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Monday, December 28, 2015
वीवीआईपी विमान के नाम पर जनधन की हानि
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Sunday, December 27, 2015
जकजकी का जलजला
अगर लखनऊ के छोटे इमामबाड़े में "एक शाम नाइजीरिया के मुसलमानों के नाम" कार्यक्रम न भी होता तो भी इसका जिक्र करना जरूरी है। बोको हरम के लिए बदनाम नाइजीरिया में एक हजार मुसलमानों (गैर सरकारी आंकड़ा) को कत्ल कर दिया गया है। मारे गये मुसलमान शिया मुसलमान हैं लेकिन यह कत्लेआम सुन्नियों के चरमपंथी समूह बोको हरम ने भी नहीं किया है। यह "कत्लेआम" नाइजीरिया की सेना ने किया है। नाइजीरिया में शियाओं के सर्वोच्च धर्मगुरु इब्राहिम जकजकी भी इस हत्याकांड के बाद से लापता हैं और खबर यह है कि उनकी पत्नी और बेटे इस हत्याकांड में मार दिये गये हैं।
नाइजीरिया की कुल 18 करोड़ आबादी में अब ईसाई और मुसलमानों की आबादी आधी आधी हो चुकी है। कुछ स्रोत मुसलमानों की आबादी कुल आबादी का सत्तर फीसदी भी बताते हैं। जो भी हो सच यह है कि नाइजीरिया में मुसलमान बहुसंख्यक हो गये हैं। अभी नाइजीरिया सेकुलर स्टेट है और शासन, प्रशासन और सेना का चरित्र सेकुलर है। लेकिन मुसलमानों के बहुसंख्यक होने के साथ शरीया कानून लागू करने की मुहिम भी तेज हो गयी है। बीते डेढ़ दशक से सुन्नी आतंकी संगठन बोको हरम नाइजीरिया में शरीया लॉ लागू करने के लिए मारकाट कर रहा है। लेकिन सेकुलरिज्म पर अकेला संकट बोको हरम ही नहीं है। नाइजीरिया के अल्पसंख्यक शिया मुसलमान भी इस्लामिक कायदे कानून के लिए अपने तरीके से सशस्त्र संघर्ष कर रहे हैं।
नाइजीरिया में सिर्फ सुन्नी मुसलमान ही नहीं बल्कि शिया मुसलमान भी एक चरमपंथी समूह है। नाइजीरिया में शिया मुसलमानों की तादात कुल मुसलमानों में पांच फीसदी से भी कम है लेकिन पांच फीसदी का यह विस्तार भी अस्सी के दशक से अब तक हुआ है। उसके पहले नाइजीरिया में शिया मुसलमान नाममात्र के ही थे या बिल्कुल नहीं थे। लेकिन 1979 में इरान ने इब्राहिम ज़कज़की को ईरान बुलाकर शिया इस्लाम की शिक्षा दी और वापस लौटकर ज़कज़की ने इस्लामिक मूवमेन्ट आफ नाइजीरिया की नींव रखी। ईरान ने उन्हें नाइजीरिया के 'अयतोल्ला' की पदवी दे रखी है जिसका मतलब होता है जिसमें अल्लाह के निशान दिखते हो।
अयतोल्ला इब्राहिम जक़ज़की की नाइजीरिया में जो भूमिका है वह एक चरमपंथी नेता की ही है। वे भी नाइजीरिया में इस्लामिक स्टेट बनाना चाहते हैं लेकिन उस इस्लामिक स्टेट का आधार सऊदी-बहावी नहीं बल्कि ईरान होगा। इब्राहिम ज़कज़की का इस्लामिक मूलमेन्ट भले ही बोको हरम की तरह कत्लेआम नहीं करता है लेकिन नाइजीरिया में उसकी भी पहचान एक चरमपंथी संगठन के रूप में ही है। नीइजीरिया के शिया मुसलमान दोहरा टकराव रखते हैं। एक तरफ सेकुलर सरकार से तो दूसरी तरह चरमपंथी सुन्नी इस्लाम से। नाइजीरिया में सेना ने जो कार्रवाई की है उसका कारण कहीं न कहीं वही चरमपंथ है जिस पर बोको हरम और इस्लामिक मूवमेन्ट दोनों अमल करते हैं।
लेकिन हमारा सवाल तो लखनऊ वाले कल्बे जव्वाद नकवी साहब से है जिनकी खबर ईरान के सरकारी पोर्टल पर छपी है कि क्या इब्राहिम जकजकी नाइजीरिया में सेकुलर सिद्धांतों के लिए लड़ रहे थे जो सेना की कार्रवाई के खिलाफ आप दुनियाभर का समर्थन चाहते हैं? यह ठीक है कि इस्लामिक मूवमेन्ट बोको हरम जैसे कत्लेआम नहीं करता लेकिन नाइजीरिया में वह भी शरीया लागू करने का हिमायती है बिल्कुल बोको हरम की तरह। नाइजीरिया में जकजकी की वह छवि नहीं है जो ईरान दुनिया के सामने पेश कर रहा है, और जिसके समर्थन में लखनऊ में मातम मन रहा है। जिस सैन्य कार्रवाई की ये दुहाई दे रहे हैं वह कार्रवाई भी तब शुरू हुई जब इस्लामिक मूवमेन्ट के लोगों ने सेना के जनरल पर धावा बोल दिया था।
यह कत्लेआम जितना निंदनीय है उतना ही निंदनीय नाइजीरिया में शरीया लागू करनेवाले प्रयास भी हैं जिसके लिए सिर्फ बोको हरम ही नहीं बल्कि इस्लामिक मूवमेन्ट भी जिम्मेदार है जिसके अगुआ इब्राहिम जकजकी हैं। दोनों लोकतांत्रिक मूल्यों और सिद्धांतों के खिलाफ लड़ रहे हैं।
(फोटो: नाइजीरियाई इस्लामिक मूवमेन्ट के सर्वोच्च नेता इब्राहिम ज़कज़की)
Sunday, December 13, 2015
बुलेट ट्रेन पर बक बक
बैलगाड़ी के देश में बुलेट ट्रेन की बात की जाए तो आलोचना होना स्वाभाविक है। हमारे सामने रोजमर्रा से जुड़ी जिन्दगी की समस्याओं के ऐसे अंबार खड़े हैं कि बुलेट ट्रेेन की बात भी बेमानी लगती है। हम पहले गरीब के पेट में रोटी पहुंचाएं कि बुलेट ट्रेन चलाएं? आखिर एक लाख करोड़ का कर्ज हम कहां निवेश करें?
आप मुझसे पूछेंगे तो मैं कहूंगा बुलेट ट्रेन में ही निवेश करिए। अव्वल तो यह एक लाख करोड़ न हमारी पूंजी है और न ही हमें दान में मिल रही है। इसका अस्सी फीसदी हिस्सा एक सॉफ्ट लोन है जो जापान 0.1 के व्याज दर पर हमें एक परियोजना में लगाने के लिए दे रहा है। जाहिर है, वह पैसा दे रहा है तो उसे अपना पैसा वापस भी चाहिए। गरीबी उन्मूलम पर यह रकम खर्च करके हम जापान को वापस कैसे करेंगे? यह पैसा व्यवसाय के लिए मिल रहा है और जाहिर सी बात है यह वहीं खर्च किया जाएगा जहां से कमाकर अपनी कीमत वापस निकाल सके। बुलेट ट्रेन वह व्यवसाय है जिसमें जापान पूंजी निवेश करके कमाई करेगा। हालांकि इस मामले में जापान अपने कर्ज से उतना व्याज नहीं वसूल सकेगा जितना वह आमतौर पर लेता है लेकिन घाटे का सौदा तो नहीं ही है।
अब दूसरा सवाल यह है कि अगर यह पैसा बुलेट ट्रेन में लगाने की बजाय देश के मूल रेल ढांचे पर खर्च कर दिया जाए तो देश की ज्यादा बड़ी आबादी को फायदा पहुंचेगा फिर रोजाना महज 40 हजार यात्रियों की सुविधा के लिए इतनी बड़ी रकम क्यों खर्च की जा रही है? तो इसका जवाब होगा कि यह पैसा सिर्फ ट्रेन में नहीं तकनीकि में निवेश किया जा रहा है। वह तकनीकि जिसमें भारत चार दशक पीछे चल रहा है। भारत में ऐसे अनेक व्यावसायिक रूट हैं जिस पर व्यापारी वर्ग थोड़ा अधिक पैसा खर्च करके बुलेट ट्रेन का यात्री बन सकता है। भारत सरकार आनेवाले कुछ सालों में इन सभी रूट पर ट्रेनों की गति बढ़ानेवाली है और कुछ पर बुलेट ट्रेन भी चलानेवाली है। चीन, जापान और फ्रांस के साथ कई तरह के करार किये जा रहे हैं जो भारतीय रेलवे का कायाकल्प कर देंगे। ट्रेनों की औसत गति बढ़ाने, रेलवे स्टेशनों को नये सिरे से बनाने और हाईस्पीड कारिडोर बनाने का काम शामिल है।
रेलवे में सुधार की ये कोशिशें हर दौर में चलती रही हैं लेकिन लालू युग से इसमें तेजी आयी और मनमोहन सिंह के कार्यकाल में जितने भी रेलवे मिनिस्टर हुए उन्होंने बुलेट ट्रेन की बुनियाद को कमजोर करने की बजाय इसे और मजबूत किया। माधवराव सिंधिया ने जिस बुलेट ट्रेन का ख्वाब देखा था और पूंजी न जुटा पाने के अभाव में दिल्ली-आगरा-कानपुर रुट पर पहली बुलेट ट्रेन नहीं चला पाये थे उसे फिर से लालू प्रसाद यादव ने अपने बजटीय भाषण में शामिल किया। लालू इस बारे में इससे ज्यादा कुछ खास न कर सके लेकिन 2009 में जब दूसरी दफा मनमोहन सिंह प्राइम मिनिस्टर बने तो उन्होंने बुलेट ट्रेन की परियोजना को सिरे चढ़ाना शुरू किया। हाई स्पीड ट्रेनों के लिए रेल विकास निगम के तहत एक कंपनी बनाई गयी जो इन परियोजनाओं के निर्माण के प्रति जवाबदेह थी। कई रूट पर विचार किया गया जिसमें दिल्ली कानपुर, दिल्ली अमृतसर, और मुंबई अहमदाबाद का रूट शामिल था। मुंबई अहमदाबाद रूट को पहले पुणे से जोड़ने का विचार था जिसे बाद में त्याग दिया गया। इस समूची कवायद का मकसद सिर्फ इतना था कि पहली बुलेट ट्रेन किस रूट पर चलायी जाए कि वह घाटे का सौदा न बने। जाहिर है, मुंबई अहमदाबाद का हीरा रूट बुलेट ट्रेेन के लिए सबसे आकर्षक रूट था इसलिए चार साल की तैयारी के बाद मई 2013 में जापान सरकार के साथ समझौता हो गया और मुंबई अहमदाबाद रूट पर पहली बुलेट ट्रेन चलाने के लिए जापान सरकार ने मनमोहन सिंह को एक ट्रिलियन येन का सॉफ्ट लोन देने की हामी भी भर दी। अब जो हो रहा है वह सिर्फ पिछले सरकार के फैसले को लागू करने का काम हो रहा है। और अच्छा हो रहा है।
Friday, December 11, 2015
कश्मीर में आईटी क्रांति का आगाज
डॉ अमिताभ मट्टू का परिवार कश्मीरी पंडितों के उन आखिरी परिवारों में था जिन्होंने तब भी कश्मीर घाटी नहीं छोड़ा जब सब सब घाटी छोड़कर जा रहे थे। डॉ मट्टू का परिवार वहीं रहा। समय बीता और डॉ मट्टू ने जेएनयू से पढ़ाई पूरी करने के बाद वहीं अध्यापन शुरू किया। फिर जम्मू यूनिवर्सिटी के वाइस चॉसलर भी रहे। जिन्दगी में अब तक उन्होंने बहुत कुछ किया है लेकिन आज कश्मीर में वे जो कर रहे हैं वह शायद कश्मीर की तकदीर बदल दे।
डॉ मट्टू को ओमर अब्दुल्ला ने कश्मीर लौटने के लिए कहा था, डॉ मट्टू जब तक लौटते तब तक ओमर अब्दुल्ला कुर्सी से हट चुके थे। लेकिन वे लौटे और आज मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद के सलाहकार हैं। डॉ मट्टू के साथ मिलकर जम्मू कश्मीर सरकार घाटी में आईटी क्रांति लाने की कोशिश कर रहे हैं। कश्मीर के नौजवानों के लिए यह शायद सबसे बेहतर समाधान है। अगर जम्मू कश्मीर की सईद सरकार और मट्टू अपने अभियान में सफल रहे तो वह दिन दूर नहीं जब श्रीनगर की एक और खूबसूरत पहचान दुनिया को दिखाई देगी जो आज की पहचान से बिल्कुल अलग होगी। बंदूकों को अपनी पहचान बना चुके श्रीनगर में आज भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो बंदूक उठाने को आखिरी विकल्प समझते हैं लेकिन सईद और मट्टू की जोड़ी सफल रही तो दस साल में तस्वीर दूसरी होगी।
फिलहाल दिल्ली, मुंबई और चेन्नई की आईटी कंपनियों को न्यौता दिया जा रहा है कि वे श्रीनगर और जम्मू में आईटी कैंपस स्थापित करें। अनिल अंबानी की रिलांयस ने 3000 नौजवानों को नौकरी देनेवाले काल सेन्टर की बुनियाद भी रख दी है। अन्य कंपनियों को यहां आने के लिए प्रेरित किया जा रहा है।
जेएनयू में डॉ मट्टू अस्त्रविहीन समाज का विज्ञान पढ़ाते थे। अब उनके सामने मौका है कि वे उन सिद्धांतों को जमीन पर उतार सकें ताकि एक समाज शस्त्र छोड़कर अपने हाथों में तरक्की का शास्त्र पकड़ ले। उनकी आगाज अच्छा है। उम्मीद करिए अंजाम भी अच्छा ही हो।
Thursday, December 10, 2015
धमकी, चमकी और बातचीत
धमकी, चमकी और फिर बातचीत। भारत पाकिस्तान के बीच बीते बीस सालों से यही दिख रहा है। लेकिन इन बीस सालों में एक महत्वपूर्ण बदलाव आया है। खासकर कारगिल वार के बाद। अब बातचीत भारत की नहीं बल्कि पाकिस्तान की मजबूरी बन गयी है। कारगिल वार के बाद जहां पाकिस्तान सैन्य स्तर पर कमजोर हुआ है वहीं भारत की ताकत कई गुना बढ़ी है। आर्थिक मोर्चे पर भी पाकिस्तान भारत के सामने कहीं नहीं ठहरता। इन दो बातों के मद्देनजर पाकिस्तानी हुक्मरान जानते हैं कि भारत के साथ युद्ध कोई विकल्प नहीं बचा है। सैंतालिस, पैंसठ और इकहत्तर का दुस्साहस अब चाहकर भी पाकिस्तान नहीं कर सकता। ऐसे में भारत के साथ बातचीत के अलावा कोई विकल्प भी नहीं है।
लेकिन एक पेंच है। पाकिस्तान भारत से ही अलग होकर एक देश बना है जिसके मूल में टू नेशन थ्योरी है। ये टू नेशन हैं हिन्दू और मुसलमान। पाकिस्तान के हुक्मरान इस बात को पैंसठ साल में पचा नहीं पाये हैं कि एक देश बन जाने के बाद रिलिजन स्टेट सब्जेक्ट नहीं रह जाता। न तो आप रिलिजन के आधार पर देश चला सकते हैं और न ही सरकार। वो भी ऐसे देश को जहां मुसलमानों में रिलिजियस मेजोरिटी और माइनरिटी का बड़ा बंटवारा हो। पाकिस्तान की करीब आधी आबादी बरेलवी मुसलमानों की है। लेकिन बरेलवी मुसलमानों की बड़ी आबादी के बाद भी देओबंदियों की जमात सेना से लेकर प्रशासन और रिलिजियस एक्टिविटी तक सब जगह हावी हैं। ये देओबंदी जिस रेडिकल इस्लाम को तवज्जो देते हैं न तो वह बरेलवी को पसंद है और न ही शिया या अहमदिया को।
लेकिन भारत के साथ जब जब रिश्तों की बात आती है ये देओबंदी पाकिस्तान पर हावी हो जाते हैं। पाकिस्तान में जब भी भुट्टो खानदान कुर्सी पर रहा है भारत के साथ उसके संबंध उतने तल्ख नहीं रहे हैं क्योंकि तब पॉलिसी मेकिंग और उस पर अमल पाकिस्तान के शिया मुसलमान करते हैं। लेकिन जैसे ही पाकिस्तान में रेडिकल देओबंदी हावी होते हैं टू नेशन थ्योरी को लागू करने लगते हैं। शरीफ परिवार सत्ता में आने के बाद कितनी भी शराफत दिखा ले लेकिन सत्ता में आने और बने रहने के लिए कट्टरपंथी देओबंदियों को अपने साथ मिलाकर रखता है।
सेना में देओबंदियों की दखल का नतीजा यह है कि भारत के साथ बातचीत की किसी पहल में वही टू नेशन थ्योरी आड़े आ जाती है जो बांग्लादेश बनने के साथ ही खत्म हो गयी थी। पाकिस्तान को ही नहीं भारत के हुक्मरानों को भी पाकिस्तान से बात करते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि पाकिस्तान की बहुसंख्यक आबादी कट्टर नहीं बल्कि सेकुलर है। हाफिज सईद या सेना के कमांडर पाकिस्तान नहीं है। इससे परे एक बहुत बड़ा पाकिस्तान है जो भारत से आवाजाही का रिश्ता चाहता है। रही बात पाकिस्तान की तो उसे आज नहीं तो कल इस टू नेशन थ्योरी के ख्वाब से बाहर निकलना ही होगा। नहीं निकलेगा तो जिस थ्योरी पर वह बना था वही थ्योरी उसे बिगाड़ भी देगी। हिन्दू और मुसलमान न तो कल दो राष्ट्र थे, न आज हैं और न आगे कभी होंगे।
इसलिए इधर नरेन्द्र मोदी हों कि उधर नवाज शरीफ। राजनीतिक रूप से दोनों ही रेडिकल हिन्दुत्व और रेडिकल इस्लाम की नुमांइदगी करते हैं। सत्ता में आने के लिए दोनों ने ही चरमपंथियों का इस्तेमाल किया है। अगर इधर कट्टरपंथी हिन्दूवाद की नाव पर बैठकर पूंजीवादी पतवार के सहारे मोदी सत्ता तक पहुंचे हैं तो उधर नवाज शरीफ ने भी यही किया है। पाकिस्तानी पंजाब के कुछ आतंकी संगठनों ने इस चुनाव में शरीफ को सपोर्ट किया था जिसमें लश्कर चीफ हाफिज सईद भी है और लश्कर-ए-झांगवी का सरगना मलिक इशहाक भी था। मलिक इशहाक अपनी मूर्खताओं के कारण मारा गया जबकि चालाक हाफिज सईद अभी भी मुरिदके से लाहौर, इस्लामाबाद और रावलपिंडी तीनों जगह अपनी दखल रखता है।
लेकिन नवाज और मोदी दोनों में एक दूसरी समानता भी है। दोनों अपने अपने देश में व्यापारी वर्ग का प्रतिनिधित्व भी करते हैं। इसलिए जैसे एक चालाक व्यापारी धार्मिक भावनाओं का इस्तेमाल व्यापारिक संभावनाओं के लिए करता है वैसे ये दोनों भी कर रहे हैं। इसमें कोई शक नहीं कि शरीफ भी मोदी की तरह पाकिस्तान का विकास चाहते हैं। लेकिन दोनों की मजबूरी यह है कि कट्टरपंथ के जिस घोड़े पर सवार होकर सत्ता तक पहुंचे हैं वह घोड़ा उनके दरवाजे पर खड़ा है।
इसलिए अगर ये दोनों "शरीफ" बात करना चाहते हैं तो इसका स्वागत ही करना चाहिए। लेकिन दोनों बात ही करते रहेंगे इसकी उम्मीद भी मत करिए। दोनों को फिर से चुनाव में जाना है, और दोनों को अच्छी तरह पता है कि दरवाजे पर खड़ा उनका कट्टरपंथी घोड़ा अभी भी हिनहिना रहा है।
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