Friday, August 19, 2016

कश्मीर नहीं है बलोचिस्तान

जब से पीएम मोदी ने १५ अगस्त को अपने भाषण में बलोचिस्तान का नाम लिया है चारों तरफ बलोचिस्तान की तुलना कश्मीर से की जा रही है। जबकि ऐसा है नहीं। कश्मीर के हालात और बलोचिस्तान के हालात बिल्कुल मुख्तलिफ हैं। बलोचिस्तान कश्मीर नहीं है और न ही कश्मीर बलोचिस्तान है।

यह बात सही है कि दोनों ही समस्याओं का जन्म पाकिस्तान बनने के साथ ही हुआ था लेकिन तब से लेकर अब तक दोनों जगह के हालात बिल्कुल अलग रहे हैं। बलोचिस्तान को मोहम्मद अली जिन्ना ने कुरान का हवाला देकर पाकिस्तान में शामिल करने का दावा किया था जबकि बलोच लोग इस दावे को खारिज करते हैं। वे कहते हैं कि एक्सेसन पेपर्स पर बलोचिस्तान के नवाब का जाली हस्ताक्षर किया गया। खान आफ कलात कभी भी पाकिस्तान में खुद को शामिल नहीं करना चाहते थे जबकि कश्मीर में इसके उलट महाराजा हरि सिंह ने भारत में विलय के हस्ताक्षर किये थे और उस विलय की वैधता को आज तक कोई चुनौती नहीं दे सका है।

इसी तरह कश्मीर में कुछ मुसलमान इस्लाम के नाम पर अलग होने की वकालत करते हैं जबकि बलोचिस्तान में मजहब कोई मसला ही नहीं है। अगर इस्लाम के नाम पर ही पाकिस्तान में कश्मीर शामिल होना चाहिए तो फिर इस्लाम के नाम पर ही बलोचिस्तान पाकिस्तान के साथ क्यों नहीं रहना चाहता? जाहिर है, किसी देश में रहने या न रहने का आधार अकेला मजहब नहीं हो सकता। बलोच लोगों की लड़ाई पाकिस्तान के धोखाधड़ी के खिलाफ है जिसे सही साबित करने के लिए बीते सत्तर सालों से वह सेना के बल पर बलोचिस्तान पर कब्जा किये हुए है। जबकि कश्मीर में वही पाकिस्तान इस्लाम के नाम पर लगातार अलगाववाद की आग को भड़काता रहता है।

बलोचिस्तान न कभी पाकिस्तान का हिस्सा था और न आज है। ब्रिटिश हूकूमत में बलोचिस्तान और नेपाल की स्थिति एक जैसी थी जबकि कश्मीर को ब्रिटिश हुक्मरानों ने कश्मीर रियासत को महाराजा को पांच लाख रूपये में बेच दिया था। जब बंटवारे का खाका खींचा गया उस वक्त बलोचिस्तान को यह अवसर दिया गया कि वह जो चाहे वह निर्णय ले सकता है। बलोचिस्तान के वकील मोहम्मद अली जिन्ना, वॉयसराय और खान आफ कलात के बीच ४ अगस्त १९४७ को जो वार्ता हुई उसमें उसकी स्वतंत्रता की ही दलील दी गयी थी। उधर बलोचिस्तान की असेम्बली में जो बहस हुई उसमें भी पाकिस्तान के साथ मिलने का कोई प्रस्ताव नहीं था। बलोचिस्तान ने उस वक्त चार प्रस्ताव पर चर्चा किया था।

पहला प्रस्ताव था कि वह भारत के साथ रहे, दूसरा प्रस्ताव था कि वह ईरान के साथ मिल जाए, तीसरा प्रस्ताव था कि वह अफगानिस्तान का हिस्सा हो जाए और चौथा प्रस्ताव था कि वह एक स्वतंत्र देश बने। इन प्रस्तावों में कहीं भी पाकिस्तान का हिस्सा होने का जिक्र नहीं था। लेकिन १५ अगस्त के बाद सारे हालात रातों रात बदल गये। मोहम्मद अली जिन्ना ने इधर कश्मीर पर कबाइली हमला करवाया तो उधर बलोचिस्तान पर सैनिकों की कार्रवाई शुरू कर दी। १९४७ से बलोचिस्तान पर पाकिस्तान ने जो सैन्य कार्रवाई शुरू की तो आज तक बंद नहीं किया है। इस बीच कई बार पाकिस्तान के सैनिक बलोचिस्तान में नरसंहार को अंजाम दे चुके हैं, वहां के बड़े कबीले के सरदारों को देश निकाला दे चुके हैं लेकिन बलोचिस्तान के आजादी की जंग अब दूसरी पीढ़ी के हाथ में है।

बलोचिस्तान में बुग्ती सबसे बड़ा कबीला है। इसके बाद मरी और मेंगल हैं। ये तीनों ही कबीले पाकिस्तान से आजादी की जंग लड़ रहे हैं। जो नवाब अकबर खान बुग्ती और खैर बख्श मरी कभी जिन्ना के करीब थे वे बाद में पाकिस्तान के खिलाफ हो गये। नवाब बुग्ती, खान आफ कलात और खैर बख्श मरी ने पाकिस्तान के खिलाफ आजादी की जो जंग छेड़ी थी अब वह उनके बच्चों के हाथ में हैं। ब्रामदाह बुग्ती, हर्बरशयार मरी इस वक्त बलोचिस्तान के बाहर रहकर बलोचिस्तान की आजादी की जंग लड़ रहे हैं। इसके अलावा बलोच जनता की तरफ से उनका नया लीडर भी पैदा हुआ है जो किसी कबीले का सरदार नहीं है लेकिन इस वक्त बलोचिस्तान का सबसे असरदार आदमी है। बलोच लिबरेशन फ्रंट के डॉ अल्ला नजर बलोच इस वक्त बलोचिस्तान की आजादी के जन नायक हैं। पढ़ाई से डॉक्टर अल्ला नजर बलोच को पाकिस्तान आर्मी ने इतना टार्चर किया कि आखिरकार वह भी जंगे आजादी के मैदान में कूद गये।

लिहाजा यह कहना कि कश्मीर और बलोचिस्तान के हालात एक हैं, यह दोनों के इतिहास और परिस्थितियों का सतही सरलीकरण है। दोनों का इतिहास अलग है दोनों की वास्तविकताएं अलग हैं। अगर एक होता तो कश्मीर में इस्लाम के नाम पाकिस्तान जो दावा करता है वही दावा बलोचिस्तान में काम क्यों नहीं आता है?

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