Saturday, January 15, 2011

पांचवा वेद



मुक्त ज्ञान कोष। पिछले दो तीन सालों में भारत में भी ये तीन शब्द अच्छे से चर्चा में आ चुके हैं. इंटरनेट पर जमा होती जमात के लिए मुक्त ज्ञान कोष न तो ये तीन शब्द अपरिचित हैं और न ही इन तीन शब्दों को एक साथ जोड़नेवाली वेबसाइट. 2001 में दुनिया को हैलो बोलते हुए जिम्मी वेल्स और लैरी सांगर ने ज्ञान बांटने का जो जिम्मा उठाया था, आज वह इतना समृद्ध और व्यापक हो चला है कि उसे पांचवा वेद मान लेने में कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी. लेकिन विकीपीडिया को पांचवा वेद कहने से पहले उन तीन शब्दों की व्याख्या जरूरी है जिनके आलोक में विकीपीडिया को पांचवा वेद मानना आवश्यक हो जाता है.

शिवसूक्त में भगवान शंकर ने पार्वती को उपदेश दिया है. शिवसूक्त में पार्वती को उपदेश देते हुए भगवान शंकर ज्ञान की सब शिक्षा देने के बाद आखिर में कहते हैं- ज्ञान बंध:। अर्थात ज्ञान भी बंधन है. मूल में मिलने के लिए ज्ञान रूपी बंधन को भी त्यागना होता है. इसलिए इस बात सहमति बना पाना कि ज्ञान मुक्त करता है, थोड़ा कठिन है. ज्ञान भले ही ही हमें मुक्त न करता हो लेकिन ज्ञान स्वयं में मुक्त होना चाहिए. इसलिए मुक्त शब्द का महत्व ज्ञान के साथ सबसे सटीक होता है. विकीपीडिया के कर्ताओं और प्रयोक्ताओं ने शिवसूक्त पढ़ा हो या न पढ़ा हो लेकिन वे ज्ञान के मर्म को जानते हैं. इसलिए ज्ञान को पहले मुक्त माना. वेद होने की पहली पात्रता विकीपीडिया ने पा ली.

फिर बात आती है ज्ञान की. ज्ञान अंग्रेजी के KNOWLEGE को परिभाषित करता है. सरल शब्दों में कहें तो जानना. जानने के कई प्रकार हो सकते हैं जिसमें बुद्धिगत क्रियाकलाप ज्ञान है. ज्ञान की उत्पत्ति अनुभव से होती है. क्योंकि जननी हमेशा श्रेष्ठ होती है इसलिए अनुभव ज्ञान से परम अवस्था है. फिर भी सामान्य सांसारिक व्यवहार में जानने समझने की जो विधि सबसे अधिक प्रयोग में लाई जाती है वह बुद्धि ही है. इंद्रियगत अनुभव और परा ज्ञान का प्रयोग बहुत कम लोग करते हैं. बहुत ही कम लोग. ज्ञान की यह बौद्धिक विधा वाचिक भी है और लेखकीय भी. व्याकरण के परिष्करण ने हमारे लिखने को परिष्कृत किया है. आज के युग में लिखना इतना परिस्कृत है कि हम मन की अधिकांश अभिव्यक्तियां लिखकर कर सकते हैं. कुछ वर्जनाएं आज भी हैं और शायद हमेशा रहेंगी लेकिन हम अपने अपने व्याकरण से अपनी अधिकांश समझ बांट सकते हैं. उस व्याकरण का दक्ष व्यक्ति उस समझ को शब्दों के माध्यम से ग्रहण कर सकता है. ज्ञान के इस स्वरूप को पश्चिमी समाज ने कापीराइट के दायरे में बांध दिया था. विकीपीडिया ने इसे कॉपीराइट के दायरे से मुक्त करके वेद होने की दूसरी पात्रता भी अर्जित कर ली.

अब सवाल कोष का. कोष का अर्थ होता है संग्रह या समुच्चय. दृश्य जगत में जो कुछ भी उपलब्ध है वह कोष है. पांच तत्व पांच प्रकार के कोष हैं. अग्नि, जल, आकाश, धरती और वायु। भौतिक जगत के यही पांच मूल तत्व हैं जो पांच प्रकार के कोष हैं. जीव जगत का शरीर भी एक कोष ही होता है. लेकिन सिर्फ इन पांच तत्वों का कोष नहीं. जिन पांच कोष का उल्लेख हम आपसे कर रहे हैं ये भौतिक हैं. भौतिक का अर्थ जो नाशवान है. लेकिन जिस परम के साथ ये पंचकोष मिलकर जीव जगत की रचना करते हैं वह परम स्वतंत्र कोष है. अक्षय है. शास्वत है. सनातन है. इस अक्षय, शास्वत और सनातन कोष के स्पर्श से मर्त्य मूर्तवान हो जाता है. ज्ञानवान हो जाता है. अगर परम चेतना का संपर्क न हो तो अग्नि में कोई संस्कार नहीं होगा. परम चेतना ही पंच महाभूतों को ज्ञानयुक्त करती है. संस्कारित करती है. इसलिए कोई भी कोष तब तक गतिशील नहीं है, सार्थक और संस्कारित नहीं है जब तक उसका परम से स्पर्श न हो. परम वह जो सबके लिए समान रूप से उपबब्ध हो. विकीपीडिया ने ज्ञान को सबके लिए समान रूप से उपलब्ध कराके वेद होने की तीसरी पात्रता भी अर्जित कर ली है.

ऐसे में विकीपीडिया के दस साल की यात्रा उसकी उस महायात्रा का तात्कालिक ठहराव है जो उसे पूरा करना है. दुनिया की 270 भाषाओं में एक करोड़ सत्तर लाख लेखों के कोष के साथ विकीपीडिया जहां खड़ा है उससे हजार गुना आगे जाने की संभावना है. भारतभूमि से ज्ञान का जो संग्रह वेदों में हुआ था वह कब कहां अवरुद्ध हो गया इसका पता किसी को नहीं. लेकिन आज वेद की वह धारा सूख चुकी है. भारत में वेदों और उपनिषदों की रचना उस युग के विकीपीडिया की रचना थी. उस युग काल में ज्ञान की जैसी जरूरत थी, मनीषीयों और महात्माओं ने वैसा चिंतन किया और उसको उसी हिसाब से संग्रहित किया. उनके संग्रह का तरीका सूक्ष्म था इसलिए यह संग्रह ज्यादा स्थायी विधि बुद्धि में किया गया. वेदों के अध्येताओं को जरूर इस बात का पता लगाना चाहिए कि ठीक ठीक वह कौन सा समय था जब वेदों में नये अनुभवों को समाहित करना बंद कर दिया गया. क्योंकि जहां से यह शुरू हुआ होगा वहीं से वेदों की शास्वत सत्ता तो बनी रही लेकिन ज्ञान उपासक समाज का क्षरण शुरू हो गया होगा. वेदों में नये संपुट आने कब से बंद हो गये, जिस दिन हम यह जानेंगे हमें यह भी पता चलेगा कि भारतीय समाज में ज्ञान की साधना और उपासना भी वहीं से अवरुद्ध हो गयी. ज्ञान की उपासना और उसको लोगों के उपयोगार्थ समर्पित कर देने वालों का वर्ग जिस समाज में नहीं होता वह समाज ज्यादा दिन समाज नहीं रह पाता. वह परवर्ती समाज हो जाता है. कुछ कुछ वैसा ही जैसे आज दुनिया के अधिकांश देश हो चुके हैं.

ज्ञान की आराधना और उपासना ही असल में किसी भी संगठित समाज को प्रासंगिक बनाते हैं. दुर्भाग्य से ज्ञान के अहंकार में दबे बैठे भारत में ज्ञान की आराधना और उपसाना दोनों ही अवरुद्ध है. हमारी समझ इतनी कुंद हो गयी है कि हमारे ज्ञान की थाती हमारे छाती से चिपका है और हम विस्मृति के ऐसे शिकार हैं कि दुनियाभर में दान का कटोरा लिए घूम रहे हैं. ऐसा संभवत: इसलिए क्योंकि हमने ज्ञान की आराधना और उपसाना को नकार दिया है. अब हमें ही मुक्त, ज्ञान और कोष को समझने के लिए विकीपीडिया की ओर देखना होता है. विकीपीडिया का हश्र वेदों की तरह न हो और उसकी 'ज्ञान संपत्ति' का निरंतर विस्तार होता रहे, दस साल पूरा होने के मौके पर इससे अधिक विकीपीडिया का गुण और भला क्या बखान सकते हैं?

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