यह एक पुरानी बहस और आगे भी यह कभी बंद नहीं होनेवाली। आखिर मुसलमान अपने अतीत को अपनी पहचान से काटकर अलग क्यों कर देता है? जम्मू कश्मीर के पूर्व कांग्रेसी नेता गुलाम नबी आजाद ने जम्मू के डोडा में एक कार्यक्रम में बोलते हुए जब ये कहा कि हम अतीत में हिन्दू थे तो इस पर इस्लामिक जगत से ही तरह तरह की प्रतिक्रिया आनी शुरु हो गयी। महबूबा मुफ्ती ने व्यंग करते हुए तो यहां तक कहा कि 'अगर उन्हें अतीत में ही जाना है तो शायद (उनके) पूर्वजों के रूप में बंदर भी दिखाई दें।'
यह बात अलग है कि महबूबा मुफ़्ती खुद इस्लामिक मान्यताओं के खिलाफ जाकर बोल रही हैं लेकिन भारत में बीते कुछ सालों से यह बहस तेज हुई है कि मुसलमानों का मूल क्या है? आरएसएस से जुड़े लोग बार बार इस सवाल को उठाते हैं और यह बताने की कोशिश करते हैं कि भारतीय मुसलमान अतीत में हिन्दू रहे हैं जो कन्वर्ट होकर मुसलमान बने। इसके जरिए आरएसएस के लोग संभवत: भारत के मुसलमानों से वह जैविक एकता दिखाना चाहते हैं कि जिससे यह बात स्थापित हो कि अतीत में हम दोनों एक ही धर्म के माननेवाले थे। लेकिन मुसलमानों की ओर से ऐसे बयानों या प्रयासों का खंडन ही किया जाता रहा है। वह अतीत में क्या था, यह उसके लिए महत्व का मामला नहीं है। महत्व का मामला यह है कि वह वर्तमान में क्या है?
इस्लाम का बुनियादी सिद्धांत तौहीद या एक अल्लाह की मान्यता है। इस्लाम में ही नहीं ईसाईयत में भी वन गॉड का सिद्धांत प्रचलित है। ये लोग मानते हैं कि ईश्वर एक है और हमें सिर्फ उसी की इबादत करनी चाहिए। उसी के सामने समर्पण करना चाहिए। लेकिन वह ईश्वर कौन है, कैसा है, उसको जानने अनुभव करने का तरीका क्या हो सकता है, इसके बारे में इनका न कोई सिद्धांत है और न ही समझ। असल में वो जिस अदृश्य अल्लाह या गॉड की बात करते हैं वह एक कल्पना की तरह होता है जिसकी जिसने जैसी चाही वैसी अवधारणा विकसित कर ली। अनुभव या अनुभूति का कोई विवरण उनकी किताबों या रिवायत में नहीं मिलता है।
इस्लाम इस मामले में क्रिश्चियनिटी से भी आगे निकलता दिखता है। कुरान में बताये गये एक अल्लाह के आगे नतसमस्तक होने के अलावा किसी और के सामने झुकने को 'शिर्क' समझता है। मतलब कुरान में जिस अल्लाह के बारे में बताया गया है वह किसी गुस्सैल अरबी सरदार की तरह है। वह बार बार अपने माननेवालों को धमकी देता है कि वह वैसे तो बहुत रहमदिल और दयालु है लेकिन सिर्फ उनके लिए जो उसकी बातों को मानते हैं। अगर कोई उसकी बातों को नहीं मानता है या फिर उसके अलावा किसी और को "माबूद" मानता है तो वह ऐसा माननेवाले मुसलमानों के मरने के बाद जहन्नुम में उसकी खालों को बदल बदलकर आग में जलाएगा।
एक ओर कुरान का अल्लाह जहां मुसलमानों को अपने अलावा किसी और की उपासना करने का निषेध करता है वहीं दूसरी ओर मुसलमान जिन्हें अल्लाह का रसूल कहते हैं वो साफ तौर पर मुसलमानों की हर पहचान मिटाकर सिर्फ एक पहचान रखने के लिए कहते हैं। वह पहचान जो इस्लाम ने उन्हें दिया है कि अब वो मुस्लिम हैं। इसके पहले वो जो कुछ भी थे उसको न सिर्फ खत्म कर देना है बल्कि जो लोग उसे मानते हैं उन्हें भी इस्लाम की ओर ले आना है। उनके मुताबिक सही रास्ते पर वही होता है जो इस्लाम के अल्लाह और उसके रसूल पर ईमान ले आता है।
जो ऐसा नहीं करता इस्लामिक अकीदों के मुताबिक वह कुफ्र करता है और कुफ्र करनेवालों से कोई मुस्लिम किसी प्रकार का रिश्ता रखता है तो उसका अल्लाह उसको तरह तरह से तकलीफ देने का डर दिखाता है। कुरान तो ऐसे कुफ्र करनेवाले गैर मुस्लिमों को खुला दुश्मन घोषित करता है और उनसे जंग करने के लिए प्रेरित करता है। इस्लामिक हदीसों में ऐसी अनेक रिवायतें दिखाई देती हैं जिसमें अल्लाह के रसूल ने कुफ्र करनेवाले से मुसलमानों को दूर रहने की सलाह दी है।
सही मुस्लिम (हदीस 233) में अनस के हवाले से रिवायत आती है कि एक दिन एक व्यक्ति अल्लाह के रसूल के पास आया और पूछा कि "या रसूलअल्लाह मेरे पिता कहां हैं?" रसूलअल्लाह ने कहा कि "जहन्नुम में।" "मेरे और तुम्हारे बाप दोनों जहन्नुम में हैं।" इस हदीस की तफ्सीर करनेवाले बताते हैं कि स्वयं रसूलअल्लाह के पिता रसूलअल्लाह के जन्म से पहले ही मर चुके थे इसलिए वो इस्लाम में आने से वंचित रह गये। जो इस्लाम कबूल नहीं करता वह उनके मुताबिक जहन्नुम में जाता है भले ही वो रसूलअल्लाह के पिता ही क्यों न हों। इसलिए अगर कोई इस्लाम कबूल कर ले तथा उसके परिवार में बाकी लोग इस्लाम कबूल न करें तो वह परिवार के बाकी लोगों से अपना रिश्ता तोड़ लेता है। उसके लिए ऐसे लोग कुफ्र कर रहे हैं और कुफ्र करनेवालों से बाप बेटे या मां बेटे का रिश्ता भी हो तो टूट जाता है।
इस्लामिक किताबों से ही इस्लाम का जो इतिहास सामने आता है उससे पता चलता है कि खुद रसूलअल्लाह ने अपने ही कुरैश कबीलेवालों को तब तक स्वीकार नहीं किया जब तक कि उन्होंने इस्लाम कबूल नहीं कर लिया। इसके लिए रसूलअल्लाह ने अपने ही कुरैश कबीले से 6 साल युद्ध लड़ा। कुरैश कबीले की ओर से लड़नेवालों में उनके चाचा अबू सूफियान भी थे जिन्हें रसूलअल्लाह ने इस्लाम स्वीकार कर लेने के बाद ही जीने का अधिकारी माना था। आखिरकार मक्का में मिली जीत के बाद सभी कुरैश कबीलेवालों ने इस्लाम कबूल कर लिया, तब जाकर रसूलअल्लाह ने उन्हें स्वीकार किया क्योंकि अब वो इस्लाम के रास्ते पर आ गये थे।
इस्लाम का जो सिद्धांत गढा गया है उसमें मुसलमान को अपने अतीत से अपने आप को काटना होता है। उसका इतिहास वहां से शुरु होता है जहां से वह इस्लाम में दाखिल होता है। फिर वो अरब के कुरैश हों तुर्क हों या ईरानी। इस्लाम में दाखिल होने से पहले उनकी चाहे जो जड़ें हों, वो चाहे जिस अतीत से अपने आपको जोड़ते हों, लेकिन इस्लाम में दाखिल होने के बाद उनका सारा अतीत उनके लिए गैरजरूरी हो जाता है। अगर वो अपने अतीत से अपने आपको जोड़ते हैं तो कुरान का अल्लाह उनको जहन्नुम की आग में जलाने की धमकी देता है।
सातवीं सदी से अब तक दुनिया में जितने भी मुस्लिम बने हैं उन सबका कोई न कोई इतिहास तो रहा ही है। लेकिन आधिकारिक रूप से कोई भी मुस्लिम अपने अतीत से अपने आप को नहीं जोड़ता। पाकिस्तान में भी उन सभी इस्लामिक लड़ाकों को महान बताया जाता है जिन्होंने युद्ध में हराकर उन्हें इस्लाम कबूल करवाया। वो अपने पुरखों की हार और धर्मांतरण में भी गर्व का अनुभव करते हैं क्योंकि उसी हार के कारण वो मुस्लिम बन सके। भारत जैसे देश में जहां कुछ दशक पहले तक सच्चे इस्लाम का प्रसार नहीं हुआ था वहां लोग अपने हिन्दू अतीत से अपने आप को जोड़ लेते थे। लेकिन जैसे जैसे सच्चे इस्लाम का प्रसार हुआ है मुसलमानों में अतीत की पहचान से अपने आपको अलग करने की जागृति भी बढी है।
उसे समझाया गया है कि इस्लाम कबूल कहने से पहले वह जो कुछ भी था वह गलत था। अब किसी के अतीत में कुछ गलत रहा है तो उससे भला अपनी पहचान क्यों जोड़ेगा? अगर कोई गैर मुस्लिम उनके अतीत की याद दिलाकर उनसे कोई नाता रखना चाहता है तो यह उसकी नादानी और अज्ञानता के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। हां, गुलाम नबी आजाद जैसे जानकार लोग जब ऐसी बात करते हैं तो इस बारे में खोजबीन करने की जरूरत है कि उन्होंने आखिर ऐसा कहा क्यों? क्या इसके पीछे सचमुच अपने अतीत से जोड़कर अपना आखिरत खराब करने की मंशा है या फिर कोई राजनीतिक लाभ लेने का इरादा?