जगदीश शेट्टार इस समय कर्नाटक के उद्योग मंत्री है। कर्नाटक लौटने से पहले वे भाजपा के इकोनॉमिक थिंक टैंक का हिस्सा हुआ करते थे और अटल बिहारी वाजपेयी के दौर में भाजपा की राष्ट्रवादी आर्थिक नीतियां तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाया करते थे। कर्नाटक की राजनीतिक उथल पुथल के बीच वो एक दशक पहले कर्नाटक लौट गये और वहां उन्होंने मुख्यमंत्री पद के लिए अपना दावा ठोंका। बीएस येदियुरप्पा और अनंत कुमार के अलावा जगदीश शेट्टार भी अपना दावा मुख्यमंत्री के रूप में करते रहे लेकिन हाल में जब येदियुरप्पा मुख्यमंत्री बने तो उन्हें उद्योगमंत्री के पद से संतोष करना पड़ा। इन्हीं जगदीश शेट्टार के मंत्रालय ने हाल में ही नयी औद्योगिक नीति की घोषणा की है। इस नयी औद्योगिक नीति के तहत उद्योग मंत्री शेट्टार ने नयी औद्योगिक नीति 2030 में अनिवार्य किया है कि अब कर्नाटक में जो भी पूंजी निवेश आयेगा उसमें 70 से 100 रोजगार प्रतिशत स्थानीय लोगों को देना होगा। ग्रुप सी और डी में तो पूरा का पूरा रोजगार सिर्फ स्थानीय लोगों के लिए ही आरक्षित होगा।
जगदीश शेट्टार ने ऐसा प्रावधान करके स्थानीय कन्नाडिगा को खुश करने का प्रयास किया है। येद्युरप्पा के पूर्ववर्ती मुख्यमंत्री सिद्धारमैया जिन दिनों मुख्यमंत्री थे उन्होंने कन्नाडिगा मूवमेन्ट को बढावा दिया था जिसके मूल में हिन्दी भाषा और हिन्दीभाषियों का विरोध था। उस समय भाजपा ने इस मामले में संभवत: इसलिए चुप्पी साध रखी थी क्योंकि वह न तो कन्नाडिगा समर्थक दिखना चाहती थी और न ही उत्तर भारतीय विरोधी। लेकिन सत्ता में आने के बाद उसका ये ताजा प्रावधान सीधे तौर पर उत्तर भारतीयों को दक्षिण में प्रवेश से रोकना है। सवाल है कि क्या किसी राष्ट्रवादी पार्टी के ऐसे प्रावधान को राष्ट्रहितैषी कहा जा सकता है?
उत्तर दक्षिण के बीच लगातार आर्थिक असमानता बढती जा रही है। सघन औद्योगीकरण उत्तर की बजाय दक्षिण में ज्यादा हुआ है खासकर कथित आर्थिक उदारीकरण की नीति लागू होने के बाद। नब्बे से पहले की सरकारों ने आर्थिक समानता बनाये रखने के लिए उद्योगों को उत्तर दक्षिण के बीच बांट रखा था। समाजवाद के दौर में जब उद्योग धंधे लगाने का काम सरकार स्वयं करती थी तो उसने बहुत असमानता नहीं पैदा होने दिया। लेकिन नब्बे के बाद जैसे ही निजी पूंजी के लिए देश के दरवाजे खोले गये उत्तर और दक्षिण के बीच असमानता बढती चली गयी। इसके लिए उत्तर का राजनीतिक वर्ग सबसे ज्यादा जिम्मेदार है जिसने बदली परिस्थितियों में अपने भीतर कोई बदलाव नहीं किया। ट्रांसफर पोस्टिंग की राजनीति करनेवाले नेता समझ ही नहीं सके कि नव पूंजीवादी व्यवस्था में वही राज्य आगे रहेगा जहां उद्योग रहेंगे। नेताओं का यह समाजवादी हैंगओवर अब समस्या बन गया है क्योंकि दक्षिण में बंगलौर, हैदराबाद और चेन्नई नयी औद्योगिक राजधानी बनकर उभरे हैं। कार का कारोबार जिसे मारुति सुजुकी ने उत्तर भारत से शुरु किया था अब वह दक्षिण की तरफ जा चुका है। हाल में ही टेसला मोटर ने भी उत्तर और पश्चिम भारत को छोड़कर कर्नाटक में अपना निवेश करने का फैसला किया है।
ऐसे माहौल में जब कंपनियां भारत के किसी भी राज्य में पूंजी निवेश के लिए स्वतंत्र हैं तब क्या ऐसी बाध्यता रखना जरूरी है कि नौकरी सिर्फ स्थानीय लोगों को ही मिलना चाहिए? अगर उत्तर के राज्य ये निर्णय लेना शुरु कर दें कि जिन राज्यों में हमारे राज्य के लोगों को नौकरी नहीं मिलती वहां के बने उत्पाद को हम अपने राज्य में नहीं बिकने देंगे तब क्या होगा? क्या इस टकराव से भारत के संघीय ढांचे को नुकसान नहीं पहुंचेगा? नवपूंजीवादी व्यवस्था व्यापार में हर प्रकार के अवरोधों को दूर करने की ही प्रक्रिया था। ऐसे में कर्नाटक जैसे राज्यों द्वारा नये प्रकार का अवरोध पैदा करने से न सिर्फ भारत के संघीय ढांचे को नुकसान पहुंचेगा बल्कि भारत के उदारीकरण की उस पूरी प्रक्रिया को ही उलट देगा जिसकी शुरुआत 1991 में हुई थी। समय रहते केन्द्र सरकार को ऐसे मामलों में दखल देनी चाहिए जो न सिर्फ व्यापार विरोधी निर्णय हैं बल्कि भारत के संघीय ढांचे के साथ भी खिलवाड़ करते हैं।
कोई भी नागरिक रोजी रोटी के लिए लंबी दूरी नहीं तय करना चाहता। सब अपने आसपास और परिवेश में ही रोजगार और अवसर तलाशते हैं, ऐसे में उत्तर के हिन्दीभाषी राज्यों को भी चाहिए कि वो अपने समाजवादी हैंगओवर से बाहर निकलें और उद्योग धंधों तथा कारोबार को महत्व देना शुरु करें। वरना उत्तर दक्षिण के बीच बढता आर्थिक असंतुलन भारत को असंतुलित कर देगा।