Monday, June 29, 2009

गे परेड

समलैंगिकों ने दिल्ली के जंतर-मंतर पर इकट्ठा होकर जता दिया कि वे अपनी दुनिया में अकेले नहीं है. केवल भारत के ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया की मीडिया ने जिस तरह से समलैंगिकों की समस्या को राष्ट्रीय त्रासदी मानकर प्रचारित किया है उसके बाद भी शर्म न आये अपने अंदर झांककर खोजना चाहिए कि हम इंसान बचे भी हैं या नहीं? अंग्रेजी के सबसे बड़े अखबार ने परेडवाले दिन ही चार पेज गे-जमात के नाम कर दिया. फिर परेड के बाद अगले दिन रिपोर्टिंग के रूप में फ्रण्ट पेज के अलावा अंदर दो पेज और समर्पित किये. अंग्रेजी के चैनलों ने अचानक ही इसे एक राष्ट्रीय मुद्दा बना दिया. बाजी मारी एनडीटीवी ने.

अब प्रिंट के टाईम्स आफ इण्डिया और टीवी के एनडीटीवी के इस गे प्रेम के पीछे क्या है इसको ज्यादा समझने की जरूरत नहीं है. समझना हो तो सिर्फ यह समझिए कि पिछले दो साल में अकेले एनडीटीवी इस मुद्दे पर 22 बार बहस आयोजित करवा चुका है. पिछले दो साल में एनडीटीवी के लिए सबसे बड़ा राष्ट्रीय मुद्दा समलैंगिकता और एड्स ही बने रहे. ऐसा मत समझिए कि एनडीटीवी गे लोगों की पसंदीदा जगह हो सकती है इसलिए भाई बंधुओं की समस्या से टाईम्स आफ इण्डिया और एनडीटीवी दोनों ही पीड़ित हैं. कहानी कुछ और है लेकिन उस पर बाद में आते हैं.

सबसे पहले यह समझने की जरूरत है कि आखिर समलैंगिक लोगों का ऐसा क्या अधिकार है जिसे वे पाना चाहते हैं. देश में एक कानून है 150 साल पुराना. और कानूनों की तरह ही इसे भी अंग्रेजों द्वारा बनाया गया था और जस का तस आज तक लागू होता आ रहा है. इसे ही धारा 377 कहकर बताया जा रहा है. भारतीय दण्ड संहिता की धारा 377 निर्देशित करती है कि अप्राकृतिक यौन संबंध दण्डनीय अपराध हैं जिसमें अप्राकृतिक संबंध बनानेवाले को आजीवन कारावास या फिर दस साल की सजा के साथ फाईन भी हो सकती है. इस धारा की उपधाराओं में इस कानून का विस्तार से वर्णन करते हुए बताया गया है कि अगर कोई व्यक्ति/महिला अप्राकृतिक यौन संबंध स्थापित करता है या करती है तो उसे उपरोक्त सजा प्रदान की जाएगी. ब्रिटिश हुकूमत के खत्म होने के बाद कम से कम इस कानून में संशोधन के बारे में किसी ने कभी सोचा नहीं और इसलिए यह कानून ज्यों का त्यों बना रहा.

लेकिन इस कानून का चुनौतियां लंबे समय से मिल रही हैं. पिछले आठ साल से दिल्ली हाईकोर्ट में एक केस चल रहा है जो सेक्स वर्करों और गे कम्युनिटी के लिए काम करनेवाली संस्था नाज फाउण्डेशन और जैक इंडिया के बीच है. नाज फाउण्डेशन ने दिल्ली हाईकोर्ट में एक याचिका दायर करते हुए मांग की थी कि वह इस कानून को हटाने का आदेश दे क्योंकि इस कानून के कारण एड्स रोकने के काम में बाधा आ रही है. नाज फाउण्डेशन का तर्क था कि क्योंकि समलैंगिक लोगों को कानूनी मान्यता नहीं है इसलिए वे चोरी से संबंध बनाते हैं और एड्स का शिकार हो जाते हैं. अगर कानूनी मान्यता मिल जाए तो ऐसे समलैंगिक लोग खुलकर संबंध स्थापित कर सकेंगे और इनका एक डाटाबेस तैयार हो सकेगा और इनके बीच एण्ड्स की रोकथाम का कार्यक्रम चलाया जा सकेगा. दिल्ली हाईकोर्ट ने उनकी याचिका खारिज कर दी तो नाज फाउण्डेशन सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया. सुप्रीम कोर्ट ने खुद तो सुनवाई करने से इंकार कर दिया लेकिन उसने दिल्ली हाईकोर्ट को आदेश दिया कि वह इस मसले पर पूरी सुनवाई करे.

यहीं से जैक इंडिया लगातार इनके विरोध में अपने पक्ष रख रहा है और अदालत अभी तक किसी नतीजे पर नहीं पहुंची है. जाहिर है मामला अदालत में है तो सरकार भी इस मसले पर कुछ खास नहीं कर सकती. ऐसे में अचानक वीरप्पा मोइली का बयान कोई नासमझी में दिया गया बयान तो नहीं है. और ऐसा भी नहीं है कि वीरप्पा मोइली खुद कोई गे-समर्थक हैं. हकीकत यह है कि गे कम्युनिटी वीरप्पा मोईली के खिलाफ भी जमकर ईमेलबाजी करती है. फिर अचानक ऐसा क्या हुआ कि 150 साल पुराने कानून की याद आ गयी? दिल्ली के टाईम्स आफ इण्डिया ने इस पूरे मामले को राष्ट्रीय मुद्दा बना दिया? आखिर ऐसा क्या है कि एनडीटीवी जैसा संवेदनशील न्यूज चैनल लगातार इस मुद्दे को अभियान की तरह चला रहा है?

इस गे भक्ति का मकसद कुछ और है. मोटे तौर पर इस गे भक्ति के दो कारण हैं. एक, देश के शीर्षस्थ मीडिया घरानों, मनोरंजन उद्योग, व्यापार और नौकरशाही में गे लोगों की संख्या में भारी इजाफा हुआ है. अभी एक हफ्ता पहले ही मध्य प्रदेश में खुलेआम पकड़ा गया एक आईएएस अधिकारी इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है. यही हाल दूसरी जगहों पर भी है. इसलिए इन लोगों का गे लोगों के प्रति नैतिक समर्थन होना कोई असहज करनेवाली बात नहीं है. लेकिन दूसरा और सबसे महत्वपूर्ण कारण है एड्स के नाम पर विदेश से आनेवाला पैसा. नाज फाउण्डेशन जैसी संस्थाएं और मीडिया हाउस एड्स के नाम पर बाहर से आने वाले पैसे पर पलते हैं. धारा 377 इस काम में एक बड़ी बाधा बन रहा है क्योंकि अप्राकृति यौन संबंधों को मान्यता न होने कारण कानूनी रूप से उस फील्ड में एड्स की रोकथाम का पैसा नहीं खर्च किया जा सकता. इसलिए पिछले कुछ सालों में कई सारी गैर-सरकारी संस्थाएं मीडिया घरानों, नौकरशाहों और ऊंचे बैठे रसूखवाले नेताओं के साथ मिलकर इस धारा को खत्म करने की कोशिश कर रहे हैं ताकि एड्स रोकने के नाम पर और अधिक पैसा बाहर से लाया जा सके. 

एक अनुमान के मुताबिक इस समय देश में एड्स की रोकथाम का कोई 5 अरब डालर का कारोबार खड़ा हो चुका है. अब इस कारोबार को विस्तार देने के लिए जरूरी है कि धारा 377 को समाप्त किया जाए. इसलिए गे समर्थक इस एक धारा को खत्म करने के लिए खूब बहस कर रहे हैं. अंग्रेजी अखबारों में गे कम्युनिटी के लिए कैसा समर्थन है इसकी झलक देखनी हो तो हिन्दुस्तान टाईम्स की वह रिपोर्ट देखिए जिसमें कोई पत्रकार बड़ी पीड़ा के साथ लिखता है कि अब वक्त आ गया है कि इस 150 साल पुराने कानून से हम छुटकारा पा ले और इसको कानूनी रूप से दुरूस्त कर लें. उनकी पीड़ा समझी जा सकती है क्योंकि पिछले एक डेढ़ दशक में भारत में भी इलिट वही है जो गे या लेसिबियन होना पसंद करता है. जैसे संपन्न होने के कई पैमाने हैं वैसे ही गे होना भी इलिट होने का एक सबसे बड़ा पैमाना होता है जिसे पाना जरूरी है. रोहित बल जैसे इलिट तो घोषित तौर पर यह कर्म कर रहे हैं और करण जौहर जैसे लोगों के बारे में अफवाहें चलती रहती हैं.

इन अफवाहों और सच्चाईयों के बीच जिस एक कानून को खत्म करने की वकालत की जा रही है वह कानून खत्म होगा तो देश में बलात्कार और अप्राकृतिक यौन संबधों की नये सिरे से व्याख्या करनी होगी जो कि ईमानदारी से की जाए तो फिर वही होगी जो वर्तमान कानून में है. लेकिन देश का इलिट और बिजनेस क्लास अपने हिसाब से सारी व्यवस्था चाहता है फिर उससे किसी भारत जैसे देश की कोई सनातन व्यवस्था भंग हो जाती है तो हो. जो सवाल हर एख नागरिक को सरकार और इन गे समर्थकों से पूछना चाहिए वह यह कि अप्राकृति यौन संबंध को कानूनी जामा पहनाने से पहले तुम्हारी नाक में नकेल क्यों न पहना दी जाए? गे तो परेड करके चले गये. उनके पीछे न जाने कितने समर्थक अभी भी अपनी परेड जारी रखे हुए हैं जिसमें मीडिया घरानों के कुछ पत्रकार और नौकरशाही में बैठे लोग सबसे आगे हैं. अब यह जनता को तय करना है कि इन लोगों को वह कैसे सबक सिखाए?

Thursday, June 25, 2009

नंदन नीलकेणी की राजनीतिक महत्वाकांक्षा

इन्फोसिस के बारे में कहा जाता है कि वह केवल एक व्यापारिक संस्थान भर नहीं है. वह उससे भी अलग कुछ है. इसी बात का प्रमाण उस समय मिल गया जब केन्द्र की कांग्रेस सरकार ने नीलकेणी को देश के महत्वकांक्षी प्रोजेक्ट (एनएयूआई) का अध्यक्ष बनाते हुए उन्हें कैबिनेट मंत्री का दर्जा दे दिया है, और नीलकेणी की राजनीतिक महत्वाकांक्षी को कुछ हद पूरा कर दिया है.


नंदन नीलकेणी इस समय इन्फोसिस के मैनेजिंग डायरेक्टर हैं. नीलकेणी को राजनीति में उसी तरह दिलचस्पी है जैसे नारायणमूर्ति को. हालांकि नीलकेणी की राजनीतिक रूचि आम आदमी के बीच संघर्ष वाली नहीं है और वे प्रशासनिक मामलों में रूचि रखते हैं. लेकिन राजनीतिक गलियारों में उठना बैठना उन्हें भी अच्छा लगता है और कुछ हद तक यह उनकी व्यावसायिक मजबूरी भी है.

लेकिन जब हम इन्फोसिस के बारे में बात करते हैं तो किसी व्यावसायिक घराने की व्यावसायिक वजहों से राजनीति में रूचि एकमात्र कारण नहीं होता है. भारत में नव उदारवादी अर्थव्यवस्था के पहले से परंपरागत व्यावसायिक घरानों से अलग नये तरह के व्यावसायिक घराने पैदा होने शुरू हो गये थे. इनमें सबसे पहला नाम रिलांयस का है. रिलांयस ही वह पहली कंपनी है जिसने देश में जनता के पैसे को व्यवसाय के लिए भरपूर इस्तेमाल किया. भारत में शेयर बाजार का ऐसा व्यापक उपयोग रिलांयस से पहले किसी ने नहीं किया था और शेयर बाजार सिर्फ एक समुदाय के सट्टेबाजी का अड्डा भर हुआ करता था. जबकि सहारा समूह कारपोरेट को परिवार की शक्ल देकर कारपोरेट दुनिया के सामने एक नयी नजीर प्रस्तुत की थी. सहारा उस दौर में अस्तित्व में आया था जब देश में हड़ताल राज और बंद चरम पर था. उसने बड़ी चालाकी से परिवार व्यवस्था का नारा दिया और अपने परिसर से हड़तालियों को बड़ी सफाई से दूर कर दिया.

लेकिन इन्फोसिस ने ये दोनों प्रयोग मिलाकर किये और कारपोरेट कल्चर का नया स्वरूप विकसित किया. इन्फोसिस में काम करनेवाला व्यक्ति इन्फोसिस का कर्मचारी नहीं होता बल्कि मालिक होता है. उनसे देश की ग्लोबल होती इकोनोमी को एक नया और अलबेला रास्ता दिखाया जो सही अर्थों में कारपोरेट कल्चर की स्थापना करता है. इसके अलावा नारायणमूर्ति और नंदन नीलकेणी दोनों ने अपने सामाजिक सरोकारों से कभी पीछा नहीं छुड़ाया. नारायणमूर्ति के दौर में सुधा मूर्ति इंफोसिस फाउण्डेशन के जरिए सामाजिक काम कर रही थीं तो नीलकेणी के जमाने में यह काम रोहिणी कर रही हैं. सुधा मूर्ति जहां बेसहारा बच्चों और बेसहारा लोगों की सेवा को प्राथमिकता देती थीं वहीं रोहिणी पर्यावरण और परंपरागत ज्ञान को आधार देने का काम कर रही हैं.

क्या है नेशनल यूनिक आइडेन्टीफिकेशन? सबसे पहले एनडीए सरकार ने इस प्रस्ताव पर विचार करना शुरू किया था कि देश के हर नागरिक के विविध पहचान पत्र के स्थान पर एक ही पहचानपत्र होना चाहिए. पिछली यूपीए सरकार द्वारा इस दिशा में कोई खास काम नहीं हुआ. लेकिन सरकार जाने से कुछ महीने पहले 28 जनवरी को इस बारे में नोटिफिकेशन जारी किया गया. अब नंदन नीलकेणी इस आयोग के अध्यक्ष होंगे जिसका अनुमानित बजट 1,90,000 करोड़ होगा. नीलकेणी को उम्मीद है कि अगले एक से डेढ़ साल के अंदर वे पहला कार्ड का सेट जारी कर देंगे.

इसमें अन्यथा या निन्दा योग्य कुछ नहीं है. वे भी आईआईटी की उसी जमात के हिस्से हैं जो अपनी समझ के मुताबिक देश का निर्माण करना चाहता है. आईआईटी और आईआईएम कैसे शिक्षण संस्थान है और कौन से भारत का निर्माण कर रहे हैं यह बताने की जरूरत शायद किसी को नहीं है. लेकिन पिछले कुछ सालों में नारायणमूर्ति और नीलकेणी के कामकाज को ध्यान से देखें तो समझ में आता है कि उनकी सामाजिक जिम्मेदारी और राजनीतिक सक्रियता उनकी अपनी महत्वाकांक्षा है. वे चाहते हैं कि देश की व्यवस्था में अपने मुताबिक हस्तक्षेप किया जाना चाहिए. पिछली दफा जब राष्ट्रपति के चुनाव की प्रक्रिया चल रही थी तो  यह खबर भी आयी थी कि अपनी इमेज बिल्डिंग के लिए नारायणमूर्ति ने एक पीआर कंपनी को किराये पर लिया है और वे भी अपना नाम राष्ट्रपति पद के लिए चलवाना चाहते हैं. उसी दौर में उनकी किताब भी आयी थी और एक हद तक उनको प्रचार मिला भी. 

ठीक उन्हीं के नक्शेकदम पर नंदन ने भी हाल में ही एक किताब लिखी है - इमेजिनिन्ग इंडिया. इस किताब में उन्होंने अपने सपनों के भारत का खाका खींचा होगा लेकिन इस किताब के प्रचार पर जमकर पैसे खर्च किये गये. पूरे देश के मीडिया हाउसों को एक तरह से किराये पर ले लिया गया और हर बड़े घराने ने इस किताब का गुणगान किया. नंदन की यह कवायद अनायास नहीं थी. नंदन लगातार राजनीतिक विषयों पर लिखते हैं और अपनी बेबाक राय से लोगों को अवगत भी कराते हैं. मसलन आमचुनाव में मायावती के खराब प्रदर्शन के बाद अपने ब्लाग पर उन्होने लिखा कि जाति हमारे लिए जड़ता है और कहीं न कहीं हमारे विकास में बाधक भी. उनका तर्क है कि दलितों के लिए सत्ता का सिर्फ एक ही मतलब है कि उनके लिए आरक्षण के दरवाजे खुल जाएंगे.

अब तक के उनके लेखन और कार्यकलाप को देखें तो इतना साफ समझ में आता है कि वे कांग्रेस के करीब हैं. इसलिए कांग्रेस की सरकार उनको देश के सबसे महत्कांक्षी प्रोजेक्ट का मुखिया नियुक्त कर रही है तो इसमें कुछ आश्चर्य नहीं है. पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम चाहते थे कि देश में हर नागरिक का एक यूनिक पहचानपत्र हो. आतंकवाद के खतरों के बीच सरकार भी इसे एक जरूरी कदम मान रही है क्योंकि सरकार में बैठे लोग मानते हैं कि इस एक कदम से देश की बहुत सारी आंतरिक समस्याओं का निदान हो जाएगा. यह एक स्वतंत्र विषय है कि इस प्रोजेक्ट का ही कोई महत्व भारत जैसे देश में है या नहीं, या फिर अगर यह प्रोजेक्ट लंबे समय से सरकार के विचाराधीन था तो अरबों रूपये परिचयपत्र बनाने पर क्यों खर्च किये गये? क्या केवल इसलिए कि टाटा कंसल्टेसी को एक बड़ा प्रोजेक्ट मिला रहे?

लेकिन फिलहाल तो नीलकेणी इस नये आयोग के अध्यक्ष होकर कुछ हद तक अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को पूरा कर सकेंगे. प्रोजेक्ट के लिए पहले चरण में 100 करोड़ रूपये का आवंटन हो चुका है इसलिए इंफोसिस के लिए सरकार के पैसे पर एक ऐसा प्रोजेक्ट भी मिल गया है जिसका आंकलन करने और प्रोजेक्ट रिपोर्ट बनाने का खर्च भी उसे नहीं उठाना है. और नीलकेणी की वह राजनीतिक महत्वाकांक्षी भी मुफ्त में पूरी हो जाती है जिसकी बेचैनी और तड़प उनके लेखन में लगातार दिखाई देती रही है. नये दौर के इस कारपोरेट युग में हर बिजनेसमैन की एक राजनीतिक महत्वाकांक्षा भी होती है जिसे कांग्रेस जैसी सरकारें जमकर पूरा करती हैं.  

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