Sunday, August 3, 2014

केजरीवाल को भीड़ का भरोसा

अभी तीन नहीं बजे थे कि ट्विटर वार शुरू हो गया था। सोशल मीडिया पर अरविन्द केजरीवाल की रैली को लेकर आशंकाएं जतायी जाने लगी थीं कि लोग नहीं आये। नहीं आयेंगे। तत्काल जवाबी कार्रवाई करते हुए अरविन्द केजरीवाल की तरफ से फोटो अपलोड होने लगे कि भीड़ आई है और तीन बजे तक हजारों लोग वहां पहुंच चुके हैं। हालांकि खुद केजरीवाल अभी जंतर मंतर नहीं पहुंचे थे लेकिन केजरीवाल का बैनर थामे भीड़ तो पहुंच चुकी थी। जो लोग केजरीवाल की भीड़ को चुनौती दे रहे थे वे थोड़ी ही देर में चुप हो गये। उनकी तरफ से चुनौती मिलनी बंद हो गयी। क्योंकि अगर मसला सिर्फ भीड़ का ही था तो जंतर मंतर पर आज उस दिन से भी ज्यादा बड़ी भीड़ थी जिस दिन जंतर मंतर ने देश को केजरीवाल दिया।

मिन्टो रोड ब्रिज से गुजरते हुए वहां करीब दर्जनभर बसें दिंखी जिनमें ज्यादातर पर किसी न किसी आप पार्टी के स्थानीय नेता वाला बैनर लगा हुआ था। जाहिर है, यह बस वही भीड़ लेकर जंतर मंतर आयी होगी जो भीड़ को जंतर मंतर छोड़कर कहीं पार्किंग खोज रही थीं। संसद मार्ग पर भी कुछ बसें खड़ीं थीं। उन बसों से आनेवाले लोग भी जंतर मंतर पर जरूर मौजूद रहे होंगे। लेकिन संसद मार्ग भी लोगों से खाली कहां था? दिल्ली के भूगोल पर संसद मार्ग और जंतर मंतर अगल बगल की दो सड़कों का नाम है। कभी कभी लोग जब बड़ी रैलियों का आयोजन करते हैं तो सरकारी तौर पर संसद मार्ग (पार्लियामेन्ट स्ट्रीट) का एक हिस्सा बंद करके वहां रैली करने की इजाजत दे दी जाती है। आज वह हिस्सा भी बंद था और हमेशा की तरह जंतर मंतर भी। अगर भीड़ भर की बात करें तो भीड़ की पूरी भाड़ आई थी। कमोबेश पूरा जंतर मंतर भरा हुआ था। तीन लेयर में लोग बैठे हुए थे। मंच के सामने। मंच से थोड़ी दूर पर लगे एलसीडी स्क्रीन के सामने और एक आखिरी जत्था जो सबसे पीछे था। आसपास की दीवारों, कैंटीन, पानी के टैंकर, यहां तक कि लोगों की सुविधा के लिए खड़े किये गये सचल शुलभ शौचालय पर भी लोग बैठे नजर आ रहे थे। इसके अलावा संसद मार्ग पर चहलकदमी करते समर्थक और मंच के पीछे मौजूद लोगों की तादात अलग से। तीन बजे से साढ़े चार बजे के बीच हो सकता है भीड़ की संख्या ने एक लाख की आबादी को भी पार कर लिया हो लेकिन साढ़े चार बजते बजते अगल बगल का इलाका खाली हो गया था और अब जो लोग थे वे सिर्फ जंतर मंतर रोड पर ही थे।

इसी जंतर मंतर पर 3 अगस्त 2012 को अरविन्द केजरीवाल ने भीड़ के भरोसे ही राजनीतिक भाड़ में प्रवेश का ऐलान किया था। आज दो साल बाद इसी जंतर मंतर पर जब अरविन्द केजरीवाल दोबारा लौटे तो उन्हें यह देखकर जरूर संतोष हुआ होगा कि राजनीतिक भाड़ में प्रवेश के बाद भी दिल्ली की 'भीड़' ने उन्हें निराश नहीं किया है। 

तादात क्या रही होगी, पता नहीं लेकिन भारी उमस और गर्मी के बीच पसीने से तरबदतर इन लोगों को देखकर कोई भी सहज ही अंदाज लगा सकता था कि अब यह जनता वह जनता नहीं है जो भ्रष्टाचार मिटाने किसी आंदोलन का समर्थन करने आई है। उसे अब अन्ना हजारे की चाह भी नहीं है। यह वह आम आदमी है जो अरविन्द केजरीवाल की समर्थक है। उस पार्टी से जुड़ी हुई जिसकी शुरूआत 2012 में इसी जंतर मंतर पर ठीक इसी तारीख तीन अगस्त को हुई थी। उस वक्त अन्ना हजारे भी मौजूद थे, लेकिन भीड़ उतनी बड़ी तादात में तब भी न थी जितनी बड़ी तादात में आज नजर आ रही थी। कमोबेश हर सिर पर टोपी थी। वही टोपी जो आम आदमी पार्टी की पहचान बन गई है। यानी जो लोग वहां आये थे वे पार्टी के लिए काम करनेवाले लोग हैं। अगर काम नहीं भी करते हैं तो उन्हें पार्टी का समर्थक होने का अधिकार हासिल है। इसलिए इस भीड़ को सिर्फ मजमा कहकर न तो इसे नकारा जा सकता है और न ही इसे दिल्ली की जनता बताकर इसकी राजनीतिक सोच को कमतर किया जा सकता है। जो लोग आये, वे दिल्ली में आम आदमी पार्टी के समर्थक हैं। कार्यकर्ता हैं। जो इस बात की मजबूत दावेदारी करते हैं कि दिल्ली में आम आदमी पार्टी अब एक स्थाई राजनीतिक वजूद वाली पार्टी बन चुकी है जिसके लिए अब अरुण जेटली को यह कहने की जरूरत नहीं पड़ेगी कि दिल्ली में कोई एक नयी पार्टी आई है जिसके बारे में वे कुछ कहना अपनी राजनीतिक शान के खिलाफ समझते हैं।
अन्ना हजारे और अरविन्द केजरीवाल का आखिरी संयुक्त अनशन हुआ था उसका समापन भी तीन अगस्त 2012 को इस घोषणा के साथ हुआ था कि अब अरविन्द केजरीवाल एक राजनीतिक विकल्प की तलाश करेंगे और अन्ना हजारे उनके मार्गदर्शक बने रहेंगे। तीन महीने में अरविन्द केजरीवाल ने राजनीतिक दल तो बना लिया लिया लेकिन अब अन्ना हजारे उनके मार्गदर्शक नहीं रह गये थे। बाद के दिनों में तो वे आलोचक ही बन गये थे लेकिन 3 अगस्त 2012 को भीड़ के भरोसे अरविन्द केजरीवाल ने जो राजनीतिक यात्रा शुरू की थी आज दो साल बाद ही 3 अगस्त 2014 को उसका असर दिखाई दे रहा था। हालांकि तकनीकि तौर पर भले ही आम आदमी पार्टी की स्थापना उसके बाद की गई हो लेकिन केजरीवाल और उनके साथियों की राजनीतिक भूमिका का ऐलान आज ही के दिन किया गया था इसलिए आप कह सकते हैं कि केजरीवाल की राजनीतिक पार्टी का जन्म अन्ना हजारे की मौजूदगी में आज ही के दिन हुआ था। उसी भीड़ के भरोसे जिस भीड़ को लोकतंत्र में जनता की ताकत कहा जाता है।

हालांकि उस वक्त 3 अगस्त 2012 के कम से कम तीन चेहरे आज नदारद थे लेकिन अब आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ता और समर्थक बन चुके लोगों के उत्साह और जोश में कोई कमी नजर नहीं आ रही थी। उस वक्त हर मंच पर नजर आनेवाले कुमार विश्वास, किरण बेदी और शाजिया इल्मी की कमी केजरीवाल को व्यक्तिगत स्तर पर खले तो खले लेकिन मंच संचालन का जिम्मा अब मनीष सिसौदिया के हाथ में था और मंच पर शाजिया इल्मी की जगह छोटी मायावती कही जानेवाली राखी विड़ला ने ली ली थी। योगेन्द्र यादव, गोपाल राय जैसे पुराने साथियों के अलावा आशुतोष जैसे नये सिपहसालार अब आम आदमी पार्टी की नयी नेतृत्व पंक्ति हैं। इसलिए भीड़ को इससे कोई फर्क न तब पड़ा था कि नेता की जगह कौन कौन है और न ही आज दिखाई दिया कि नेता की जगह कौन कौन है। उसे तब भी अरविन्द केजीरावल से ही मतलब था। उसे अब भी अरविन्द केजरीवाल से ही मतलब है। इसलिए देर से ही सही जब केजरीवाल के मंच पर आने की घोषणा की जाती है तो भीड़ में नया जोश आ जाता है और दोनों हाथ उठाकर उनका इस्तकबाल करती है।

इन दो सालों में अरविन्द केजरीवाल और उनकी पार्टी ने जितनी तेजी से उतार चढ़ाव देखे हैं यह लोगों के लिए भले ही आश्चर्यजनक हो लेकिन केजरीवाल की कार्यशैली को समझनेवाले लोगों को कोई आश्चर्य नहीं हो सकता। वे तेज चलते हैं। सफलता और असफलता दोनों को दरकिनार करते हुए आगे बढ़ना उनकी नियति है। और इस काम को उन्होंने कभी बंद नहीं किया। न तब जब पहली दफा 2011 के अप्रैल महीने में जंतर मंतर पर ऐसिताहिस भीड़ जुटी थी और न तब जब इसी जंतर मंतर पर अन्ना हजारे भी उन्हें छोड़ गये थे। उस वक्त भी अरविन्द केजरीवाल ने भीड़ के भरोसे ही भाड़ में प्रवेश किया था और आज भी वे उस बढ़ती हुई भीड़ के भरोसे ही नयी नयी चुनौतियां सामने रखते जा रहे हैं। इन दो सालों में जय पराजय, सफलता, असफलता, दिल्ली बनारस का उनका एक छोटा उतार चढ़ाव आया है लेकिन ऐसा लगता है कि अब वे लोग इन उतार चढ़ावों से बाहर निकल आये हैं। शायद उन्हें अपनी औकात का अंदाज भी हो गया है इसलिए अब सारा जोर सिर्फ वहां हैं जहां से कुछ राजनीतिक सफलता के परिणाम निकल सके। फिर वह चाहे दिल्ली हो कि हरियाणा और पंजाब। कहने के लिए मंच से भले ही मनीष सिसौदिया यह कहते रहें कि उन्हें सत्ता नहीं चाहिए वे तो व्यवस्था बदलना चाहते हैं लेकिन हकीकत यही है कि उन्हें व्यवस्था बदलने के लिए ही सत्ता चाहिए। पूरी रैली के दौरान बार बार 49 दिनों का जिक्र हो कि दिल्ली में अपनी बढ़ती ताकत का पुर्वानुमान, ये दोनों ही बातें ये साबित करती हैं कि वे दिल्ली में दोबारा जल्द से जल्द चुनाव चाहते हैं। और शायद दिल्ली भी दोबारा चुनाव ही चाहती है। कम से कम वहां मौजूद समर्थक भीड़ तो इस बात की तस्दीक कर ही रही थी।

No comments:

Post a Comment

Popular Posts of the week