Thursday, May 9, 2013

बांग्लादेश में ब्लडबाथ

सचमुच बांग्लादेश अपने 42-43 साल के इतिहास में दूसरी बार बहुत खूनी दौर से गुजर रहा है। 1971 के जिस खूनी संघर्ष से बांग्लादेश अस्तित्व में आया और पश्चिमी पाकिस्तान से अलग होकर स्वतंत्र बांग्लादेश बना, उसी इकहत्तर का भूत एक बार फिर बांग्लादेश के सिर पर सवार है। करीब तीन दशक बाद बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना वह काम कर रही हैं जो कम से कम तीन दशक पहले ही हो जाना चाहिए था। 1975 में पिता शेख मुजीब सहित पूरे परिवार की हत्या सिर्फ शेख हसीना के लिए व्यक्तिगत क्षति नहीं थी, बल्कि 71 की मुक्ति 75 में शेख मुजीफ की हत्या के बाद एक बार फिर गुलामी में तब्दील हो गई थी। 78 में बांग्लादेश के आर्मी चीफ जिया उर रहमान ने अपने आपको राष्ट्रपति घोषित करते ही सबसे पहला काम यही किया कि 71 के युद्ध अपराधियों और 75 में शेख मुजीफ की हत्यारों को अपराध मुक्त घोषित कर दिया। अब शेख हसीना सरकार द्वारा गठित विशेष अदालत उन्हीं दोषियों को चुन चुन कर सजा दे रही है जिन्हें बांग्लादेशी जनरल में मुक्त कर दिया था।

अगर उस वक्त उन लोगों को सजा देना आसान नहीं था, तो आज चौंतीस साल बाद भी जमात-ए-इस्लामी और अल बद्र के जेहादियों को सजा देना बहुत साहस का काम है। बुधवार को अल बद्र की हिंसक गतिविधियों में दोषी पाये जाने पर मोहम्मद कमरूज्जमा को जब फांसी की सजा सुनाई गई तो बांग्लादेश सरकार द्वारा गठित की गई विशेष ट्रिब्यूनल द्वारा यह चौथी सजा थी। इससे पहले बांग्लादेश के साथ धोखा करने, अल्पसंख्यकों का उत्पीड़न करने तथा लोगों की हत्या और लूट में दोषी पाये गये तीन लोगों को सजा सुनाई जा चुकी है। ये सब बांग्लादेश की जमात-ए-इस्लामी पार्टी से जुड़े हुए हैं।

लेकिन क्या इस सजा सुनवाई का बांग्लादेश में बहुत स्वागत हो रहा है? बांग्लादेश में स्वागत भी हो रहा है ब्लडबाथ भी चल रहा है। जैसे जैसे विशेष ट्रिब्यूनल फैसले सुनाती जा रही है बांग्लादेश में खूनी संघर्ष परवान चढ़ता जा रहा है। बांग्लादेश के शाहबाग आंदोलन की खबरें पूरी दुनिया में फैली जिसमें 71 के युद्ध अपराधियों को फांसी देने की मांग की गई और देश के नौजवानों तथा धर्मनिर्पेक्ष ताकतों ने लंबी लड़ाई लड़ी लेकिन धर्म निर्पेक्ष ताकतें भले ही थम गईं हो परन्तु लड़ाई रुकने का नाम नहीं ले रही है। बांग्लादेश की कट्टरपंथी इस्लामी ताकतें पूरा जोर लगा रही हैं कि वे एक बार फिर वह करने में कामयाब हो जाएं जो उन्होंने 71 में मुजीब का विरोध या फिर 75 में शेख मुजीब की हत्या करके किया था। लेकिन इस बार शेख हसीना भी कहीं से कमजोर पड़ती नहीं दिख रही हैं। एक तरफ जहां ट्रिब्यूनल का फैसला आ रहा है और उसका जमकर विरोध हो रहा है वहीं बांग्लादेश का अर्धसैनिक बल इन सांप्रदायिक विरोध को कुचलने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा है।

1971 के मुक्ति संग्राम का विरोध करनेवाले अल बद्र और रजाकार भले ही अतीत की बात हो गये हों, लेकिन उनको पैदा करनेवाले आका और उनकी औलादों से बांग्लादेश आज भी आजाद नहीं हुआ है। पाकिस्तान में सिर्फ सेना और आईएसआई ही नहीं हैं जिन्हें 71 का मुक्ति संग्राम आज भी शूल की तरह चुभ रहा है, पाकिस्तान के आतंकी संगठन भी बांग्लादेश का बदला न सिर्फ भारत से बल्कि बांग्लादेश से भी लेना चाहते हैं। हाफिज सईद तो खुलेआम बोलता है कि उसकी लश्कर को वह करना है जो पश्चिमी पाकिस्तान को पूर्वी पाकिस्तान से मिला सके। जाहिर है, ऐसी ताकतें बांग्लादेश में बिल्कुल चुप बैंठी होंगी, यह सोचा भी नहीं जा सकता। इसलिए इस बार मार्च महीने से ही जमात-ए-इस्लामी और उसके समर्थक छात्र शिबिर के अलावा एक और नया संगठन बांग्लादेश में ट्रिब्युनल के फैसलों का जमकर विरोध कर रहा है। उसका नाम है हिफाजत-ए-इस्लाम। यह हिफाजत-ए-इस्लाम कथित तौर पर उन्हीं रजाकरों (स्वयंसेवकों) और अल बद्र के लड़ाकों से प्रेरित मजहबी संगठन है जो बांग्लादेश को पाकिस्तान की तर्ज पर इस्लामी राष्ट्र बनाना चाहता है।
अगर जमात, छात्र शिबिर और हिफाजत-ए-इस्लाम के धर्मांध प्रदर्शनों और हिंसक गतिविधियों को किसी भी सूरत में जायज नहीं ठहराया जा सकता तो सरकार की ओर से प्रदर्शनकारियों के दमन को भी किसी भी सूरत में सही नहीं कहा जा सकता। 5-6 मई की आधी रात को हिफाजत के समर्थकों का अगर उसी तरह दमन किया गया है जिस तरह की खबरें छिपाई जा रही हैं तो निश्चित रूप से बांग्लादेश की शेख हसीना सरकार को आज नहीं तो कल अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के विरोध का सामना करना पड़ेगा। कुछ उसी तरह जैसे लिट्टे के सफाये का खामियाजा श्रीलंका को भुगतना पड़ रहा है।

हिफाजत-ए-इस्लाम ने हाल फिलहाल में ढाका कब्जा करने की एक नायाब योजना बनाई थी। उसके समर्थकों और प्रदर्शनकारियों ने मई की शुरूआत में ही पूरे ढाका को कई हिस्सों में घेर लिया था। हालांकि यह प्रदर्शनकारी बांग्लादेश में कठोर ईश निंदा कानून और शरीयत लागू करने की बात कर रहे थे लेकिन साथ ही बांग्लादेश ट्रिब्यूनल द्वारा जमात के नेताओं को दी जा रही सजा का विरोध भी कर रहे थे। हिफाजत-ए-इस्लाम के प्रदर्शनकारियों ने 'सीज ढाका' का जो अहिंसक अभियान शुरू किया था उसका आखिरी मकसद संभवत: ढाका मैं बैठी सरकार को नेस्तनाबूत कर देना था। अगर ऐसा था तो निश्चित तौर पर यह एक खतरनाक मंसूबा था जिसके जवाब में बांग्लादेश सरकार ने 5-6 मई की आधी रात में वह किया, जो शेख मुजीब राष्ट्रपति रहते नहीं कर पाये थे।

औपचारिक खबर यह है कि 5-6 मई की आधी रात को ढाका में हिफाजत-ए-इस्लाम के इन प्रदर्शनकारियों पर बांग्लादेश सरकार ने क्रैकडाउन करते हुए शांतिपूर्वक तरीसे उनके प्रदर्शनों को तितर बितर कर दिया। कुछ खोजी खबरनवीस इतना बता रहे हैं कि इस तितर बितर करनेवाले कार्यक्रम में हिफाजत-ए-इस्लाम के 5 से 10 लोग मारे भी गये। लेकिन कुछ स्वयंसेवी समूह, और मानवाधिकार संगठन जो जानकारी दे रहे हैं वह बांग्लादेश में ब्लडबाथ की ही नहीं बल्कि बांग्लादेश सरकार पर मंडराते संकट की तरफ भी इशारा कर रहा है। ऐसे समूहों द्वार जो रिपोर्ट तैयार की गई है उसमें बताया गया है कि 5-6 मई की आधी रात बांग्लादेश सरकार ने करीब 10 हजार पुलिस और अर्धसैनिक बल लगाकर हिफाजत के लोगों का कत्लेआम करवा दिया। इस रिपोर्ट का दावा है कि इस आधी रात को अकेले ढाका में 400 से 2,500 के बीच, लोगों को सरेआम गोली मार दी गई। सबसे ज्यादा हिंसक दमन बांग्लादेश के मोतीझील इलाके में हुई जहां बड़ी संख्या में हिफाजत के प्रदर्शनकारी जमें हुए थे। सैकड़ों की संख्या में प्रदर्शनकारी मारे गये, हजारों की तादात में घायल हुए। यानी, इस एक अकेली रात में हिफाजत-ए-इस्लाम और बांग्लादेश सरकार के बीच ऐसी हिंसक झड़प हुई है जो किसी कत्लेआम से कम नहीं है।

यानी, बांग्लादेश में इस वक्त ऐसा कुछ जरूर चल रहा है जो सिर्फ बांग्लादेश ही नहीं बल्कि उसके पड़ोसी भारत के लिए भी खतरे की घंटी है। अगर जमात और हिफाजत जैसे चरमपंथी संगठन बांग्लादेश में इतने ताकतवर हो चले हैं कि ढाका कब्जा करने की योजना बना रहे हैं, और उस पर अमल लाने के लिए लाखों लोगों के साथ ढाका पहुंच रहे हैं तो निश्चित ही उनके पीछे कोई न कोई ऐसी ताकत काम कर रही है जिसे स्वतंत्र बांग्लादेश का अस्तित्व पसंद नहीं है। इसलिए यह सिर्फ बांग्लादेश का आंतरिक मामला हो, ऐसा भी नहीं है। बांग्लादेश इस वक्त इतिहास के ऐसे मोड़ पर खड़ा है जहां उसे कट्टरपंथ और उदार लोकतंत्र में से किसी एक को चुनना है। शाहबाग आंदोलन जहां उसे उदारवादी और लोकतांत्रिक राष्ट्र की तरफ आगे बढ़ने के लिए प्रेरित कर रहा है वहीं पश्चिमी पाकिस्तान के बूते एक बड़ा वर्ग बांग्लादेश में अब भी सक्रिय दिख रहा है जो कम से कम बांग्लादेश को उसी तरह कट्टर इस्लामी राष्ट्र बनाना चाहता है जैसा आज का पाकिस्तान है। निश्चित रूप से ऐसे विचार को हवा देकर पश्चिमी पाकिस्तान भारत को घेरने की लंबी योजना पर काम कर रहा है लेकिन ऐसी योजनाओं का दुष्परिणाम खुद बांग्लादेश भुगत रहा है। अगर हम उन खबरों को खारिज न करें कि एक काली रात में बांग्लादेश के सुरक्षा बलों ने ढाई हजार लोगों को कत्ल कर दिया तो क्या यह कत्लेआम बांग्लादेश के हित में है?

शेख मुजीब ने ढाका की जिस सरजमी पर 7 मार्च 1971 को दिये भाषण में जय बांग्ला का नारा देकर अपने अस्तित्व का अहसास कराया था, उस बांग्लादेश का बांग्ला चरित्र ही खत्म हो जाए तो यह भला किसके हित में होगा? उन हिफाजत-ए-इस्लामियों के हित में भी नहीं जो हिंसा और प्रतिहिंसा का अन्तहीन सिलसिला चला रहे हैं। भारत को भी चाहिए कि वह देश के भीतर ही नहीं बल्कि देश के बाहर भी मजहबी ताकतों को कमजोर करने के लिए 'सक्रिय भूमिका' की जरूरी जिम्मेदारी को जरूर निभाए। अन्यथा ऐसे खूनी संघर्ष के छीटे आज नहीं तो कल भारत के दामन पर 'गहरे दाग' जरूर बन जाएंगे।

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