Thursday, December 10, 2015

धमकी, चमकी और बातचीत

धमकी, चमकी और फिर बातचीत। भारत पाकिस्तान के बीच बीते बीस सालों से यही दिख रहा है। लेकिन इन बीस सालों में एक महत्वपूर्ण बदलाव आया है। खासकर कारगिल वार के बाद। अब बातचीत भारत की नहीं बल्कि पाकिस्तान की मजबूरी बन गयी है। कारगिल वार के बाद जहां पाकिस्तान सैन्य स्तर पर कमजोर हुआ है वहीं भारत की ताकत कई गुना बढ़ी है। आर्थिक मोर्चे पर भी पाकिस्तान भारत के सामने कहीं नहीं ठहरता। इन दो बातों के मद्देनजर पाकिस्तानी हुक्मरान जानते हैं कि भारत के साथ युद्ध कोई विकल्प नहीं बचा है। सैंतालिस, पैंसठ और इकहत्तर का दुस्साहस अब चाहकर भी पाकिस्तान नहीं कर सकता। ऐसे में भारत के साथ बातचीत के अलावा कोई विकल्प भी नहीं है।

लेकिन एक पेंच है। पाकिस्तान भारत से ही अलग होकर एक देश बना है जिसके मूल में टू नेशन थ्योरी है। ये टू नेशन हैं हिन्दू और मुसलमान। पाकिस्तान के हुक्मरान इस बात को पैंसठ साल में पचा नहीं पाये हैं कि एक देश बन जाने के बाद रिलिजन स्टेट सब्जेक्ट नहीं रह जाता। न तो आप रिलिजन के आधार पर देश चला सकते हैं और न ही सरकार। वो भी ऐसे देश को जहां मुसलमानों में रिलिजियस मेजोरिटी और माइनरिटी का बड़ा बंटवारा हो। पाकिस्तान की करीब आधी आबादी बरेलवी मुसलमानों की है। लेकिन बरेलवी मुसलमानों की बड़ी आबादी के बाद भी देओबंदियों की जमात सेना से लेकर प्रशासन और रिलिजियस एक्टिविटी तक सब जगह हावी हैं। ये देओबंदी जिस रेडिकल इस्लाम को तवज्जो देते हैं न तो वह बरेलवी को पसंद है और न ही शिया या अहमदिया को।

लेकिन भारत के साथ जब जब रिश्तों की बात आती है ये देओबंदी पाकिस्तान पर हावी हो जाते हैं। पाकिस्तान में जब भी भुट्टो खानदान कुर्सी पर रहा है भारत के साथ उसके संबंध उतने तल्ख नहीं रहे हैं क्योंकि तब पॉलिसी मेकिंग और उस पर अमल पाकिस्तान के शिया मुसलमान करते हैं।  लेकिन जैसे ही पाकिस्तान में रेडिकल देओबंदी हावी होते हैं टू नेशन थ्योरी को लागू करने लगते हैं। शरीफ परिवार सत्ता में आने के बाद कितनी भी शराफत दिखा ले लेकिन सत्ता में आने और बने रहने के लिए कट्टरपंथी देओबंदियों को अपने साथ मिलाकर रखता है।

सेना में देओबंदियों की दखल का नतीजा यह है कि भारत के साथ बातचीत की किसी पहल में वही टू नेशन थ्योरी आड़े आ जाती है जो बांग्लादेश बनने के साथ ही खत्म हो गयी थी। पाकिस्तान को ही नहीं भारत के हुक्मरानों को भी पाकिस्तान से बात करते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि पाकिस्तान की बहुसंख्यक आबादी कट्टर नहीं बल्कि सेकुलर है। हाफिज सईद या सेना के कमांडर पाकिस्तान नहीं है। इससे परे एक बहुत बड़ा पाकिस्तान है जो भारत से आवाजाही का रिश्ता चाहता है। रही बात पाकिस्तान की तो उसे आज नहीं तो कल इस टू नेशन थ्योरी के ख्वाब से बाहर निकलना ही होगा। नहीं निकलेगा तो जिस थ्योरी पर वह बना था वही थ्योरी उसे बिगाड़ भी देगी। हिन्दू और मुसलमान न तो कल दो राष्ट्र थे, न आज हैं और न आगे कभी होंगे।

इसलिए इधर नरेन्द्र मोदी हों कि उधर नवाज शरीफ। राजनीतिक रूप से दोनों ही रेडिकल हिन्दुत्व और रेडिकल इस्लाम की नुमांइदगी करते हैं। सत्ता में आने के लिए दोनों ने ही चरमपंथियों का इस्तेमाल किया है। अगर इधर कट्टरपंथी हिन्दूवाद की नाव पर बैठकर पूंजीवादी पतवार के सहारे मोदी सत्ता तक पहुंचे हैं तो उधर नवाज शरीफ ने भी यही किया है। पाकिस्तानी पंजाब के कुछ आतंकी संगठनों ने इस चुनाव में शरीफ को सपोर्ट किया था जिसमें लश्कर चीफ हाफिज सईद भी है और लश्कर-ए-झांगवी का सरगना मलिक इशहाक भी था। मलिक इशहाक अपनी मूर्खताओं के कारण मारा गया जबकि चालाक हाफिज सईद अभी भी मुरिदके से लाहौर, इस्लामाबाद और रावलपिंडी तीनों जगह अपनी दखल रखता है।

लेकिन नवाज और मोदी दोनों में एक दूसरी समानता भी है। दोनों अपने अपने देश में व्यापारी वर्ग का प्रतिनिधित्व भी करते हैं। इसलिए जैसे एक चालाक व्यापारी धार्मिक भावनाओं का इस्तेमाल व्यापारिक संभावनाओं के लिए करता है वैसे ये दोनों भी कर रहे हैं। इसमें कोई शक नहीं कि शरीफ भी मोदी की तरह पाकिस्तान का विकास चाहते हैं। लेकिन दोनों की मजबूरी यह है कि कट्टरपंथ के जिस घोड़े पर सवार होकर सत्ता तक पहुंचे हैं वह घोड़ा उनके दरवाजे पर  खड़ा है।

इसलिए अगर ये दोनों "शरीफ" बात करना चाहते हैं तो इसका स्वागत ही करना चाहिए। लेकिन दोनों बात ही करते रहेंगे इसकी उम्मीद भी मत करिए। दोनों को फिर से चुनाव में जाना है, और दोनों को अच्छी तरह पता है कि दरवाजे पर खड़ा उनका कट्टरपंथी घोड़ा अभी भी हिनहिना रहा है।

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