इस्लाम असल में एक बाइपोलर व्यवस्था है जिसमें एक साथ दो विरोधाभाषी बातें कही जाती हैं और दोनों ही कुरान का हवाला दे रहे होते हैं। मसलन एक तरफ मुसलमानों का एक वर्ग है जो कहता है कि किसी की जान लेना गैर इस्लामिक है तो ठीक उसी वक्त में एक दूसरा वर्ग इस्लाम के नाम पर लोगों की जान ले रहा होता है।
अब सवाल है कि सही इस्लाम कौन सा है? वह जो किसी की जान लेने को सबसे बड़ा गुनाह बता रहा है या फिर वह इस्लामिक जिहाद के नाम पर लोगों की जान ले रहा है? अगर आप जवाब जानना चाहते हैं और इस्लाम की सर्वोच्च किताब के हवाले से जानना चाहते हैं तो जवाब होगा, दोनों सही है। यह उन दोनों का विरोधाभाष नहीं है बल्कि उस किताब का विरोधाभाष है जो एक ही किताब में दोनों बात कहती है और उस किताब को आसमानी किताब का खिताब देकर उस पर किसी बहस से पूरी तरह रोक लगा देती है।
आखिर क्या कारण है कि बीते हजार बारह सौ सालों में हर एक मुस्लिम आक्रमणकारी ने इस्लाम के नाम पर बड़े से बड़ा कत्लेआम किया और आज भी कर रहे हैं। जबकि ठीक इसके उलट इस्लाम के भीतर दूसरा वर्ग उसी किताब के हवाले से यह भी साबित करता है कि कैसे यह कत्लेआम गैर इस्लामिक है। हमास के एक नेता का बेटा याकूब जब इस्लाम से अलग हुआ तो आज से कुछ साल पहले यही सवाल बार बार टीवी चैनलों से बात करते हुए उठाया था। आज सीरिया और इराक के वे मुसलमान जो भागकर किसी पश्चिमी देश में शरण लेते हैं और अगर इस्लाम से खुद को अलग कर लेते हैं तो वे भी यही सवाल उठाते हैं।
याकूब का वह इंटरव्यू काफी चर्चित हुआ था जिसमें उसने किताब के गॉड (अल्लाह) को सबसे बड़ा आतंकवादी करार दिया था। उसने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया था और अब वह बतौर ईसाई एक गुमनाम लेकिन आजाद जिन्दगी जी रहा है। हो सकता है अल्लाह को सबसे बड़ा आतंकवादी करार देने के पीछे उसकी मानसिकता यह रही हो कि आखिरकार सारी आतंकवादी वारदात किसके नाम पर की जाती हैं? अगर किसी के नाम पर की जाती हैं तो निश्चित रूप से वह सब आतंकवादियों का सरगना होगा।
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