Wednesday, July 20, 2016

कश्मीर में किसका आत्मनिर्णय?

बंटवारे के एक महीने बाद ही फेफड़े के रोगी मोहम्मद अली जिन्ना कश्मीर में छुट्टियां मनाने के लिए आना चाहते थे। उन्हें तब तक 'यह नहीं पता था' कि कश्मीर के महाराजा ने उसी तरह कोई फैसला नहीं लिया है जैसे जूनागढ़, हैदराबाद और बलोचिस्तान के नवाबों ने कोई फैसला नहीं लिया है कि उन्हें करना क्या है? क्या वे स्वतंत्र देश बनें या अपनी मर्जी के मुताबिक जहां चाहें वहां चले जाएं। हैदराबाद के पास पाकिस्तान जाने की कोई भौगोलिक संभावना नहीं थी तो बलोचिस्तान चाहकर भी भारत के साथ नहीं आ सकता था। सिर्फ कश्मीर और जूनागढ़ के शासकों के पास यह अवसर था कि वे भारत या पाकिस्तान में से किसी एक को चुन लें या फिर दोनों को ठुकरा दें।

जूनागढ़ के नवाब बहुत देर तक टिक न सके। बहुसंख्यक जनता हिन्दू थी इसलिए चाहकर भी वे जूनागढ़ को पाकिस्तान न ले जा सके। आखिरकार खुद उड़कर पाकिस्तान चले गये। अब बच गया कश्मीर जहां के महाराजा हरि सिंह के सामने वैसी ही दुविधा थी जैसी जूनागढ़ के नवाब के सामने। कश्मीर जिसे उनके पुरखों ने ९० लाख रूपये में खरीदा था उसकी बहुसंख्यक प्रजा मुस्लिम थी। हिन्दुओं से सवाई ज्यादा। लेकिन महाराजा हरि सिंह ने इस तथ्य के बावजूद जिन्ना को श्रीनगर प्रवेश की अनुमति नहीं दी। वे उस वक्त १५ सितंबर तक स्वतंत्र थे और उन्होंने कोई निर्णय नहीं लिया था। जिन्ना को जब उनके अंग्रेज गुप्तचरों ने खबर दी कि महाराजा हरिसिंह ने उनके श्रीनगर प्रवेश की अनुमति नहीं दी है तो जिन्ना बौखला गये। उन्होंने अपने प्रधानमंत्री लियाकत अली खान को बुलाया और कहा कि यह कैसे हो सकता है? जब वहां की आधी से ज्यादा आबादी मुस्लिम है तो वह स्वाभाविक तौर पर पाकिस्तान का हिस्सा है। फिर महाराजा कैसे हमें वहां रोक सकता है?

वह सितंबर का ही महीना रहा होगा जब जिन्ना और लियाकत अली की बात हुई। कश्मीर पर "जायज" कब्जा करने के अपने इरादे से लियाकत अली खान ने कश्मीर में विद्रोह का सहारा लेने का रास्ता अख्तियार किया। लेकिन कश्मीर के भीतर मुजाहिद तैयार करने में वक्त लगता। इतना वक्त और धैर्य न जिन्ना के पास था और न ही लियाकत अली के पास। उन्हें नये देश की माली हालत से ज्यादा कश्मीर को पाकिस्तान में मिलाने की चिंता सताने लगी। फौरी तौर पर जो रास्ता अख्तियार किया गया वह यह कि खूंखार पठानों को कश्मीर में जिहाद के लिए तैयार किया गया। हो सकता है, उन्हें हूरों का लालच भी दिया गया हो जो कि बलात्कारों के जरिए कश्मीर में हासिल भी किया, कारण जो भी रहा हो, पठान तैयार हो गये। मुजफ्फराबाद होते हुए वे श्रीनगर से ३५ मील पहले बारामुला के एक गिरजाघर में १४ ईसाई कुंआरियों के बलात्कार में रत थे कि इधर महाराजा हरिसिंह ने मेनन के जरिए भारत की मदद मांग ली थी।

दरअसल जिन्ना की गुप्त योजना अंग्रेज सैन्य अधिकारियों के जरिए ही भारत के अंग्रेज सैन्य अधिकारी तक पहुंच गयी थी। बंटवारे का खाका खीचकर लंदन से भारत पहुंचे लार्ड माउण्टबेटन बंटवारे के बाद वॉयसराय के बतौर नई दिल्ली में मौजूद थे। पुराने किले में खून से लथपथ लहुलुहान लोगों की तंगहाली और बदहाली से बस चंद मील दूर आलीशान वॉयसराय हाउस में नयी सरकार का कामकाज सामान्य करने में वे मदद कर रहे थे। उन्होंने ही प्रधानमंत्री नेहरू को एक सरकारी भोज कार्यक्रम के बाद बताया कि कबाइली कश्मीर में घुस आये हैं। २२ अक्टूूबर की रात माउण्टबेटेन ने नेहरू को यह सूचना दी और २६ अक्टूबर की सुबह सेना की पहली टुकड़ी श्रीनगर एयरपोर्ट पर थी। इन चार दिनों के भीतर कश्मीर में बहुत सारे घटनाक्रम घटित हो चुके थे। वीके मेनन जो कि उस वक्त रजवाड़ों के विलय का काम देख रहे थे वे श्रीनगर पहुंच चुके थे और उन्होंने महाराजा हरिसिंह को सलाह दी थी कि वे श्रीनगर छोड़कर जम्मू चले जाएं। महाराजा ने मेनन की सलाह मान ली थी और जम्मू पहुंचकर उन्होंने अपने निजी सचिव को यह आदेश दिया कि उन्हें तभी उठाया जाए जब मेनन का प्लेन दिल्ली से वापस आ जाए। अगर सुबह तक प्लेन नहीं आता है तो उन्हें नींद में ही गोली मार दी जाए। क्योंकि वो उठकर भी क्या हासिल करेंगे? तब तक सबकुछ खत्म हो चुका होगा।

लेकिन उन्हें गोली मारने की नौबत नहीं आई। उनके जागने से पहले ही मेनन उनके पास थे जिनके हाथ में एक संधिपत्र था जिस पर सिर्फ महाराजा हरि सिंह के हस्ताक्षर होने थे। इस संधि पत्र का प्रस्ताव लार्ड माउण्टबेटेन के साथ उस बातचीत में आया था जब उन्होंने नेहरू को कश्मीर में जिहाद की जानकारी दी थी। उस वक्त नेहरू बहुत हताश हो गये थे। तब माउण्टबेटन ने ही उनके सामने लाचारी दिखाई थी कि हम चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते। सैकड़ों की तादात में उस समय ब्रिटिश सैलानी श्रीनगर में मौजूद थे फिर भी वे सीधे सैन्य हस्तक्षेप नहीं कर सकते थे क्योंकि कश्मीर के महाराजा ने कोई "अंतिम" निर्णय नहीं लिया है। लेकिन नेहरू अपनी मातृभूमि को इस तरह कबाइली जिहादियों के हाथ बर्बाद होते हुए नहीं देख सकते थे। वे बहुत भावुक हो गये थे। तब नेहरू के सामने लार्ड माउण्टबेटेन ने ही प्रस्ताव रखा था कि कश्मीर में एक ही स्थिति में सैन्य हस्तक्षेप हो सकता है कि वहां परिस्थिति सामान्य हो जाने के बाद हम वहां के लोगों से पूछेंगे कि वे किसके साथ रहना चाहते हैं, तभी कोई अंतिम फैसला होगा। भारी मन से ही सही, नेहरू तैयार हो गये।

यह माउण्टबेटन की वह आखिरी चाल थी जिसने भारत को हमेशा के लिए एक रिसता हुआ घाव दे दिया। देश के जितने छोटे बड़े रजवाड़े थे उनमें से सिर्फ प्रिंसली स्टेट को यह अधिकार दिया गया था कि वहां के राजा यह फैसला करें कि वे किसके साथ जाना चाहते हैं, या फिर स्वतंत्र रहना चाहते हैं। जाहिर है यह फैसला उस वक्त राजा या नवाब ही ले रहे थे लेकिन पहली बार बड़ी चालाकी से माउण्टबेटन ने कश्मीर में वहां की "जनता की इच्छा" को जोड़ दिया जो कि अब तक किये गये रजवाड़ों के विलय के बिल्कुल उलट था। अगर सभी रजवाड़ों में राजा की इच्छा का सम्मान किया गया तो फिर कश्मीर में प्रजा की इच्छा को बीच में क्यों लाया गया?

यह वह सवाल है जो कश्मीर समस्या की बुनियाद बन गया। वादा न तो भारत सरकार ने कश्मीर की जनता से किया था और न ही पाकिस्तान से। यह वायसराय और प्रधानमंत्री के बीच एक नैतिक और वैधानिक संकट से उभरने की चर्चा थी। क्या २२ अक्टूबर को जब मेनन श्रीनगर गये थे तब ही संधि पत्र पर हस्ताक्षर नहीं हो सकता था? हो सकता है उस वक्त दो दिन की यह देरी दशकों की मुसीबत का सबब न नजर आया हो लेकिन महाराजा कबाइली हमले की सूचना मिलने के दिन से भारत में विलय को तैयार थे। वे मुस्लिम सैनिक जो उनकी सेना में थे वे उन्हें छोड़कर जा चुके थे इसलिए सैन्य रूप से वे इतने ताकतवर नहीं रह गये थे कि अकेले कबाइली हमले का सामना कर पाते। लिहाजा, कश्मीर के भारत में विलय के अलावा उनके पास और कोई रास्ता नहीं था।
इसलिए आज अगर संसद में कांग्रेस पार्टी की चौथी पीढ़ी का कोई सांसद अगर यह कहता है कि कश्मीर में जनमत सर्वेक्षण होना चाहिए तो वह महाराजा हरि सिंह की उस इच्छा का ही अपमान करता है जो उन्होंने भारत में विलय के साथ प्रकट की थी। उसे चाहिए कि वह कश्मीर को उसी राजनीतिक चश्मे से देखे जिससे नेहरू ने १९४७ में देखा था।

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