Sunday, August 4, 2013

धराशाई हो गई स्काई बस

करीब एक दशक तक हवा में उल्टा लटकाने के बाद स्काई बस को धराशायी करने की घोषणा कर दी गई है। समाचार एजंसी पीटीआई ने खबर करी है कि कोंकण रेलवे अब गोवा में प्रायोगिक तौर पर बने एक मील लंबे रास्ते को जमींदोज कर देगा और इसके साथ ही प्रायोगिक तौर पर शुरू की गई परियोजना प्रायोगिक तौर पर खत्म भी जाएगी। दो डिब्बों वाली वह स्काई बस जो अब तक गोवा में उल्टी लटकी हुई थी, शायद सीधी करके जमीन पर फेंक दी जाएगी। और इसके साथ ही देश के नक्शे से एक ऐसे प्रयोग का नामोनिशान हमेशा के लिए मिट जाएगा जिसके पीछे पूरी तरह से एक भारतीय तकनीशियन का दिमाग और साहस काम कर रहा था। उधार की पूंजी और उधार की तकनीकि के सहारे दुनिया का सिरमौर बनने का दावा करनेवाले इस उभरती महाशक्ति के मुंह पर इसससे करारा तमाचा और क्या हो सकता है?

तब 2003 में गोवा में छुट्टियां बिताने वाले अटल बिहारी वाजपेयी ने गोवा को नये साल का तोहफा दिया था- स्काई बस। गोवा जैसे आधुनिक राज्य के लिए परिवहन की एक ऐसी आधुनिक व्यवस्था दी थी जो कम खर्चीली, पर्यावरण के अधिक अनुकूल और सबसे बढ़कर विशुद्ध भारतीय सोच से उपजी थी। लेकिन 2003 से लेकर 2013 तक यह परियोजना एक मील से आगे नहीं सरक पाई। यह वक्त ठीक वही वक्त था जब उन्हीं अटल बिहारी वाजपेयी ने साल भर पहले 2002 में दिल्ली मेट्रो के लगभग उतने ही लंबे रूट का उद्घाटन किया था। शाहदार से सीलमपुर। शाहदरा से सीलमपुर वाली वह मेट्रो अब अकेले दिल्ली में परिवहन का सबसे मुख्य साधन हो गई है और उसका कुल रूट विस्तार 190 किलोमीटर हो चला है। इसी एक दशक में दिल्ली मेट्रो दिल्ली से निकलकर यूपी, कर्नाटक, महाराष्ट्र, गुजरात, केरल, तमिलनाडु और हिमाचल प्रदेश में अपने पैर पसार रही है तो स्काई बस एक मील से आगे का रास्ता तय नहीं कर पाई।

दिल्ली मेट्रो और स्काई बस मेट्रो की तुलना का एक बड़ा कारण दोनों ही रेल प्रणालियों के प्रमुखों का नाम है। दिल्ली मेट्रो परिवहन रेल प्रणाली को आगे बढ़ाने का काम श्रीधरन ने किया जबकि स्काई बस मेट्रो के पीछे बी राजाराम का दिमाग और मेहनत थी। दोनों के हिस्से में एक बड़ी परियोजना की सफलता है। रेलवे की वह महत्वाकांक्षी और बड़ी परियोजना थी कोंकण रेलवे। इसी कोंकण रेलवे के चीफ कभी श्रीधरन हुआ करते थे, लेकिन श्रीधर दिल्ली मेट्रो के चीफ बने तो उसके बाद यह जिम्मा बी राजाराम के पास आ गया। दोनों ही तकनीशियन थे और दोनों के खाते में महत्वाकांक्षी कोंकण रेल परियोजना को पूरा करने का समान सम्मान जाता है। लेकिन एक अगर दिल्ली मेट्रो बनाकर सफलता की सीढ़ियां चढ़ गया तो दूसरा धूल फांकते हुए धूल धूसरित हो गया। ऐसा क्यों हुआ?

ऐसा इसलिए हुआ कि श्रीधरन बड़ी पूंजी के पैरोकार बन गये। उन्होंने एक ऐसी परियोजना को हाथ में ले लिया जिसमें जापान पूंजी निवेश कर रहा था। दिल्ली मेट्रो की तकनीकि ही ऐसी है कि इसका अधिकांश साजो सामान विदेश से लाया जा रहा है। देश में सिर्फ उसकी कोच को असेम्बल कर दिया जाता है वह भी एक जर्मन कंपनी द्वारा। इसलिए दिल्ली मेट्रो की परिवहन प्रणाली को सरकारी और निजी दोनों ही स्तरों पर भरपूर समर्थन और पैसा मिला। 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार जाने के बाद केन्द्र की सरकार ने स्काई बस मेट्रो से अपना ध्यान हटा लिया और पूरा जोर मेट्रो रेल प्रणाली पर ही लगा दिया। बी राजाराम अपने दम पर हाल फिलहाल तक पूरा जोर लगाकर स्काई बस की प्रणाली को उम्दा और जरूरत के लिहाज से सबसे जरूरी जरूर बताते रहे लेकिन उनकी बात पर किसी ने कान नहीं दिया।

कोई उनकी बात सुनता भी तो कैसे? श्रीधरन खुद स्काई बस की निंदा करते थे। तकनीकि कारणों से भी और व्यावहारिक कारणों से भी। श्रीधरन के विरोध को तब बड़ा आधार मिल गया जब गोवा में स्काई बस हादसा हो गया 2004 में। यह प्रायोगिकता के दौरान हुआ हादसा था जिसमें एक मजदूर की मौत हो गई थी। राजाराम कहते रह गये कि यह हादसा तकनीकि की खामी की वजह से नहीं बल्कि तकनीकिशियनों की लापरवाही से हुआ है लेकिन मानों स्काई बस के विरोधियों को इसी हादसे का इंतजार था। इस हादसे के बाद तो स्काई बस की चर्चा ही चलता कर दी गई। बी राजाराम ने तब भी हिम्मत नहीं हारी और देशभर में घूम घूमकर कहते रहे कि मेट्रो के मुकाबले स्काई बस मेट्रो आधे पैसे में तैयार हो सकती है और वह पूरी तरह से भारतीय शहरों की जरूरतों के अनुकूल है। उन्होंने बीते साल चीफ जस्टिस आफ इंडिया से भी गुहार लगाई कि वे अपनी तरह से संज्ञान लेकर सरकार को परियोजना शुरू करने की ताकीद करें लेकिन न सुप्रीम कोर्ट ने सुना और न ही सरकार को कुछ सुनाया।

और आखिर में जो खबर आई वह यह कि अब सरकार मेट्रो के प्रायोगिक ढांचे को धराशायी कर देगी। पचास करोड़ रूपये की लागत से निर्मित इस प्रायोगिक परीक्षण लाइन को ध्वस्त करने पर तीन करोड़ और खर्च किये जाएंगे जिसका जिम्मा भी उसी कोंकण रेलवे पर डाल दिया गया है जिसने यह प्रायोगिक लाइन बनाई थी। लेकिन क्या इस प्रायोगिक लाइन के धराशायी हो जाने से भारत का वह सपना धराशायी नहीं हो जाएगा जिसे कोंकण रेलवे ने बड़ी शिद्दत से बुना था? दुनिया का इतिहास यही है कि बड़ी परियोजनाओं को पूरा करनेवाले साहसिक निकाय आगे चलकर किसी संस्थान में तब्दील हो जाते हैं और वे दुनिया के विकास को अपने तरीकों से विस्तार देते हैं। बिल्कुल वैसे ही जैसे दिल्ली मेट्रो के साथ हुआ है। दिल्ली मेट्रो का विस्तार का मतलब है विदेशी पूंजी और तकनीकि का विस्तार। लेकिन अगर यही स्काई मेट्रो का विस्तार होता तो यह तकनीकि के स्तर पर भारत के भीतर भारत की अपनी तकनीकि का विस्तार होता। अब शायद ही कोई राजाराम तकनीकि का ऐसा साहसिक प्रयोग करने की साहस करे जिसका हश्र आखिर में स्काई बस जैसा कर दिया जाए।

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