Thursday, February 28, 2013

अबूझ भाषा का आम बजट

ट्वेंटी थर्टीन फोर्टीन। हो सकता है आपको एकदम से यह फिगर समझ में न आये लेकिन वे आसानी से समझ जाएंगे जो जीरो को भी ओ..ओ.. बोलते हैं। कुछ कुछ वैसे ही जैसे थर्टी सिक्स, ट्वेंटी फोर थर्टी सिक्स कहने भर से वे जान जाते हैं कि बोलनेवाला क्या बोल रहा है। कुछ कुछ इसी अंदाज में 28 फरवरी को अपना बजट भाषण पढ़ते हुए हमारे वित्त मंत्री जी ने पूरे छप्पन बार इस जादुई आंकड़े ट्वेंटी थर्टीन फोर्टीन का उच्चारण किया। ज्यादा परेशान हुए बिना जान लीजिए वित्तमंत्री जी के इस ट्वेंटी थर्टीन फोर्टीन का सीधा सा मतलब होता है 2013-14। है न थोड़ी अबूझ सी पहेली जैसा मामला। एक तो जिन्हें बिना वर्तनीवाला भाषा नहीं आती, उनके पल्ले तो वह भी नहीं पड़ेगा जो वे डेढ़ दो घण्टे बोलते रहे लेकिन जिन्हें बिना वर्तनी वाला आंग्ल भाषा आती भी हो वे भी थोड़ा चकराये होंगे कि वित्त मंत्री जी ने साल की गणना करने का यह कौन सा अंक शास्त्र विकसित कर लिया है?

अंग्रेजी में भी अगर 2013-14 का उच्चारण करना हो तो बड़ा लंबा बवाल कटता है। उन्हें बार बार बोलना पड़ता 'इन द इयर आफ टू थाउजेण्ट थर्टीन एण्ड फोर्टीन।' लफड़े वाला काम है। वैसे भी किसी रेल मंत्री या वित्त मंत्री के लिए सालभर का काम उतना दुखदायी नहीं होता है जितना दुखदाई उसका वह एक दिन होता है जिस दिन उसे संसद में खड़े होकर सरेआम बजट भाषण पढ़ना पड़ता है। संसदीय आचरण और नियमावली का सवाल है नहीं तो हमारे रेलमंत्री या वित्त मंत्री यह भी कर सकते हैं कि स्पीकर द्वारा नाम पुकारे जाने के बाद अन्य कार्यविधियों की तरह यह भी कह सकते हैं कि "बजट सदन पटल पर रख दिया है।" और काम खत्म। लेकिन लोकाचार जो न करवाये। शायद इसी लोकाचार की मजबूरियों के बीच हमारे स्मार्ट वित्तमंत्री जी ने एक ऐसा फिगर चार्ट आउट कर लिया जो कम से कम उनकी जबान को कोई तकलीफ भी नहीं देता था और पहले ही अबूझ पहेली लगनेवाले बजट को पूरा पूरा अबूझमाड़ बना देता है।

अंग्रेजों से आजाद हुए भारत का पहला अंतरिम बजट पेश करते हुए देश के पहले वित्त मंत्री एनटी षणमुगम चेट्टी 26 नवंबर 1947 को जो पहला बजट भाषण पढ़ा था वह उसी भाषा में था जिस भाषा का इस्तेमाल कमोबेश आजाद भारत के हर वित्तमंत्री ने किया है। बिना वर्तनीवाला भाषा। षणमुगम चेट्टी से लेकर पी चिदम्बरम तक हमारे वित्त मंत्री जिस भाषा में अपना बजट भाषण पढ़ते हैं वह भाषा ही देश के डेढ़ दो प्रतिशत लोगों की समझ में आती है। इसलिए इस पहले पायदान से ही स्वतंत्र भारत की आर्थिक हाल का अहवाल करनेवाले बजट से सीधे 98 प्रतिशत लोग अलग हो जाते हैं। कोई वित्तमंत्री सम्माननयी सदस्यों के बीच खड़े होकर क्या बोल रहा है और लोग क्या समझ रहे हैं उसकी बला से। आम आदमी के लिए पेश किया जा रहा आम बजट हमेशा से आम आदमी के लिए बेकार की बात होकर रह जाता है। ऐसे आम आदमी जो उस दिन टीवी चैनल पर या फिर अगले दिन अखबारों में आम बजट की कुछ झलकियां पा ही लेते हैं उनके लिए अब दूसरी मुसीबत खड़ी होती है।

यह मुसीबत भाषा से भी बड़ी होती है। यह मुसीबत है आंकड़ों और शब्दावली की मुसीबत। हिन्दी की तो छोड़िये इस आर्थिक शब्दावली के समानार्थी कोई शब्द किसी भी भारतीय भाषा में नहीं मिलते हैं। कमोबेश हर भाषा में हमारी सरकारी मंत्रालयों ने बड़ी मेहनत करके आर्थिक शब्दावलियां गढ़ी हैं। जैसे अंग्रेजी के इनफ्लेशन को हिन्दी में मुद्रास्फीति बना दिया गया है। इन्फ्लेशन न समझ आये यह तो समझ में आता है लेकिन यह मुद्रास्फीति कितने लोगों को समझ में आती है? मुद्रा का मुद्दा तो ठीक लेकिन यह स्फीति? और फिर मुद्रा के साथ मिलकर स्फीति की स्थिति बड़ी दयनीय दशा प्रकट कर देती है। कुछ कुछ लाहौल स्फीती जैसा आभास होने लगता है जो हमारे जेहन से बहुत दूर होता है। लेकिन अकेला मुद्रास्फीति ही संकट नहीं है। जादुई भाषा में आंकड़ों की ऐसी बाजीगरी छिपी होती है कि समझने के लिए भारत देश ने लंबे समय में विशेषज्ञों की लंबी चौड़ी फौज खड़ी कर दी है। ठीक वैसे ही जैसे कानून को समझने के लिए कानूनविदों की पौध रोपी गई वैसे ही अर्थव्यवस्था को समझने के लिए अर्थशास्त्रियों की लंबी चौड़ी फौज खड़ी की गई। अब खड़ी की गई या फिर खड़ी हो गई, निर्णय करना मुश्किल है लेकिन फौज सामने खड़ी तो दिखाई ही देती है।

सचमुच हम सब अद्भुद लोकतांत्रिक ग्रह के प्राणी हैं। इस लोकतांत्रिक ग्रह का नाम भले ही भारत हो लेकिन इस ग्रह की सरकारों और उन सरकारों के सरोकारों का उस भारत से ही कोई लेना देना नहीं होता है जिस ग्रह पर ग्रहण होने का दावा करते हैं। हमारी अर्थ वित्त की व्यवस्था हो या फिर न्याय प्रशासन की, हमने हर जगह एक अबूझ सा तिलिस्म खड़ा कर रखा है। ऐसा तिलिस्म जो इस देश की अधिसंख्य जनता से पूरा अछूता होता है। जिसे देखते ही आम आदमी डरकर उससे इतनी दूर भागता है कि लौटकर दोबारा कभी झांकने नहीं आता। इस तिलिस्माई स्वभाव से हमारा बजट भी अछूता नहीं है।

जैसे ही देश की सर्वोच्च संसद में आम बजट का भाषण पूरा होता है विशेषज्ञ अपनी अपनी कटार पर धार लगाकर हाजिर हो जाते हैं। पहले अखबारों में आने के लिए एकाध दिन का इंतजार करना पड़ता था। अब तो तत्काल टीवी पर हाजिर, वेब पर नाजिर। ऐसे तिलस्मी बजट भाषणों की भाषा, शब्दावली और आंकड़े किसी आम आदमी के बूते के बाहर की बातें होती हैं। इसलिए विशेषज्ञ लोग कठिन, कठोरतम और उच्चतम अर्थसूत्र को परिभाषित करते हैं। अर्थ की जो ज्ञानगंगा सीधे आसमान से उतरती है वह विशेषज्ञों की जटाओं में शरण पाती है। फिर विशेषज्ञ लोग जितना जरूरी होता है उतना धरती की ओर प्रवाहित करते हैं ताकि आम आदमी का आम बजट उस आम आदमी को भी थोड़ा बहुत समझ में आ जाए जिसके नाम पर यह सारा गोरखधंधा किया जाता है। लेकिन बाजीगरी अकेले वित्त मंत्रालय या फिर उसके मुखिया वित्तमंत्री ही करते हों ऐसा कहां होता है। जो बाजीगरी बची रह जाती है उसे विपक्ष के नेतागण और विशेषज्ञ मिलकर पूरा करते हैं। जो विपक्ष हो चुके होते हैं उनके लिए बजट हमेशा आम आदमी का विरोधी होता है और जो सत्ता पक्ष में होते हैं उनके लिए इससे बेहतर कुछ नहीं हो सकनेवाला बजट होता है। विशेषज्ञ इसमें थोड़ी तटस्थ भूमिका जरूर निभाते हैं लेकिन अर्थ का अनर्थ करते करते वे खुद ही खो जाते हैं। सिरा सुलझाते सुलझाते वे कहां पहुंच जाते हैं, खुद उन्हें ही पता नहीं होता तो सुननेवाले को क्या खाक समझ में आयेगा।

बजट में रुचि पैदा करने में सरकार की भले ही सिरे से अरुचि हो लेकिन थोड़ा बहुत कोशिश हमारे मीडियावाले जरूर करते हैं। कई बार बजट को समझाने के लिए वे कुछ तिलस्मी कहानी गढ़ने का सहारा लेते हैं। मसलन वित्त मंत्रालय में एक महीने तक कोई आफिस से बाहर नहीं जाता है। सबका खाना भी वहीं आता है और सोने का इंतजाम भी पर किया जाता है। इसी तरह जहां बजट को छापकर किताब तैयार की जाती है उस जगह भी बड़ी सख्ती रखी जाती है। और खोजी पत्रकारिता होती है तो यह भी बताया जाता है कि वह प्रिटिंग प्रेस जिस पर बजट छपता है वह कहीं तहखाने में लगी हुई है। अब आम बजट में आम आदमी की कोई रुचि हो न हो, ऐसे खोजी किस्सों में उसकी चट से चटोरी रूचि पैदा हो जाती है। आम आदमी के बीच बजट चर्चा में इसलिए नहीं आता है कि सरकार क्या बकबका रही है। आम आदमी के बीच बजट की चर्चा इन्हीं जासूसी कहानियों की वजह से होती है। इसलिए मीडियावालों की इस भूमिका की निश्चित रूप से ही सराहना करनी चाहिए कि अपनी खोजी पत्रकारिता के बूते कम से कम वे आम बजट में आम आदमी की थोड़ी बहुत रुचि पैदा करने में कामयाब होते हैं।

नहीं तो इस देश के आम आदमी को न तो इन सरकारों से कोई मतलब होता है और न इनकी योजनाओं और परियोजनाओं से। उसकी अपनी देश दुनिया इनकी देश दुनिया से निरा अलग होती है। वह वोट देता है, ताली बजाता है और इनके हर काम काज में शरीक भी होता दिखाई देता है लेकिन वह सब इसलिए नहीं कि उसे किसी लोकतंत्र को बहुत मजबूत करना है या फिर अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाना ले जाना है। उसके लिए लोकतंत्र एक बड़ा सुरुचिपूर्ण तमाशा है जो किस्सो कहानियों से निकलकर जमीन पर उतर आया है। तमाशे में बिना पैसे के शामिल होकर मजा लेने का मौका मिले तो भला कौन छोड़कर आगे बढ़ जाएगा? लेकिन ऐसा भी नहीं है कि तमाशेबाज को तमाशबीन की इस मानसिकता का पता नहीं है। उसे खूब पता है कि भारत के बजट का मतलब भारत सरकार के बजट से ही होता है लेकिन देखिए छह दशक में आज तक किसी विशेषज्ञ ने इस नजरिये से बजट को देखा है क्या? तमाशेबाज भी आला दर्जे का है। उसकी भाषा और शब्दावली ही आसमान से नहीं उतारी गई है, वह अपनी समझ और मानसिकता भी आसमान से ही उड़ाकर लाता है। इसलिए हर सरकार अपनी कमाई और खर्चों के हिसाब किताब को आम आदमी का बजट बताती है और विशेषज्ञ ऐनक लगा लगाकर उसमें आम आदमी की भलाई खोजते रहते हैं। आज तक की संख्या को शामिल कर लें तो अब तक 81 बार यह सब हो चुका है और आगे भी अनवरत जारी रहेगा। लेकिन अर्थशास्त्र के इस पहाड़ से पार पाने और बजट के अबूझमाड़ में गोता लगाने के लिए आम आदमी को उस दिन तक इंतजार करना पड़ेगा जिस दिन तक हम व्यवस्था के लिहाज से यूरोप और भाषा के लिहाज से अमेरिका में तब्दील नहीं हो जाते।

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