्दू धर्म को नये माहौल के अनुसार परिभाषित करके उसकी जड़े सनातन हिन्दू धर्म से जोड़ना चाहता है। पुरुषार्थ चतुष्टय के सनातन सिद्धांत पर कायम सनातन हिन्दू धर्म का एक सिरा उस बाजार से जोड़ने की कोशिश है जिसके बल पर ईसाई अपने आपको आधुनिक सभ्यता का संवाहक मान बैठे हैं। वह सिरा कुछ और नहीं बल्कि वही बाजार है जो समाज और धर्म दोनों को नियंत्रित करता है। इसलिए अगर आप इस आयोजन के आयोजकों पर नजर दौड़ाएंगे तो आपको प्रायोजक भी नजर आयेंगे जिन्हें यह भरोसा दिया गया है कि अगर वे इस आयोजन का प्रायोजन करेंगे तो उन्हें एक बेहतर संभावनाओं वाला बाजार मौजूद कराया जाएगा। इसलिए 171 आयोजक ही नहीं 43 प्रायोजकों की लिस्ट भी सार्वजनिक रूप से सामने रखी गयी है और इन प्रायोजकों के विज्ञापन आयोजन स्थल पर जरूर दिखाये ही जाएंगे। बाजार की इतिश्री यहीं नहीं होती। तीन दिवसीय आयोजन में सबसे पहली बहस हिन्दू अर्थव्यवस्था को लेकर ही शुरू की जाएगी। हिन्दू अर्थव्यवस्था क्या होती है इस पर बहस करने की बजाय उन उद्योगपतियों को हिन्दू होने का अहसास कराकर हिन्दुवाई को मजबूत कर लिया जाएगा जो संयोग से हिन्दू धर्म में पैदा हो गये हैं और अपने क्षेत्र के सफल कारोबारी हैं। यही नजरिया बाकी दूसरी बहसों में बनाकर रखा जाएगा।

सनातन हिन्दू जीवन व्यवस्था क्या है, इस गढ़ने की जरूरत नहीं है। यह सनातन और अक्षुण्ण रूप से विद्यमान है। उसकी सिर्फ पहचान करने की जरूरत है। लेकिन ऐसे आयोजन उस सनातन हिन्दू व्यवस्था की पहचान भी कर पायेंगे इसमें संदेह है। पहले ही कदम से भटका हुए ऐसे आयोजन किसी धार्मिक संगठन को अपने सफल होने का अहसास तो करा सकते हैं लेकिन समूचे सनातन हिन्दू धर्म को कुछ उपलब्ध करा पायेंगे ऐसा लगता नहीं है क्योंकि जैसे ही आप संगठित होकर सोचने की शुरूआत करते हैं सनातन हिन्दू व्यवस्था पहले ही सिरे पर खारिज हो जाती है। संगठित व्यवस्था कभी सनातन नहीं हो सकती क्योंकि प्रकृति में सनातन वही है जो असंगठित है। जो नित निरंतर परिवर्तनशील है। विचार भी इससे अछूते नहीं है। तो क्या वैचारिक स्तर पर यह दावा किया जा सकता है कि एक खास किस्म के विचार को ही हिन्दू विचार कहकर स्थापित कर दिया तो हिन्दू व्यवस्था कायम हो जाएगी? यह ईसाई और इस्लाम की प्रतिक्रिया तो हो सकती है सनातन हिन्दू विचार कभी नहीं हो सकता।

लेकिन आयोजक यह करने जा रहे हैं। इस दावे के साथ कि वे हिन्दू युवा, हिन्दू महिला, हिन्दू मीडिया और हिन्दू शिक्षा की पहचान करेंगे। यह पहचान सिर्फ अपनी पहचान पाने का प्रयास होता तो शायद इस आयोजन पर कोई सवाल नहीं उठता लेकिन निष्पक्ष व्यवस्था को पक्षपाती पहचान तभी दी जाती है जब कोई निहित स्वार्थ काम कर रहा होता है। भारत को हिन्दुस्थान बनाने के आह्वान बताते हैं कि ऐसी पहचानों का एक निहित राजनीतिक स्वार्थ भी है। यह आयोजन ऐसे निहित राजनीतिक स्वार्थ की कांग्रेस तो बन सकता है विचार विमर्श का नैमिशारण्य नहीं हो सकता।

Wednesday, November 12, 2014

सत्ता के सौदागरों की सुपर कांग्रेस

याद करिए कांग्रेस और वामपंथी दलों की जबर्दस्त खेमेबंदी के बीच भाजपा की वह पहली सरकार जिसकी तेरहवें दिन तेरही हो गयी थी। बहुत जोड़ जुगाड़ करने के बाद भी बीजेपी 200 से ज्यादा सांसदों का समर्थन जुटाने में नाकामयाब रही। अटल बिहारी वाजपेयी ने तेरहवें दिन शंकर दयाल शर्मा को यह कहते हुए अपना इस्तीफा सौंप दिया कि उनके पास जरूरी समर्थन नहीं है इसलिए विश्वासमत हासिल करने के लिए सदन के भीतर जाने की जरूरत नहीं है। घोर सांप्रदायिकता के कलंक से जूझकर उभरती भाजपा के पास 161 सांसद थे, और पहली बार वह देश में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी। राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा की मजबूरी थी कि वे भाजपा के नेता को प्रधानमंत्री की शपथ लेने के लिए बुलाते। उन्होंने बुलाया। बतौर नेता अटल बिहारी वाजपेयी गये और उन्होंने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली यह जानते हुए भी कि वे किसी भी कीमत पर 272 सांसदों का समर्थन हासिल नहीं कर सकते। क्यों किया उन्होंने ऐसा? और आज उसका जिक्र करने की जरूरत क्यों है?

राष्ट्रपति के पास मिलने जाने से पहले अटल बिहारी वाजपेयी ने कुछ नजदीकी लोगों से सलाह मशविरा किया था और कुछ लोगों ने उन्हें बिन मांगे सलाह भी दिया था। कमोबेश सबकी राय यही थी कि समर्थन के अभाव में सत्ता पर दावा नहीं करना चाहिए। लेकिन आखिरकार लालकृष्ण आडवाणी के साथ वे रायसीना रोड के अपने घर से निकले और सरकार बनाने का दावा पेश कर दिया। अटल बिहारी वाजपेयी संभवत: यह जानते थे कि सत्ता को छूकर ही सत्ता तक पहुंचने का मार्ग निकाला जा सकता है। और हुआ वही। भले ही इसे लोगों ने अटल बिहारी वाजपेयी का प्रधानमंत्री पद का मोह बताया हो लेकिन उनके निर्णय ने उनका साथ दिया और देश में उनके प्रति एक ऐसी सद्भावना पैदा हुई कि पहले 13 महीने और फिर पूरे पांच साल की सरकार बनाने चलाने का मौका दिया। इन पांच सालों में अटल सरकार की उपलब्धियां और पार्टी की नीतियां एक तरफ लेकिन इन्हीं पांच सालों में बीजेपी को सत्ता का पहला सफल सौदागर हासिल हुआ। प्रमोद महाजन। प्रमोद महाजन ही वह शख्स थे जिन्होंने सत्ता को मैनेजमेन्ट माना और अटल बिहारी वाजपेयी के मना करने के बावजूद समय से पहले चुनाव करवाने का निर्णय लिया। मीडिया मैनेजमेन्ट के जरिए देशभर में इंडिया शाइनिंग का नारा दिया और नतीजा यह हुआ कि आनेवाले एक दशक के लिए बीजेपी सत्ता से बाहर हो गयी।

आपके पतन की शुरूआत तब नहीं होती जब आप नीचे गिर रहे होते हैं बल्कि उसकी शुरूआत उसी वक्त से हो जाती है जब आप अपने उत्थान के चरम पर होते हैं। प्रकृति के इस शास्वत नियम से बीजेपी भी अछूती न रह सकी और महाराष्ट्र में शरद पवार का समर्थन लेकर सत्ता के लिए अपने वैचारिक पतन का ऐलान कर दिया है।

एक तरफ नेता अटल बिहारी वाजपेयी का वह निर्णय था जिसने अल्पमत को समय के साथ बहुमत में तब्दील कर दिया और दूसरी तरफ प्रमोद महाजन का वह निर्णय था जिसने एनडीए के बहुमत को अल्पमत में तब्दील कर दिया। समय बीतने के साथ बीजेपी राज्यों से भी हाथ धोती गई और केन्द्र में भी उसके सदस्यों की संख्या में गिरावट ही दर्ज होती रही। इसे पहली बार पूर्ण बहुमत का दर्जा दिलवाया नरेन्द्र मोदी ने जब 2014 के आम चुनाव में कांग्रेसमुक्त भारत के नारे को उन्होंने एक आंदोलन बना दिया। कभी आपातकाल के आंदोलनकारी रहे नरेन्द्र मोदी के जेहन में गैर कांग्रेसवाद कुछ उसी तरह भरा होगा जैसे उस वक्त के इंदिरा विरोधियों के जेहन में आज भी मौजूद दिखाई देता है। लेकिन इस बार वे गैर कांग्रेसवाद की बजाय कांग्रेस मुक्त भारत का निर्माण करने का संकल्प दोहरा रहे थे। लेकिन नरेन्द्र मोदी का यह वैचारिक अभियान व्यावहारिक धरातल पर बिल्कुल वैसा ही था, नहीं कहा जा सकता। कांग्रेस छोड़कर आये नेताओं को बड़ी संख्या में बीजेपी का टिकट दिया गया और एक अनुमान के मुताबिक इस साल बीजेपी के टिकट पर जो सांसद चुनकर आये हैं उनमें करीब 110 सांसद ऐसे हैं जिनका अतीत कांग्रेसी रहा है।

यह कांग्रेस का अतीत लिए नेताओं का कमाल था कि नरेन्द्र मोदी के नारे का लेकिन केन्द्र में बीजेपी ने अकेले बहुमत का वह आंकड़ा हासिल कर लिया जो अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में संभव नहीं हो पाया था। जाहिर है, नरेन्द्र मोदी जीत हार के आंकड़ों के मामले में अटल बिहारी वाजपेयी से भी दो कदम आगे निकल गये। लेकिन आगे निकलने की इसी होड़ में नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की बीजेपी ने वह सब भी करना शुरू कर दिया जो छह महीने के भीतर ही उनकी बीजेपी को सुपर कांग्रेस में तब्दील करने लगी। हरियाणा में राव इंद्रजीत सिंह, वीरेन्द्र सिंह हों कि अब महाराष्ट्र में शरद पवार। जिन लोगों के खिलाफ बीजेपी खड़ी हो रही है उन्हीं लोगों को अपने यहां सम्मान की जगह भी दे रही है। समर्थन ले रही है और मंत्री भी बना रही है। तब सवाल यह उठता है कि क्या यह बीजेपी उसी जनसंघ से उपजी बीजेपी है जिसकी आधारशिला कभी उन दीनदयाल उपाध्याय ने रखी थी और राजनीति को सत्ता संघर्ष से ज्यादा वैचारिक संघर्ष मानते थे। हो सकता है आज भारतीय जनता पार्टी के नये गुजराती संस्करण में ऐसे वैचारिक संघर्ष के लिए कहीं कोई जगह नहीं हो लेकिन अभी तक बीजेपी के नेता और कार्यकर्ता अपनी इसी विशिष्टता के कारण दूसरों से अलग होने का दावा करते थे। अब उनके सामने सचमुच बड़ा संकट होगा कि वे सत्ता के लिए विचार त्यागें कि विचार के लिए सत्ता। मोदी शाह की बीजेपी में दोनों का साथ रह पाना तो संभव नहीं है।

विधानसभा चुनाव से पहले बीजेपी ने महाराष्ट्र में शरद पवार की जमकर निंदा की थी और खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उनकी पार्टी को नेचुलर करप्ट पार्टी का दर्जा देते हुए न सिर्फ कांग्रेस बल्कि एनसीपी के खिलाफ भी जनसमर्थन हासिल किया था। लेकिन सत्ता के समीकरण में शिवसेना को किनारे करने के चक्कर में आखिरकार बीजेपी ने उन्हीं शरद पवार से मौन समर्थन लेना स्वीकार कर लिया जिन्हें भ्रष्ट बताकर जनादेश हासिल किया था। यह कुछ कुछ वैसा ही हुआ जैसे केजरीवाल के साथ दिल्ली में हुआ था। यह सच है कि केजरीवाल समर्थन मांगने कांग्रेस के पास नहीं गये थे लेकिन कांग्रेस ने उन्हें खत्म करने के लिए जबर्दस्ती समर्थन दे दिया था। तब से लेकर अब तक अरविन्द केजरीवाल चाहे जितनी सफाई देते रहें लेकिन खुद भारतीय जनता पार्टी ने ही इसे सबसे बड़ा मुद्दा बना दिया। और यह मुद्दा था भी। राजनीति में जिसकी बुराईयों के खिलाफ आप जनता का समर्थन हासिल करते हैं सत्ता हासिल करने के लिए उसी का समर्थन कैसे ले सकते हैं? यह तो सीधे सीधे जनादेश का मजाक होता है। और यही मजाक अब बीजेपी ने महाराष्ट्र में किया है।

विचार की राजनीति को तिलांजलि देते हुए हेजमनी (एकाधिकार) कायम करने निकली मोदी शाह की बीजेपी एक ही लक्ष्य के साथ आगे बढ़ रही है कि देश में न तो कोई दूसरा दल होनी चाहिए और न ही दूसरी सरकार। अगर वे अपने वैचारिक अभियान के जरिए ऐसा करने की कोशिश करते तो इस पर सवाल उठाने की जरूरत नहीं थी। लेकिन विचार की राजनीति को जब सत्ता के सौदागर छू लेते हैं तो उसे व्यभिचार की राजनीति में तब्दील कर देते हैं। तब एकमात्र ध्येय सत्ता होती है और उसके लिए किसी भी व्यक्ति ही नहीं किसी भी विचार से समझौता किया जा सकता है। अगर आपको लगता है कि यह महज राजनीतिक फायदे के लिए होता है, तो आप गलत हैं। सत्ता तंत्र के पीछे व्यापार और अपराध का एक ऐसा संगठित तंत्र काम करता है जो किसी भी कीमत पर सत्ता को अपने नियंत्रण में रखना चाहता है। सत्ता के असली सौदागर यही होते हैं जो राजनीतिक दलों के जरिए अपनी जीत सुनिश्चित करते हैं। कोई भी दल ऐसा नहीं है जो इन सौदागरों की पहुंच से दूर हो। लेकिन फिलहाल महाराष्ट्र में शरद पवार से भी समर्थन ले लेने की मजबूरी यह साबित करती है कि मोदी शाह की बीजेपी वह बीजेपी नहीं है जिसे अटल आडवाणी की बीजेपी कहा जा सके। पता नहीं, इस कदम से राष्ट्रवादी विचारधारा भ्रष्ट हुई है कि भ्रष्ट राष्ट्रवादी हो गये हैं। लेकिन इतना तो तय हो गया है कि मोदी शाह ने जिस गैर कांग्रेसवाद का नारा दिया था उस नारे के ठीक उलट जाते हुए बीजेपी को ही सुपर कांग्रेस बना दिया है।

Tuesday, November 11, 2014

घाटी में गिलानी बनाम गनी

अढ़तालीस साल के सज्जाद गनी लोन फिलहाल कश्मीर की सूबाई राजनीति में अपने आपको इतना स्थापित नहीं कर पाये हैं कि वे कश्मीर में बनाम की राजनीति का हिस्सा हो सकें। लेकिन इस बार वे हैं। खुद सज्जाद भी न कभी अलगाववादी नेता रहे हैं और न ही मुख्यधारा के राजनीतिज्ञ कि कश्मीर पर बात करते समय उनका जिक्र करना जरूरी हो। लेकिन इस बार जरूरी हैं। कश्मीर की राजनीति में अलगाववादी नेता अब्दुल गनी लोन के दो बेटों में से एक सज्जाद गनी लोन दूसरी बार विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए मैदान में हैं और जम्मू कश्मीर में घाटी की महज 19 सीटों पर मैदान में उतर रहे हैं। फिर भी उनका जिक्र जरूरी है। उनके जरिए इस बार पूरे जम्मू कश्मीर का जिक्र जरूरी है।

अब्दुल गनी लोन साठ के दशक में जब अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से कानून की पढ़ाई करके वापस कश्मीर लौटे तो उन्होंने कांग्रेस की राजनीति शुरू की थी। वे एक बार विधायक भी रहे लेकिन एक दशक के भीतर ही उन्हें कश्मीर की आजादी की कसक सताने लगी और उन्होंने 1978 में पीपुल्स कांफ्रेस की स्थापना कर आजादी की हिमायत शुरू कर दी। करीब डेढ़ दशक तक कश्मीर की आजादी की अलग लगाने के बाद नब्बे के दशक में उन्हें यह अहसास हो गया गया कि वे जिसे कश्मीर की आजादी कह रहे हैं वह असल में पाकिस्तान की गुलामी है। इसलिए उन्होंने अपना राजनीतिक रास्ता अलगाववादियों से धीरे धीरे अलग करना शुरू कर दिया। और इस अलगाव की पहली कीमत उन्हें चुकानी पड़ी 1996 में जब उनकी कार पर हमला हुआ और बम मारकर उन्हें मारने की कोशिश की गई। वे बच तो गये लेकिन उस हुर्रियत कांफ्रेस के निशाने पर हमेशा बने रहे जो कश्मीर की आजादी के लिए पाकिस्तान की गुलामी की हिमायत करता था।
पाकिस्तान से आनेवाले आतंकियों और आईएसआई के खिलाफ वे अपनी आवाज बुलंद करते रहे और उन्हें मेहमान आतंकी कहकर संबोधित करते रहे। शायद यही कारण है कि 2002 में जब वे मीरवाइज मोहम्मद फारुख की बरसी में शरीक होने के लिए पहुंचे तो पांच हजार लोगों के बीच आतंकियों ने पुलिस भेष में पहुंचकर उनकी हत्या कर दी। उस वक्त भी और आज भी अब्दुल गनी लोन के बेटे सज्जाद गनी लोन अपने पिता की मौत के लिए दो लोगों को जिम्मेदार मानते थे। पहला पाकिस्तान की खुफिया एजंसी आईएसआई और दूसरा कश्मीर की आजादी के पैरोकार और हुर्रियत नेता सैय्यद अली शाह गिलानी। उन्होंने सार्वजनिक रूप से गिलानी का नाम तो कभी नहीं लिया लेकिन पिता की मौत के करीब एक दशक बाद एक अखबार से बात करते हुए सज्जाद ने साफ साफ कहा कि ''मेरे पिता की हत्या सफेदपोश लोगों ने करवाई है। उन्होंने कहा कि मैंने हत्यारों के बारे में बहुत कुछ संकेत दे दिया है लेकिन अब मैं सार्वजनिक रूप से कुछ कहना नहीं चाहता। सिर्फ इतना कहना चाहता हूं कि अगर उन्हें रोका नहीं गया तो कश्मीर में और भी हत्याएं हो सकती हैं।" यह गिलानी के खिलाफ सज्जाद का गुस्सा ही था कि उन्होंने अपने पिता के क्रियाकर्म में गिलानी को मौजूद नहीं रहने दिया था।

पिता की हत्या के करीब छह साल बाद सज्जाद गनी लोन ने उसी पीपुल्स कांफ्रेस के जरिए अपनी राजनीतिक यात्रा दोबारा शुरू की जिसकी शुरुआत अब्दुल गनी लोन ने कश्मीर की आजादी के लिए किया था। 2008 में उन्होंने पीपुल्स कांफ्रेस की तरफ से पहली बार चुनावी मैदान में हाथ आजमाया और कुछ नहीं पाया। ऐसा स्वाभाविक भी था। कश्मीर घाटी में नेशनल कांफ्रेस और पीडीपी के मौजूद रहते पीपुल्स कांफ्रेस के लिए अपनी जगह बना पाना इतना आसान भी नहीं है। लेकिन 2008 में सज्जाद गनी लोन ने जो शुरूआत की वह राजनीतिक असफलताओं के साथ 2009 और 2014 में भी जारी रहा। वे अपने सीमित समर्थन के साथ चुनावी मैदान में डटे हुए हैं और शायद केन्द्र की सत्ता में दशकभर बाद लौटी बीजेपी को कश्मीर में ऐसे ही किसी साथी की तलाश थी जो जम्मू कश्मीर में एक दूसरे की जरूरतें पूरी कर सकें।

जम्मू कश्मीर में बीते विधानसभा चुनाव में इकाई से दहाई का आंकड़ा पार कर चुकी बीजेपी का मुख्य जोर जम्मू की 36 और लद्दाख की 4 सीटों पर ही रहा है। कश्मीर घाटी की 47 सीटों पर 'कश्मीर विरोधी' बीजेपी का कोई नामलेवा नहीं है। जम्मू कश्मीर विधानसभा में बहुमत के लिए अगर 44 सीटों का आंकड़ा जुटाना है तो बिना कश्मीर में मजबूत मौजूदगी के किसी के लिए भी सरकार बनाने का सपना पूरा कर पाना मुश्किल है। शायद यही कारण है कि बीजेपी ने सज्जाद का साथ पकड़ना जरूरी समझा। संघ के रणनीतिकारों ने सज्जाद गनी लोन से संपर्क बढ़ाया और बीजेपी के बड़े नेताओं की तरफ से बातचीत शुरू कर दी गई। जो सहमति बनी वह मिलकर चुनाव लड़ने की नहीं थी बल्कि चुनाव बाद समझौता करने की थी। यूपीए सरकार के कार्यकाल में भी दिल्ली से नजदीकी रखनेवाले सज्जाद गनी लोन के लिए नरेन्द्र मोदी सरकार से वास्ता रखना इतना मुश्किल काम नहीं था। इसलिए दोनों के बीच बात बन गयी। सज्जाद गनी लोन को जम्मू कश्मीर में मुख्यमंत्री की कुर्सी दिख रही है जबकि केन्द्र की बीजेपी सरकार इस चुनाव में 'कश्मीर समस्या का समाधान' खोज रही है।

और कश्मीर समस्या का वह समाधान कुछ और नहीं बल्कि गिलानी जैसे नेताओं का राजनीतिक सफाया है जिसके लिए सज्जाद गनी लोन से बेहतर दूसरा विकल्प फिलहाल बीजेपी के पास मौजूद नहीं है। इसलिए बीजेपी ही नहीं पीएमओ भी इस बार सक्रिय होकर बाढ़ पीड़ित कश्मीर की पूरी मदद कर रहा है। अमित शाह की अगुवाई में बीजेपी के सैकड़ों रणनीतिकार और हजारों वालन्टियर जम्मू में क्लीन स्वीप करने की तैयारियों को अंजाम दे रहे हैं। बीते विधानसभा चुनाव के मुकाबले इस बार सज्जाद की पीपुल्स कांफ्रेस को भी घाटी में बेहतर समर्थन मिल रहा है। अगर इस चुनाव में सज्जाद गनी लोन का 'शेर' घाटी में दहाड़ता है और बीजेपी अपने 'शेर' के सहारे जम्मू में क्लीन स्वीप का झाड़ू लगा देती है तो इस बात की पूरी संभावना है कि हुर्रियत कांफ्रेस का हिस्सा रहे कुछ और लोग इस नयी राजनीति में हिस्सेदारी शुरू कर देंगे जो गिलानी की पाक परस्त नीतियों से त्रस्त हैं। कहने की जरूरत नहीं कि इन त्रस्त लोगों में एक बड़ा नाम उन मीरवाइज उमर का भी है जिनके पिता की बरसी के दिन सज्जाद गनी लोन के पिता की कुर्बानी ले ली गयी थी।

Friday, October 17, 2014

काला धन पर काला मन

दिन में सुप्रीम कोर्ट के भीतर भारत सरकार के एटॉर्नी जनरल जो कर आये थे, शाम को उसका डैमेज कन्ट्रोल रोकने के लिए वित्त मंत्री अरुण जेटली को बाहर आना पड़ा। मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में काले धन पर सुनवाई कर रही खँडपीट के सामने अपना पक्ष रखते हुए एटार्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने वही लाचारगी व्यक्त कर दी जो कभी यूपीए सरकार के एटार्नी जनरल किया करते थे। "हम नाम सार्वजनिक नहीं कर सकते मी लार्ड।" यहां हम का मतलब केन्द्र सरकार से है। मुकुल रोहतगी ने सुप्रीम कोर्ट के सामने सरकार का जो पक्ष रखा वह तकनीकि तौर पर वही था जो इससे पहले यूपीए सरकार रखती आई थी। इस तकनीकि पक्ष को थोड़ा तकनीकि पहलुओंं के साथ ही समझने की कोशिश करनी होगी।

2011 से सुप्रीम कोर्ट वरिष्ठ अधिकवक्ता राम जेठमलानी की शिकायत पर एक विशेष जांच दल (एसआईटी) बनाकर काले धन का पता लगाने की कोशिश कर रही है। सुप्रीम कोर्ट में जब जब केन्द्र सरकार से जवाब मांगा गया तत्कालीन यूपीए सरकार के प्रतिनिधि (एटार्नी जनरल) ने यही कहा कि नाम सार्वजनिक कर पाना संभव नहीं है। तत्कालीन केन्द्र सरकार का तर्क था कि इसमें मुख्य रूप से दो दिक्कत है। पहली दिक्कत यह है कि जिन देशोंं में भारत के लोगों का बेनामी या अवैध धन जमा है उनसे हम किस आधार पर सूचना मांगे। सूचना सिर्फ उसी व्यक्ति के बारे में मांगी जा सकती है जिसके बारे में भारत सरकार की एजंसियां कोई आर्थिक धोखाधड़ी की जांच कर रही होंं। जब अवैध या बेनामी धन रखनेवाले का नाम ही पता नहीं है तो फिर उसके खिलाफ कार्रवाई किस आधार पर करें। अब अगर केन्द्र सरकार टैक्स हैवेन देशोंं में भारत का काला धन जमा करनेवालोंं का नाम पता पूछने जाए तो वहले से ऐसी संधियां हुई पड़ी हैं कि वे अपने यहां भारतीय मूल के लोगोंं के धन का बखान ही नहीं कर सकते। जाहिर है, केन्द्र सरकार के सामने यह दोहरी मुश्किल थी। यही मुश्किल आज भी है जिसका उल्लेख मुकुल रोहतगी ने सुप्रीम कोर्ट के सामने किया।

मुकुल रोहतगी ने सीधे सपाट तौर पर अदालत से जो कहा उससे साफ संदेश गया कि सरकार विदेश में काला धन जमा करनेवालों का नाम सार्वजनिक नहीं कर सकती। शायद इसलिए शाम होते होते वरिष्ठ अधिवक्ता और वित्त मंत्री अरुण जेटली खुद बीमारी के बावजूद मीडिया के सामने आ गये। उन्होंंने जो स्पष्टीकरण दिया वह इतना उलझा हुआ है कि उससे कोई निष्कर्ष ही नहीं निकलता है। कहा तो उन्होंने भी वही जो मुकुल रोहतगी ने माननीय सुप्रीम कोर्ट के सामने कहा था लेकिन थोड़ा घुमा फिराकर। बकौल अरुण जेटली सरकार काला धन बाहर जमा करनेवालों का नाम तो सार्वजनिक करना चाहती है लेकिन इसके लिए कानूनी दिक्कते हैं। उन्होंंने उन कानूनी दिक्कतों का सिलसिलेवार विवरण तो नहीं दिया लेकिन ये कानूनी दिक्कतें वहीं हैं जिसके कारण एटार्नी जनरल सुप्रीम कोर्ट के सामने नाम न जाहिर कर पाने की मोदी सरकार की मजबूरी जता चुके थे। अरुण जेटली ने जर्मनी के लिंचेस्टर बैंक का उल्लेख करते हुए 1995 में जर्मनी के साथ की गई एक काराधान संधि का भी हवाला दिया जिसके तहत जर्मनी अपने यहां के खाताधारकोंं की गोपनीयता को साझा नहीं कर सकता। और क्योंकि वे सूचना साझा नहीं कर सकते इसलिए भारत सरकार अपनी तरफ से लोगों के नाम सार्वजनिक नहीं कर सकती। उनका तो नाम भी नहीं ले सकती जिनके खिलाफ कोई केस ही नहीं है। लेकिन जिनके खिलाफ केस है उनका नाम भी तब लेगी जब सारी कानूनी अड़चने खत्म हो जाएं। लेकिन जेटली ने सब नकारात्मक बात ही नहीं कही। उन्होंने राजनीतिक तौर पर कुछ सकारात्मक संदेश भी दिये।

काले धन पर अगर यूपीए सरकार की नीयत में खोट था तो एनडीए सरकार की मंशा भी कोई साफ नहीं है। जिन कानूनी अड़चनों और मजबूरियों की आड़ लेकर यूपीए सरकार अपना बचाव कर रही थी उन्हीं मजबूरियों का उल्लेख अब एनडीए सरकार कर रही है। काले धन के मुद्दे पर सरकार तो बदली लेकिन बदली हुई सरकार की नीयत नहीं बदली। अब कांग्रेस बीजेपी हो गयी है और बीजेपी ने कांग्रेस का रूप धारण कर लिया है। 

मसलन, रेवेन्यू सेक्रेटरी की अध्यक्षता में एक तीन सदस्यीय जांच समिति स्विटजरलैंड गयी थी। उसने वहां स्विस सरकार के वित्त और वाणिज्य विभागों से संपर्क किया और जानकारी हासिल करने के लिए रास्ता बनाने की कोशिश की। रास्ता बनाने में उसे सफलता भी मिली है। स्विस सरकार के प्रतिनिधि उन सौ लोगों के नाम देने की सहमति जताई है जिनके खिलाफ भारत में कोई न कोई वाणिज्यिक जांच पड़ताल चल रही है। इससे पहले इन्हीं लोगों के बारे में जानकारी देने से स्विस सरकार ने मना कर दिया था। इसके अलावा अरुण जेटली ने यह भी कहा कि भविष्य में सूचनाओं के आदान प्रदान के लिए एक साझा सहमति पत्र तैयार करने की दिशा में बातचीत शुरू हो सके इसका प्रयास भी किया गया है। ये सारे प्रयास सरकार की नजर में सराहनीय उपलब्धि हैं। लेकिन क्या वास्तव में केन्द्र की मोदी सरकार के ये सारे प्रयास सराहनीय हैं?

शायद नहीं। काले धन पर सुप्रीम कोर्ट में केस दायर करनेवाले वरिष्ठ वकील राम जेठमलानी ने सुप्रीम कोर्ट के भीतर और बाहर सरकार के इस कदम को चोरी और सीनाजोरी करार दिया। राम जेठमलानी का कहना है कि यह सब ''सरकार का दोहरा चरित्र सामने ला रहा है।'' राम जेठमलानी का कहना है कि उनकी प्रधानमंत्री मोदी से कोई बात तो नहीं होती लेकिन इस बारे में उन्होंंने मोदी को पत्र लिखा है और उन्हें उनके जवाब का इंतजार है। जेठमलानी को पीएम मोदी का कार्यालय क्या जवाब देता है यह तो वक्त बतायेगा लेकिन एटार्नी जनरल और अरुण जेटली के विरोधाभाषी बयानों से यह तो साबित हो गया कि कालेधन पर इस सरकार का मन भी कोई बहुत साफ नहीं है। कुछ न कुछ ऐसा दबाव सरकारों पर रहता ही है कि वे चाहें तो भी उन लोगोंं के नाम तक सार्वजनिक नहीं कर सकती जिन्होंने देश की पूंजी विदेश के हवाले कर रखी है। वही दबाव यूपीए सरकार पर था और वही दबाव एनडीए सरकार पर है। वह दबाव पूंजीपतियों का है कि पूंजीपतियोंं के हित में की गई संधियों का, यह तो सिर्फ सरकार को पता होगा लेकिन जिस तरह से इस सरकार ने इस मामले में संधियों और कानूनी अड़चनों की लीपापोती की है उससे साफ है कि यह सरकार जब अभी नाम सार्वजनिक कर देने की स्थिति में नहीं आ पाई है तो काला धन वापस लाने से तो मीलों दूर हैं। तब तक जनता चाहे तो विदेश में जमा काले धन की उम्मीद छोड़कर अपनी जेब से बैंकों में धन जमा कराती रहे ताकि मोदी सरकार की जन धन योजना सफल हो और भारत के बैंकों के पास जन के धन से इतनी पूंजी इकट्ठा हो जाए कि अर्थव्यवस्था को थोड़ी और बेहतर बनाया जा सके।

Wednesday, October 15, 2014

मतगणना से पहले मनगणना

हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के लिए अभी मतदान शुरू भी नहीं हुआ था कि चैनलोंं ने बताना शुरू कर दिया कि शाम पांच बजे मतदान खत्म होने के उनके चैनल का विशेष इक्जिट पोल देखना न भूलें। शाम पांच बजे? मतदान की अवधि तो शाम छह बजे तक थी और नियम यह है कि उस वक्त तक अगर कोई लाइन में खड़ा है तो बिना उसके मतदान के पोलिंग बूथ बंद नहीं किया जा सकता। शायद इसलिए चुनाव आयोग मतदान की आधिकारिक अवधि खत्म हो जाने के बाद भी आधे घण्टे का मार्जिन रखता है। इसलिए अगर कोई न्यूज चैनल अपना इक्जिट पोल दिखाना ही चाहता है तो वह साढ़े छह बजे के पहले दिखा ही नहीं सकता था। तो फिर शाम को पांच बजे वाला प्रचार क्यों किया गया?

जाहिर है, बाजार का हथियार हो चुके न्यूज चैनलों ने झूठ बोला। कमोबेश हर उस चैनल ने पांच बजे की दुहाई दी जिसके झोले में कोई न कोई सर्वे एजंसी बैठी हुई थी। इधर मतदान शुरू हुआ और उधर सर्वे एजंसियोंं के लोग मैदान में मौजूद (अगर रहे हों तो) लोगों से पूछताछ करके अपनी रिपोर्ट तैयार करने लगे होंगे। निश्चित रूप से हर चैनल जानता रहा होगा कि वे साढ़े छह बजे के पहले कोई आंकलन प्रसारित नहीं कर सकते लेकिन पांच से साढ़े छह बजे के बीच का मार्जिन लेने की कोशिश कमोबेश हर चैनल ने की। जो लोकतंत्र के यज्ञ में मत की आहुति दे रहे थे हो सकता है उनके लिए यह डेढ़ घण्टे का मार्जिन कोई मायने न रखता हो लेकिन जो लोकतंत्र का कारोबार करते हैं उनके लिए एक मिनट में दस सेकेण्ड के छह स्लॉट होते हैं और हर स्लॉट की कीमत बाजार में मौजूद दर्शकों की मांग से तय होती है। दर्शकों से झूठ बोलकर हासिल किये गये डेढ़ घण्टे की मार्जिन में लोकतंत्र के पहरेदारों ने कितने स्लॉट बनाये होंगे और हर स्लॉट की क्या कीमत वसूली होगी यह उनका मार्केटिंग डिपार्टमेन्ट ही जानता होगा इतना तय है कि ये घण्टे डेढ़ घण्टे टीवी के भाग्य में रोज रोज नहीं आते इसलिए इतना झूठ चलता है कि आप अपने दर्शकों को डेढ़ घण्टा पहले से अपने पास बिठा लें और काउण्ट डाउन शुरू करके उनके नाम पर दस दस सेकेण्ड के प्लॉट काट दें।

टीवी के झूठ की बुनियाद ऐसे ही छोटे छोटे छद्म से भरा पड़ा है। जैसे जैसे टीवी मुख्यधारा की मीडिया का दर्जा हासिल करता गया है उसने अपने 'लाइव' और 'ब्रेकिंग' का हर संभव दोहन किया है। कुछ सेकेण्डों के हेर फेर से 'सबसे पहले' का दर्जा हासिल करने या फिर खो देनेवाले इस टीवी समाज में झूठ कब कहां कितना हिस्सा हासिल कर चुका है इसका आंकलन करने के लिए न तो हमारे पास मानसिकता है और न ही कोई मैकेनिज्म है। समाचार का टेलीवीजन समाज इस सच्चाई को जानता है इसलिए वह जब तब अपने फायदे के मुताबिक करामात करता रहता है। गढ्ढे से लेकर मंच तक लाइव का लिव-इन रिश्ता हो कि डेढ़ घण्टे का एहतियाती झूठ, टीवी समाज सब कुछ जानते हुए सबकुछ करता है। मतदान करनेवाली जनता भी उसके लिए वही मायने रखती है जो विकास का वादा करनेवाले नेता के लिए रखती है।

फिर भी हमारी व्याकुलता टीवी की इस व्यावसायिक छटपटाहट से ज्यादा उस आतुरता पर है जिसमें 'सबसे पहले' की जंग समय से पहले हो चली है। शाम साढ़े छह बजे तक अगर रोक है तो क्या ठीक साढ़े छह बजे ही मतदान का अवास्तविक आंकड़ा सामने रख देना सही हो सकता है? मतदान से मतगणना के बीच के अंतर को ये फौरी सर्वेक्षण पाटकर जनता को क्या संदेश देना चाहते हैं? कि लोकतंत्र के नाम पर वे जो काम करके आये हैं उसका नतीजा यह है? अगर आपने टीवी की बहसों को देखा हो तो आप अंदाज लगा सकते हैं कि टेलीवीजन अपने सर्वेक्षण कंपनियों के अवास्तविक आंकड़ों को वास्तविक मानकर न सिर्फ जीत हार का ऐलान कर देते हैं बल्कि उन दलों के प्रतिनिधियों और अपने विशेषज्ञों के जरिए परिणामों पर चर्चा भी शुरू कर देते हैं। जो जीत रहा है तो उसके जीत के क्या कारण है और जो हार रहा है तो उसकी हार के लिए क्या कारण जिम्मेदार हैं। यह सब तब जबकि अभी मतदान खत्म ही हुआ है और मतपेटियां या मशीनें पोलिंग बूथ से बाहर भी नहीं जा पायी हैं।

सबसे पहले तो इन एक्जिट पोल की विश्वसनीयता हमेशा संदिग्ध रहती है। भारतीय मतदाता का बहुत सहज स्वभाव है कि अगर वह किसी पार्टी का कार्यकर्ता या सक्रिय सदस्य नहीं है तो वह यह सच कभी नहीं बताता कि आखिरकार उसने अपना वोट किसे दिया है। इसलिए अगर कोई सर्वेक्षण एजंसी यह दावा करती है कि उसके पास सटीक आंकड़े हैं तो बुनियादी तौर पर उसका दावा गलत ही होता है। फिर उन सभी सर्वेक्षणों की डाटा प्रोसेसिंग, गणना और विश्लेषण ऐसा काम है जिसे पूरी ताकत से भी किया जाए तो अच्छा खासा वक्त लगता है। इसके बाद भी इनके सटीक होने का दावा नहीं किया जा सकता। लेकिन यहीं पर मैदान में मौजूद सर्वेक्षण एजंसियां उसी माहौल के मुताबिक सट्टेबाजी वाली प्रक्रिया से अपना निष्कर्ष निकालने की प्रक्रिया अपनाती हैं जिसे बनाने के लिए उसी टीवी का जमकर इस्तेमाल किया गया होता है जिसके लिए ये एजंसियां सर्वेक्षण कर रही होती हैं। यह सब आपस में एक दूसरे से इतना घुला मिला है कि एक पूरा बिजनेस मॉडल बन चुका है।

और इस बिजनेस मॉडल में मतदान से मतगणना के बीच मनगड़ना की एक मनगढ़ंत विधा विकसित कर ली गई है जिसकी वैज्ञानिकता और प्रामाणिकता हमेशा से संदिग्ध रही है। हो सकता है इन सबके बीच कोई सर्वेक्षण एजंसी सटीक नतीजों का आंकलन करने में सक्षम हो फिर भी मतगणना से पूर्व टीवी और सर्वे एजंसियों की इस मनगणना पर भी रोक लगनी चाहिए। चैनलों के मुनाफाखोरी को एक मिनट के लिए माफ भी कर दें तो लोकतांत्रिक प्रक्रिया के लिए यह बहुत खतरनाक है। ये मनगढंत गणनाएं अगर इसी तरह प्रभावी होती रहीं तो एक दिन लोगों के मन में लोकतंत्र के वे निकाय ही अप्रासंगिक हो जाएंगे जिनके जरिए भविष्य की भविष्यवाणी करने का कारोबार चल रहा है। एक्जिट पोल से नतीजोंं पर भले ही कोई फर्क न पड़ता हो लेकिन पूरी लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर फर्क जरूर पड़ता है।

Tuesday, September 30, 2014

मिस्टर होप से ''मिस्टर होप'' तक

अब तक भारत के प्रधानमंत्री किसी राष्ट्राध्यक्ष की भाषा में उसका स्वागत करके चौंकाते रहे हैं, अबकी यह काम अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कर दिया। खबर है कि अपनी अमेरिका यात्रा के अंतिम पड़ाव के रूप में ह्वाइट हाउस पहुंचे नरेन्द्र मोदी का स्वागत गुजराती के 'केम छो' के साथ किया। नरेन्द्र मोदी ने यह जवाब तो नहीं दिया कि वे कैसे हैं, लेकिन उन्होंने अपनी मातृभाषा बोलकर हाल पूछनेवाले राष्ट्रपति ओबामा को धन्यवाद जरूर दिया। उन्हें देना भी चाहिए। आज बराक ओबामा जो हैं उसमें जितना महात्मा गांधी की फोटो और हनुमान जी की सीक्रेट मूर्ति का योगदान है, नरेन्द्र मोदी के नरेन्द्र मोदी होने में उससे कम योगदान ओबामा का नहीं है। बराक हुसैन ओबामा के जीवन में 2008 न होता तो शायद नरेन्द्र मोदी के जीवन में 2014 न आता। दोनों के बीच बहुत गहरा अंतरसंबंध है। लेकिन इसे समझने की शुरूआत 2014 से नहीं बल्कि 2008 से करनी होगी।

इराक से लेकर अफगानिस्तान तक 'जस्टिस' को स्थापित करने के संकल्प के साथ अमेरिका पर शासन करनेवाले जार्ज डब्लू बुश जूनियर। अब्राहम लिंक की डेमोक्रेट पार्टी के ऐसे प्रशासक जिनकी पहचान बताने के लिए अमेरिका ने रिपब्लिकन के चुनाव चिन्ह गधे को बड़ी उदारता के साथ जार्ज बुश जूनियर के साथ जोड़ दिया था। इराक और अफगानिस्तान जस्टिस स्थापित करने के लोकतांत्रिक काम में विजयी होने के बाद भी जार्ज बुश जूनियर नाउम्मीद करनेवाले नेता हो गये थे। अमेरिका की लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था, बेरोजगारी का दबाव और सैन्य कार्रवाई पर बढ़ते खर्च के कारण अमेरिका दुनिया का सबसे बड़ा कर्जदार देश हो चला था। लेकिन अकेले यही समस्या नहीं थी जो अमेरिकी नागरिकों को परेशान कर रही थी। कर्जखोर अर्थव्यस्था के चक्रव्यूह में फंसकर चकनाचूर हुई निजी, पारिवारिक और सामाजिक संकट ने जार्ज बुश जूनियर के जस्टिस को ज्यादा तवज्जो नहीं दिया। अमेरिका को एक नये उम्मीद की जरूरत थी।

अमेरिका की वह उम्मीद बनकर आये बराक हुसैन ओबामा। उसी डेमोक्रेट पार्टी के उम्मीदवार जिसके जॉन कैरी 2004 में जार्ज बुश जूनियर से चुनाव हार गये थे। डेमोक्रेट्स 2008 में पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की पत्नी हिलेरी क्लिंटन को अपना दावेदार बनाना चाहते थे लेकिन ओबामा का उभार इतनी तेजी से हुआ कि हिलेरी हिल गईं और ओबामा आ गये। बहुत ही लच्छेदार भाषा में भाषण देनेवाले बराक ओबामा ने पहला दावा अपनी पार्टी के भीतर किया और वे विजयी रहे। अब उन्हें वही लच्छेदार भाषण पूरे अमेरिका को सुनाना था। उन्होंने सुनाया। अमेरिका ने ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया ने सुना और अमेरिका को ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया को लगा कि पूंजीवादी कर्जखोर अमेरिका में सचमुच उम्मीद की कोई नयी किरण आ गयी है जो उस खुशी की बात करता है जो भौतिक प्रगति से नहीं बल्कि आत्मिक शांति से जुड़ी हुई है। खाये अघाये बौराये और पगलाये अमेरिका के लिए बराक ओबामा से बेहतर विकल्प और क्या हो सकता था? 'होप' ने अमेरिका के दरवाजे पर दस्तक दे दी थी।

बहुत ही सामान्य पारिवारिक पृष्ठभूमि से आनेवाले बराक ओबामा ने अमेरिका जो 'होप' दिया था उसके लिए चेन्ज होना जरूरी था। यह 'चेन्ज' हो जाए इसके लिए वह अमेरिकी नागरिकों के मन में यह आत्मविश्वास भरना जरूरी था कि 'यस वी कैन'। अमेरिका में ताजा ताजा पसंद बने सोशल नेटवर्किंग साइट्स ने ओबामा को सीधे लोगों तक पहुंचने का अकूत बल दे दिया। यह बराक ओबामा ही थे जिन्होंंने सबसे पहले सोशल मीडिया साइट्स और नये मीडिया माध्यमों का अपने चुनाव प्रचार के लिए जमकर इस्तेमाल किया दुनिया को इस नये 'होप' से परिचित भी करवाया। बराक ओबामा के प्रचार अभियान के संचालकों ने ओबामा को सचमुच अमेरिका की उम्मीद बनाकर सामने पेश कर दिया था जिसके बिना अमेरिका का कोई भविष्य नहीं हो सकता था।  लेजर लाइट शो, आशापूर्ण और उम्मीदभरे भाषण, युद्धोन्माद का विरोध, पारिवारिक और आध्यात्मिक आनंद की दलीलें और बराक ओबामा की खनकती आवाज ने ऐसा जादुई शमां बांधा कि रिपब्लिकन का 'गधा' डेमोक्रेट्स के घर पर ही बंधा रह गया। वह लौटकर फिर रिपब्लिकन के दफ्तर नहीं आ पाया।

ओबामा के कार्यकाल में अभी आठ साल पूरे होने बाकी हैं कि वे जार्ज बुश जूनियर की बराबरी कर सकें लेकिन छह साल के अपने कार्यकाल में वे अमेरिका के लिए जार्ज बुश जूनियर हो चुके हैं। देश से लेकर विदेश तक अमेरिका उसी तरह जस्टिस का जमाखोर हो गया है जैसे आधी सदी के बीते इतिहास में रहा है। सीरिया से लेकर इराक, फिलिस्तीन और अफगानिस्तान तक बराक ओबामा जार्ज बुश जूनियर हो चुके हैं। उस वक्त भी अपना आंकलन यही था कि ओबामा की सारी दलीलें आखिरकार  हवा हवाई साबित होंगी और अमेरिकी व्यवस्था के सामने वे बहुत बौने साबित हो जाएंगे। आज छह साल बाद सीरिया और इराक में अमेरिकी आतंकवाद की खेती और जस्टिस की फसल साबित करती है कि अकेला एक राष्ट्रपति अमेरिका की नीतियों को प्रभावित नहीं कर सकता। चुनाव जीतने के लिए लच्छेदार भाषणों और ओसामा के खिलाफ कार्रवाई ने भले ही बराक ओबामा को दो कार्यकाल सौंप दिये हों लेकिन ओबामा ने अमेरिका को वह सबकुछ सौंपा जिसका उन्होंने वादा किया था, इसका कोई लेखा जोखा सार्वजनिक रूप से सामने नहीं आया है। 2008 का तिलिस्म छह साल भी साबूत नहीं रह पाया है।

2008 में जैसी परिस्थितियां अमेरिका में, रिपब्लिकन्स के लिए, ओबामा के सामने थीं ठीक वैसी ही परिस्थितियां 2014 में भारत में, भारतीय जनता पार्टी के लिए, मोदी के सामने थीं। देश में होप हो जाने के लिए नरेन्द्र मोदी के सामने पहली चुनौती यही थी कि वे पार्टी के जॉन कैरियों (आडवाणी आदि) को किनारे करें। इसके लिए उनका पॉपुलर होना जरूरी था जो काम कुछ उसी तरह सोशल मीडिया के जरिए करवाया गया जैसे ओबामा के चुनावी रणनीतिकारों ने ओबामा के लिए किया था। पार्टी के भीतर अपनी पापुलरिटी का लाभ लेते हुए अब नरेन्द्र मोदी देश के लिए लाभदायक होने जा रहे थे। अत्याधुनिक तकनीकि, नियंत्रित फोटोग्राफी, संगठित प्रचारतंत्र और प्रबंधकों तथा रणनीतिकारों की एक समर्पित टीम ने कुछ उसी तरह से मोदी को भारत में एकमात्र विकल्प बना दिया जैसे 2008 में बराक ओबामा हो चले थे। भारत की परिस्थितियों में आप कांग्रेस को डेमोक्रेट हो चले थे जिन्होंने एक दशक के शासन में देश को डुबा दिया था। जूनियर गांधी जूनियर बुश की तरह 'डंकी' चुनाव चिन्ह अर्जित कर चुके थे जिनपर सिर्फ हंसा जा सकता था, नेतृत्व नहीं सौंपा जा सकता। और देश की विकराल आर्थिक, सामरिक और राजनीतिक परिस्थितियों में सिर्फ एक व्यक्ति ऐसा था जो चेन्ज ला सकता था। सिर्फ उसी से होप थी। वह कोई और नहीं बल्कि बल्कि भारत के 'होप' नरेन्द्र मोदी थे। जनता जानती थी कि वह यह कर सकती है, इसलिए उसने 'यस वी कैन' कर दिया।

ओबामा की तरह मोदी ने अपने दफ्तर में अभी छह साल पूरे नहीं किये हैं। अभी तो उनके छह महीने भी पूरे नहीं हुए इसलिए उनसे नाउम्मीद हो जाने का कोई कारण नजर नहीं आता। काम करने और किये हुए काम को दिखने में थोड़ा वक्त तो लगता ही है। ओबामा को अमेरिका ने आठ साल दिये तो मोदी भी अपने लिए दस साल तो मांग ही सकते हैं। लेकिन चार महीने के शुरूआती लक्षण यह बताने के लिए पर्याप्त हैं कि उम्मीदों की जिस लहर पर सवार होकर नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे हैं वे लहरें पीछे छूट गई हैं। जो वर्तमान है वह उसी बड़ी पूंजी की तरफदारी करता है जिसके कारण मनमोहन सिंह के ऊपर कुछ न कर पाने का आरोप लगा। बड़ी पूंजी के कायदे में छोटे लोगों का हित कम अहित ज्यादा जुड़ा होता है। दुर्भाग्य से भारत छोटे लोगों का ही देश है। वैसे ही जैसे अमेरिका बड़े लोगोंं का। उन्हें जो चाहिए था, उसे देने का वादा करके ओबामा दे नहीं पाये। वे भी अमेरिका को वही दे रहे हैं जो जार्ज बुश जूनियर दे रहे थे। यहां भी नरेन्द्र मोदी ने जो वादे (गुजरात की तरह विकास) किये थे उसको पूरा करने की शुरूआत करने में अब तक तो नाकाम ही रहे हैं। आनेवाले एक दशक में उसकी ठीक से शुरूआत हो जाएगी यह कह पाना भी भारत जैसे देश के लिए थोड़ा सा कठिन काम है। तो क्या नरेन्द्र मोदी भी भारत के बराक ओबामा ही साबित होंगे जिसके तिलिस्म में रास्ता दिखानेवाली नहीं बल्कि चकाचौंध कर देनेवाली रोशनी है?

रात के अंधेरे चकाचौंध कर देनेवाली रोशनी से नहीं बल्कि निरंतर जलनेवाले प्रकाश से दूर होते हैं। दुर्भाग्य से ओबामा ने अमेरिका को वह ख्वाब दिखाया जिसे पूरा करने का सामर्थ्य अमेरिका में ही नहीं है। नरेन्द्र मोदी के साथ भी ऐसा ही है। उन्होंंने देश को कुछ ऐसे ख्वाब दिखा दिये हैं जिसे पूरा करने में यह देश ही सक्षम नहीं है। ऊपरी चमक दमक और चकाचौंध से भुलावे का एक ऊपरी भ्रम तो निर्मित हो सकता है लेकिन वास्तविक भारत की दशा में कोई बदलाव नहीं आ पायेगा। इससे अमेरिका या भारत को कोई बहुत फर्क पड़ जाएगा ऐसा भी नहीं है। हां, एक नुकसान जरूर होगा कि 'चेन्ज 'होप' या फिर 'अच्छे दिन' का नारा राजनीतिक रूप से 'गरीबी हटाओ' की तरह नकारा साबित करार दे दिये जाएंगे। फिर इन नारोंं पर किसी और नेता का चुनाव जीतना मुश्किल हो जाएगा। अमेरिका में भी। भारत में भी। फिर दोनों नेता मिलने पर कितनी भी होपफुल संपादकीय क्यों न लिख दें।

Tuesday, September 16, 2014

मियां मलिक का मेघ मल्हार

ये दोनों भारत की नजर में कश्मीर के अलगाववादी हैं लेकिन कुछ कश्मीरियों की नजर में कश्मीर आजादी के नायक। देखने का अपना अपना नजरिया और दृष्टिकोण है लेकिन इन दोनों के बारे में एक बात पक्की है कि दोनों ही अपने होने का सबूत देने के लिए किसी अवसर को नहीं चूकते हैं। यासीन मलिक होंं कि सैयद अली शाह गिलानी। वे जानते हैं कि क्या बोलने से उनकी अपनों की नजर में ''आजादी के नायक'' और दूसरों की नजर में ''अलगाववादी'' छवि बरकरार रहेगी। फिर मौका कोई भी हो। वे अपने होने का सबूत देने से नहीं चूकते हैं। इस बार भी ऐसा ही हो गया जब पूरा जम्मू कश्मीर बाढ़ की कशमकश में फंसा था तो इन दो 'नेताओं' ने अपने होने का सबूत पेश कर दिया। पहला सबूत पेश किया यासीन मलिक ने। थोड़ा पत्थर से और थोड़ा जुबान से। उन्हें कश्मीर में सेना नहीं चाहिए। राहत एवं बचाव कार्य के लिए भी नहीं। लेकिन सैयद गिलानी तो उनसे भी आगे निकल गये। उन्हें सेना चाहिए लेकिन भारत की नहीं, पाकिस्तान की।

आपदाग्रस्त कश्मीर में बाढ़ एक ऐसी आपदा बनकर आयी है जब बीते साठ सालों की आपदाएं सिमटकर झेलम के पानी में बहने लगी। खुद सैयद अली शाह गिलानी और यासीन मलिक भी इस बाढ़ के प्रकोप से बच नहीं पाये थे और उसी सेना और एनडीआरएफ के लोगों ने इनकी जान बचायी जिसे अब वे वहां से जाने के लिए कह रहे हैं। तो क्या सचमुच सैयद अली शाह गिलानी सेना और सहायता का ही विरोध कर रहे हैं या फिर झेलम के पानी में बहती जा रही उस राजनीति को रोकने की कोशिश कर रहे हैं जिसमें गिलानी या फिर मलिक का अस्तित्व ही बह जाने का खतरा पैदा हो गया है?

कश्मीर की जमीनी हालात पर नजर डालें तो हाल फिलहाल में दो घटनाएं ऐसी हुई हैं जिसने कश्मीर के अलगाववादियों को लंबे समय बाद सांस लेने का मौका दिया है। पहली बड़ी घटना थी अफजल गुरू को फांसी और दूसरी घटना है बीजेपी को दिल्ली की सत्ता और नरेन्द्र मोदी का प्रधानमंत्री बन जाना। अफजल गुरू की फांसी के बाद हालांकि भारत सरकार ने सख्ती से हालात को बिगड़ने से रोक लिया लेकिन जो हालात छह दशक से बिगड़े हों उसे दस बीस दिन के कर्फ्यू से न तो बनाया जा सकता है और न बिगाड़ा जा सकता है। तात्कालिक तौर पर जरूर कश्मीर शांत रहा लेकिन अलगगाववादियों के लिए इस फांसी ने खाद पानी का काम किया। कश्मीर में सुरक्षाबलों का जो विरोध दफन हो चुका था उसने छुटपुट तरीके से दोबारा वापसी करनी शुरू कर दी। इस बीच हुए आमचुनाव ने भले ही बीजेपी को अफजल गुरू को फांसी देने का मुद्दा न मिला हो लेकिन दिल्ली की गद्दी जरूर मिल गई और वह भी ऐसे व्यक्ति के नेतृत्व में जो 2002 में गुजरात का मुख्यमंत्री रह चुका है। इस दूसरी घटना के बाद अलगाववादी सुर तो नहीं लेकिन सीमा पर गोलीबारी और छुटपुट आतंकी वारदातें घाटी में जारी रहीं।

किसी जमीन पर अलगाववाद न एक दिन में आता है और न ही एक दिन में चला जाता है। हुर्रियत के पहाड़ पर अपनी अपनी गुफाओं में कैद हो चुके अलगाववादी नेताओं के अगुवा रहे चुके मीरवाइज उमर फारुख कमोबेश गैरहाजिर ही रहने लगे। पिता मीरवाइज मौलवी फारुख की हत्या के बाद बीस साल की उम्र में उन्होंने 23 समूहों वाले जिस हुर्रियत कांफ्रेस की स्थापना की थी उसको चलाये रखने की बजाय शायद उन्होंने कश्मीर की आवाम का मीरवाइज बने रहना ज्यादा मुनासिब समझा। बाकी अलगाववादी समूह अपने होने का सबूत देने के लिए भी साबुत नहीं बचे सिवाय यासीन मलिक और सैयद अली शाह गिलानी को छोड़कर। निश्चित रूप से गिलानी और मलिक कश्मीर में अतिरिक्त प्रतिष्ठा प्राप्त व्यक्ति हैं लेकिन उतना भी नहीं कि उनकी तकरीरों के बाद संगीने सनसनाने लगें। बची खुची कसर महबूबा मुफ्ती और ओमर अब्दुल्ला के नये नेतृत्व ने पूरी कर दी जो अलगाववादी और आजादी के बीच की कड़ी बनकर उभरे थे। नरेन्द्र मोदी की बीजेपी भी अब घाटी में इतनी अछूत न रही कि उसके नाम पर कश्मीरियत को खतरे में दिखाया जा सके। कभी हुर्रियत का हिस्सा रहे सज्जाद गनी लोन ने उसी बीजेपी से गठबंधन की पहल कर दी। जाहिर है ये घटनाक्रम कश्मीर में अलगाववाद को कमजोर कर रहे थे जिससे यासीन मलिक और गिलानी जैसे अलगाववाद के अवशेष भी कमजोर होने लगे थे।

लेकिन अप्रांसगिकता के बीच प्रासंगिक होने की कला ये दोनोंं जानते हैं। इसलिए कश्मीर में बाढ़ के लिए सेना द्वारा शुरू किये गये आपरेशन मेघ राहत में राहत पा लेने के बाद उन्होंने सेना और सहायता दोनों को निशाना बनाना शुरू कर दिया। और ये दोनों बिल्कुल अकेले होंगे ऐसा भी नहीं सोचना चाहिए। कश्मीर में एक वर्ग ऐसा मौजूद है जो भारतीय सेना से नफरत करता है। और नफरत भी ऐसी कि उन्हें सेना की सहानुभूति और सहायता भी नहीं चाहिए। लेकिन यह एक वर्ग ही है इसे पूरे कश्मीर की आवाज नहीं समझा जा सकता। उसी वर्ग के लोग जो यहां वहां सोशल मीडिया पर मौजूद हैं वे भी इस बात से इत्तेफाक नहीं रखते कि भारत की सेना कश्मीर के जख्मों पर 'राहत' का नमक रगड़ने के लिए आये। लेकिन साथ ही साथ इस वर्ग की एक शिकायत यह भी है कि सेना और केन्द्रीय सहायता सिर्फ विशिष्ट लोगों के लिए है। उन्हें लगता है कि बाढ़ के इस प्रकोप को भारतीय मीडिया सेना की छवि सुधारने के लिए इस्तेमाल कर रही है। इसलिए इस वर्ग के लोग अपने अपने सोशल मीडिया समूहों पर यासीन मलिक को राहत कार्य करते हुए पहचानने की कोशिश भी कर रहे हैं ऐसे अनेकों उदाहरण भी दे रहे हैं कि कैसे सेना से ज्यादा स्थानीय लोगों ने बड़ी तादात में लोगों की जान बचायी है।

अपनी इन दलीलों से ये विशिष्ट कश्मीरी दो बातें साबित करने की कोशिश कर रहे हैं। एक, सेना से ज्यादा स्थानीय लोग अपनी मदद खुद कर रहे हैं और दूसरा राहत के नाम पर सेना सिर्फ अपना पीआर ठीक कर रही है। ये इन विशिष्ट कश्मीरियों की विशिष्ट सोच है जो गाढ़े वक्त में भी कायम है। खुद कश्मीर को विशिष्ट राज्य होने की आदत हो गई है तो वहां के कुछ वाशिंदे अगर इस विशिष्ट सोच का शिकार हो जाएं तो कोई आश्चर्य नहीं। शायद इसलिए आपदा की इस घड़ी में जब खुद मुख्यमंत्री कह रहे हों कि उनकी तो सरकार ही बाढ़ में बढ़ गई, आनन फानन में आई सहायता में भी गैर बराबरी और भेदभाव की दुहाई दी जा रही है। स्थानीय लोगों की मेहनत के मुकाबले सेना की सहायता को कमतर बताने की कोशिश की जा रही है। यही ऐसे लोगों की राजनीति है। अगर उन्हें लगता है कि कश्मीर में सेना की सहायता सरकार की राजनीति है तो भी उन्हें मान लेना चाहिए कि संकट की इस घड़ी में दिल्ली द्वारा संचालित 'सहायता की राजनीति' उनकी असरहीन अलगाववादी राजनीति से बहुत उम्दा और सराहनीय है।

Friday, August 8, 2014

इराक में फिर अमेरिका

अराबिल में अमेरिकी और इसाई नागरिकों की चिंता तो सिर्फ जरिया है लेकिन संकट में फंसे इराक में अमेरिका का असल संकट यह है कि आइसिस क्रिसिस में इराक ही हाथ से निकला जा रहा है। अल मलीकी का तीसरी दावेदारी से इंकार, इराक में बढ़ता रूस का दखल, ईसाईयों का कत्लेआम और बगदादी का अमेरिका के खिलाफ जेहाद का ऐलान ऐसे कारण बने हैं जिसके बाद अब 300 सैन्य सलाहकार भेजनेकर स्थितित पर नजर रखनेवाले अमेरिका ने इराक में हवाई कार्रवाई की शुरू कर दी है।  
 
इन संदेहों के बीच कि कट्टर इस्लामिक संगठन आइसिस भी अमेरिकी गुप्तचर एजंसी सीआईए की देन है अब अमेरिका ने उन संदेहों को गलत साबित करते हुए आइसिस के खिलाफ हवाई हमले करने की मंजूरी दे दी है। देर से ही अमेरिका ने अपनी आंखें खोल दी हैं और अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अपने ताजा ह्वाइट हाउस संबोधन में कहा है कि वे अपनी आंख मूंदकर नहीं बैठ सकते। इसलिए अब अमेरिका 'इराक की मदद' के लिए एक बार फिर अपने लड़ाकू विमानों के जरिए इराक के आसमान में उड़ान भरने जा रहा है। लेकिन क्या सचमुच अमेरिका इराक की मदद करने जा रहा है या फिर अमेरिका अपने हाथ से फिसलते इराक को दोबारा हासिल करने जा रहा है?

अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की आंख अचानक से खुली जरूर है लेकिन अनायास नहीं खुली है। 10 जून को जब आइसिस के आतंकियों ने इराक की जमीन पर कब्जा करना शुरू किया तो अमेरिका ने हस्तक्षेप करने की बजाय सिसायत करना शुरू कर दिया। इराक में रोज मीलों की दर से आगे बढ़ते इस्लामिक आतंकी रोज नये नये शहर कब्जा करते जा रहे थे और अमेरिका राजनीतिक सहमति के बिना हस्तक्षेप करने से कतरा रहा था। अमेरिका के लिए यह राजनीतिक सहमति थी इराकी प्रधानमंत्री अल मलीकी की विदाई। सीरिया में सक्रिय आतंकी अचानक से इराक की तरफ क्यों आगे बढ़ गये और शहर दर शहर कब्जा करने लगे यह सवाल तो बाद में उभरा लेकिन अल मलीकी की विदाई की शर्त रखकर अमेरिका ने आइसिस से अमेरिकी रिश्तों के शक को और पुख्ता कर दिया। इसे सिर्फ संयोग तो नहीं माना जा सकता कि सीरिया में अमेरिका और आइसिस दोनों ही अल असद की 'तानाशाही' को समाप्त कर देना चाहते हैं।

और वही आइसिस अगर अचानक सीरिया से आगे उत्तरी इराक की तरफ कूच कर जाती है तो अमेरिका मदद करने से पहले राजनीतिक समाधान की मांग रख देता है। जबकि इराक को तत्काल अमेरिका के हवाई मदद की जरूरत होती है ताकि बगदाद की तरफ तेजी से बढ़ रहे आइसिस आतंकियों को रोका जा सके। लेकिन अमेरिका अपनी जंगी बेड़ा एच डब्लू बुश फारस की खाड़ी में तो खड़ा करता है लेकिन उस पर खड़े एफ-18 लड़ाकू विमान जार्ज बुश पर ही खड़े के खड़े रह जाते हैं। इसका असर क्या होता है? इसका असर यह होता है कि आनन फानन में इराक ईरान द्वारा बंधक बनाये गये अपने पुराने लड़ाकू विमान मांग लेता है जो चार दशक पुराने थे। सुखोई एसयू-25 के इन्हीं विमानों के जरिए कभी इराक की हवाई ताकत बनती थी। जाहिर है, उसके पास उसके पायलट आज भी मौजूद हैं। आनन फानन में रूस से इसी श्रेणी के कुछ और विमान खरीदे जाते हैं और जून के पहले हफ्ते में आइसिस के कब्जे की शुरूआत के बाद जुलाई के पहले हफ्ते में इराक हवाई हमलों से जवाब देना शुरू करता है। अपने पुराने कबाड़ हो चुके रूसी एमआई सीरिज के हेलिकॉप्टरों, चार दशक पुराने टूटे फूटे सुखोई और मिग विमानों के जरिए जैसे तैसे इराक आइसिस आतंकियों पर कार्रवाई शुरू करता है लेकिन इतने से भी इराक आइसिस पर निर्णायक बढ़त हासिल करना शुरू कर देता है।

पूरे जुलाई महीने में इराक ने आइसिस आतंकियों पर जबर्दस्त कार्रवाई करी है। हजारों की तादात में आइसिस के आतंकी मारे गये हैं या घायल हुए हैं। सैकड़ों की तादात में उन्हें पकड़ा गया है। पूरे उत्तरी इराक में इराक की इस जबर्दस्त कार्रवाई में खुद अल बगदादी के गंभीर रुप से घायल होकर सीरिया की सीमा पर भाग जाने की अपुष्ट खबर भी आ रही है। इस बीच एक और बड़ी पहल करते हुए इराक के रक्षामंत्री ने जुलाई महीने में ही रूस का गुपचुप दौरा करके एक अरब डॉलर का रक्षा सौदा भी कर लिया है। इस सौदे के तहत रुस इराक को तत्काल जंगी साजो सामान मुहैया करेगा जिसमें लड़ाकू विमान से लेकर मिसाइल और मिसाइल लांचर सबकुछ शामिल है। जाहिर है, अमेरिका की तरफ से मिली निराशा के बाद इराक ने रूस की तरफ अपना रुख किया। इसी तरह मलीकी के मामले में भी इराक की सुप्रीम रिलिजियस काउंसिल और पोलिटिकल पार्टियों ने उन्हें हटाया तो नहीं लेकिन तीसरी बार दावेदारी करने से जरूर रोक लिया है। अब जबकि इराक आइसिस आतंकियों से अपने दम पर निर्णायक जंग लड़ रहा है, राजनीतिक समाधान भी निकाल रहा है और सैन्य साजो सामान के लिए अमेरिका पर निर्भरता की बजाय दुनिया के दूसरे देशों का रुख कर रहा है तो फिर अचानक से अमेरिका की आंख क्यों खुल रही है?

अमेरिका की आंख इसीलिए खुल रही है क्योंकि इराक में आइसिस का दांव (अगर वह है तो) अब अमेरिका के लिए उल्टा पड़ता जा रहा है। जार्डन के एक अखबार ने आइसिस के खलीफा के हवाले से 6 अगस्त को दावा किया है कि बगदादी न सिर्फ कुवैत पर कब्जा करने की तैयारी कर रहा है बल्कि उसने अमेरिका के खिलाफ भी जेहाद का ऐलान कर दिया है। अगर ऐसा है तो यह इस बात का संकेत है कि आइसिस अब अपनी स्वतंत्र सोच के सात आगे बढ़ रहा है और अगर कहीं अमेरिकी खुफिया एजंसियों का कोई रोल रहा भी होगा तो अब उस रोल को लादेन की तर्ज पर बगदादी ने भी मान सम्मान देने से मना कर दिया है। कुवैत पर कब्जे का ऐलान या फिर अमेरिका के खिलाफ बगदादी की धमकी के बाद अमेरिका की आंख खुलनी ही है लेकिन सवाल सिर्फ धमकी भर का भी नहीं है। अमेरिका के सामने संकट इराक में रूस की बढ़ती मौजूदगी का भी है, इराक द्वारा अपने स्तर पर निकाले जा रहे राजनीतिक समाधान का भी है। अल मलीकी ने तीसरी बार दावेदारी करने से मना कर दिया है और इराक के दो महत्वपूर्ण मुस्लिम समुदाय कुर्द और शिया आइसिस के खिलाफ लामबंद हो रहे हैं। जिस तरह से आइसिस आतंकियों ने कुर्दिश आर्मी के साथ जगह जगह मुटभेड़ शुरू की है उससे कुर्द (सुन्नी) भी आइसिस के समर्थक होने से रहे। हालांकि कुर्दिस आर्मी कमजोर पड़ी है और कई मोर्चों से वापस लौटना पड़ा है लेकिन जंग जारी है। इस बीच हर धर्मगुरू द्वारा बार बार सबसे पहले इराक को बचाने की पुकार भी इराक में आइसिस के समर्थन को कमजोर कर रही है।

जाहिर है, इराक में अमेरिकी अप्रासंगिकता के खिलाफ खड़े हो रहे इस चौतरफे संकट ने अमेरिका की एक नहीं दोनों आंखें खोलकर रख दी हैं। अराबिल के बहाने ही सही अमेरिका की यह कार्रवाई कमजोर पड़ती कुर्दिश आर्मी और शहर से भागकर पहाड़ियों पर फंसे हजारों लोगों की ही मदद नहीं करेगी बल्कि इराक में आइसिस के हौसले भी पस्त होंगे और अमेरिका के बुलंद। लेकिन एक बार फिर खतरा यह खड़ा हो सकता है कि रुस और अमेरिका इराक को अफगानिस्तान की तरह एक ऐसी युद्धभूमि में तब्दील न कर दें जिसमें अलकायदा, ओसामा और इस्लामिक लड़ाके सब लड़ रहे होते हैं लेकिन लंबे समय तक असल जंग अमेरिका और रूस के बीच ही हो रही होती है।

Thursday, August 7, 2014

नाबालिग की उम्र से अप्राकृति छेड़छाड़

नयी नयी सरकार की नयी नयी महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने जो सुझाव दिया था आखिरकार सरकार ने उस पर अपनी सहमति देते हुए कानून हो जाने का रास्ता साफ कर दिया है। अब सन 2000 में बने उस कानून में संशोधन होगा जिसमें 18 साल तक की उम्र को बचपन और किशोरावस्था घोषित किया गया है। इस नये प्रस्ताव के कानून बन जाने के बाद बचपन 16 साल में समाप्त हो जाएगा और किसी जघन्य अपराध में दोषी पाये गये किसी किशोर के लिए वही सजा होगी जो कि ऐसे ही किसी अपराध में किसी वयस्क को सुनाई जाती है। सरकार के सभी मंत्रालयों से राय ले ली गई है और सभी मंत्रालयों ने जघन्य अपराध के मामलोंं में सजा की उम्र घटाकर सोलह करने के लिए अपनी सहमति दे दी है। मोदी सरकार के इस फैसले पर सबसे पहला सवाल यही उठता है कि क्या यह फैसला सही है?

जरा याद करिए संसद का वह हंगामेदार सत्र जब दिल्ली में चलती बस में हुए एक रेपकांड के बाद बलात्कार के खिलाफ सख्त कानून बनाने के लिए पक्ष प्रतिपक्ष एकसाथ आकर खड़े हो गये थे। दिल्ली के ऐतिहासिक दिसंबर आंदोलन से घबराई मनमोहन सरकार सख्त कानून बनाने के पक्ष में तो थी लेकिन जेएस वर्मा कमेटी के कुछ सुझावों को मानने से इंकार कर दिया था। इसमें दो बातें महत्वपूर्ण थी। एक, पत्नी पत्नी के बीच जोर जबर्दस्ती के रिश्ते को बलात्कार के दायरे में नहीं लाया जा सकता और दूसरा हर बलात्कारी को फांसी नहीं दी जा सकती। मनमोहन सिंह की कैबिनेट जिस कानूनी प्रस्ताव को मंजूरी दी उसमें सहमति से संबंध की न्यूनतम उम्र 16 साल बरकरार रखी और सरकार का प्रस्ताव कानून होने के लिए संसद के भीतर प्रवेश कर गया।

बाकी सब बातों पर तो कमोबेश एकराय थी लेकिन छेड़छाड़ रोकने के लिए किये गये कानूनी प्रावधान और सहमति से संबंध की उम्र पर जबर्दस्त विरोधाभास थे। अगर विपक्ष छेड़छाड़ रोकने के लिए भारतीय दंड संहिता की धारा 354 में किये जा रहे बदलावोंं का विरोध कर रही थी तो उसे यह भी स्वीकार नहीं था सरकार सहमति से संबंध की उम्र 16 साल रखे। जिन दलों और दल प्रतिनिधियों ने छेड़छाड़ के लिए प्रस्तावित कानूनोंं के गलत उपयोग की आशंका जता रहा था कमोबेश हर वही दल और नेता सहमति से रिश्ते बनाने की उम्र को बढ़ाकर 18 साल किये जाने की वकालत कर रहा था। इनमें सबसे मुखर मुख्य विपक्षी भारतीय जनता पार्टी थी। भाजपा का तर्क था कि अगर किसी लड़के के लिए किशोरावस्था 18 साल तक है तो फिर लड़की के मामले में यह भेदभाव क्यों किया जा रहा है? आखिरकार सरकार झुकी और सदन में नेता सत्ता पक्ष सुशील कुमार शिंदे ने घोषणा की कि सरकार सहमति से शारीरिक संबंध बनाने की उम्र 16 साल से बढ़ाकर 18 साल करने के लिए तैयार हो गयी है। संसद ने प्रस्ताव पारित कर दिया और नया कानून बनकर भारत के लोगों पर लागू हो गया। भारत में पूर्व में बलात्कार विरोधी जो कानून है उसमें भी सहमति से संबंध बनाने के लिए निर्धारित उम्र सोलह साल ही थी। लेकिन विपक्ष का ऐसा जबर्दस्त दबाव था कि सरकार कोई तर्क वितर्क न कर सकी। हालांकि बाद में शिंदे ने सार्वजनिक रूप से नाखुशी जाहिर की लेकिन उस वक्त तो कानून बनना था। कानून बन गया।

लेकिन उसी कानून के कारण एक पेंच फंस गया। और वह पेंच भी उसी मामले में फंसा जिसके परिणाम स्वरूप संसद ने नया कानूनी प्रावधान किया था। चलती बस में उस लड़की के साथ जो दरिंदगी हुई थी उसमें एक किशोर भी शामिल था। राष्ट्रवादी विचारधारा के रॉबिनहुड डॉ सुब्रमण्यम स्वामी ने सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर करके आग्रह किया कि उस सत्रह वर्षीय किशोर के साथ भी वैसी ही न्यायिक प्रक्रिया अपनाई जाए जैसा कि बाकी दोषियों के साथ अपनाई जा रही है। क्योंकि वह किशोर सत्रह साल का था इसलिए उसका मामला किशोर न्याय बोर्ड में भेज दिया था जहां से उसे अधिकतम तीन साल के न्याय सुधार गृह में ही भेजा जा सकता था, जबकि निर्भया बलात्कार मामले में फांसी की अंतिम सजा के तौर पर मांगी जा चुकी थी। डॉ स्वामी ने भले ही सुप्रीम कोर्ट से लिखित तौर पर यह मांग की हो कि वह मानसिक और शारीरिक रूप से स्वस्थ है तो इस जघन्य अपराध में शामिल है तो फिर उसे एक कानून की आड़ में बचने का मौका क्यों दिया जाए? लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने स्वामी का तर्क मान्य नहीं किया और मामले को किशोर न्यायालय में ही चलाने का आदेश दिया।

निर्भया कांड के बाद संसद में बीजेपी ने ही सबसे ज्यादा जोर इस बात पर दिया था कि लड़की के लिए सहमति से संबंध की उम्र 16 से बढ़ाकर 18 साल कर देनी चाहिए और वही सरकार कैबिनेट में एक ऐसे कानूनी प्रस्ताव को मंजूरी देकर संसद की दहलीज पर जा रही है जो यह कह रही है कि किसी पुरुष को रेप का दोषी करार देने के लिए उसका 18 साल का होना जरूरी नहीं है। अगर 18 साल से कम उम्र लड़की 'सहमति से भी शारीरिक संबंध बनाने' के लिए कानूनन अयोग्य है तो 18 साल से कम उम्र लड़का 'जबरन शारीरिक संबंध' बनाने के योग्य कैसे करार दिया जा सकता है? सरकार के 'सक्षम' होने की दलील मान भी लें तो फिर लड़कियों के मामले में सहमति से शारीरिक संबंध बनाने की समयसीमा 18 करने का क्या तुक रह जाता है? अगर लड़कों के मामले में सरकार यह मान रही है कि 18 वर्ष से कम उम्र में शरीर संबंध बनाने में सक्षम हो जाता है, तो लड़कियों के मामले में कानूनन इंकार कैसे कर सकेगीं? सरकार का यह विरोधाभाषी प्रस्ताव है जो आनेवाले दिनों में कानूनी पेचीदिगियां पैदा करेगा। 

डॉ स्वामी की सक्रियता और पीड़ा समझना ज्यादा मुश्किल नहीं है। जिस किशोर राजू का नाम लेकर स्वामी सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे पर खड़े हुए थे वह एक खास समुदाय से संबंधित है। उसी समुदाय से जिसे राष्ट्रवादी राजनीति में मुख्यधारा का नागरिक नहीं समझा जाता है। हो सकता है इसी खास अल्पसंख्यक समुदाय के कारण स्वामी का दर्द और बढ़ा हो लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने आखिरकार कानून को ही सर्वोपरि रखा और किसी एक मामले में कानून के उल्लंघन की इजाजत देने से इंकार कर दिया। बीते साल 22 अगस्त को आये फैसले के बाद स्वामी ने फिर से पुनर्विचार याचिका दायर की जिसे इसी साल मार्च में सुप्रीम कोर्ट ने फिर से खारिज कर दिया। इस बार चीफ जस्टिस पी सदाशिवम की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने साफ कहा कि जो प्रावधान है वह संविधान और अंतरराष्ट्रीय कानूनोंं के अनुरूप है। इससे छेड़छाड़ नहीं किया जा सकता है। लेकिन स्वामी जी को न्याय चाहिए था, तो न्याय चाहिए था। न्याय का यह मौका अब उन्हीं की पार्टी बीजेपी की मोदी सरकार ने देने का फैसला कर लिया है।

इस मामले में शिंदे और स्वामी के अपने अपने तर्कों से परे भी मोदी सरकार के इस फैसले से कुछ गंभीर संकट पैदा हो सकते हैं। मसलन, उस वक्त सहमति से शारीरिक संबंध बनाने की उम्र बढ़ाने के लिए जो सबसे बड़ा तर्क दिया गया था वह यही कि पुरुषों के मामले में अगर वयस्क होने की उम्र 18 साल निर्धारित है तो फिर महिलाओं के मामले में यह 16 साल क्यों रहनी चाहिए? उस वक्त सिविल सोसायटी की ओर से जो लोग सहमति से संबंध बनाने की उम्र 18 वर्ष का प्रावधान करने की मांग कर रहे थे उनका सबसे बड़ा तर्क यही था कि ऐसा प्रावधान हो जाने से लड़कियों की मानव तस्करी पर रोक लगाने मेें मदद मिलेगी। निश्चित रूप से यह स्वागतयोग्य कदम था लेकिन अब क्या होगा? अगर सरकार पुरुषों के मामले में यह कानूनी बदलाव करने जा रही है कि 16 वर्ष में रेप जैसे गंभीर मामलों में नौजवान किशोर की बजाय वयस्क माना जाएगा तो फिर लड़कियों के मामले में यह 18 साल कैसे रह पायेगा?

सरकार जो प्रावधान कर रही है उसके पीछे तर्क है कि अगर कोई नौजवान 18 साल से कम उम्र में शारीरिक संबंध बना सकता है तो उसे बाल या किशोर कैसे माना जा सकता है? इसका मतलब एक तरफ सरकार यह मान रही है कि शारीरिक विकास 18 साल से पहले ही ऐसा हो जाता है कि शारीरिक संबंध बन सकते हैं। बस सजा सिर्फ इसलिए दी जानी चाहिए कि ऐसे संबंध अगर असहमति से बनते हैं तो बलात्कार की श्रेणी में गिने जायेंगे और उनकी सुनवाई भी नियमित अदालत में ही होनी चाहिए। सरकार की इस बात को सरासर सही मान लें तो समझ आता है कि सारा संकट सहमति और असहमति के बीच फंसा है। तब सवाल उठता है कि अभी जो कानूनी प्रावधान किये गये हैं उसके मुताबिक 18 साल से कम उम्र की लड़की के साथ सहमति से संबंध बनाना भी बलात्कार के दायरे में आता है। यानी वही सरकार जो नये संशोधन के जरिए एक तरफ यह मानने जा रही है कि 18 साल से कम उम्र में शारिरीक संबंध बनाये जा सकते हैं तो दूसरी तरफ वही सरकार कह रही है कि 18 साल से कम उम्र में शारीरिक संबंध नहीं बनाये जा सकते हैं क्योंकि उस उम्र के पहले तक शरीरिक संबंध बनाने के लिए अविकसित होता है। अगर सहमति से भी ऐसे संबंध बनते हैं तो इसके लिए दोषी नौजवान के लिए अधिकतम उम्रकैद तक का प्रावधान किया गया है। यह सजा तब भी निर्धारित है जबकि यह साबित हो जाए कि संबंध सहमति से बने थे। तो फिर किशोर बलात्कार के ऐसे मामलों में अदालतें क्या फैसला देंगी? लड़के और लड़की के लिए खुद सरकार बालिग और नाबालिग की दो अलग अलग उम्र कैसे कायम रख पायेगी?

इन पहलुओं के अलावा बाल श्रम का भी एक पहलू है जिसके बाद कानूनी रूप से इतने पेंच फंसेंगे कि एक कानून को बदलने के बाद सरकार को कई कानूनों में बदलाव करना होगा। सरकार ने जो नया प्रस्ताव तैयार किया है और जिसे कैबिनेट ने अब मंजूरी दे दी है उस तर्क को स्वामी की याचिका पर सुनवाई करते हुए सुुप्रीम कोर्ट पहले ही अव्यावहारिक करार दे चुका है। फिर आखिरकार सरकार सुप्रीम कोर्ट सलाह को भी दरकिनार करके कानूनी संशोधन क्यों करने जा रही है जबकि स्वामी के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 'संवैधानिक दायरे में सही' होने की बात कही थी। तो क्या एक मनमाफिक फैसले की चाहत में सरकार संवैधानिक दायरे से भी छेड़छाड़ करने जा रही है?

यह सब आनेवाले समय में समय समय पर बहस का मुद्दा बनेगा लेकिन इन कानूनी पहलुओं से परे स्त्री पुरुष की अवस्था को लेकर एक प्राकृतिक पहलू भी है जो किसी कानून से ज्यादा स्त्री पुरुष के जीवन पर लागू होता है। यही वह प्रकृति है जो स्त्री पुरुष की शारीरिक, मानसिक संरचना में फर्क करता है। कानूनन कौन कब वयस्क होता है यह तय कर देने से शरीर की संरचना और प्राकृतिक व्यवस्था पर कोई फर्क नहीं पड़ता है। स्त्री हो कि पुरुष उसके विकास और संसर्ग की अवस्था के निर्धारण के सरकारी प्रयास अप्राकृतिक छेड़छाड़ से कम नहीं हैं। दुनिया के वे देश जो लंबे समय तक ऐसे आदर्शवादी और मनमौजी कानूनों के सहारे अपने आपको आदर्श राज्य बताते रहे हैं अब उन्होंने भी अपने यहां प्रकृति संगत कानून बनाये हैं। नया नया कानूनतंत्र हुए भारत में यह प्रथा अब एक कुप्रथा में बदलती जा रही है कि एक गलती को हम दूसरी गलती से ठीक करने की कोशिश करते हैं। भारत सरकार का ताजा प्रयास और प्रस्ताव उसी कड़ी का एक हिस्सा है।

Sunday, August 3, 2014

केजरीवाल को भीड़ का भरोसा

अभी तीन नहीं बजे थे कि ट्विटर वार शुरू हो गया था। सोशल मीडिया पर अरविन्द केजरीवाल की रैली को लेकर आशंकाएं जतायी जाने लगी थीं कि लोग नहीं आये। नहीं आयेंगे। तत्काल जवाबी कार्रवाई करते हुए अरविन्द केजरीवाल की तरफ से फोटो अपलोड होने लगे कि भीड़ आई है और तीन बजे तक हजारों लोग वहां पहुंच चुके हैं। हालांकि खुद केजरीवाल अभी जंतर मंतर नहीं पहुंचे थे लेकिन केजरीवाल का बैनर थामे भीड़ तो पहुंच चुकी थी। जो लोग केजरीवाल की भीड़ को चुनौती दे रहे थे वे थोड़ी ही देर में चुप हो गये। उनकी तरफ से चुनौती मिलनी बंद हो गयी। क्योंकि अगर मसला सिर्फ भीड़ का ही था तो जंतर मंतर पर आज उस दिन से भी ज्यादा बड़ी भीड़ थी जिस दिन जंतर मंतर ने देश को केजरीवाल दिया।

मिन्टो रोड ब्रिज से गुजरते हुए वहां करीब दर्जनभर बसें दिंखी जिनमें ज्यादातर पर किसी न किसी आप पार्टी के स्थानीय नेता वाला बैनर लगा हुआ था। जाहिर है, यह बस वही भीड़ लेकर जंतर मंतर आयी होगी जो भीड़ को जंतर मंतर छोड़कर कहीं पार्किंग खोज रही थीं। संसद मार्ग पर भी कुछ बसें खड़ीं थीं। उन बसों से आनेवाले लोग भी जंतर मंतर पर जरूर मौजूद रहे होंगे। लेकिन संसद मार्ग भी लोगों से खाली कहां था? दिल्ली के भूगोल पर संसद मार्ग और जंतर मंतर अगल बगल की दो सड़कों का नाम है। कभी कभी लोग जब बड़ी रैलियों का आयोजन करते हैं तो सरकारी तौर पर संसद मार्ग (पार्लियामेन्ट स्ट्रीट) का एक हिस्सा बंद करके वहां रैली करने की इजाजत दे दी जाती है। आज वह हिस्सा भी बंद था और हमेशा की तरह जंतर मंतर भी। अगर भीड़ भर की बात करें तो भीड़ की पूरी भाड़ आई थी। कमोबेश पूरा जंतर मंतर भरा हुआ था। तीन लेयर में लोग बैठे हुए थे। मंच के सामने। मंच से थोड़ी दूर पर लगे एलसीडी स्क्रीन के सामने और एक आखिरी जत्था जो सबसे पीछे था। आसपास की दीवारों, कैंटीन, पानी के टैंकर, यहां तक कि लोगों की सुविधा के लिए खड़े किये गये सचल शुलभ शौचालय पर भी लोग बैठे नजर आ रहे थे। इसके अलावा संसद मार्ग पर चहलकदमी करते समर्थक और मंच के पीछे मौजूद लोगों की तादात अलग से। तीन बजे से साढ़े चार बजे के बीच हो सकता है भीड़ की संख्या ने एक लाख की आबादी को भी पार कर लिया हो लेकिन साढ़े चार बजते बजते अगल बगल का इलाका खाली हो गया था और अब जो लोग थे वे सिर्फ जंतर मंतर रोड पर ही थे।

इसी जंतर मंतर पर 3 अगस्त 2012 को अरविन्द केजरीवाल ने भीड़ के भरोसे ही राजनीतिक भाड़ में प्रवेश का ऐलान किया था। आज दो साल बाद इसी जंतर मंतर पर जब अरविन्द केजरीवाल दोबारा लौटे तो उन्हें यह देखकर जरूर संतोष हुआ होगा कि राजनीतिक भाड़ में प्रवेश के बाद भी दिल्ली की 'भीड़' ने उन्हें निराश नहीं किया है। 

तादात क्या रही होगी, पता नहीं लेकिन भारी उमस और गर्मी के बीच पसीने से तरबदतर इन लोगों को देखकर कोई भी सहज ही अंदाज लगा सकता था कि अब यह जनता वह जनता नहीं है जो भ्रष्टाचार मिटाने किसी आंदोलन का समर्थन करने आई है। उसे अब अन्ना हजारे की चाह भी नहीं है। यह वह आम आदमी है जो अरविन्द केजरीवाल की समर्थक है। उस पार्टी से जुड़ी हुई जिसकी शुरूआत 2012 में इसी जंतर मंतर पर ठीक इसी तारीख तीन अगस्त को हुई थी। उस वक्त अन्ना हजारे भी मौजूद थे, लेकिन भीड़ उतनी बड़ी तादात में तब भी न थी जितनी बड़ी तादात में आज नजर आ रही थी। कमोबेश हर सिर पर टोपी थी। वही टोपी जो आम आदमी पार्टी की पहचान बन गई है। यानी जो लोग वहां आये थे वे पार्टी के लिए काम करनेवाले लोग हैं। अगर काम नहीं भी करते हैं तो उन्हें पार्टी का समर्थक होने का अधिकार हासिल है। इसलिए इस भीड़ को सिर्फ मजमा कहकर न तो इसे नकारा जा सकता है और न ही इसे दिल्ली की जनता बताकर इसकी राजनीतिक सोच को कमतर किया जा सकता है। जो लोग आये, वे दिल्ली में आम आदमी पार्टी के समर्थक हैं। कार्यकर्ता हैं। जो इस बात की मजबूत दावेदारी करते हैं कि दिल्ली में आम आदमी पार्टी अब एक स्थाई राजनीतिक वजूद वाली पार्टी बन चुकी है जिसके लिए अब अरुण जेटली को यह कहने की जरूरत नहीं पड़ेगी कि दिल्ली में कोई एक नयी पार्टी आई है जिसके बारे में वे कुछ कहना अपनी राजनीतिक शान के खिलाफ समझते हैं।
अन्ना हजारे और अरविन्द केजरीवाल का आखिरी संयुक्त अनशन हुआ था उसका समापन भी तीन अगस्त 2012 को इस घोषणा के साथ हुआ था कि अब अरविन्द केजरीवाल एक राजनीतिक विकल्प की तलाश करेंगे और अन्ना हजारे उनके मार्गदर्शक बने रहेंगे। तीन महीने में अरविन्द केजरीवाल ने राजनीतिक दल तो बना लिया लिया लेकिन अब अन्ना हजारे उनके मार्गदर्शक नहीं रह गये थे। बाद के दिनों में तो वे आलोचक ही बन गये थे लेकिन 3 अगस्त 2012 को भीड़ के भरोसे अरविन्द केजरीवाल ने जो राजनीतिक यात्रा शुरू की थी आज दो साल बाद ही 3 अगस्त 2014 को उसका असर दिखाई दे रहा था। हालांकि तकनीकि तौर पर भले ही आम आदमी पार्टी की स्थापना उसके बाद की गई हो लेकिन केजरीवाल और उनके साथियों की राजनीतिक भूमिका का ऐलान आज ही के दिन किया गया था इसलिए आप कह सकते हैं कि केजरीवाल की राजनीतिक पार्टी का जन्म अन्ना हजारे की मौजूदगी में आज ही के दिन हुआ था। उसी भीड़ के भरोसे जिस भीड़ को लोकतंत्र में जनता की ताकत कहा जाता है।

हालांकि उस वक्त 3 अगस्त 2012 के कम से कम तीन चेहरे आज नदारद थे लेकिन अब आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ता और समर्थक बन चुके लोगों के उत्साह और जोश में कोई कमी नजर नहीं आ रही थी। उस वक्त हर मंच पर नजर आनेवाले कुमार विश्वास, किरण बेदी और शाजिया इल्मी की कमी केजरीवाल को व्यक्तिगत स्तर पर खले तो खले लेकिन मंच संचालन का जिम्मा अब मनीष सिसौदिया के हाथ में था और मंच पर शाजिया इल्मी की जगह छोटी मायावती कही जानेवाली राखी विड़ला ने ली ली थी। योगेन्द्र यादव, गोपाल राय जैसे पुराने साथियों के अलावा आशुतोष जैसे नये सिपहसालार अब आम आदमी पार्टी की नयी नेतृत्व पंक्ति हैं। इसलिए भीड़ को इससे कोई फर्क न तब पड़ा था कि नेता की जगह कौन कौन है और न ही आज दिखाई दिया कि नेता की जगह कौन कौन है। उसे तब भी अरविन्द केजीरावल से ही मतलब था। उसे अब भी अरविन्द केजरीवाल से ही मतलब है। इसलिए देर से ही सही जब केजरीवाल के मंच पर आने की घोषणा की जाती है तो भीड़ में नया जोश आ जाता है और दोनों हाथ उठाकर उनका इस्तकबाल करती है।

इन दो सालों में अरविन्द केजरीवाल और उनकी पार्टी ने जितनी तेजी से उतार चढ़ाव देखे हैं यह लोगों के लिए भले ही आश्चर्यजनक हो लेकिन केजरीवाल की कार्यशैली को समझनेवाले लोगों को कोई आश्चर्य नहीं हो सकता। वे तेज चलते हैं। सफलता और असफलता दोनों को दरकिनार करते हुए आगे बढ़ना उनकी नियति है। और इस काम को उन्होंने कभी बंद नहीं किया। न तब जब पहली दफा 2011 के अप्रैल महीने में जंतर मंतर पर ऐसिताहिस भीड़ जुटी थी और न तब जब इसी जंतर मंतर पर अन्ना हजारे भी उन्हें छोड़ गये थे। उस वक्त भी अरविन्द केजरीवाल ने भीड़ के भरोसे ही भाड़ में प्रवेश किया था और आज भी वे उस बढ़ती हुई भीड़ के भरोसे ही नयी नयी चुनौतियां सामने रखते जा रहे हैं। इन दो सालों में जय पराजय, सफलता, असफलता, दिल्ली बनारस का उनका एक छोटा उतार चढ़ाव आया है लेकिन ऐसा लगता है कि अब वे लोग इन उतार चढ़ावों से बाहर निकल आये हैं। शायद उन्हें अपनी औकात का अंदाज भी हो गया है इसलिए अब सारा जोर सिर्फ वहां हैं जहां से कुछ राजनीतिक सफलता के परिणाम निकल सके। फिर वह चाहे दिल्ली हो कि हरियाणा और पंजाब। कहने के लिए मंच से भले ही मनीष सिसौदिया यह कहते रहें कि उन्हें सत्ता नहीं चाहिए वे तो व्यवस्था बदलना चाहते हैं लेकिन हकीकत यही है कि उन्हें व्यवस्था बदलने के लिए ही सत्ता चाहिए। पूरी रैली के दौरान बार बार 49 दिनों का जिक्र हो कि दिल्ली में अपनी बढ़ती ताकत का पुर्वानुमान, ये दोनों ही बातें ये साबित करती हैं कि वे दिल्ली में दोबारा जल्द से जल्द चुनाव चाहते हैं। और शायद दिल्ली भी दोबारा चुनाव ही चाहती है। कम से कम वहां मौजूद समर्थक भीड़ तो इस बात की तस्दीक कर ही रही थी।

Thursday, July 31, 2014

इराक में हरी हुई हथियारों की खेती

जिस वक्त इराक में आइसिस के चरमपंथी उत्तरी इराक पर कब्जा करते हुए आगे बढ़ रहे थे, उस वक्त एक बहुत मामूली सी घटना अमेरिकी में भी घट रही थी जिसका इराक से गहरा नाता था। जून के पहले हफ्ते में अमेरिका ने इराक को पहला फाइटर जेट एफ-16 (डी) सौंप दिया था। और अब उसे इराक ले जाना था, जहां अमेरिका में ही ट्रेनिंग पाये पायलट उसे उड़ाने का अभ्यास करनेवाले थे। लेकिन वह पहला (और शायद आखिरी भी) एफ-16 लड़ाकू विमान इराक पहुंचता इससे पहले ही आइसिस के चरमपंथियों ने उत्तरी इराक पर कब्जे की शुरूआत कर दी। जून के दूसरे हफ्ते में जैसे ही आइसिस के चरमपंथी आगे बढ़ने लगे इराक के प्रधानमंत्री नूर अल मलीकी ने अमेरिका से पहली गुजारिश की। जल्दी से एफ-16 भेजिए। अमेरिका ने सुनकर अनसुना कर दिया। वह अकेला एफ-16 (डी) फाइटर जेट भी इराक पहुंचा कि नहीं, पता नहीं लेकिन इराक और अमेरिका के बीच कुल 36 एफ-16 लड़ाकू विमान खरीदने का जो सौदा हुआ था, वह आईसिस के हमले के कारण खटाई में पड़ गया।

हालांकि अमेरिका ने अपने जंगी बेड़े जार्जबुश को फारस की खाड़ी में तत्काल तैनात जरूर कर दिया लेकिन उस बेड़े में खड़े एफ-18 लड़ाकू विमान जंगी बेड़े पर खड़े के खड़े ही रह गये। इराक की कुछ खबरों में यह जरूर कहा गया कि जंगी जहाज इराक के आसमान पर मंडराये जरूर लेकिन बम बारूद गिराने की बजाय उन्होंने सिर्फ हवाई सर्वेक्षण किया और वापस लौट गये। इराक की सरकार के लिए यह बहुत असहज स्थिति थी। एक तरफ जब हमर गाड़ियों में सवार आइसिस के चरमपंथी बगदाद पर चढ़े आ रहे थे, खाली हाथ खड़ा इराक क्या कर सकता था? हवाई हमले ही वह जरिया थे जब इराक की सरकार चरमपंथियों को तुरंत पीछे खदेड़ सकती थी, लेकिन इराक युद्ध के बाद इराक का हवाई बेड़ा पूरा हवा हवाई है। इराक के पास ऐसा कुछ नहीं है जिसके बूते वह अपने आपको 'हवाई ताकत' कह सके। 2004 में कुल तीन दर्जन लोगों को लेकर दोबारा खड़ी की गई इराक की हवाई सैन्य क्षमता पूरी तरह से अमेरिका के भरोसे थी, लेकिन एक दशक बाद जैसे ही इराक संकट में फंसा ऐन मौके पर अमेरिका ने इराक को धोखा दे दिया।

सद्दाम के खात्मे के साथ ही इराक को दोबारा खड़ा करने का जिम्मा उन्हीं दो प्रमुख देशोंं को मिला जिन्होंने सद्दाम के शासन को समाप्त किया था। अमेरिका और ब्रिटेन जैसे मित्र देश। अमेरिका सैन्य साजो सामान पर ध्यान देने लगा तो ब्रिटेन ने लोकतंत्र के निर्माण का ठेका ले लिया। हालांकि 2004 में दोबारा से इराक के पुनर्निमाण में जुड़ी अप्रशिक्षित राजनीतिक जमात ने इन दो देशों के अलावा कुछ और देशोंं की तरफ देखना शुरू कर दिया जिसमें रूस सबसे अहम था। शुरू के दो तीन साल तो कुछ खास नहीं थे लेकिन 2007 में इराक ने रुस की तरफ सैन्य साजो सामान के लिए हाथ बढ़ाना शुरू कर दिया। सद्दाम युग में अमेरिका से हुई दुश्मनी के बाद इराक में हथियारों की ज्यादातर खेती फ्रांस और रुस ने ही की थी। मिग लड़ाकू विमान से लेकर टी-72 टैंक तक रूस हथियारों के लिए इराक का सबसे बड़ा सौदागर था। इराक वार में भी अमेरिका ने असल में सद्दाम हुसैन से नहीं बल्कि रूसी सैन्य साजो सामान से ही सामना किया और दुर्भाग्य से इराक में रुस अमेरिका का सामना नहीं कर पाया।

2003 में सद्दाम के सफाये के बाद पूरी दुनिया में यह बात सामने आई कि इराक में अमेरिका ने तेल के लिए एक छद्म युद्ध लड़ा और सद्दाम को समाप्त कर दिया लेकिन यह बात बहुत नहीं कही गयी कि एक युद्ध के बाद उसने दूसरे युद्ध के साजो सामान बेचने का ठेका भी चाहिए था। 2004 में ही शुरू हुए पुनर्निर्माण प्रक्रिया में इराक ने अमेरिका को ठेकादारी देनी शुरू भी कर दी जिसमें नये टैंक, मिसाइल और लड़ाकू विमान सबकी सप्लाई शामिल थी। लेकिन इराक का राजनीतिक तकाजा ऐसा था कि उसे सिर्फ अमेरिका के ही भरोसे नहीं रहना था। इसलिए रूस और यूक्रेन की तरफ उसने दोबारा देखना शुरू कर दिया। हो सकता है ऐसा इसलिए भी हुआ हो कि अमेरिका की तरफ से ट्रेनिंग और हथियारों की सप्लाई में देरी हो रही थी या फिर यह भी हो सकता है कि इराक में एन्टी अमेरिकी सेन्टिमेन्ट पूरी तरह से अमेरिका पर निर्भर होने से रोक रहा हो। कारण जो भी हो, इराक की आजादी के साथ ही इराक में अमेरिका के लिए नये सिरे से संकट के दिन शुरू हो गये थे। इस बार संकट सद्दाम नहीं बल्कि वे अल मलीकी नजर आ रहे थे जिन्हें अमेरिकी रणनीतिकारों ने ही इराक का प्रधानमंत्री बनने में मदद की थी।

अभी हालात संभलते कि इराक पर आइसिस का हमला हो गया। अब बहुत सारे लोग यह सवाल भी उठा रहे हैं कि इराक पर आइसिस के इस कब्जे के पीछे भी कहीं न कहीं अमेरिकी खुफिया एजंसियां सक्रिय हैं क्योंकि सीरिया आइसिस अमेरिका संदिग्ध गठजोड़ के प्रमाण सामने आ चुके हैं। तो क्या अमेरिकी हथियार लॉबी ने ही आइसिस को इराक की तरफ आगे बढ़ने के लिए धकेला ताकि नूर अल मलीकी को रास्ते से हटाकर इराक में नये तरह का राजनीतिक माहौल तैयार किया जा सके जो इराक में लोकतांत्रिक तरीके से अमेरिकी हितों की रक्षा कर सके? हालात तो कुछ ऐसे ही परिणाम सामने रखते हैं। अमेरिका द्वारा पहले राजनीतिक समाधान की शर्त, फिर अग्रिम राशि लेने के बाद भी लड़ाकू विमानों की आपूर्ति पर रोक और इराक के कहने पर भी आतंकियों पर हवाई हमले करने से इंकार कर देना ऐसे संदेह पैदा करते हैं कि आइसिस संकट के जरिए अमेरिका इराक में कोई और समाधान खोज रहा है। लेकिन इस समाधान में भी सबसे बड़ा संकट बना अल मलीकी का वह निर्णय जो उन्होने युद्ध के दौरान ले लिया। रूस से लड़ाकू विमानों की सप्लाई।

जून के आखिरी हफ्ते में इराक ने रूस को उसी 12 सुखोई-25 लड़ाकू विमानों का आर्डर दे दिया जो कभी इराक की वायुसेना का हिस्सा होती थी। 28 जून को आधिकारिक रूप से आर्डर दिया गया और 1 जुलाई को ये लड़ाकू विमान रूस पहुंच गये और जुलाई के पहले हफ्ते से उन्होंने आइसिस चरमपंथियों के खिलाफ मुहिम की शुरूआत भी कर दी। इसका नतीजा यह हुआ कि पूरे जुलाई के महीने में इराकी सेना ने आइसिस आतंकियों पर निर्णायक बढ़त बनाना शुरू कर दिया और हर रोज इराकी सैनिक आइसिस पर भारी पड़ने लगे। इराक की तरफ से जो दो सैन्य विमान इस अभियान में शामिल किये गये थे वे दोनों ही इराक को रूस की देन थे। एमआई सीरीज के अटैक हेलिकॉप्टर और सुखोई लड़ाकू विमान। अगर आप बीते दस साल का इराक सैन्य साजो सामान की सप्लाई का अध्ययन करेंगे तो पायेंगे अमेरिका ने इराक की हवाई आक्रमण की क्षमता को बढ़ने नहीं दिया है। अमेरिका की तरफ से जितने भी सैन्य साजो सामान की आपूर्ति की गई है वह ज्यादातर सैन्य परिवहन, मेन्टेनेन्स और निर्माण से जुड़ी हुई है। तो क्या अमेरिका जानबूझकर इराक को सैन्य की आक्रमण की क्षमता से लैस नहीं होने देना चाहता था? तब तक जब तक कि राजनीतिक रूप से उसका पूरा नियंत्रण न हो जाए?

कारण जो भी हो लेकिन अल मलीकी ने रूस की तरफ जो कदम बढ़ाया था अब वह एक अरब डॉलर के नये समझौते में तब्दील हो गया है। रूस के ही एक अखबार ने दावा किया है कि इराक संकट के बीच इराक के रक्षामंत्री सदायूं अल दुमैनी ने रूस की एक गुपचुप यात्रा की है और इराक तथा रूस के बीच एक अरब डॉलर के रक्षा समझौते को मंजूरी दे दी है। इसमें इराक मुख्य रूप से सुखोई के 10 नये उन्नत लड़ाकू विमान, रॉकेट लांचर और मिसाइल लांचर हासिल करेगा। रूस इराक को यह हथियार कब देगा इसकी जानकारी तो नहीं दी गई है लेकिन गृहयुद्ध में फंसे इराक के लिए इस सैन्य साजो सामान की अदायगी में रूस वैसी ही फुर्ती जरूर दिखायेगा जैसा सुखोई-25 विमानों की डिलिवरी के मामले में किया गया। अगर इराक को आइसिस के आतंकियों से लड़ने के लिए तत्काल हथियार चाहिए तो रूस को भी अपना खोया हुआ इराक चाहिए। और रूस के प्रवेश का असर यह हुआ है कि अमेरिका ने भी इराक के लिए रुकी पड़ी हेलफायर मिसाइलों की सप्लाई शुरू कर दी है। इराक और अमेरिका के बीच इस मिसाइल सप्लाई का ही सौदा 700 मिलियन डॉलर का है। जाहिर है, इराक की जंग अमेरिका और रूस जैसे हथियार के सौदागरों के लिए सुनहरा मौका लेकर आई है। रेत के बीच हथियारों की नयी खेती लहलहाने लगी है, और खुद इराक घूम फिरकर फिर वही खड़ा हो गया है जहां से आगे जाने की कोशिश वह बीते चार दशकों से कर रहा है।

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