Sunday, October 20, 2013

आप का सर्वे, आपकी सरकार

सिसरो एसोसिएट भी किसी नयी बला का ही नाम है जो भारत में लोकतंत्र को सुधारने की दिशा में काम करने के लिए नयी नयी मैदान में आई है। पिछले दो आम चुनावों से कारपोरेट अंदाज में पूंजीखोरी के लिए लोकतंत्र का भला करने का जो चलन शुरू हुआ यह उसी कड़ी में एक और नाम लगता है। इधर दो चुनावों से जब से यह जुमला ज्यादा प्रचलित हो चला है कि राजनीति सबसे बड़ा व्यापार है, कारपोरेट घरानों को नाना प्रकार के लोकतांत्रिक हित समझ में आने लगे हैं। सर्वे, ओपिनियन पोल, सोशल मीडिया पर ब्रांडिंग, कैम्पेन के नाना रूपों और रंगों को रंग रोगन करने जैसे कामों को लोकतंत्र और ओपिनियन मेकिंग के लिए जरूरी मानकर कारपोरेट कंपनियों की पहल पर लोकतंत्र का भला करने के लिए कुकुरमुत्तों की तरह सैकड़ों चुनावी दुकानें खुल गई हैं। राजनीतिक कार्यकर्ता अब सिर्फ नारा लगाने के काम में शेष रह गये हैं। बाकी सारा काम धीरे धीरे इलेक्शन मैनेजमेन्ट के जिम्मे होता जा रहा है। लोकतंत्र को मजबूत करने का यह नया प्रयास लोकतंत्र को कितना कमजोर करेगा इसका अंदाज लगाना ज्यादा मुश्किल नहीं है लेकिन अभी तो सिर्फ सिसरो एसोसिएट के जरिए उस आप की चर्चा जिसने अपने ही सर्वे में अपने आपको दिल्ली का सरताज घोषित कर दिया है।

सामान्य परिस्थिति में अगर यह सर्वे सामने आता तो खबर बनाने की बजाय शायद हम इस सर्वे की खबर लेते कि भला कौन सी ऐसी पार्टी है जो अपना सर्वे सार्वजनिक करे और यह न कहे कि उसकी सरकार नहीं बन रही है? अरविन्द केजरीवाल जिस सर्वे के हवाले से अपनी सरकार बनाने का दावा कर रहे हैं वह उन्हीं की पार्टी द्वारा उन्हीं की चहेती कंपनी ने करवाया है जिसका नाम सिसरो एसोसिएट है। सिसरो एसोसिएट से कौन कौन जुड़ा है यह जानने जब हम उसकी वेबसाइट पर पहुंचे तो "प्रोफाइल" पेज अंडर कंस्ट्रक्शन था लेकिन योगेन्दर यादव खुद आगे आये हैं इसलिए इस बात की पूरी संभावना जताई जा सकती है कि सिसरो का कुछ न कुछ योगेन्दर कनेक्शन जरूर होना चाहिए। योगेन्दर सर्वे सिंडिकेट के बेताज सरताज हैं। सीएसडीएस में रहते हुए उन्होंने अपने सर्वेक्षणों के जरिए अभी तक कमोबेश सटीक नतीजे ही दिये हैं और सरताज के सर्वे नतीजों पर सबको कमोबेश भरोसा होता रहा है।

लेकिन सरताज के कहने पर भी सिसको के सर्वे पर एकबारगी भरोसा इसलिए नहीं हो रहा है कि यह उन्हीं के लिए उन्हीं के द्वारा उन्हीं का सर्वे है। सिसको के धनंजय जोशी या सुनीत माथुर वैसे भी इतने जाने पहचाने नाम नहीं है कि मनमानी रिजल्ट देने से पहले बहुत सोच विचार करें। इसे जनमत इसलिए नहीं माना जा सकता क्योंकि इसमें थर्ड पार्टी इंटरवेन्शन (तीसरे पक्ष की सहभागिता) कहीं नहीं है। पार्टियों द्वारा जो आंतरिक सर्वे होते हैं उसके नतीजे तब भी सार्वजनिक नहीं किये जाते जबकि वे अपने ही द्वारा करवाये गये सर्वे में जीत रहे होते हैं। (विजय गोयल जैसे लोगों द्वारा प्रायोजित सर्वे की बात दूसरी है।) वैसी परिस्थिति में भी जीत जाने का दावा किया जाता है अपने ही द्वारा किये गये सर्वे का हवाला नहीं दिया जाता। क्योंकि यह लोकतंत्र के लिए सामान्य परिस्थिति नहीं है इसलिए अब हम सवाल उठाने की बजाय सवाल दबा रहे हैं। मामला मोदी और अरविन्द केजरीवाल से जुड़ा हो तो वैसे भी हमारे सारे सवाल बेमतलब और बेमानी हो जाते हैं।

जैसे प्रचार कंपनियों के जरिए मोदी पूरे देश में छा जाने की कोशिश कर रहे हैं कुछ कुछ उसी तर्ज पर अरविन्द केजरीवाल ने दिल्ली में अपने आपको स्थापित करने की कोशिश की है। कितने स्थापित हुए हैं यह तो वक्त बताएगा लेकिन उनकी ओर से कोशिश में कोई कमी नहीं है। यह अरविन्द केजरीवाल ही थे जिन्होंने पार्टी सबसे बाद में बनाई लेकिन दिल्ली में टिकट का बंटवारा सबसे पहले शुरू किया। यह अरविन्द केजरीवाल ही थे जिन्होंने दिल्ली के आटोरिक्शावालों के पिछवाड़े शीला दीक्षित को गाली देते हुए से पोस्टर लगवाये। उनके प्रचार अभियान का एक महत्वपूर्ण हिस्सा यह बना कि उन्होंने अपनी अच्छाइयों का प्रचार करने की बजाय शीला दीक्षित की बुराइयों का घोषित प्रचार शुरू किया। पोस्टर बैनर लगाकर। दिल्ली की राजनीति में अरविन्द केजरीवाल के कुछ दुस्साहसिक प्रयोगों में एक प्रयोग यह भी था कि दिल्ली में किसी सर्वे के हवाले से उन्होंने यह घोषणा भी कर दी थी कि वे दिल्ली के सबसे पसंदीदा मुख्यमंत्री बन चुके हैं।

अगर अरविन्द का यह सर्वे बिल्कुल सही और सटीक है, योगेन्दर यादव की मौजूदगी के कारण, तो उस सर्वे का क्या जो भाजपा ने करवाया है। विजय गोयल के सर्वे में तो वे दिल्ली के सबसे लोकप्रिय मुख्यमंत्री बनकर उभर रहे हैं और उनके काबिल नेतृत्व के कारण दिल्ली में भाजपा को 37 फीसदी मत मिल रहा है। दूसरे नंबर पर कांग्रेस है जिसे 34 फीसदी मत मिल रहा है। विजय गोयल के सर्वे में अरविन्द की पार्टी को दिल्ली में महज 6 प्रतिशत मत मिल रहा है। जबकि अरविन्द के अपने सर्वे में वे अपनी पार्टी को 32 फीसदी वोट दे रहे हैं। तो इस सर्वे युद्ध में कौन सही बोल रहा है? या फिर कोई सही नहीं बोल रहा है?

यानी आप आगे क्या सोचेंगे इसका निर्धारण अरविन्द केजरीवाल अपने विज्ञापनों से पहले ही सुनिश्चित कर देते हैं। वे कितनी सीट पायेंगे यह तो उनके सर्वे बता ही देते हैं, वे मुख्यमंत्री के बतौर शपथ कहां लेंगे इसकी भी जानकारी वे तब दे देते हैं जबकि बाकी दलों ने अपने अपने प्रत्याशियों तक की घोषणा न की हो। अरविन्द की इसी आक्रामकता के कारण उन्होंने पिछले तीन सालों में वह मुकाम हासिल कर लिया है जो उनके विरोधियों को सिर्फ उनकी आलोचना करने का मौका देता है, वे उनको कोई नुकसान नहीं पहुंचा सकते। ऐसी आक्रामकता हमेशा तब आती है जब आप बहुत गहरे आत्मविश्वास से भरे हों। लेकिन यही गहरा आत्मविश्वास कभी कभी आपको बहुत सूक्ष्म में अहंकार से भरना शुरू कर देती है जो धीरे धीरे आत्मविश्वास को घोर अहंकार में तब्दील कर देती है। हमारे दौर के नरेन्द्र मोदी हों कि अरविन्द केजरीवाल दोनों ही इसी सूक्ष्म अहंकार से पीड़ित प्राणी नजर आते हैं।

अगर ऐसा नहीं होता तो अरविन्द केजरीवाल एकबार को ही सही अपनी ही पार्टी द्वारा करवाये गये सर्वे में अपनी पार्टी को सबसे बड़ी पार्टी का दर्जा दिलवाने से खुद को बचाते। हो सकता है उनका सर्वे सही भी हो लेकिन क्योंकि अपनी जीत का दावा किसी ऐसे माध्यम के जरिए वे खुद कर रहे हैं जो माध्यम कभी भी दलों के दायरे में नहीं हुआ करता तो उनका दावा आत्मविश्वास से ज्यादा अहंकारी दिखाई देता है। ऐसा नहीं है कि अरविन्द केजरीवाल और उनकी टीम इस हकीकत को नहीं जानती होगी लेकिन वे सब कुछ जानते हुए भी अगला एजेण्डा सेट कर रहे हैं। अगर आप सर्वे देखेंगे तो पायेंगे कि अरविन्द ने बड़ी चालाकी से अपने आपको दिल्ली की सबसे बड़ी पार्टी घोषित कर दिया है। कुछ कुछ उसी तरह जिस तरह से अपने सर्वे के सहारे विजय गोयल ने अपने आपको दिल्ली का सबसे लोकप्रिय मुख्यमंत्री घोषित कर दिया है। खबर में उनकी ओर से यह प्रचारित किया गया कि उनकी पार्टी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभर रही है, लेकिन उनके सर्वे में ही साफ साफ कहा गया है कि वे सीधे तौर पर 21 सीटें सीधे तौर पर जीत रहे हैं जबकि 12 सीटों पर उन्हें मार्जिनल विक्ट्री मिल रही है। 21 सीटों पर उन्हें न्यूनतम रूप से हार का सामना करना पड़ रहा है। यानी अगर टोपीवालों ने मेहनत किया तो पार्टी की टीआरपी इतनी हाई हो जाएगी कि दिल्ली में आम आदमी पार्टी के अलावा और बाकी दलों की जमानत जब्त हो जाएगी।

क्या सचमुच ऐसा हो जाएगा? लगता इसलिए नहीं है कि जिस दिन आप पार्टी का अपना सर्वे सामने आया है उसी दिन बाप पार्टी (भाजपा) का भी एक सर्वे सामने आया है। इस सर्वे में नतीजा निकाला गया है कि दिल्ली में विजय गोयल सबसे पसंदीदा मुख्यमंत्री बन गये हैं। दिल्ली की 20 प्रतिशत जनता चाहती है कि विजय गोयल मुख्यमंत्री बनें जबकि 12 प्रतिशत जनता अरविन्द केजरीवाल के पक्ष में है। विजय गोयल द्वारा प्रायोजित भाजपा का सर्वे यह भी कह रहा है कि उसे दिल्ली में 39 सीटें मिल रही हैं जबकि आम आदमी पार्टी को महज 2 सीटें मिल रही हैं। वह दिल्ली में भाजपा के नहीं बल्कि बसपा के बराबर बैठ रही है। और मजेदार बात यह है कि अरविन्द के 34 हजार सैंपल सर्वे के मुकाबले विजय गोयल ने 71 हजार लोगों के सैंपल सर्वे के जरिए ये नतीजे निकाले हैं। तो क्या भाजपा के इस सर्वे को दिल्ली में आनेवाले जनादेश का रुख मान लिया जाए? अगर विजय गोयल अरविन्द केजरीवाल से मीलों आगे जाकर दिल्ली की जनता की पसंद हो सकते हैं तो निश्चित रूप से आम आदमी पार्टी भाजपा से भी बड़े दल के रूप में उभर सकती है। लेकिन अगर ऐसा नहीं है तो वैसा भी नहीं है जैसा कि अरविन्द केजरीवाल एण्ड कंपनी दावा कर रही है। आप का सर्वे है, आप जो चाहें वह नतीजा निकाल सकते हैं। कोई क्या कर सकता है?

1 comment:

  1. आतुर सत्ता के लिए, सभी लगाते दौड़। सबसे पहले मैं रहूं, मची हुई है हो। मची हुई है होड़, टंगड़ी इक-दूजे को। किसका मूंह फूटेगा, चिन्ता कब दूजे को? साधक सारे बने हुए वेतन-भत्ता के। सभी लगाते दौड़, आतुर हैं सत्ता के। - साधक उम्मेद्सिंह बैद - 9903094508

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