Thursday, November 26, 2009

पूंजीवाद को पटखनी देने की कमजोर कोशिश

21 नवंबर को जिस वक्त भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह नई दिल्ली अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे से अपने विशेष विमान द्वारा अमेरका के लिए उड़े तो वहां उन्होंने अगले चार दिनों तक ओबामा प्रशासन के साथ जो तालमेल किया वह भारत में गहराते पूंजीवाद को और मजबूती से धंसाने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम साबित हुआ. खुद अमेरिकी राष्ट्रपति ने स्वीकार किया कि भारत बिनाशक अमेरिका का रणनीतिक साझीदार है.

लेकिन जिस वक्त भारत के प्रधानमंत्री अमेरिका में पूंजीवाद को गहराने की योजनाओं को अंजाम दे रहे थे उसी समय नई दिल्ली में दुनियाभर के कम्युनिस्ट भी इकट्ठा थे. भारत के प्रधानमंत्री से उलट वे पूंजीवाद को पटकने की योजनाओं को साझा कर रहे थे. भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों सीपीआई और सीपीआईएम के लिए यह बहुत ही शानदार मौका था जब वे ग्यारहवें कम्युनिस्ट एण्ड वर्कर सम्मेलन को आयोजित करने के लिए आगे आये. तीन दिनों तक आयोजित किये गये इस अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन के सामने मुख्य रूप से कम्युनिस्ट पार्टियों ने अपने छीजते जनाधार को बचाने और पूंजीवाद के आधार को कमजोर करने की दिशा में विचार विमर्श किया गया. दुनिया के 65-67 देशों के 80 से अधिक कम्युनिस्ट पार्टियों ने इस सम्मेलन में हिस्सा लिया और निश्चित रूप से उन्होंने वही घोषणा की जिसे उन्हें करना चाहिए था. पूंजीवाद को पटक देंगे. सम्मेलन में आये लब्ध प्रतिष्ठित कम्युनिस्टों का इरादा तो नेक है लेकिन पटखनी देने की तमन्ना भी नेक है लेकिन यह काम वे करेंगे कैसे? सीपीआई (एम) के महासचिव प्रकाश कारत ने कहा-"संघर्ष से हम पूंजीवाद को पछाड़ देंगे."

पूंजीवाद को पछाड़ने की यह प्रकाशमयी दहाड़ पूरी तरह से वास्तविक लग सकती अगर पूरी दुनिया में साम्यवाद को आज भी एक बेहतर विकल्प के रूप में देखा जाता. पूर्वी यूरोप और सोवियत संघ के प्रतिनिधि भी इस सम्मेलन में आये थे. और उनकी तकलीफ यह है कि अब स्थानीय जनता उन्हें अतीत का हिस्सा मानने लगी है. प्रकाश कारत ने इस मौके पर आयोजित रैली में कहा भी कि "समाजवाद के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं है और हम इसे लोगों के सामने रखेंगे." लेकिन लोग तो साम्यवाद के तरीके से निकले समाजवाद की ओर अब संभावना भरी नजरों से देखते भी नहीं. खुद भारत में जहां इस साल यह सम्मेलन आयोजित किया गया वहां कम्युनिस्ट पार्टियां कमजोर हुई हैं और हाल में ही बीते लोकसभा चुनाव में कम्युनिस्ट पार्टियों को कुल मिलाकर 25 सीटें हासिल हुई हैं जो कि पिछले लोकसभा चुनाव के 61 के मुकाबले आधे से भी कम है. क्या फिर भी हमें कम्युनिस्ट पार्टियों के इस पवित्र संकल्प पर पुनर्विचार करना चाहिए कि वे पूंजीवाद को पटकने में सक्षम हैं?

जिन प्रमुख देशों के प्रतिनिधि आये उनमें रूस, चीन, जापान, मिश्र, पुर्तगाल, फ्रांस, जर्मनी, वियेतनाम, उत्तर कोरिया, क्यूबा, अर्जेंटीना, वेनेजुएला और ब्राजील से आये प्रतिनिधि भी शामिल थे. कमोबेश इन देशों में पूंजीवाद की वैसी स्वीकार्यता सिद्धांतरूप में नहीं है कि उन्हें अमेरिका का पिछलग्गू कह दिया जाए लेकिन इन देशों में भी विकास का जो माडल काम कर रहा है वह वही है जिसे पूंजीवाद कहते हैं. अभी हाल में ही साम्यवाद के नये नेता चीन ने अपने नये प्रशासन के साठ साल पूरे किये हैं. साठ साल पूरे होने के मौके पर देश के जो कम्युनिस्ट समर्थक चीन गये थे उन्होंने भी चीन की प्रगति और विकास की भूरि भूरि प्रशंसा की. चीन ने विकास का जो माडल अपनाया है वह पूंजीवाद का चरम है. चीनी प्रशासन विकास को जारी रखने के लिए हर प्रकार से नवीनतम तकनीकि को बढ़ावा देता है और औद्योगीकरण का वह स्वरूप सामने रखता है जिसमें केन्द्रीकरण, बाजार पर अधिपत्य, समाज और पर्यावरण का विनाश तीनों शामिल है. फिर भी वर्तमान समय में चीन न केवल साम्यवादी बना हुआ है बल्कि पूरी दुनिया के साम्यवादियों का आदर्श नेता भी है. भारत से प्रकाशित होने वाले अखबार द हिन्दू के संपादक 60 साला उत्सव को कवर करने जब चीन गये थे और 2 अक्टूबर 2009 को अहोभाव में उन्होंने लिखा था- -"थियामेन चौक पर 33 मिनट तक चले फायरवर्क और नृत्य, गीत, संगीत ने बीजिंग ओलंपिक की याद दिला दी है. जब मैं यह लिख रहा हूं, यहां थियामेन चौक पर शाम काफी जवान है." जवान शाम की मदहोशी में डूबे दुनिया के कम्युनिस्ट वर्कर और समर्थक पूंजीवाद से लड़ने की बात करते तो हैं लेकिन बदले में परिस्कृत पूंजीवाद ही सामने रख देते हैं. यह बिल्कुल वैसे ही है जैसे भारत सरकार महात्मा गांधी को अपना आदर्श मानते हुए भी विकास के वैश्विक मानचित्र पर छा जाने की तमन्ना रखता है.

दिल्ली में कम्युनिस्ट पार्टियों के संकल्प से शायद ही किसी को समस्या हो. लेकिन सवाल यह भी है कि संकल्प करेनवाले आखिर कौन हैं? पिछले तीन चार सालों में साम्यवाद के समसे मजबूत गढ़ पश्चिम बंगाल में औद्योगीकरण को चीन की तर्ज पर जिस तरह से जबरी थोपने की कोशिश की गयी उसकी प्रतिक्रिया इतनी तीव्र है कि सबसे मजबूत गढ़ के ही गिर जाने का खतरा पैदा हो गया है. फिर भी शब्द रूप में ही सही 'पूंजीवाद' का पराजय ही साम्यवादी आंदोलन का आधार है. इस मौके पर आयोजित एक रैली को संबोधित करते हुए सीपीआई के महासचिव ए बी वर्धन ने कहा-"पूंजीवाद का जोर पुरजोर है. वर्तमान समय में भारत में जो पूंजीवादी अजगर संकट बनकर सामने खड़ा है वह कीमतों में आ रही बढ़ोत्तरी है. ऐसा सिर्फ इसलिए हो रहा है क्योंकि भारत में विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की मौद्रिक नीतियों को लागू किया गया है." अभी ए बी वर्धन की बात को पूरी तरह से पचा पायें इससे पहले प्रकाश कारत इसकी अगली कड़ी जोड़ते हैं-"अमेरिका के साथ भारत की बढ़ती नजदीकी हम स्वीकार नहीं करते. न तो रणनीतिक और न ही सामरिक." साम्यवाद का विरोध अमेरिका विरोध पर आकर सिमट जाता है और शायद यही कारण है कि पूंजीवाद को पटकने की उनकी आवाज ध्यानाकर्षण भी नहीं कर पाती है.

फिर भी, पिछले ग्यारह सालों से पूरी दुनिया के कम्युनिस्ट किसी एक साझा मंच पर आ रहे हैं. सोवियत रूस के टूटने के दशकभर बाद 1999 में पुरातात्विक शहर और ग्रीस की राजधानी एथेन्स में ऐसे मेल जोल की शुरूआत की गयी थी. अगले सात सालों तक कुछ देशों के कम्युनिस्ट नेता यहीं मिलते रहे लेकिन सात साल बाद यह निर्णय हुआ कि अब मेलजोल का दायरा ग्रीस से बाहर ले जाना चाहिए. इसके बाद पुर्तगाल, बेलारूस और पिछले साल ब्राजील होते हुए यह आयोजन इस साल भारत में आयोजित किया गया. शुरुआत में विचार विमर्श का मुख्य मुद्दा था कि दुनिया में कमजोर होती कम्युनिस्ट ताकत को कैसे मजबूत किया जाए लेकिन जैसे जैसे समय बीता और लातिन अमेरिकी देशों में कुछ चुनावी सफलताएं मिली कम्युनिस्ट मुलाकातियों का यह सिलसिला धुर अमेरिका विरोध पर आकर ठहर गया. इसकी जरूरत से इंकार नहीं किया जा सकता लेकिन अगर कम्युनिज्म का अगुआ चीन थेमैन चौक पर शाम को उसी पूंजीवाद के परोपकार से शाम जवान करता है जिसका विरोध करता है तो आगे बड़ी दूर तक विरोध सिर्फ एकांगी विरोध ही नजर आता है, विकल्प नहीं.

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