Thursday, September 26, 2013

दगाबाजों के दीनदयाल

भारतीय जनता पार्टी की भोपाल रैली के लिए सिर्फ अलग अलग संभागों और विभागों से कार्यकर्ता ही नहीं बुलाए गये थे। गिनिज बुक आफ वर्ल्ड रिकार्ड से जुड़े कार्यकर्ताओं को भी वहां मौजूद रहने के लिए कहा गया था। कारण यह कि किसी भी राजनीतिक दल द्वारा यह इतिहास का सबसे बड़ा कार्यकर्ता सम्मेलन था जिसमें मंच से इस बात की पुष्टि की गई कि कुल 7 लाख 21 हजार कार्यकर्ता इस सम्मेलन में शामिल हो रहे हैं। अब पता नहीं गिनीज बुक वालों ने इसे इतिहास का सबसे बड़ा सम्मेलन बताकर रिकार्ड में दर्ज किया या नहीं लेकिन एक कारण ऐसा जरूर था जिसके चलते भाजपा के भीतर यह रैली इतिहास के रूप में दर्ज हो गई। वह कारण है- दीनदयाल से दगाबाजी।

भारतीय जनता पार्टी की पूर्ववर्ती पार्टी भारतीय जनसंघ की स्थापना भले ही श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने की हो लेकिन इसका सांगठनिक ढांचा जिस व्यक्ति ने खड़ा किया उसका नाम पं दीनदयाल उपाध्याय था। दीनदयाल उपाध्याय संघ के प्रचारक थे और संघ ने उन्हें राजनीतिक कार्य करने के लिए भारतीय जनसंघ में भेजा था। 1951 में भारतीय जनसंघ की उन्हें पहली जिम्मेदारी मिली थी- उत्तर प्रदेश का मंत्री। जल्द ही वे भारतीय जनसंघ के महामंत्री बना दिये गये और उस वक्त कानपुर अधिवेशन में श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने दीनदयाल उपाध्याय के बारे में कहा था कि अगर उन्हें दो दीनदयाल मिल जाते तो वे भारतीय राजनीति की दशा बदल देते।

डॉ. मुखर्जी ने दीनदयाल उपाध्याय के बारे में कोई अतिश्योक्ति नहीं की थी। पंडित जी में कई विलक्षण प्रतिभाएं थीं। एकसाथ वे जितने कुशल संगठनकर्ता थे, उतने ही कुशल विचारक। पवित्रता उनके जीवन का सार थी और प्रचार से वे हमेशा दूर रहते थे। उनकी इन्हीं खूबियों की वजह से वे केवल जनसंघ के आदरणीय नेता नहीं थे बल्कि 1963 में जब अमेरिका ने पंडित जी को वीजा देने में अड़ंगा लगाया तो खुद प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने हस्तक्षेप करके उन्हें वीजा दिलवाया। हालांकि अमेरिका से लौटने के बाद उन्होंने अमेरिकी राष्ट्र राज्य और अमेरिकी नागरिकों को अलग अलग देखा और अपनी पोलिटिकल डायरी में लिखा कि वहां की जनता वैसी नहीं है जैसी वहां की सरकार दिखती है। दूसरे विश्व युद्ध के बाद अमेरिकी जनता के व्यवहार में व्यापक परिवरर्तन आया है।

लेकिन दीनदयाल उपाध्याय का जिक्र यहां अमेरिका प्रकरण के कारण नहीं बल्कि उनके राजनीतिक और आर्थिक चिंतन और वर्तमान संदर्भों में उसकी समीक्षा के कारण है। दीनदयाल उपाध्याय को भारतीय जनता पार्टी एकात्ममानववाद का प्रणेता मानती है जो मूल रूप से आर्थिक चिंतन है लेकिन इस चिंतन का विस्तार समाज और संस्कृति तक विस्तारित होता है। एकात्म मानववाद पर बहुत विमर्श है लेकिन पंडित जी का एक और डायग्राम है अखण्ड मंडलाकार व्यवस्था। यह अखंड मंडलाकार व्यवस्था पंडित दीनदयाल उपाध्याय का राजनीतिक चिंतन है। एक रेखाचित्र के जरिए पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने इस राजनीतिक चिंतन की जो रुपरेखा खींची है उसमें व्यक्ति, परिवार, ग्राम, नगर, राज्य और राष्ट्र का क्रम निर्धारित किया है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय के इस अखंड मंडलाकार व्यवस्था में राष्ट्र पर इति नहीं की गई है। इसके आगे एक पायदान और हैं। और वह पायदान है- मानवता। पंडित जी के राजनीतिक चिंतन में यह बात समाहित थी कि हर प्रकार के राजनीतिक, सामाजिक या फिर आर्थिक चिंतन के मूल में इंसान और इंसानियत में अगर किसी एक को चुनना हो तो इंसानियत को चुनना चाहिए। मानवता मानव से भी श्रेष्ठ लक्ष्य है। अगर कोई ऐसी व्यवस्था बनाई जाती है जिसके मूल में इंसानियत को आला दर्जा दिया जाता है तो वही व्यवस्था अखंड मंडलाकार व्यवस्था हो सकती है।

भोपाल की रैली में उमा भारती ने किनारे कर दिये गये महारथी लालकृष्ण आडवाणी को यह कहकर प्रासंगिक रखने की कोशिश की कि वे भाजपा के जीवित दीनदयाल हैं। राजनीतिक कसौटी पर परखें तो बहुत आंशिक तौर पर ही उमा भारती की यह बात सही नजर आती है। लेकिन उन मोदी महराज का क्या जो दीनदयाल के विचार के उलट सिर्फ प्रचार और भितरघात की पैदाइश बनकर भाजपा के क्षितिज पर उभर आये हैं? अगर वे भी दीनदयाल को अपना अतीत बताएं तो दीनदयाल के सामने संकट पैदा हो जाएगा कि वे किसे अपना भविष्य बताएं। आडवाणी को या फिर मोदी को?

पंडित जी जिस दौर में इसी राजनीतिक चिंतन के आधार पर भारतीय जनसंघ का सांगठनिक विस्तार कर रहे थे उसी दौर में जनसंघ में अटल बिहारी वाजपेयी का उभार हुआ था। लिखित तौर पर प्रमाण कहीं मिले या न मिले लेकिन दिल्ली के राजनीतिक इतिहासकार अक्सर इस बात की चर्चा करते हैं कैसे दीनदयाल जी के सामने अटल बिहारी वाजपेयी बौने साबित होते थे। कारण सम्मान भी हो सकता था लेकिन असल बात थी दीनदयाल उपाध्याय की वह नीति जो शायद अटल बिहारी जैसे उभरते नेतृत्व को अपच होती थी। अटल बिहारी वाजपेयी प्रचारात्मक प्रवृत्ति के नेता थे और मानते थे कि नेता का प्रचार दल के प्रसार के लिए जरूरी है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय इस बात के सख्त खिलाफ थे। वे राजनीति को वैमनस्य की नीति नहीं मानते थे और विरोधी दल की निंदा करने की बजाय अपनी नीतियों का प्रचार करने पर बल देते थे।
दीनदयाल उपाध्याय की असमय मौत हुई। भारतीय जनसंघ असफल होते हुए भारतीय जनता पार्टी में परिवर्तित हो गया और परिवर्तन की इस प्रक्रिया में अटल बिहारी वाजपेयी का वही राजनीतिक उदारीकरण साथ हो गया जिसके तहत उन्होंने भाजपा को एकात्म मानववादी रास्ते पर आगे ले जाने की बजाय समाजवादी संस्करण गढ़ने में व्यस्त हो गये। 1980 से 2004 तक भारतीय जनता पार्टी के भीतर निर्विरोध और निर्विवाद रूप से अटल कालखण्ड रहा और उन्होंने संघ की राजनीतिक विचारधारा के साथ गैर संघीय राजनीतिक दलों के साथ ऐसा साझा तालमेल किया कि देश के हाथ गठबंधन दलों की स्थिर सरकार का फार्मूला लग गया। हालांकि इस फार्मूले का समर्थक संघ कभी नहीं रहा लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व के सामने संघ भी सिवा तालमेल के और कोई घालमेल कर नहीं सका।

लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी के मुक्त होते ही संघ ने राजनीतिक रूप से भाजपा को फिर से उसी दिशा में ले जाने कोशिश शुरू कर दी जहां से जनसंघ का रास्ता भटका था। हालांकि इस भटके रास्ते पर दोबारा वापसी के बीच गंगा में बहुत पानी बह चुका है लेकिन संघ जिस नयी राजनीति की बिसात बिछा रहा है उसमें अटल बिहारी वाजपेयी के संघीय समन्वय का पूरी तरह से इंकार तो है ही, बहुत सारे वैचारिक मामलों में वह दीनदयाल उपाध्याय के विचारों को भी तिलांजलि देता है। संघ द्वारा नरेन्द्र मोदी का समर्थन उन्हीं में से एक है। दीनदयाल उपाध्याय जिस कट्टर राजनीतिक हिन्दुत्व के पैरोकार नहीं थे और राजनीति को नफरत का औजार नहीं बनने देना चाहते थे, नरेन्द्र मोदी उन्हीं तत्वों के माहिर खिलाड़ी हैं। अगर दीनदयाल उपाध्याय को उस दौर में भी प्रचार प्रेमी अटल बिहारी वाजपेयी नागवार गुजरते थे तो इस दौर में नरेन्द्र मोदी सिर्फ और सिर्फ प्रचार और प्रोपोगेण्डा की ही देन हैं। फिर भी संघ नरेन्द्र मोदी को सिर्फ भाजपा का नहीं बल्कि संघ का उद्धारक भी मान बैठा है क्योंकि अपने प्रचार तंत्र की बदौलत वे भीड़ को आकर्षित करते हैं।

यानी आज संघ हो कि भाजपा दोनों ही दीनदयाल के उस मूल विचार को पूरी तरह से खारिज करते हुए दिखाई दे रहे हैं जो उनके राजनीतिक चिंतन और कार्यशैली का मूलाधार है। अटल बिहारी वाजपेयी जैसे शालीन और अपेक्षाकृत कम प्रचार प्रेमी भी अगर दीनदयाल उपाध्याय को खटकते थे तो नरेन्द्र मोदी जैसे प्रचार की पैदाइश कहां से दीनदयाल की भाजपा के भविष्य हो सकते हैं? लेकिन वह जनसंघ तो उसी दिन तिरोहित हो गया जिस दिन अटल बिहारी वाजपेयी ने भाजपा बनाई। लेकिन वह भाजपा भी उस दिन नहीं रही जिस दिन नरेन्द्र मोदी जैसे प्रायोजित और प्रक्षेपित नेता को साजिश के तहत पार्टी के भीतर शीर्ष नेतृत्व घोषित कर दिया गया। वह संघ तो वह संघ रहा ही नहीं जो दीनदयाल उपाध्याय को भारतीय जनसंघ में काम करने की जिम्मेदारी सौंपता है। वह संघ होता तो आज जरूर सवाल उठाता कि आखिर दीनदयाल से इस दगाबाजी से भाजपा क्या हासिल करना चाहती है? नरेन्द्र मोदी?

Saturday, September 14, 2013

नरेन्द्र मोदी लाइव

13 सितंबर 2013। शाम के पांच बज चुके थे। अशोक रोड को एक बार फिर दोनों ओर से बंद कर दिया गया था। रायसीना की तरफ से आनेवाली गाड़ियों को इंडिया गेट की तरफ जाने से रोक दिया गया था। उन पत्रकारों की गाड़ियों को भी बैरिकेटिंग के भीतर नहीं जाने दिया जा रहा था जिन्हें पहुंचने में पांच बज गया था। ठीक बीच सड़क में भाजपा कार्यालय के सामने कोई डेढ़ दो दर्जन लोग पटाखे और फुलझड़िया छुड़ाते हुए मीडिया के सामने पोज बन रहे थे। यह मोदी के आकर्षण से ज्यादा कैमरों का आकर्षण नजर आ रहा था कि मुट्ठीभर लोग चिल्ला चिल्लाकर पूरे देश को यह संदेश दे रहे थे कि भाजपा ने नई सोच के साथ नई दिशा पकड़ ली है। पटाखों और फुलड़ियों की लड़ियां इतनी थीं कि आनेवाले दो तीन घण्टों तक वे अभी और इसी तरह अपना उत्साह कायम रख सकते थे।

ढोल ताशों और नगाड़े वालों की तो मानों बारात ही आ गई थी। वैसे भी कोई शादी विवाह हो कि सामाजिक धार्मिक उत्सव। ये ढोल ताशेवाले हमेशा इतने उत्साह में रहते हैं कि बारात उन्हीं के घर से निकलकर उन्हीं के किसी रिश्तेदार के घर में पहुंच रही है। इसलिए इनके इत्साह को भाजपा का उत्साह मान लेना थोड़ी सी भूल हो जाएगी। भाजपा कार्यालय के बाहर और भीतर ये ढोल ताशे वाले समान रूप से मौजूद थे और पूरे जूनून में नगाड़ा पीट रहे थे। कुछ उत्साही लोगों के हाथ में जो बैनर नजर आ रहा था उसमें भाजपा को इस बात के लिए धन्यवाद दिया गया था कि उन्होंने नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार घोषित कर दिया है।

पांच बजकर दस मिनट।
भाजपा कार्यालय के भीतर भाजपा कार्यकर्ताओं से ज्यादा मीडिया, कैमरों और स्वतंत्र पर्यवेक्षकों की भीड़ नजर आ रही है। सुरक्षा जांच से गुजरकर अंदर आनेवाली झंझट खत्म करने के लिए  भाजपा कार्यालय के दो दरवाजों में से एक को खोल दिया जाता है। लेकिन बाहर अगर पैसा लेकर नगाड़ा पीटनेवाले बैंड बाजा बाराती ही अब तक जमा हो पाये हैं तो अंदर भी टीवी चैनल के कैमरामैनों की सक्रियता ज्यादा नजर आ रही है। भाजपा कार्यालय के मुख्यभवन के मुख्य द्वारा पर कोई दो तीन दर्जन टीवी कैमरामैन और इतने ही फोटोग्राफर मुंह बाये खड़े हैं। कुछ तो इतने उत्साही हैं कि छत पर चढ़ गये हैं और वहां से मुख्य द्वार को "शूट" करने की पोजीशन लेकर खड़े हो गये हैं।

पांच बजकर बीस मिनट।
शहनवाज हुसैन और विजय सोनकर शास्त्री सहित ऐसे ही अनेक बी ग्रेड नेताओं के चेहरे दिखने लगते हैं जिन्हें प्रवक्ता पद दिया गया है। आगे पीछे ऐसे ही कुछ नेता और कुछ नेता नुमा लोग नजर आ रहे हैं जबकि मुख्य भवन के पिछवाड़े में तेजी से एक अस्थाई मंच बनाने का काम शुरू कर दिया गया है। न जाने किन टीवी चैनलों ने अपने ट्राली कैमरे का झंडा भी यहां गाड़ दिया है और वे लोग भी अपनी अपनी जुगत बनाने में लगे हुए हैं। पिछवाड़े लान में इधर उधर छुटभैये नेता दो दो चार चार की झुंड में खड़े हैं और पत्रकार बिरादरी ने भी अपनी अपनी जान पहचान के हिसाब से अपने अपने झुंड विकसित कर लिये हैं। मानों सब इस ऐतिहासिक क्षण के गवाह बनने की प्रतीक्षा कर रहे हों।

पांच बजकर तीस मिनट।
मुख्य द्वार से पहली बड़ी गाड़ी अंदर आती है। पता चला सफेद होण्डा एकार्ड कार में जो नेता आई हैं वे सुषमा स्वराज हैं। इस बीच भाजपा कार्यालय के भीतर चल रहा टीवी चैनल बताता है कि भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह भी अपने घर से चल चुके हैं। अशोक रोड पर ही दो चौराहा पार करके रहनेवाले राजनाथ सिंह को पहुंचने में कितनी देर लगेगी इसका अंदाज लगाना ज्यादा मुश्किल नहीं था। मंच बनानेवाला बड़ी फुर्ती से काम कर रहा है और जितने कैमरामैन आगे गेट पर मौजूद थे करीब उतने ही वहां भी आकर खड़े हो गये। इतने ही अंदर प्रेस कांफ्रेस रूम में सेट थे। लगता था टीवी चैनलों ने आज अपनी सारी ताकत भाजपा कार्यालय के भीतर झोंक दी थी। टीवी रिपोर्टिंग के लिहाज से एकसाथ तीन सेट तैयार हो रहे थे। एक भाजपा भवन के गेट पर। दूसरा सार्वजनिक सभा के मंच पर और तीसरा प्रेस कांफ्रेस वाले हाल में। लेकिन अभी भी कार्यकर्ताओं की भीड़ कमोबेश नदारद।

छह बजकर जीरो मिनट।
भाजपा कार्यालय के भीतर जो टीवी चल रहा था अचानक उस पर ब्रेकिंग न्यूज आती है कि आडवाणी संसदीय समिति की बैठक में नहीं आयेंगे। इसी के साथ उस टीवी चैनल पर एक खबर फ्लैश करती है कि नरेन्द्र मोदी का काफिला गुजरात भवन से चल चुका है और बस थोड़ी ही देर में उनका काफिला भाजपा कार्यालय के भीतर दाखिल होनेवाला है। मंच तैयार करनेवाले कारीगरों ने जो साउण्ड सिस्टम लगाया है उस पर देशभक्ति के गाने बजने शुरू हो गये हैं और बीच बीच में माइक चेक माइक चेक की आवाज से वह पोडियम के माइक को भी सेट कर रहा है। अब तक भाजपा कार्यालय के भीतर अप्रत्याशित रूप से लोग नजर आने लगे हैं और नगाड़ों की धुन बाहर और भीतर लगभग समान हो गई है। पूरा भाजपा कार्यालय जितने कार्यकर्ताओं से भर सकता था भर रहा था लेकिन वहां आनेवाले ज्यादातर लोग मुख्य दरवाजे के आस पास ही सिमटे हुए थे। कुछ इस लिहाज से कि मोदी दर्शन होंगे तो कुछ टीवी पर खुद का दर्शन करने की जुगत लगाये हुए थे। मोदी तो अभी तक भाजपा कार्यालय के भीतर अभी तक नहीं आये थे लेकिन उनके दो आदमकद कट आउट भाजपा कार्यालय के भीतर जरूर पहुंच चुके थे।

छह बजकर बीस मिनट।
गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी का काफिला भाजपा कार्यालय में प्रविष्ट हो जाता है। काफिला क्या है उनकी एक बुलेटप्रूफ स्कार्पियो जीप है और वैसी ही एक दूसरी जीप भी है। साथ में एस्कार्ट का एक दूसरा वाहन भी। फिर भी इस काफिले के भाजपा कार्यालय के भीतर प्रवेश करते ही नेता, पत्रकार और कार्यकर्ता हर आदमी सक्रिय नजर आने लगता है। ढोल ताशेवाले अभी भी अपनी रौं में बह रहे हैं। घण्टों बजाते रहने का उनका अभ्यास साफ दिखाई दे रहा है। पीछे सार्वजनिक सभास्थल पर भाजपा के कार्यालय प्रभारी रहे श्याम जाजू व्यवस्था बनाते हुए दिखने लगते हैं। भाजपा कार्यालय के मुख्य भवन के भीतर क्या चल रहा है यह तो किसी को पता नहीं क्योंकि अंदर किसी के भी जाने की मनाही थी लेकिन अब पीछे बने अस्थाई मंच पर श्याम जाजू प्रकट होते हैं और वे सूचित करते हैं कि जिस घड़ी के लिए आप सब लोग यहां इकट्ठा हुए हैं वह घड़ी बस अब जल्द ही आनेवाली है। वे सार्वजनिक रूप से सूचित भी करते हैं कि मोदी जी भाजपा कार्यालय में पधार चुके हैं।

छह बजकर तीस मिनट।
श्याम जाजू की औपचारिक घोषणा के बाद एक नेतानुमा व्यक्ति माइक पकड़ लेता है जिसके बोलने के अंदाज से वह भी महाराष्ट्र या गुजरात का ही कोई व्यक्ति नजर आता है। जहां डाल डाल पर सोने की चिड़िया करती है बसेरा वाला गाना बंद हो चुका है और वह नेता नारे लगवाता है। अटल बिहारी जिन्दाबाद। नरेन्द्र मोदी जिन्दाबाद। राजनाथ सिंह जिन्दाबाद। यही तीन नारे तीन चार बार लगवाने के बाद वह चुप हो जाता है। लेकिन जैसे उसे तत्काल यह महसूस हो जाता है कि उससे कोई गलती हो गई है। इसलिए वह दोबारा माइक पकड़ता है और आडवाणी जिन्दाबाद के नारे लगाता है। इसके बाद तो उसे जिस नेता का नाम याद आ जाता है उसके जिन्दाबाद का नारा लगवाने लगता है लेकिन बड़ी सफाई से हर नाम के साथ मोदी का नाम जोड़ रहा था। ऐसी नारेबाजी शायद आपने भी कभी नहीं सुनी हो जैसी नयी रचना करके वह आया था। नितिन गडकरी मोदी जिन्दाबाद। राजनाथ सिंह मोदी जिन्दाबाद। सुषमा स्वराज मोदी जिन्दाबाद। अरुण जेटली मोदी जिन्दाबाद। संकेत साफ था अब हर नेता की पहचान मोदी की पहचान से मिल चुकी है।

छह बजकर पैंतालीस मिनट।
मंच के ठीक पीछे बने हाल से निकलकर नरेन्द्र मोदी और राजनाथ सिंह मंच पर आते हैं। वहां मौजूद सैकड़ों लोगों को शायद उम्मीद रही हो कि वे संबोधन भी करेंगे। इसी आस में माइक वाले ने कई बार माइक चेक माइक चेक भी किया था। लेकिन दोनों नेताओं ने दो मिनट से ज्यादा मंच पर नहीं गुजारा। हाथ हिलाकर अभिवादन किया। पोज दिया और जिस तरह भारी धक्का मुक्की के बीच दोनों नेता मंच पर आये थे उसी तरह भारी धक्का मुक्की के बीच वापस चले गये। हां इस बीच मंच के ठीक ऊपर मंडराते चीलों का झुंड भी अब जा चुका था। न जाने कहां से चीलों का यह झुंड ठीक भाजपा कार्यालय के पिछवाड़े बने इस मंच के आसमान में पहुंच गया था और करीब आधे घण्टें तक वहीं मंडराता रहा था। नीचे राजनाथ और मोदी ऊपर चीलों का झुंड कमोबेश साथ साथ ही वहां से विदा हुए।

सात बजकर शून्य मिनट।
जिस तरह भाजपा कार्यालय के भीतर पहली गाड़ी सुषमा स्वराज की अंदर आई थी ठीक उसी तरह उन्हीं की 0008 नंबरवाली होन्डा एकार्ड गाड़ी सबसे पहले बाहर गई। थोड़ी ही देर में पदयात्रा करके बाहर जाते नितिन गडकरी भी दिखे तो कुछ नेता दूसरे दरवाजे से भाजपा कार्यालय से दूर चले गये। करीब घण्टे भर के भीतर जो नेता और कार्यकर्ता अचानक से भाजपा कार्यालय पर उपस्थित हुए थे वे भी रेले की शक्ल में बाहर जाने लगे थे। मोदी की गाड़ी अभी भी भाजपा कार्यालय के भीतर खड़ी थी और खुद मोदी भीतरखाने की राजनीतिक बैठक कर रहे थे। इस बीच कुछ मिठाई के डिब्बे भी घूमने लगे जो मोदी जी को पीएम कैंडिडेट बनाये जाने पर मुंह मीठा करवा रहे थे। पत्रकारों को अलग से पूरा पूरा डिब्बा दे दिया गया था। शायद उनकी मेहनत को देखते हुए उनके लिए यह जरूरी भी था।

सात बजकर पंद्रह मिनट।
नरेन्द्र मोदी का वह काफिला अब आगे जाने के लिए अपनी जगह छोड़कर आगे खिसक जाता है। शायद उन्हें संदेश आ गया था कि वे मुख्य दरवाजे पहुंच जाएं मोदी जी निकलनेवाले हैं।

पिछले करीब छह महीने से भाजपा के भीतर परिवर्तन की जो कवायद शुरू की गई थी वह सवा दो घण्टे में पूरी हो गई। खुद मोदी इन सवा दो घण्टों में सिर्फ गिनती के 55 मिनट शामिल हुए लेकिन इन 55 मिनटों की तैयारी उन्होंने साढ़े पांच साल पहले ही शुरू कर दी थी जिसे आज वे सिर्फ 55 मिनटों में निपटाकर चलता बने। बाद में टीवी ने सूचना दी कि नरेन्द्र मोदी आडवाणी से आशिर्वाद लेने उनके घर भी गये और बीमार अटल बिहारी वाजपेयी के भी घर। लेकिन देर रात ग्यारह बजे तक उनका विशेष विमान वापस गांधीनगर की धरती पर उतर चुका था और दिल्ली से जो हासिल करके लौटे थे उसके स्वागत सत्कार में व्यस्त हो गये थे। ये जो सवा दो घण्टे पीछे छूट गये थे उसमें भले ही देश में मोदी के आने को लेकर उत्साह की नई सोच का संचार कर दिया जाए लेकिन कम से कम भाजपा दफ्तर के भीतर जो भी मौजूद रहे होंगे उन्होंने एक बात बहुत शिद्दत से महसूस की होगी सवा दो घण्टे का यह आयोजन भी पूरी तरह से प्रायोजित था। पता नहीं टीवीवालों ने क्या दिखाया लेकिन मोदी के अलावा वहां से वापस लौटते किसी भी नेता के चेहरे पर परिवर्तन की खुशी दिखाई नहीं दे रही थी।

Tuesday, September 10, 2013

बहुत बलात्कारी है बलात्कार

बिना शक बलात्कार किसी महिला के साथ किया गया सबसे जघन्य अपराध है। लेकिन क्या इस देश को बलात्कारी साबित करने की कोई गंभीर साजिश चल रही है? पिछले कुछ महीनों में बलात्कार के खिलाफ जो सक्रियता और जागरूकता सामने आई है वह काबिले तारीफ तो है लेकिन अब जिस तरह से इस हर प्रकार के शारीरिक संबंधों को बहुत सफाई से बलात्कार की श्रेणी में रखा जाने लगा है वह इस बात की ओर गंभीर सवाल उठाता है कि क्या इसके पीछे कोई गंभीर साजिश चल रही है। यह जो तथाकथित सर्वे आया है संयुक्त राष्ट्र का वह देश के हर चौथे आदमी को बलात्कारी साबित कर रहा है। ऐसा कहकर वे क्या साबित करना चाहते हैं यह तो वे लोग जानें जो इस अभियान में पूंजी लगा रहे हैं लेकिन इस ग्राफिक में प्रेमी या साथी के साथ किये गये सहवास को भी बलात्कार की श्रेणी में रखा गया है। (जाहिर है सबसे ज्यादा बड़ा ग्राफ उसी का है।) यह निहायत आपत्तिजनक है। अमेरिका और यूरोप में लड़के/लड़कियां डेटिंग करें तो शिष्टाचार यहां ऐसा होता है तो बलात्कार। 


लेकिन सिर्फ साथी प्रेमी के साथ किये गये सहवास को ही बलात्कार नहीं समझाया जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र के ये आंकड़े बताते हैं कि कैसे पड़ोसी, मकान मालिक, रिश्तेदार और यहां तक कि पूर्व पति और कुछ मामलों में सौतेला पिता भी बलात्कार करता है। बलात्कार की ऐसा विश्लेषण करते समय अध्ययनकर्ताओं ने एक बात की पूरी तरह से अनदेखी की है। और वह यह कि क्या अनैतिक संबंध को भी बलात्कार की श्रेणी में रखा जा सकता है? अगर आप उन्हीं के आंकड़ों को देखें तो कमोबेश सारे अनैतिक संबंध नजर आते हैं। अगर ऐसे संबंध बलात्कार हैं तो तत्काल उनकी शिकायत क्यों नहीं होती है? निश्चित रूप से ऐसे अनैतिक संबंधों का बाद में पछतावा होता है जिसे इस सर्वे में बलात्कार कहकर परिभाषित कर दिया गया है।

दुनिया के जो देश भारत में बलात्कार को लेकर कुछ ज्यादा ही चिंतित नजर आ रहे हैं उनकी असली चिंता को उनके अपने ही देश में टीन पोर्न के बढ़ते कारोबार से होनी चाहिए। लेकिन संबंधों की कच्ची समझ को वे अपने यहां किसी और तरह से परिभाषित करते हैं लेकिन जब विकासशील देशों की बात आती है तो वे इसे अपराध की श्रेणी में रखकर देखते हैं। अनैतिक संबंधों का पैरोकार न कभी यह समाज रहा है और न ही हुआ जा सकता है। मध्यकाल के भक्ति आंदोलन में कवियों ने उस भीषण दौर में भी पर नारी के प्रति सम्मान बनाये रखने के तरह तरह के उपाय सुझाये थे और इसे गंभीर पाप बताकर इससे दूर रहने की सलाह दी थी। जाहिर है, ये भक्तिकालीन कवि अपनी तरह के एक समाज सुधार को संचालित कर रहे थे जिसमें स्त्री पुरुष संबंधों की नैतिकता को बहुत शीर्ष पर रखा गया था। 


लेकिन अब जो लोग अनैतिक संबंध को अपराध घोषित कर चुके हैं वे लोग इस देश को नष्ट करके ही मानेंगे। हो सकता है एकदम से यह बात सुनकर यह कोरी गप्प नजर आये कि इन सबके पीछे दुनिया के विकसित देशों की अति विकसित योजनाएं हैं लेकिन योजनाएं हैं और यह सब अनायास नहीं है। बलात्कार की भीषण से भीषण परिभाषा गढ़ी जा रही है और यह यह साबित किया जा रहा है कि इस देश में हर पुरुष बलात्कारी है और हर महिला बलात्कार की शिकार है। सब प्रकार के शारीरिक संबंध को सिर्फ बलात्कार की श्रेणी में क्यों घसीटा जा रहा है?

इस पर बहुत विस्तार से सोचने की जरूरत है कि कैसे बलात्कार के नाम पर छद्म बलात्कार का आवरण खड़ा किया जा रहा है और एक साजिश के तहत शारीरिक संबंध बनाने को इस देश का सबसे बड़ा अपराध बनाया जा रहा है। आखिर क्या कारण है संयुक्त राष्ट्र की सांस सीरिया संकट से ज्यादा भारत के बलात्कार संकट पर अटकी हुई है? अमेरिकी एनजीओ और अकादमिक लोग अपने देश की लंपटई की चिंता छोड़ अचानक भारत के बलात्कार को सुधारने का बीड़ा उठाकर क्यों निकल पड़े हैं? भारत में जो लोग बलात्कार के खिलाफ अचानक बड़े भारी आंदोलनकारी बनकर उभर रहे हैं उनको कहां से पैसा मिल रहा है और क्यों?

अमेरिका और यूरोप ने संयुक्त राष्ट्र सहित अनेक एजंसियों के जरिए एशिया की परिवार व्यवस्था को नष्ट करने की जो दीर्घकालिक योजना चला रखी है यह सब उसी का नतीजा है। विवाह में सख्त दहेज कानून के कारण पहले ही यह देश उजाड़ हुआ जा रहा है और शादी समाज का सबसे बड़ा संकट बनता जा रहा है और अब विवाह पूर्व या विवाहेत्तर संबंधों को बलात्कार बताकर बहुत योजनाबद्ध तरीके से इस देश को गे और लेसिबियन बनाने की लंबी साजिश शुरू कर दी गई है।

आम आदमी के लिए आई-फोन

आखिरकार एप्पल कारपोरेशन ने सौ डॉलर का सौदा कर ही लिया। अमेरिका के लास एजिल्स शहर में एप्पल कंपनी की ओर से जिन दो नये आईफोन को बाजार में उतारने की घोषणा की गई उसमें आई-फोन 5 सी का 16 जीबी मॉडल अमेरिकी बाजार में 99 डॉलर में उपलब्ध होगा। जबकि इसी फोन का 32 जीबी मॉडल 199 डॉलर में मिलेगा।

एप्पल कंपनी के इतिहास में यह ऐसा पहला मौका है जब उन्होंने कोई ऐसा प्रोडक्ट बाजार में उतारा है जिसकी कीमत बाजार की प्रतिस्पर्धा को ध्यान में रखते हुए तय की गई है। लंबे समय से इंटरनेट की तकनीकि दुनिया में कयास लगाये जा रहे थे कि एप्पल कोई बड़ा धमाका कर सकता है। लेकिन इतना बड़ा धमाका कर देगा यह उन तकनीकि विशेषज्ञों को भी अंदाज नहीं था। उनका कयास था कि एप्पल 200 डॉलर से 300 डॉलर के बीच की कीमत वाला 5सी बाजार में ला सकता है जो कि उसके आनेवाले मॉडल 5एस से काफी कम समझा जाएगा। आईफोन का 5सी मॉडल बाजार में उतारने के साथ ही एप्पल ने ऐलान कर दिया है कि अब वह बाजार बनाने में ही नहीं बाजार में खड़े रहने की रणनीति पर काम करना सीख रहा है।

एप्पल के संस्थापक स्टीव जॉब्स के निधन के बाद एप्पल की ओर से अब तक किसी नये प्रोडक्ट की लांचिग तो एप्पल ने नहीं की है जो तकनीकि की दुनिया को नये सिरे से बदल दे लेकिन बाजार के साथ तालमेल बिठाकर बाजार में मजबूती से खड़े रहने की उसकी कोशिश साफ दिखाई दे रही है।

अमेरिका और यूरोप में 100 डॉलर के आईफोन की क्या मांग होगी यह तो कहना मुश्किल है लेकिन एप्पल के लिए महत्वपूर्ण हो चुके भारत जैसे मोबाइल मार्केट में एप्पल का 5सी नये सिरे से जंग जरूर छेड़ेगा। रूपये और डॉलर की कीमतों और मोबाइल आयात पर लगनेवाले शुल्क, तथा विक्रेताओं के मुनाफे को समायोजित करते हुए एप्पल आईफोन-5सी की कीमत भारत में 20 हजार के आस पास रखी जा सकती है। फिलहाल भारत में एप्पल के तीन आईफोन बाजार में बिक रहे हैं जिसमें आईफोन-4 भी शामिल है जो कमोबेश दुनिया के विकसित बाजार से हटाया ही जा चुका है। लेकिन भारत में आईफोन के क्रेज को देखते हुए यहां आईफोन-4 और आईफोन-4एस बाजार में मौजूद हैं जिनकी कीमत 22 हजार से लेकर 35 हजार के बीच है।

आईफोन-5 भारत में एप्पल का उसी तरह प्रीमियम फोन है जैसे दुनिया के बाजार में है। लेकिन अब जैसी की अफवाहें हैं एप्पल 3.7 इंच की स्क्रीन वाले मोबाइल का उत्पादन बंद करने जा रहा है। इसका कारण यह है कि उसके एप्प डेवलपर को मुश्किल आ रही है। लिहाजा अब एप्पल के सारे आईफोन सिर्फ 4 इंच स्क्रीन में ही मौजूद रहेंगे। ऐसे में आईफोन-4 और आईफोन-4एस के विदा होने के दिन आ गये हैं। जाहिर है इस कमी को एप्पल अपने आईफोन-5सी मॉडल से पूरा करेगा जबकि प्रीमीयम सेगमेन्ट में उसके आईफोन-5 और आईफोन-5एस दोनों पहले की तरह मौजूद रहेंगे। ये सभी फोन रेटिना डिस्प्ले के साथ 4 इंच स्क्रीन साइज में उपलब्ध रहेंगे।

एप्पल के ताजा ऐलान के अनुसार आईफोन-5सी और 5एस दोनों ही फोन में नया आपरेटिंग सिस्टम इंस्टाल किया गया है आईओएस-7। आईफोन 5 सी भले ही एप्पल का आल प्लास्टिक बॉडी फोन हो लेकिन 8 मेगापिक्सल का कैमरा और वीडियो कॉलिंग (फ्रंट फेसिंग कैमरा) देकर इसे थ्री जी कम्पैटिबल बनाया गया है। पांच रंगों में उपलब्ध आईफोन-5 सी एप्पल का ए-6 चिप इस्तेमाल किया गया है। जबकि आईफोन 5एस में ए-7 चिप इस्तेमाल करने के साथ ही पहली बार ट्रैक पैड दिया गया है। यानी एप्पल का होम बटन आईफोन-5एस में बतौर ट्रैक पैड भी इस्तेमाल किया जा सकेगा। अमेरिका में आईफोन 5एस  आईफोन-5 का अपडेट होगा जो कि 200 से 400 डॉलर के बीच विभिन्न टेलिफोन कैरियर के जरिए बेचा जाएगा।

आफोन के ये दोनों नये मॉडल संभवत:  इस साल के आखिर तक भारतीय बाजार में बिक्री के लिए उपलब्ध करवा दिये जाएंगे। 

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