Wednesday, April 14, 2010

गांधी कथा के महात्मा गांधी

नारायण भाई देसाई के बारे में अनुपम मिश्र द्वारा दिया जाने वाला परिचय सबसे सटीक है. अनुपम मिश्र कहते हैं - "नारायण भाई ऐसे शख्स हैं जिन्हें पहले गांधी जी ने जाना. उन्होंने तो गांधी जी को बाद में जाना." अनुपम मिश्र बिल्कुल सही कह रहे हैं. गांधी के छायारूप सचिव महादेवभाई देसाई के बेटे नारायण भाई देसाई गांधी की गोद में पलकर बड़े हुए हैं.

 उन्होंने गांधी को एक बड़े पिता के रूप में पाया और कस्तूरबा को मोटी मां (बड़ी मां) के रूप में. इसलिए नारायणभाई देसाई जब महात्मा गांधी के बारे में बोलते हैं तो सुनते हुए मंत्रमुग्ध हुए बिना नहीं रहा जा सकता.  गांधी की गोद में पलकर बड़े होनेवाले नारायण भाई देसाई ने दस साल तक सक्रिय रूप में गांधी जी के साथ काम किया है. इसलिए उन्होंने गांधी को दो स्तरों पर जाना समझा है. एक अभिभावक के रूप में भी और एक महानायक के रूप में भी. खुद गांधी जी के आदर्शों के अनुरूप उन्होंने कोई स्कूली शिक्षा ग्रहण नहीं की है लेकिन 85 साल के जीवन में उन्होंने गांधी के कुछ अधूरे कामों को बहुत मनोयोग से पूरा किया है जिसमें सबसे महत्वपूर्ण है गांधी जी की गुजराती में जीवनी जो कि चार खण्डों में नवजीवन प्रकाशन से प्रकाशित हुई है. नारायण भाई कहते हैं- "गांधी जी की आत्मकथा तो है लेकिन उनकी जीवनी नहीं है. इसलिए अपने पिता की जीवनी लिखने के बाद मैंने तय किया कि गांधी जी की जीवनी भी लिखूंगा."

गांधी जी के बारे में गुजराती में लिखी जीवनी मारू जीवन एज मारो संदेश के लिखने के दौरान ही उन्हें लगा कि इस तरह से मोटे मोटे ग्रंथ लिख देने से गांधी को आम जनता के बीच नहीं ले जा सकता. इसी बीच गुजरात के दंगे हुए जिसने उन्हें और प्रेरित किया कि गांधी के माध्यम से वे लोगों के बीच शांति के दूत बनकर जाएं. नारायणभाई कहते भी हैं कि "गुजरात के दंगों के लिए जितना नरेन्द्र मोदी दोषी हैं उतना ही दोषी एक गुजराती होने के नाते मैं भी अपने आप को मानता हूं कि यह सब गुजरात में हुआ. इसलिए गांधी कथा एक तरह से गुजरात दंगों का प्रायश्चित है." इन दो प्रकार की परिस्थितियों ने 80 साल की उम्र में 2004 में उन्हें गांधी कथा कहने के लिए प्रेरित किया

लेकिन नारायणभाई के सामने संकट यह था कि वे कथा परंपरा को सिरे से ही नहीं जानते समझते थे. नारायणभाई मानते हैं कि उन्हें कथाकारों की शैली का बिल्कुल ही भान नहीं था. फिर भी एक साल तक छोटे छोटे कथा प्रसंगों के माध्यम से अभ्यास किया और साल 2005 में पहली बार गांधी कथा कही वह भी गुजरात के एक आश्रम में. वहां से गांधी कथा कहने का जो सिलसिला शुरू हुआ वह आज तक बदस्तूर जारी है. पांच साल की छोटी अवधि में ही वे अब तक 81 गांधी कथा कह चुके हैं. नारायणभाई की गांधी कथा सुनने से पहले सबसे पहले मन में यही सवाल आता है कि क्या गांधी कथा परंपरा के विषय हो चुके हैं जो गांधी कथा सुनने के लिए जाना चाहिए? यही सवाल हमने नारायणभाई से किया. नारायण भाई का जवाब था-"गांधी उस रूप में कथा परंपरा के हिस्से नहीं हैं जो चमत्कार और अवतारवाद से पैदा होती है. गांधी पुरुषार्थ पुरूष के रूप में कथा परंपरा में आते हैं इसलिए गांधी कथा गांधी को पुरुषार्थ पुरूष के रूप में प्रस्तुत करती है."

गांधी कथा के पहले दिन उन्होंने गांधी को एक पुरुषार्थ पुरुष के रूप में ही परिभाषित किया. गांधी कोई चमत्कार नहीं थे बल्कि परिष्कार थे. पूरे जीवन उन्होंने अपने द्वारा की गयी गलतियों को सुधारा और अपने व्यक्तित्व का उन्नयन किया.

ऐसा समझा जाता है कि गांधी ने पहली बार जीवन में प्रयोग अफ्रीका में अपनी बैरिस्टरी के दौरान किया. लेकिन ऐसा नहीं है. नारायणभाई बताते हैं कि गांधी जी जब बैरिस्टर होने के लिए लंदन गये तो उनकी उम्र 19 साल थी. गांधी जी किसी भी तरह से पोरबंदर छोड़ना चाहते थे इसलिए लंदन जाने का प्रस्ताव आया तो उन्होंने तुरंत स्वीकार कर लिया. लेकिन वहां जाने से पहले उनकी मां ने उनसे तीन वचन लिये थे. ये तीन वचन थे कि शराब नहीं पीयेंगे, मांस नहीं खायेंगे और परस्त्रीगमन नहीं करेंगे. गांधी जी ने अपनी मां को ये तीन वचन दिये थे और लंदन में रहते हुए इन तीनों वचन का दृढ़ता से पालन किया. नारायणभाई बताते हैं कि ऐसे कई मौके आये जब उनके ही साथ रहनेवाले लोगों ने उन्हें वचन तोड़ने के लिए बाध्य किया लेकिन गांधी जी अपने वचन पर विनयपूर्वक अडिग बने रहे. नारायणभाई बताते हैं कि गांधी जी ने वचन पालन का पहला दृढ़ प्रयोग लंदन में किया तब जबकि उनकी उम्र महज 19 साल थी. इसलिए यह कहना कि महात्मा बनने की प्रक्रिया दक्षिण अफ्रीका से शुरू होती है, सही नहीं है. नारायणभाई एक उदाहरण देते हुए बताते हैं कि कैसे महात्मा गांधी ने मंहगा शूट खरीदा, डांस और संगीत सीखने की कोशिश की, वायलिन खरीदा ताकि वे लंदन के समाज के साथ अपना तालमेल बिठा सके. लेकिन तीन महीने के भीतर ही उन्हें आभास हो गया कि वे यहां पढ़ने के लिए आये हैं न कि शानो शौकत और दिखावे की जिंदगी जीने के लिए. इसलिए जैसे ही उन्हें यह आभास हुआ उन्होंने अपने आप को इन सब आडंबरों से अलग कर लिया. नारायणभाई बताते हैं कि यह गांधी जी के आत्मचिंतन द्वारा आत्म परिष्कार का पहला प्रयोग था जो आगे पूरे जीवन उनमें दिखाई देता है.

नारायणभाई बताते हैं कि महात्मा गांधी सांख्य से अनंत की ओर की यात्रा हैं. वे एक ऐसे क्रांतिकारी संत थे जिन्होंने चित्तशुद्धि से समाज शुद्धि और समाज शुद्धि से चित्त शुद्धि का प्रयोग किया. एक ही वक्त में वे क्रांतिकारी के रूप में विध्वंस भी कर रहे थे तो निर्माण की तैयारियां भी कर रहे थे. नारायणभाई कहते हैं कि क्रांतिकारी पुरूष और संत के स्वभाव मुख्यरूप से अलग अलग दो तत्व दिखाई देते हैं. संत निजि उन्नति के लिए प्रयत्नशील रहता है जबकि क्रांतिकारी वह होता है जो समाज की पीड़ा को अनुभव करता है और उनके उत्थान के लिए प्रयास करता है. गांधी के चरित्र में ये दोनों खूबियां एक साथ दिखाई देती हैं.

नारायणभाई इसीलिए गांधी को क्रांतिकारी संत की संज्ञा देते हैं और बताते हैं कि गांधी जी ने अपनी गलतियों को छिपाया नहीं बल्कि उन्हें सार्वजनिक किया ताकि उनका परिष्कार हो सके. निश्चित रूप से नारायणभाई देसाई की गांधी कथा के द्वारा एक नये सरल, सुगम और आसानी से ग्राह्य हो सकने वाले गांधी का प्राकट्य हो रहा है जो सेमिनारी गांधी और सरकारी गांधी समझ से बिल्कुल ही अलग और अनोखा है.

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