Thursday, February 7, 2013

हवा में हवा हवाई

अपना देश महज दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र भर नहीं है। वह दुनिया का सबसे बड़ा हथियारों की खरीदार देश भी है। हो सकता है इस बात में कोई अतिश्योक्ति नजर न आये कि जितना बड़ा देश होगा उतना ही बड़ा उसका रक्षा बजट होना चाहिए इसलिए वह दुनिया आधुनिक हथियार और गोला बारूद खरीदता रहता है। लेकिन अतिश्योक्ति अगर इस बात में नहीं है तो अतिश्योक्ति इसी बात में छिपी हुई है कि आखिर हम पिछले चार साल में 36 बिलियन डालर (1.93 खरब रूपये) रक्षा खरीद पर खर्च करके साबित क्या करना चाहते हैं? क्या वास्तव में भारत सरकार अपने देश को किसी भी कीमत पर अत्याधुनिक रक्षा उपकरणों से लैस करना चाहती है या फिर डीफेन्स डील की सच्चाई कुछ और होती है? बंगलौर में शुरू हुए एयरो इंडिया शो के दौरान रक्षा मंत्री ने मजबूरी में ही सही इतना तो कहा है कि आयात से ज्यादा उत्पादन पर जोर देने की जरूरत है लेकिन भारत में रक्षा खरीदारों की दबिश और प्रभाव को देखते हुए लगता नहीं है कि भारत इस दिशा में कुछ खास करने की मनस्थिति रख पायेगा।

थल, जल और वायु सेना में अगर हम सिर्फ वायु सेना का आंकलन करें तो जो तस्वीर सामने उभरती है वह हैरान करनेवाली है। अगर दुनिया में भारत हथियारों का सबसे बड़ा खरीदार है तो निश्चित रूप से हथियारों के सौदागर सबसे ज्यादा भारत में ही डेरा डालकर बैठे होंगे। दुनिया के विकसित देश जो पश्चिम की तरफ बसे हैं, उनका असली धंधा नून तेल बेचना नहीं है। वे तो वह दिखावे के लिए करते हैं। उनका असली कारोबार हथियारों का सौदा है और उनकी सरकारें तथा कंपनियां दुनियाभर में घूम घूमकर सिर्फ हथियार ही बेचती हैं। ऐसे में अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा भारत आयें, फ्रांस के राष्ट्रपति आयें या फिर रूस के राष्ट्रपति। वे सब भारत जब भी भारत आते हैं तो कोई न कोई बड़ा रक्षा सौदा हथिया कर वापस जाते हैं। मसलन, बराक ओबामा आये थे तो 4.5 अरब डॉलर का रक्षा सौदा हथियाकर अमेरिका वापस गये थे। उनकी इस कामयाबी का फायदा अमेरिका को मिला रक्षा प्रतिष्ठान में काम कर रहे हजारों लोगों की नौकरी जाने से बच गई। इसी तरह अभी पिछले दिसंबर में रूस के राष्ट्रपति पुतिन भारत आये थे। दिल्ली में जारी कोहराम के बीच पुतिन का यह लगभग गुमनाम सा दौरा 4.5 अरब डॉलर के रक्षा खरीदारों का गवाह बन गया। फ्रांस के संगदिल राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी जब भारत आये थे तो उनका मकसद अपनी प्रेमिका पत्नी कार्ला ब्रूनी के बारे में बताना बिल्कुल नहीं था। फ्रेंच राष्ट्रपति की लॉबिंग का ही नतीजा था कि भारत ने अब तक के इतिहास के सबसे बड़े रक्षा समझौते को अंजाम दिया और फ्रांस से 126 फाइटर जेट खरीदने का सौदा तय कर लिया। कुछ दिनों में फ्रांस के राष्ट्रपति फ्रैंकोज हौलेण्डे फिर भारत आनेवाले हैं। उनका मकसद इस डील को डिलीवरी में तब्दील करना रहेगा।

अमेरिका, यूरोप, रूस या फिर इजरायल ऐसे देश या समूह हैं जो दुनिया के सबसे बड़े हथियारों के सौदागर हैं, और इन सौदागरों का सबसे बड़ा खरीदार है भारत। वर्तमान समय में अकेले भारतीय वायुसेना के आधुनिकीकरण के नाम पर भारत सरकार ने कमर कस रखी है आइये जरा उसका लेखा जोखा लेते हैं। फ्रांस के साथ जिस फाइटर प्लेन राफाले का समझौता हुआ है वह अकेले 20 अरब डॉलर का है। इस समझौते के तहत फ्रांस की डसां कंपनी भारत को 126 फाइटर प्लेन की आपूर्ति करेगी। अगर जून तक समझौते को अंतिम रूप दे दिया जाता है तो तीन साल के भीतर डसां कंपनी पहला फाइटर प्लेन भारत को सौंप देगी। शुरू के 18 फाइटर जेट डसां कंपनी निर्मित करेगी बाकी के प्लेन भारत में ही बनाये जाएंगे। इसके लिए भारत की सरकारी कंपनी हिन्दुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड को फ्रेंच कंपनी टेक्नॉलाजी ट्रांसफर करेगी। असल में यह टेक्नॉलाजी ट्रांसफर ही वह मुद्दा था जिसके कारण अमेरिकी सैन्य कंपनियां उस बोली में पिछड़ गई थीं जिसमें डसां ने बाजी मार ली थी। अमेरिका की लाकहीड मार्टिन कंपनी द्वारा बनाये जानेवाले एफ-16 और बोइंग द्वारा बनाये जानेवाले एफ 18 विमानों के प्रति भी भारत ने उस वक्त अपना रुझान दिखाया था लेकिन लॉकहीड मार्टिन कंपनी टेक्नॉलाजी ट्रांसफर करने के लिए तैयार नहीं थी इसलिए भारत ने अमेरिका की बजाय फ्रांस का रुख किया। फिर भी ऐसा नहीं है कि भारत ने अमेरिका को पूरी तरह निराश कर दिया हो। इस वक्त अमेरिकी रक्षा उत्पादक कंपनियों के साथ जो भारत के विभिन्न समझौते हैं उसके तहत भारत अमेरिका से सैनिक परिवहन विमान सी-17 ग्लोबमास्टर और सी 130 जे सुपर हरक्युलिस खरीद चुका है। इसमें सी130 जे सुपर हरक्युलिस की तैनाती भी दिल्ली से सटे हिण्डन एयरबेस पर हो चुकी है और सी17 विमानों की आपूर्ति जून 2013 तक हो जाएगी। दोनों सौदे संयुक्त रूप से 5.7 अरब डॉलर के हैं। इसके अलावा अमेरिका के ही हॉकर सिडली कंपनी से भारत सरकार 2.4 अरब डॉलर खर्च करके 55 एचएस 78 परिवहन विमान की खरीदारी का सौदा अलग से कर चुकी है। इसके साथ ही भारत 2 अरब डॉलर खर्च करके बोइंग और मैकडोनॉल्ड डगलस द्वारा संयुक्त रूप से निर्मित किये जानेवाले अपाचे अटैक हेलिकॉप्टर भी खरीदने जा रहा है। समझौता हो चुका है और भारत सरकार 22 अटैक हेलिकॉप्टर अमेरिका से खरीदेगा।

रक्षा उत्पादों के मामले में रुस अमेरिका से भी बड़ा सौदागर है। रूस के साथ भारत का रक्षा व्यापार सबसे बड़ा है। रूस ऐसा देश है जो सबसे ज्यादा भारत के रक्षा आयुध का व्यापार करता है। आज हम जिसे भारत की वायुसेना कहते हैं, अगर ठीक से देखें तो यह रूस की वायुसेना नजर आयेगी। भारतीय वायुसेना के पास वर्तमान समय में जो सबसे उन्नत लड़ाकू विमान सुखोई का एसयू 30 एमकेआई है वह रूस का ही बना हुआ है। सुखोई के बाद मिकोयान कंपनी के बने मिग 21 और मिग 29 विमान भारत की प्रतिरक्षा के लिए दूसरे सबसे बड़े हथियार हैं। ये फाइटर प्लेन भी भारत ने रूस से ही खरेदे हैं। भारत के पास इस वक्त 146 सुखोई एसयू 30 और 68 मिग 29 सैन्य विमान सेवा में हैं। विमानों के अलावा एमआई 8 और एमआई 17 हेलिकॉप्टर भी रूस की ही देन हैं जो इस वक्त भारतीय वायुसेना की रीढ़ हैं। अब तीन दशक पुराने हो चुके एमआई-8 और एमआई 17 हेलिकॉप्टरों को बदलने के लिए भारत ने रूस की उसी एमआई मास्को हेलिकॉप्टर प्लान्ट को नये आर्डर दिये हैं जिसके दिये गये हेलिकॉप्टरों से भारत अपनी सीमाओं की सुरक्षा करता रहा है। भारत ने एमआई-8 हेलिकॉप्टरों को बदलने के लिए आधुनिक एमआई 171 और एमआई 17 हेलिकॉप्टरों को बदलने के एमआई 17V5 हेलिकाप्टरों को खरीदने का समझौता कर चुका है। दोनों समझौते क्रमश: 405 मिलियन डॉलर और 1.2 बिलियन डॉलर के हैं।

रूस और अमेरिका के अलावा अब फ्रांस इजरायल को पीछे छोड़ते हुए भारत के लिए तीसरा सबसे बड़ा डिफेन्स सप्लायर बनने जा रहा है। भारतीय वायुसेना के मिराज श्रेणी के विमान उसी डसां कंपनी के दिये हुए हैं जिसके साथ भारत अब राफाले विमान का सौदा करने के कगार पर है। भारत के साथ रक्षा व्यापार करनेवालों में इजरायल और इटली भी अब अहम किरदार निभाने लगे हैं। विमानन क्षेत्र में ही इटली की आगस्टा कंपनी भारत के साथ 560 मिलियन यूरो का वैस्टलैण्ड हेलिकॉप्टर समझौता कर चुकी है जिसके तहत वह एडब्लू 101 हेलिकॉप्टर भारत को सप्लाई करेगी। इजरायल फाइटर जेट के क्षेत्र में तो नहीं लेकिन टोही विमान और द्रोन विमानों की सप्लाई में वह भारत के साथ व्यापार करता है। बराक श्रेणी की मिसाइल और अब सर्फेस टू एयर मिसाइल के सौदे को शामिल कर लें तो भारत करीब 13 हजार करोड़ रूपये का सौदा इजरायल से करके बैठा है। भारत के भीमकाय रक्षा बाजार के ये एक हिस्से वायुसेना की बहुत छोटी सी पड़ताल है। इसी तरह थल सेना और नौसेना के लिए भी इन्हीं देशों से बड़े बड़े रक्षा सौदें किये जाते हैं और भारत के आम आदमी की कमाई से दुनिया के कुछ सबसे ताकतवर देशों की अर्थव्यवस्था को संभालने का काम किया जाता है।

लेकिन इन सबके बीच भारत में पिछले कुछ समय से ऐसा प्रचारित किया जाता रहा है मानों वायुसेना के क्षेत्र में भारत अपने दम पर कोई बहुत तरक्की कर ली है। वायुसेना के क्षेत्र में तेजस परियोजना भारत सरकार की निश्चित रूप से सबसे महत्वाकांक्षी और अब तक की सबसे सफल परियोजना है। यह विमान अब लिमिटेड सीरीज प्रोडक्शन (एलएसपी) केटेगरी में पहुंच गया है और इस केटेगरी में 16 विमानों का निर्माण किया जा रहा है। अभी भी तेजस लड़ाकू विमान को फाइनल क्लियरेन्स मिलना बाकी है और अब जीई कंपनी द्वारा इंजन दिये की बात करने के बाद इतना कहा जा सकता है कि अगले तीन सालों में यह विमान वायुसेना में कम से कम अपनी एक स्क्वार्डन बना लेगा। डीआरडीओ की सहयोगी संस्था एडीए और एचएएल द्वारा संयुक्त रूप से विकसित किये गये मध्यम श्रेणी के बहुउद्देश्यीय लड़ाकू विमान तेजस की सफलता के पीछे भारत ने कोई बहुत बड़ी पूंजी लगा दी हो ऐसा भी नही हैं। कुल परियोजना 1.2 अरब डॉलर की है। अगर भारत के भारी भरकम रक्षा सौदों को देखें तो यह रकम कोई ऐसी बड़ी रकम नहीं है जिसे बहुत बड़ी रकम कहा जाए। और फिर इस परियोजना पर काम करते हुए तीस साल बीत गये हैं। रक्षा अनुसंधान के लिहाज से यह कोई बहुत ज्यादा समय नहीं होता लेकिन भारत की जरूरतों के लिहाज से यह जरूरत से ज्यादा वक्त है। भारत ने जिस मिग-21 विमानों को हटाने के लिए एलसीए प्रोग्राम शुरू किया था अभी भी वह मिग विमान सेना से रिटायर नहीं हुआ है। गाहे बेगाहे वह कहीं किसी खेत में गिरकर किसी न किसी पायलट की जान लेता रहता है। जबकि उसी श्रेणी के भारत में निर्मित अजीत स्ट्राइकर जेट को 1991  में ही रिटायर किया जा चुका है. भारत के स्वदेशी लड़ाकू विमानों में अजीत एक महत्वपूर्ण उपलब्धि थी लेकिन वह न तो कभी किसी युद्ध में शामिल हो सका और न उसे लंबा जीवन हासिल हो सका.

इसी तरह ध्रुव सीरीज के हेलिकॉप्टर और अब लड़ाकू हेलिकॉप्टर रुद्र परियोजनाओं के पीछे की कहानी है। भारत एक तरफ तो रूस, अमेरिका और इटली से हेलिकॉप्टरों का अरबों डॉलर का सौदा करता है लेकिन खुद भारत में लंबी अवधि की परियोजनाओं पर काम नहीं करता है। तेजस लड़ाकू विमान की ही तरह ध्रुव सीरीज के हेलिकॉप्टर भारतीय वैज्ञानिकों की सफलता की अद्भुद कहानी जरूर हैं लेकिन अकेले ध्रुव हेलिकॉप्टर से भारत की रक्षा जरूरतें दूर दूर तक पूरी नहीं होती हैं। भारत ने एक झटके में अमेरिका से अपाचे अटैक हेलिकॉप्टर का सौदा कर लिया लेकिन खुद इसी श्रेणी में भारत के लड़ाकू हेलिकॉप्टर की परियोजना कहां है? जिस दिन भारत में एयरो इंडिया 2013 शुरू हुआ उस दिन दो ध्रुव हेलिकॉप्टरों को भारतीय वायुसेना में शामिल करने की शुरूआत की गई। लेकिन असल कहानी क्या है? फिलहाल दूर दूर तक कॉम्बैट हेलिकॉप्टरों के भारतीय वायुसेना या नौ सेना में शामिल होने की गुंजाइश नहीं है। भारत के पास चीता और चेतक सीरीज के जो आयातित हेलिकॉप्टर हैं उनको बदलने के लिए एचएएल ने प्रोग्राम तो बना रखे हैं लेकिन वे प्रोग्राम भी अभी बहुत प्राथमिक स्तर पर हैं। हेलिकॉप्टर में अगर ध्रुव सीरीज के हेलिकॉप्टर को छोड़ दें तो बाकी सभी परियोजनाएं पूरा होने में लंबा वक्त लेगीं। तो क्या इतना लंबा वक्त भारत के पास है कि वह इन परियोजनाओं के पूरा होने का इंतजार कर सके? बिल्कुल नहीं।

और वक्त की कमी यही वह तर्क है जो भारत को एक सशक्त रक्षा खरीदार में तब्दील कर देता है। ऐसा नहीं है कि भारत में रक्षा उत्पादन के क्षेत्र में परियोजनाओं पर काम नहीं हो रहा है लेकिन भारत सरकार अपने देश में चलनेवाली परियोजनाओं को पूंजी देकर पूरा कराने की बजाय विदेशों से हथियारों की खरीदारी को प्राथमिकता देती है और हर वक्त उसका यही बहाना होता है कि स्वदेशी परियोजनाओं में विलंब हो रहा रहा है ऐसे में रक्षा जरूरतों को ध्यान में रखते हुए खरीदारी बेहद जरूरी है। दुनिया में जिस तेजी से एविएशन सेक्टर आगे जा रहा है उस दुनिया में लाइट कॉम्बैट एविएशन में दखल रखकर भारत बहुत कुछ हासिल करने की स्थिति में कभी नहीं रहेगा। दुनिया के लड़ाकू विमानों की दुनिया में जब स्टील्थ विमानों का आगाज हो चुका हो तब महज तेजस या ध्रुव तारा दिखाकर भारत सरकार भले ही अपने नागरिकों को यह समझाने में कामयाब हो जाए कि रक्षा क्षेत्र में हम तरक्की कर रहे हैं लेकिन हकीकत यही है कि ऐसी परियोजनाओं से भारत की रक्षा जरूरतों को न तो कभी पूरा किया जा सकता है और न ही भारतीय पूंजी को दुनिया के उस रक्षा बाजार में जाने से बचाया जा सकता है जिनके लिए आतंकित दुनिया सपनों का स्वर्ग होता है। अगर हम स्वदेशी रक्षा निर्माण क्षेत्र में अपने पैरों पर खड़े होते हैं तो सिर्फ गौरव और सम्मान भर हासिल नहीं होता बल्कि हम इतनी बड़ी मात्रा में पूंजी बचाते हैं कि देश की बाकी जरूरतों के लिए हमें पूंजी का रोना शायद ही रोना पड़े।

No comments:

Post a Comment

Popular Posts of the week