Monday, April 28, 2014

दिल्ली के दल का कश्मीर में दखल

घाटी में घूम घूमकर जब तक फारुख अब्दुला मोदी वध का नारा दे रहे थे, तब तक किसी ने बहुत कान न दिया। फारुख अब्दुल्ला की राजनीतिक छवि एक अवसरवादी की है और उनके राजनीतिक विरोध तथा समर्थन का आधार कभी बहुत स्थाई नहीं रहा है। लेकिन जिस मोदी पर वे लगातार राजनीतिक हमले कर रहे थे, उन मोदी ने जब फारुख अब्दुल्ला को जवाब दे दिया तो हंगामा हो गया। आम चुनाव के दौरान पहली बार कश्मीर राष्ट्रीय पटल पर उभर आया। राष्ट्रवाद और अलगाववाद के बीच फंसी कश्मीर घाटी का नासूर से एक बार फिर रिसकर दर्द बाहर निकलने लगा।

राष्ट्रवादी तबका दिल्ली और देश के किसी भी दूसरे हिस्से में बैठकर कश्मीर पर अपना दावा जताता है तो घाटी के अलगाववादी इसे दिल्ली की साजिश करार देकर पुरजोर विरोध करते हैं। शायद यही कारण है कि कश्मीर घाटी राजनीतिक रूप से कभी भारतीय नक्से के साथ एकाकार नहीं हो पाया। आतंकवाद के भीषण दौर के बाद आई राजनीतिक सक्रियता के समय में भी अलगाववादी कश्मीर समस्या की आवाज उठाते रहे और दिल्ली में बैठे दल हमेशा उनके सामने लाचार नजर आते रहे।

कश्मीर में सैन्य समाधान के बाद राजनीतिक समाधान की दिशा में वैसे भी दिल्ली ने कभी बहुत काम नहीं किया। एक राष्ट्र होने के नाते कश्मीर में जो एक पोलिटिकल पालिसी होनी चाहिए थी, उसका वहां हमेशा अभाव रहा। अगर हम पोलिटिकल पॉलिसी के बारे में सोचते तो शायद हमें महसूस होता कि घाटी में कयुनिस्ट पार्टियों का प्रभुत्व थोड़ा और बढ़ा होता तो कश्मीर में अलगाववाद की समस्या इतनी विकट कभी न होती जैसी होती गई। धर्म के नाम पर विभाजन के मुहाने पर खड़े जम्मू कश्मीर में मोहम्मद युसुफ तारीगामी अकेली आवाज बनकर रह गये। लेकिन अब जम्मू कश्मीर की समस्या का राजनीतिक समाधान निकल सकता है। जो काम कम्युनिस्ट पार्टियां नहीं कर पाईं वो काम आम आदमी पार्टी कर सकती है।

प्रशांत भूषण को गाली देने या उनके घर पर हमला कर देने से कश्मीर समस्या का कोई समाधान नहीं निकलने वाला। कश्मीर में कमजोर कांग्रेस और घाटी में नदारद भाजपा से किसी राजनीतिक समाधान की उम्मीद करना बेकार है। दोनों ही दल देश के दूसरे हिस्से में कश्मीर का सौदा कर सकते हैं लेकिन उनकी इस सौदेबाजी से खुद कश्मीर की सेहत पर कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा। जम्मू कश्मीर के दो बड़े सियासी दल नेशनल कांफ्रेस और पीडीपी की अपनी राजनीतिक मजबूरियां हैं। भारत सरकार के विरोधियों को समर्थन दिये बिना उनकी राजनीति कभी सफल ही नहीं हो सकती। जो विपक्ष में रहेगा दिल्ली विरोधी भाषा बोलना उसकी राजनीतिक मजबूरी होगी।

इसलिए जो भाषा कल तक महबूबा मुफ्ती बोलती थीं, आज फारुख अब्दुल्ला को बोलना पड़ रहा है। लेकिन अब्दुल्ला तो दिल्ली विरोधी भाषा बोलने की बजाय मोदी विरोधी भाषा बोल रहे हैं। कमअक्ल लोग इसे 'देशद्रोह' या 'राष्ट्रद्रोह' जैसी उपाधि दे सकते हैं लेकिन फारुख अब्दुल्ला की मोदी से यह 'नफरत' कश्मीर से भारत के कमजोर रिश्तों के लिए बहुत फायदेमंद है। कूटनीतिक तौर पर फारुख अब्दुल्ला की यह भाषा कम से कम लोकतांत्रिक प्रक्रिया में स्थानीय कश्मीरियों को शामिल होने के लिए उकसायेगी भले ही उसके मूल में मोदी विरोध ही क्यों न निहित हो।

अलगाववादी भारत विरोध का नारा बंद करके अगर मोदी विरोध का नारा बुलंद कर रहे हैं तो मोदीवादियों के इतर और किसी को इसका विरोध नहीं करना चाहिए। लोकतंत्र का विरोध करने से अच्छा है कि हम लोकतंत्रिक प्रक्रिया में शामिल किसी व्यक्ति या विचार का विरोध करें। ऐसा करते हुए कम से कम हम उस लोकतांत्रिक प्रक्रिया में शामिल तो रहते हैं।

और यही राजनीतिक प्रक्रिया का वह हिस्सा है जो आम आदमी पार्टी से घाटी में नयी उम्मीद जगाता है। जिस तरह से अन्ना आंदोलन के बाद से घाटी में आम आदमी पार्टी को लेकर समर्थन और उत्साह दिखा है वह उम्मीद की एक किरण तो दिखाता ही है कि दिल्ली का कोई दल कश्मीर में दखल दे सकता है। दिल्ली और कश्मीर के बीच जिस दूरी के कारण दिक्कतें परवान चढ़ीं हैं उसे आम आदमी पार्टी कुछ उसी तरह से दूर कर सकता है जैसे कांग्रेस ने उत्तर पूर्व में किया है। अच्छा हो कि आम आदमी पार्टी का विस्तार बाकी देश के हिस्सों से ज्यादा कश्मीर घाटी में हो। अगर ऐसा होता है तो वह दिन ज्यादा दूर नहीं होगा जब हिन्दू राष्ट्रवाद और कांग्रेसी अवसरवाद से आजिज आये घाटी के नौजवान देश की मुख्यधारा में आने से परहेज करना बंद कर देंगे।

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