आखिरकार केन्द्र सरकार से नहीं रहा गया. देश में मंहगाई से
त्राहि-त्राहि करती जनता के दुख दूर करने के लिए प्रधानमंत्री कार्यालय की
पहल पर केन्द्रीय सार्वजनिक वितरण मंत्रालय ने दिल्ली में मुख्यमंत्रियों
की एक बैठक बुला ही ली. चर्चा तो क्या हुई वह अंदरवाले जाने लेकिन बाहर जो
खबरें आ रही हैं वह चौंकानेवाली हैं.
मंहगाई रोकने के लिए बुलाई गयी इस बैठक में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि खराब समय गुजर चुका है. उनके मुताबिक इस खराब समय के गुजरने के तीन लक्षण हैं- 1)रबी की फसल अच्छी होने की संभावना है 2)वाजिब समर्थन मूल्य दिया जाएगा और 3) भारतीय बाजार में खाद्यान्न कीमतें अंतरराष्ट्रीय कीमतों के लगभग आसपास आ गयी हैं इसलिए अब मंहगाई के खात्मे का वक्त आ गया है. आपको प्रधानमंत्री के ये तीनों तर्क समझ में आये? रुकिये. समझने के लिए एक और समाधान लीजिए. प्रधानमंत्री जी ने कहा-"सार्वजनिक वितरण प्रणाली की व्यवस्था बहुत खराब है. इसको बदलने की जरूरत है." अरे! मंहगाई के मध्य सार्वजनिक वितरण प्रणाली को बदलने की वकालत? इसका क्या अर्थ है? इसका अर्थ इतना सीधा नहीं है कि घुट्टी बनाकर पी लिया जाए. प्रधानमंत्री जी ने मुख्यमंत्रियों के सामने जिस सार्वजनिक वितरण प्रणाली को बदलने का आह्वान किया है उसका अर्थ बहुत कसैला है जिसके मूल में यह भावना है कि हादसे को संभावना में बदल दो.
भारत में सार्वजनिक वितरण प्रणाली लचर अवस्था में हैं. इसलिए उदार अर्थव्यवस्था के पैरोकारों ने पिछले दस सालों में कोशिश करके कई बड़ी कंपनियों ने कुछ हद तक खाद्यान्न व्यापार को अपने कब्जे में ले लिया है. 2003 से 2008 के आंकड़े बताते हैं कि भारत में खाद्यान्न कीमतों में 50 से 100 फीसदी का उछाल आया है. यह सब तब हो रहा है जब देश में 22 करोड़ लोग भूखे पेट सो रहे हैं और 5 करोड़ बच्चों को पर्याप्त पोषक पदार्थ नहीं मिल रहा है. लेकिन कंपनियों के पोषण की पूरी व्यवस्था है. देश में 2006 से रिटेल व्यापार में बड़ी कंपनियों ने अपने पांव पसारने शुरू कर दिये. बड़े पैमाने पर पहला कदम रखा रिलायंस ने. उसने हैदराबाद में अपना पहला रिलायंस फ्रेश स्टोर खोला. रिलायंस की तमन्ना है कि वह भारत का वालमार्ट बने. रिलायंस का अपना अध्ययन बताता है कि वह भारतीय खाद्यान्न बाजार के न केवल वितरण पर काबिज होना चाहता है बल्कि उत्पादन को अपने हाथ में रखना चाहता है. रिलायंस सहित सभी बड़ी कंपनियों का इसके पीछे एक बड़ा मजबूत तर्क है. वे कहते हैं कि अगर भारत में बिचौलियों को किनारे कर दिया जाए तो उपभोक्ता को सस्ती कीमत पर खाद्यान्न मुहैया हो जाएगा. लंदन बिजनेस स्कूल के कुछ छात्रों द्वारा रिलायंस फ्रेश पर तैयार की गयी रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत से उलट अमेरिका में कीमतों का फायदा ग्राहकों को इसलिए मिलता है क्योकि वहां बिचौलिये नहीं है. उत्पादक और वितरक के बाद सीधे उपभोक्ता ही आता है. भारत में ऐसा नहीं है. यहां उत्पादक और उपभोक्ता के बीच आढ़तिये, खुदरा व्यापारी और इन सबके मध्य हर स्तर पर एक बिचौलिया काम करता है. रिलायंस के लिए किये गये इस अध्ययन में तर्क दिया गया था कि अगर इन बिचौलियों को हटा दिया जाए तो कीमतों में कमी आ जाएगी.
मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में प्रधानमंत्री ने जिस सार्वजनिक वितरण प्रणाली को सुधारने की दुहाई दी है वह इसी तर्क का विस्तार है. भारत में साठ के दशक से कायम सार्वजनिक वितरण प्रणाली भ्रष्टाचार का परनाला है इससे शायद ही कोई इंकार करे लेकिन सार्वजनिक वितरण प्रणाली भारतीय खाद्यान्न प्रणाली का कितने प्रतिशत कारोबार करता है? कुल खाद्यान्न उत्पादन के 12 से 14 प्रतिशत पर. और यह भी तक जब फूड कारपोरेशन आफ इण्डिया का दावा है कि वे देश के हर हिस्से में दस किलोमीटर से भी कम अंतर पर मौजूद हैं. इतने के बावजूद फूड कारपोरेशन आफ इण्डिया दुनिया का सबसे बड़ा खाद्यान्न व्यापारी है और वह दुनिया में किसी भी कंपनी के मुकाबले सबसे अधिक खरीदारी करता है. सालाना 30 से 40 मिलियन टन. जाहिर है रिलायंस जैसी कंपनियों का सरकार पर दबाव बढ़ रहा है कि वे फूड कारपोरेशन आफ इण्डिया जैंसी संस्थाओं को समाप्त करें और उस प्रणाली को भी ध्वस्त करें जिसमें बिचौलिये बहुत अधिक हैं. सरकार को अगर जनकल्याणकारी होना है तो उसे बिचौलियों और एफसीआई दोनों को किनारे करना होगा और कंपनियों के हाथ में सारी कमान सौंपनी होगी. शुरुआती स्तर पर सरकार ने जींस में वायदा कारोबार को मंजूरी देकर ऐसा कर भी दिया है. अब कंपनियां स्टाक मार्केट में बैठे बैठे देश के खाद्यान्न को खरीदती बेचती हैं और लोग हैं कि मंहगाई से पार ही नहीं पाते हैं. छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री हो या फिर पश्चिम बंगाल के बुद्धदेव भट्टाचार्य वे कह रहे हैं कि केन्द्र सरकार को जींस के वायदा कारोबार पर रोक लगानी चाहिए इससे कीमतों को स्थिर करने में मदद मिलेगी. लेकिन केन्द्र सरकार इसी एक बात को छोड़कर बाकी सारी बातें कर रही है.
प्रधानमंत्री लच्छेदार भाषा में लिखा हुआ भाषण पढ़ रहे हैं और शरद पवार अपने मन ही मन में कुढ़ रहे हैं. मंहगाई कम करने को कौन कहे मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में उन्होंने उसी निजीकरण को बढ़ावा देने का इरादा जता दिया जिसकी शुरूआत में देश मंहगाई के भंवर में फसा नजर आ रहा है. बड़ी कंपनियों का दखल खेती और खाद्यान्न पर जितना अधिक बढ़ेगा, मंहगाई तो छोड़िए, देश त्रासदी की ओर लगातार बढ़ता चला जाएगा. ऐसा नहीं है कि आज देश में खाद्यान्न की कहीं कोई कमी है. अपना देश दूध, दाल और चाय के उत्पादन में दुनिया का अव्वल नंबर का देश है. इसके बाद गेहूं, चावल और चीनी के उत्पादन में दुनिया का दूसरे नंबर का देश है. फल और सब्जियों के उत्पादन में भी हम दुनिया के दूसरे बड़े उत्पादक हैं. दुनिया की सबसे अधिक सिंचित खेती भारत में होती है और खेती करने योग्य जमीन के मामले में दुनिया के 11 प्रतिशत के औसत से बहुत आगे 52 प्रतिशत जमीन पर हम खेती करते हैं. फिर भी अगर मंहगाई मार रही है तो उसके लिए वही मनमोहन सिंह जिम्मेदार हैं जो देश में आर्थिक सुधारों के जनक कहे जाते हैं. समाजवाद के भ्रष्ट दौर से बाहर आने की जल्दबाजी में पिछले दो दशक में कंपनियों को बेलगाम कर दिया गया है. वे सीधे खेत से अनाज खरीदकर उसी किसान को वैल्यू एडिशन के नाम पर डेढ़ से दो गुनी कीमत पर बेच देती हैं. जिन्हें बिचौलिया कहकर खारिज किया जा रहा है असल में वही प्रणाली मंहगाई को काबू में रखती थी. राज्य सरकारें जब यह महसूस करती थीं कि कीमतें आमदनी की अपेक्षा अधिक तेजी से बढ़ रही हैं तो उन्हीं बिचौलियों पर दबिश डालकर बाजार को सामान्य कर देती थीं. लेकिन अब राज्य सरकारें भी असहाय नजर आ रही हैं क्योकि वायदा कारोबार के नाम पर हमने देशवासियों का पेट स्टाक एक्स्चेन्जों के हाथ में गिरवी रख दिया है.
मंहगाई मारने की बात करनेवाले मनमोहन सिंह और उनकी पूरी सरकार जानते हैं कि वे मंहगाई को बढ़ा रहे हैं. ऐसा वे जानबूझकर नहीं कर रहे बल्कि कंपनियों के दबाव में ऐसा करना उनकी मजबूरी है. अगर मुकेश अंबानी से चुनावी चंदा लेना है तो वे जैसा कहेंगे सरकार को वैसा करना पड़ेगा. कहां बात मंहगाई को कम करने की होनी चाहिए थी मनमोहन सिंह इस संकट को भी कंपनियों के हित के लिए इस्तेमाल करते हुए पीडीएस सिस्टम को कंपनियों के हवाले रखने की दलील दे रहे हैं. वे वही तर्क दे रहे हैं जो लंदन स्कूल आफ इकोनामिक्स ने रिलायंस की स्टडी में दिया है कि बिचौलिये मंहगाई बढ़ा रहे हैं. मनमोहन सिंह जी, बिचौलिये मंहगाई जरूर बढ़ा रहे हैं लेकिन वे बिचौलिये नहीं जिनकी ओर आप संकेत कर रहे हैं. यह वे बिचौलिये हैं जो आपके बहुत आस-पास दिन रात मंडराते रहते हैं और जिनके फायदे के लिए आपकी सरकार हर संभव उपाय करती है. इसलिए मनमोहन सिंह जी आप कितनी भी लच्छेदार भाषा में अपना भाषण पढ़ें, हमें इतना तो मालूम है कि आप मंहगाई को नहीं मारेंगे. आपके वार से अगर कोई मरेगा तो वह इस देश का जरूरतमंद इंसान होगा जिसका जीना खाना भी दिन दूनी रात चौगुनी दूभर होता चला जा रहा है.
मंहगाई रोकने के लिए बुलाई गयी इस बैठक में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि खराब समय गुजर चुका है. उनके मुताबिक इस खराब समय के गुजरने के तीन लक्षण हैं- 1)रबी की फसल अच्छी होने की संभावना है 2)वाजिब समर्थन मूल्य दिया जाएगा और 3) भारतीय बाजार में खाद्यान्न कीमतें अंतरराष्ट्रीय कीमतों के लगभग आसपास आ गयी हैं इसलिए अब मंहगाई के खात्मे का वक्त आ गया है. आपको प्रधानमंत्री के ये तीनों तर्क समझ में आये? रुकिये. समझने के लिए एक और समाधान लीजिए. प्रधानमंत्री जी ने कहा-"सार्वजनिक वितरण प्रणाली की व्यवस्था बहुत खराब है. इसको बदलने की जरूरत है." अरे! मंहगाई के मध्य सार्वजनिक वितरण प्रणाली को बदलने की वकालत? इसका क्या अर्थ है? इसका अर्थ इतना सीधा नहीं है कि घुट्टी बनाकर पी लिया जाए. प्रधानमंत्री जी ने मुख्यमंत्रियों के सामने जिस सार्वजनिक वितरण प्रणाली को बदलने का आह्वान किया है उसका अर्थ बहुत कसैला है जिसके मूल में यह भावना है कि हादसे को संभावना में बदल दो.
भारत में सार्वजनिक वितरण प्रणाली लचर अवस्था में हैं. इसलिए उदार अर्थव्यवस्था के पैरोकारों ने पिछले दस सालों में कोशिश करके कई बड़ी कंपनियों ने कुछ हद तक खाद्यान्न व्यापार को अपने कब्जे में ले लिया है. 2003 से 2008 के आंकड़े बताते हैं कि भारत में खाद्यान्न कीमतों में 50 से 100 फीसदी का उछाल आया है. यह सब तब हो रहा है जब देश में 22 करोड़ लोग भूखे पेट सो रहे हैं और 5 करोड़ बच्चों को पर्याप्त पोषक पदार्थ नहीं मिल रहा है. लेकिन कंपनियों के पोषण की पूरी व्यवस्था है. देश में 2006 से रिटेल व्यापार में बड़ी कंपनियों ने अपने पांव पसारने शुरू कर दिये. बड़े पैमाने पर पहला कदम रखा रिलायंस ने. उसने हैदराबाद में अपना पहला रिलायंस फ्रेश स्टोर खोला. रिलायंस की तमन्ना है कि वह भारत का वालमार्ट बने. रिलायंस का अपना अध्ययन बताता है कि वह भारतीय खाद्यान्न बाजार के न केवल वितरण पर काबिज होना चाहता है बल्कि उत्पादन को अपने हाथ में रखना चाहता है. रिलायंस सहित सभी बड़ी कंपनियों का इसके पीछे एक बड़ा मजबूत तर्क है. वे कहते हैं कि अगर भारत में बिचौलियों को किनारे कर दिया जाए तो उपभोक्ता को सस्ती कीमत पर खाद्यान्न मुहैया हो जाएगा. लंदन बिजनेस स्कूल के कुछ छात्रों द्वारा रिलायंस फ्रेश पर तैयार की गयी रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत से उलट अमेरिका में कीमतों का फायदा ग्राहकों को इसलिए मिलता है क्योकि वहां बिचौलिये नहीं है. उत्पादक और वितरक के बाद सीधे उपभोक्ता ही आता है. भारत में ऐसा नहीं है. यहां उत्पादक और उपभोक्ता के बीच आढ़तिये, खुदरा व्यापारी और इन सबके मध्य हर स्तर पर एक बिचौलिया काम करता है. रिलायंस के लिए किये गये इस अध्ययन में तर्क दिया गया था कि अगर इन बिचौलियों को हटा दिया जाए तो कीमतों में कमी आ जाएगी.
मंहगाई के मूल में केन्द्र सरकार पर कंपनियों का दबाव और राज्य सरकारों की उदासीनता है. अब हालात यह है कि राज्य सरकारें केन्द्र को दोषी ठहरा रही हैं और केन्द्र सरकार राज्य सरकारों को चौकन्ना रहने की सलाह दे रहा है. दोनों जानते हैं कि दोनों ही समानरूप से दोषी हैं लेकिन फिलहाल मंहगाई को अभी और बढ़ने दिया जाएगा. प्रधानंत्री कमाई के स्थिर होने का तर्क दे रहे हैं, अर्थात आम आदमी जब तक दो निवाला खा सकता है, सरकारें सचमुच चिंतित नहीं होंगी.
मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में प्रधानमंत्री ने जिस सार्वजनिक वितरण प्रणाली को सुधारने की दुहाई दी है वह इसी तर्क का विस्तार है. भारत में साठ के दशक से कायम सार्वजनिक वितरण प्रणाली भ्रष्टाचार का परनाला है इससे शायद ही कोई इंकार करे लेकिन सार्वजनिक वितरण प्रणाली भारतीय खाद्यान्न प्रणाली का कितने प्रतिशत कारोबार करता है? कुल खाद्यान्न उत्पादन के 12 से 14 प्रतिशत पर. और यह भी तक जब फूड कारपोरेशन आफ इण्डिया का दावा है कि वे देश के हर हिस्से में दस किलोमीटर से भी कम अंतर पर मौजूद हैं. इतने के बावजूद फूड कारपोरेशन आफ इण्डिया दुनिया का सबसे बड़ा खाद्यान्न व्यापारी है और वह दुनिया में किसी भी कंपनी के मुकाबले सबसे अधिक खरीदारी करता है. सालाना 30 से 40 मिलियन टन. जाहिर है रिलायंस जैसी कंपनियों का सरकार पर दबाव बढ़ रहा है कि वे फूड कारपोरेशन आफ इण्डिया जैंसी संस्थाओं को समाप्त करें और उस प्रणाली को भी ध्वस्त करें जिसमें बिचौलिये बहुत अधिक हैं. सरकार को अगर जनकल्याणकारी होना है तो उसे बिचौलियों और एफसीआई दोनों को किनारे करना होगा और कंपनियों के हाथ में सारी कमान सौंपनी होगी. शुरुआती स्तर पर सरकार ने जींस में वायदा कारोबार को मंजूरी देकर ऐसा कर भी दिया है. अब कंपनियां स्टाक मार्केट में बैठे बैठे देश के खाद्यान्न को खरीदती बेचती हैं और लोग हैं कि मंहगाई से पार ही नहीं पाते हैं. छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री हो या फिर पश्चिम बंगाल के बुद्धदेव भट्टाचार्य वे कह रहे हैं कि केन्द्र सरकार को जींस के वायदा कारोबार पर रोक लगानी चाहिए इससे कीमतों को स्थिर करने में मदद मिलेगी. लेकिन केन्द्र सरकार इसी एक बात को छोड़कर बाकी सारी बातें कर रही है.
प्रधानमंत्री लच्छेदार भाषा में लिखा हुआ भाषण पढ़ रहे हैं और शरद पवार अपने मन ही मन में कुढ़ रहे हैं. मंहगाई कम करने को कौन कहे मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में उन्होंने उसी निजीकरण को बढ़ावा देने का इरादा जता दिया जिसकी शुरूआत में देश मंहगाई के भंवर में फसा नजर आ रहा है. बड़ी कंपनियों का दखल खेती और खाद्यान्न पर जितना अधिक बढ़ेगा, मंहगाई तो छोड़िए, देश त्रासदी की ओर लगातार बढ़ता चला जाएगा. ऐसा नहीं है कि आज देश में खाद्यान्न की कहीं कोई कमी है. अपना देश दूध, दाल और चाय के उत्पादन में दुनिया का अव्वल नंबर का देश है. इसके बाद गेहूं, चावल और चीनी के उत्पादन में दुनिया का दूसरे नंबर का देश है. फल और सब्जियों के उत्पादन में भी हम दुनिया के दूसरे बड़े उत्पादक हैं. दुनिया की सबसे अधिक सिंचित खेती भारत में होती है और खेती करने योग्य जमीन के मामले में दुनिया के 11 प्रतिशत के औसत से बहुत आगे 52 प्रतिशत जमीन पर हम खेती करते हैं. फिर भी अगर मंहगाई मार रही है तो उसके लिए वही मनमोहन सिंह जिम्मेदार हैं जो देश में आर्थिक सुधारों के जनक कहे जाते हैं. समाजवाद के भ्रष्ट दौर से बाहर आने की जल्दबाजी में पिछले दो दशक में कंपनियों को बेलगाम कर दिया गया है. वे सीधे खेत से अनाज खरीदकर उसी किसान को वैल्यू एडिशन के नाम पर डेढ़ से दो गुनी कीमत पर बेच देती हैं. जिन्हें बिचौलिया कहकर खारिज किया जा रहा है असल में वही प्रणाली मंहगाई को काबू में रखती थी. राज्य सरकारें जब यह महसूस करती थीं कि कीमतें आमदनी की अपेक्षा अधिक तेजी से बढ़ रही हैं तो उन्हीं बिचौलियों पर दबिश डालकर बाजार को सामान्य कर देती थीं. लेकिन अब राज्य सरकारें भी असहाय नजर आ रही हैं क्योकि वायदा कारोबार के नाम पर हमने देशवासियों का पेट स्टाक एक्स्चेन्जों के हाथ में गिरवी रख दिया है.
मंहगाई मारने की बात करनेवाले मनमोहन सिंह और उनकी पूरी सरकार जानते हैं कि वे मंहगाई को बढ़ा रहे हैं. ऐसा वे जानबूझकर नहीं कर रहे बल्कि कंपनियों के दबाव में ऐसा करना उनकी मजबूरी है. अगर मुकेश अंबानी से चुनावी चंदा लेना है तो वे जैसा कहेंगे सरकार को वैसा करना पड़ेगा. कहां बात मंहगाई को कम करने की होनी चाहिए थी मनमोहन सिंह इस संकट को भी कंपनियों के हित के लिए इस्तेमाल करते हुए पीडीएस सिस्टम को कंपनियों के हवाले रखने की दलील दे रहे हैं. वे वही तर्क दे रहे हैं जो लंदन स्कूल आफ इकोनामिक्स ने रिलायंस की स्टडी में दिया है कि बिचौलिये मंहगाई बढ़ा रहे हैं. मनमोहन सिंह जी, बिचौलिये मंहगाई जरूर बढ़ा रहे हैं लेकिन वे बिचौलिये नहीं जिनकी ओर आप संकेत कर रहे हैं. यह वे बिचौलिये हैं जो आपके बहुत आस-पास दिन रात मंडराते रहते हैं और जिनके फायदे के लिए आपकी सरकार हर संभव उपाय करती है. इसलिए मनमोहन सिंह जी आप कितनी भी लच्छेदार भाषा में अपना भाषण पढ़ें, हमें इतना तो मालूम है कि आप मंहगाई को नहीं मारेंगे. आपके वार से अगर कोई मरेगा तो वह इस देश का जरूरतमंद इंसान होगा जिसका जीना खाना भी दिन दूनी रात चौगुनी दूभर होता चला जा रहा है.
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