Saturday, December 22, 2012

मोदी को मति दे भगवान!

गुजरात में तीसरी बार सरकार बनाने का जनादेश पाते ही मोदी महान के नारे उस दिल्ली तक दोबारा लौट आये हैं जिस दिल्ली को कोई दशक भर पहले मोदी छोड़कर वापस गुजरात चले गये थे। तब वे दिल्ली में बतौर महासचिव भाजपा के भीतर काम करते थे। हिमाचल प्रदेश के प्रभारी भी। आज भले ही अतीत खोजने पर गूगल देव मोदी के अतीत का अता पता न बताते हों लेकिन यह भी कैसा गजब संयोग है कि दशकभर पहले मोदी जिस हिमाचल प्रदेश के प्रभारी थे उस हिमाचल में भाजपा अपनी आबरू लुटा बैठी लेकिन एक दशक मोदी ने जो गुजरात गढ़ा उस गुजरात ने उन्हें एक बार दिल्ली चलो का जनादेश थमा दिया है। और कोई माने या न माने मोदी और मोदी के चरमपंथी समर्थक इस चुनाव परिणाम को देश के लिए जनादेश बताने पर आमादा हैं। हो सकता है कुछ लोगों की नजर में यह अतिवादिता हो लेकिन क्या खुद मोदी ही अतिवादिता के दूसरे नाम रूप नहीं हो गये हैं?

अभिनय अभिनय होता है। प्रबंधन प्रबंधन होता है और कला कला होती है। लेकिन जब इन तीनों को एक साथ मिला दिया जाता है तो वह राजनीति हो जाती है। अभिनय के अपने सिद्धांत और तर्क होते हैं। प्रबंधन के अपने सिद्धांत और व्यवस्थाएं होती हैं और कलाओं के अपने अनुशासन है। आज हम जिसे राजीनीति और राजनीतक नेतृत्व मान रहे हैं उनमें ये तीनों तत्व ही सफलता के सूत्र हैं। किसी सफल नेता में अभिनय कला कूट कूट कर भरी होनी चाहिए। उसका हंसना, रोना, आना जाना, उठना बैठना, चलना बोलना सब कुछ की पटकथा इतनी शसक्त होनी चाहिए कि देखनेवाला थोड़ी देर के लिए ही सही, यह भूल जाए कि वह अभिनय दर्शन कर रहा है। लेकिन केवल अभिनय हो तो भी बात नहीं बनती। अगर ऐसा होता तो अमिताभ बच्चन, राजेश खन्ना और संजय दत्त राजनीतिक दुनिया के भी बड़े स्टार होते। अभिनय के साथ कुटिल प्रबंध तंत्र की भी जरूरत पड़ती है जो इस अभिनय से पैदा हुई आसक्ति और उर्जा को समायोजित करके एक समर्थक वर्ग निर्मित कर सके। दर्शक को समर्थक बना सके। लेकिन इन दो कलाओं में पारंगत होने के बाद भी नेता तब तक पूर्ण आकार ग्रहण नहीं करता जब तक कि उसके अंदर कला के तत्व विकसित न हो जाएं। सोलह कलाओं में जितनी अधिक से अधिक कलाएं वह अपने अंदर विकसित कर लेता है उसकी सफलता का अवसर उतना ही ज्यादा बढ़ जाता है। अभिव्यक्ति और मौन, आक्रमण और आत्मरक्षा, आनंद और अवसाद, पद्म और छद्म जैसी कलाओं में जैसे जैसे व्यक्तिगत सिद्धि मिलती जाती है आज का नेता जननेता बनता चला जाता है।

पिछले एक दशक में आश्चर्यजनक रूप से मोदी ने इन तीनों ही विधाओं में सिद्धियां अर्जित की हैं। एक दशक पहले दिल्ली दरबार में भाजपा और आरएसएस के बड़े नेताओं के आगे 'दुम हिलानेवाले' नरेन्द्र मोदी ने मुख्यमंत्री की कुर्सी कोई अपनी योग्यतावश अर्जित नहीं की थी। करीब एक हफ्ते के अपने धरने के बाद वे झंडेवालान से अपने नाम पर सहमति ले आये थे। शंकर सिंह वाघेला के बाद सुरेश भाई मेहता की बगावत के कारण 1998 में आरएसएस और भाजपा को प्रदेश में नये नेता की जरूरत थी। उस वक्त शंकर सिंह वाघेला के बाद सुरेश मेहता ने केशुभाई की फजीहत कर रखी थी और हर हाल में उन्हें कुर्सी से हटाने की मुहिम चल रही थी। इस वक्त तक नरेन्द्र भाई मोदी केशुभाई के समर्थकों में गिने जाते थे और कहा जाता था कि वाघेला की बगावत के बाद अगर दूसरी बार केशुभाई गुजरात के मुख्यमंत्री बन सके तो यह नरेन्द्रभाई और उनकी टीम की मेहनत का परिणाम था। क्योंकि नरेन्द्र मोदी और उनकी टीम ने मेहनत की थी इसलिए नरेन्द्र मोदी अपने पसंद की मंत्री आनंदीबेन पटेल को कैबिनेट दर्जा दिलाना चाहते थे जो केशुभाई पटेल देने के लिए तैयार नहीं थे। आनंदीबेन पटेल का मुद्दा मोदी ने प्रदेश में कुछ इस तरह आगे बढ़ाया कि पूरी भगवा ब्रिगेड मोदी के पाले में आकर खड़ी हो गई। बाकी बचा हुआ काम नरेन्द्र मोदी ने दिल्ली में पूरा कर लिया और 7 अक्टूबर 2001 को नरेन्द्र मोदी बतौर मुख्यमंत्री गुजरात पहुंच गये।

कुल जमा 49 साल की उम्र में नरेन्द्र मोदी ने गुजरात में वह हासिल कर लिया जो किसी चाय बेचनेवाले लड़के से शायद ही कोई उम्मीद करे। गुजरात के भरे पुरे गरीब पिछड़े परिवार में पैदा होनेवाले नरेन्द्र मोदी ने जब 2001 में मुख्यमंत्री की कुर्सी हासिल की तब उन्हें जाननेवाले उनके बारे में बड़े उत्साह से बताते थे कि नरेन्द्र भाई जब आरएसएस के प्रचारक बने थे तभी उन्होंने कहा था कि वे बीस साल बाद इस प्रदेश के मुख्यमंत्री होंगे। उन बीस सालों में न जाने कितने लोगों को यह बात याद रही होगी लेकिन जिस दिन झंडेवालान से अपने नाम की सहमति लेकर नरेन्द्र मोदी गुजरात पहुंचे थे, उस दिन अचानक वह बात लोगों को याद आई होगी। लेकिन यह कोई मोदी की खामी नहीं है कि वे दूरगामी लक्ष्य निर्धारित करके आगे बढ़ते हैं। यह उनकी खूबी है। और पिछले तीस चालीस साल के सामाजिक राजनीतिक जीवन में उन्होंने अपनी इस खूबी का बखूबी इस्तेमाल किया है।

मोदी के राजनीतिक उभार में छद्म अभिनय, निर्मम प्रबंधन तंत्र और कुटिल कलाओं का उपयोग समाहित है। इन विधियों का इस्तेमाल करके जो नेतृत्व गढ़ा जाता है उसमें आभाषीय आकर्षण भले ही कितना हो लेकिन ठोस धरातल पर कुछ नहीं होता। ऐसे छद्म आभाषीय चरित्र अक्सर चरम पर पहुंचते ही चरमराकर टूट जाते हैं।

7 अक्टूबर 2001 से 27 फरवरी 2002 के बीच मोदी ने गुजरात के विकास की कौन सी व्यूह रचना की यह किसी को नहीं मालूम लेकिन 27 अक्टूबर 2007 को गोधरा में हुई भीषण घटना/दुर्घटना ने न सिर्फ गुजरात की दशा और दिशा बदल दी बल्कि उसके बाद जो कुछ हुआ उसने नरेन्द्र मोदी वह होकर उभरे जो अभी तक उनकी छवि में शामिल नहीं था। पिछले पांच छह सालों से राजनीतिक कटुता और अस्थिरता झेल रहे गुजरात ने नरेन्द्र भाई मोदी में भविष्य का अवतार पा लिया था। वैष्णव प्रभुत्ववाले गुजरात में हिन्दू और हिंसा दो विरोधाभासी बातें रही हैं लेकिन 2001 में गुजरात के हिन्दुओं को वह अवतार मिल गया जो वैष्णवों के सबसे बड़े आदर्श राम की तरह 'राक्षसों' का बड़ी बहादुरी से संहार कर सकता है। दिल्ली के टीवी टुडे समूह ने नरेन्द्र मोदी को हत्यारा घोषित करने का अघोषित ठेका ले लिया था और यह टीवी मीडिया का वह उत्कर्ष काल था जब उसे अपनी पैठ गहरी करनी थी। अगर आप याद करेंगे तो पायेंगे कि टीवी टुडे समूह के आज तक की कड़ी मेहनत के बाद आखिरकार मोदी को देश के मुस्लिम वर्ग की नजर में विलेन के तौर पर स्थापित किया जा सका था।

उसके बाद तो मानों मोदी को 'हत्यारा' कहने का मीडिया में फैशन ही चल पड़ा। लेकिन यह सब होते हुए भी मोदी ने कभी वह छवि बदलने की कोशिश नहीं की जिससे उनकी "बदनामी" हो रही थी। मानों यह सब मोदी की योजना का हिस्सा हो। जैसे जैसे मोदी को मीडिया हत्यारा और विलेन साबित करता जा रहा था वैसे वैसे गुजरात के हिन्दू समाज के मन में मोदी के प्रति प्यार और श्रद्धा गहराता जा रहा था। कल तक अनाम और अपरिचित से नरेन्द्र मोदी 2002 के बाद गुजरात की आखिरी उम्मीद बनते चले गये। लोग भूल ही गये कि इस प्रदेश में कोई केशुभाई पटेल भी मुख्यमंत्री रहा है या फिर कांग्रेस नाम की पार्टी भी निवास करती है। पग पग डग डग मोदी जैसे जैसे आगे बढ़ते जा रहे थे गुजरात के दिल में घर करते जा रहे थे। अभिनय में सफल होने के लिए जो ब्रेक चाहिए था, 2002 के गुजरात नरसंहार ने मोदी को वह राजनीतिक ब्रेक दे दिया था।
पिछले एक दशक में मोदी ने गुजरात में ऐसी कोई भी दूब उगने नहीं दी है जो मोदी विरोध की बयार बहाती हो। गुजरात के नागरिकों की क्या बिसात खुद अपनी ही पार्टी के भीतर उन्होंने अपने किसी विरोधी व्यक्ति या विचार को पनपने नहीं दिया है। जिसका कद मोदी की गणना में रंच मात्र भी ऊपर उठता है मोदी उसे जोड़ घटाकर सम कर देते हैं। केशुभाई पटेल ही नहीं बल्कि भाजपा के ही हिरेन पांड्या, मोदी के प्रिय अमित भाई शाह, विश्व हिन्दू परिषद के प्रवीण भाई तोगड़िया और आरएसएस के न जाने कितने प्रचारक इस सूची में शामिल हैं।

2002 में मिले इस राजनीतिक ब्रेक को मोदी ने जाया जाने दिया हो ऐसा नहीं है। गुजरात में मुसलमानों के कत्लेआम से शोक की जो शीत लहर उठी थी उसे ने अपने लिए अवसर में तब्दील कर दिया। उस वक्त अटल बिहारी वाजपेयी ने जब अहमदाबाद में मोदी की मौजूदगी में राजधर्म के पालनवाला पाठ पढ़ाया तो मोदी लजाए नहीं बल्कि मुस्कुराये थे। उन्होंने हल्के से कहा था- ''वही तो कर रहा हूं साहब।'' ऊंचा सुननेवाले वाजपेयी ने मोदी की यह बात सुन ली थी और इतने आहत हुए थे कि प्रेस कांफ्रेस बीच में छोड़कर उठ गये थे। न जाने अटल बिहारी वाजपेयी कौन सा राजधर्म मोदी को सिखाना चाहते थे और न जाने मोदी कौन सा राजधर्म पालन कर रहे थे लेकिन इसके बाद फिर वाजपेयी ने भी गुजरात में मुख्यमंत्री बदलने की अपनी मंशा को तिलांजली दे दी। राज्य में पहले ही केशुभाई किनारे हो गये थे और केन्द्र ने उनकी ओर से आंख मूंद ली। इसके बाद मोदी ने अपने राजनीतिक अभियान का तीसरा चरण शुरू किया जिसे कुशल प्रबंधन कहा जा सकता है।

मोदी ने सिर्फ विकास की वीरगाथा का ही कुशल प्रबंधन ही नहीं किया बल्कि उन्होंने अपनी छवि का भी कायाकल्प कर दिया। अब वे कमजोर और मार खानेवाले हिन्दू समाज के सख्त संरक्षक थे। 2002 के नरसंहार के बाद लंबी कानूनी लड़ाई भले ही यह साबित न कर पाई हो कि उन दंगों के पीछे मोदी का कहीं से कोई हाथ था लेकिन गुजरात के हर हिन्दू को न जाने कैसे यह बात पता है कि सब नरेन्द्र भाई के पराक्रम का परिणाम है। नरोडा पाटिया नरसंहार का दोषी वह जो बाबू बजरंगी है, वह भी कैमरे पर यही बोल रहा था कि नरेन्द्र भाई ने उसकी बड़ी मदद की। उसके इसी बोल ने उसे आजीवन कारावास दिला दिया, लेकिन कानून अभी नरेन्द्र मोदी को दोषी करार नहीं दे पाया है। वह समाज भी अब सिर्फ माफी मांग लेने की कीमत पर सब कुछ भूल जाना चाहता है लेकिन प्रदेशभर में सद्भावना का स्वांग करनेवाले नरेन्द्र मोदी के मुंह से माफी के दो बोल कभी नहीं फूटे। शायद यह भी मोदी की लंबी रणनीति का हिस्सा हो कि जब वह वक्त आयेगा तब देखा जाएगा। और वह वक्त कब आयेगा? शायद 2014 में। क्योंकि गुजरात में तीसरी बार जीत दर्ज करके उन्होंने दिल्ली चलो का नारा दे दिया है।

अगर आप इस एक दशक की संक्षिप्त मोदी यात्रा को समायोजित करना चाहें तो वहीं तीन तत्व साफ साफ दिखाई देते हैं जिसकी चर्चा के विस्तार में हमने मोदीत्व को समझने की कोशिश है। अपनी एक दशक की राजनीतिक यात्रा में मोदी के खाते में एक अदद नरसंहार, एक अदद अमेरिकी पीआर एजंसी और एक अकेले दूरगामी मोदी शामिल हैं। यह यात्रा अगर दिल्ली आकर ही दम तोड़नेवाली है तो इतनी प्रार्थना हमें जरूर करनी चाहिए कि मोदी अपनी सफलता का वह फार्मूला दोबारा न दोहराने पायें जो उन्होंने गुजरात में प्रयोग किया है। गांधी जी भी इसी गुजरात से चलकर देश और दिल्ली को मिले थे। वे गुजरात से आये आये थे तो वैष्णव अहिंसा लेकर आये थे। सबको सन्मति का मंन्त्र लेकर आये थे। सबको सन्मति मिले न मिले, कम से कम गांधी के गुजरात से आनेवाले मोदी को यह मति जरूर मिले हिंसा, छद्म और प्रबंधन राजनीति के अनिवार्य अंग नहीं होते। मोदी को भगवान यह मति जरूर दे ताकि गुजरात के बाद अब देश एक बार फिर अविश्वास और आतंक के उस अंधे कुएं में कभी न जाए जहां गिरने में तो क्षणभर लगता है लेकिन निकलने में सदियां गुजर जाती हैं।

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