Thursday, February 28, 2013

अबूझ भाषा का आम बजट

ट्वेंटी थर्टीन फोर्टीन। हो सकता है आपको एकदम से यह फिगर समझ में न आये लेकिन वे आसानी से समझ जाएंगे जो जीरो को भी ओ..ओ.. बोलते हैं। कुछ कुछ वैसे ही जैसे थर्टी सिक्स, ट्वेंटी फोर थर्टी सिक्स कहने भर से वे जान जाते हैं कि बोलनेवाला क्या बोल रहा है। कुछ कुछ इसी अंदाज में 28 फरवरी को अपना बजट भाषण पढ़ते हुए हमारे वित्त मंत्री जी ने पूरे छप्पन बार इस जादुई आंकड़े ट्वेंटी थर्टीन फोर्टीन का उच्चारण किया। ज्यादा परेशान हुए बिना जान लीजिए वित्तमंत्री जी के इस ट्वेंटी थर्टीन फोर्टीन का सीधा सा मतलब होता है 2013-14। है न थोड़ी अबूझ सी पहेली जैसा मामला। एक तो जिन्हें बिना वर्तनीवाला भाषा नहीं आती, उनके पल्ले तो वह भी नहीं पड़ेगा जो वे डेढ़ दो घण्टे बोलते रहे लेकिन जिन्हें बिना वर्तनी वाला आंग्ल भाषा आती भी हो वे भी थोड़ा चकराये होंगे कि वित्त मंत्री जी ने साल की गणना करने का यह कौन सा अंक शास्त्र विकसित कर लिया है?

अंग्रेजी में भी अगर 2013-14 का उच्चारण करना हो तो बड़ा लंबा बवाल कटता है। उन्हें बार बार बोलना पड़ता 'इन द इयर आफ टू थाउजेण्ट थर्टीन एण्ड फोर्टीन।' लफड़े वाला काम है। वैसे भी किसी रेल मंत्री या वित्त मंत्री के लिए सालभर का काम उतना दुखदायी नहीं होता है जितना दुखदाई उसका वह एक दिन होता है जिस दिन उसे संसद में खड़े होकर सरेआम बजट भाषण पढ़ना पड़ता है। संसदीय आचरण और नियमावली का सवाल है नहीं तो हमारे रेलमंत्री या वित्त मंत्री यह भी कर सकते हैं कि स्पीकर द्वारा नाम पुकारे जाने के बाद अन्य कार्यविधियों की तरह यह भी कह सकते हैं कि "बजट सदन पटल पर रख दिया है।" और काम खत्म। लेकिन लोकाचार जो न करवाये। शायद इसी लोकाचार की मजबूरियों के बीच हमारे स्मार्ट वित्तमंत्री जी ने एक ऐसा फिगर चार्ट आउट कर लिया जो कम से कम उनकी जबान को कोई तकलीफ भी नहीं देता था और पहले ही अबूझ पहेली लगनेवाले बजट को पूरा पूरा अबूझमाड़ बना देता है।

अंग्रेजों से आजाद हुए भारत का पहला अंतरिम बजट पेश करते हुए देश के पहले वित्त मंत्री एनटी षणमुगम चेट्टी 26 नवंबर 1947 को जो पहला बजट भाषण पढ़ा था वह उसी भाषा में था जिस भाषा का इस्तेमाल कमोबेश आजाद भारत के हर वित्तमंत्री ने किया है। बिना वर्तनीवाला भाषा। षणमुगम चेट्टी से लेकर पी चिदम्बरम तक हमारे वित्त मंत्री जिस भाषा में अपना बजट भाषण पढ़ते हैं वह भाषा ही देश के डेढ़ दो प्रतिशत लोगों की समझ में आती है। इसलिए इस पहले पायदान से ही स्वतंत्र भारत की आर्थिक हाल का अहवाल करनेवाले बजट से सीधे 98 प्रतिशत लोग अलग हो जाते हैं। कोई वित्तमंत्री सम्माननयी सदस्यों के बीच खड़े होकर क्या बोल रहा है और लोग क्या समझ रहे हैं उसकी बला से। आम आदमी के लिए पेश किया जा रहा आम बजट हमेशा से आम आदमी के लिए बेकार की बात होकर रह जाता है। ऐसे आम आदमी जो उस दिन टीवी चैनल पर या फिर अगले दिन अखबारों में आम बजट की कुछ झलकियां पा ही लेते हैं उनके लिए अब दूसरी मुसीबत खड़ी होती है।

यह मुसीबत भाषा से भी बड़ी होती है। यह मुसीबत है आंकड़ों और शब्दावली की मुसीबत। हिन्दी की तो छोड़िये इस आर्थिक शब्दावली के समानार्थी कोई शब्द किसी भी भारतीय भाषा में नहीं मिलते हैं। कमोबेश हर भाषा में हमारी सरकारी मंत्रालयों ने बड़ी मेहनत करके आर्थिक शब्दावलियां गढ़ी हैं। जैसे अंग्रेजी के इनफ्लेशन को हिन्दी में मुद्रास्फीति बना दिया गया है। इन्फ्लेशन न समझ आये यह तो समझ में आता है लेकिन यह मुद्रास्फीति कितने लोगों को समझ में आती है? मुद्रा का मुद्दा तो ठीक लेकिन यह स्फीति? और फिर मुद्रा के साथ मिलकर स्फीति की स्थिति बड़ी दयनीय दशा प्रकट कर देती है। कुछ कुछ लाहौल स्फीती जैसा आभास होने लगता है जो हमारे जेहन से बहुत दूर होता है। लेकिन अकेला मुद्रास्फीति ही संकट नहीं है। जादुई भाषा में आंकड़ों की ऐसी बाजीगरी छिपी होती है कि समझने के लिए भारत देश ने लंबे समय में विशेषज्ञों की लंबी चौड़ी फौज खड़ी कर दी है। ठीक वैसे ही जैसे कानून को समझने के लिए कानूनविदों की पौध रोपी गई वैसे ही अर्थव्यवस्था को समझने के लिए अर्थशास्त्रियों की लंबी चौड़ी फौज खड़ी की गई। अब खड़ी की गई या फिर खड़ी हो गई, निर्णय करना मुश्किल है लेकिन फौज सामने खड़ी तो दिखाई ही देती है।

सचमुच हम सब अद्भुद लोकतांत्रिक ग्रह के प्राणी हैं। इस लोकतांत्रिक ग्रह का नाम भले ही भारत हो लेकिन इस ग्रह की सरकारों और उन सरकारों के सरोकारों का उस भारत से ही कोई लेना देना नहीं होता है जिस ग्रह पर ग्रहण होने का दावा करते हैं। हमारी अर्थ वित्त की व्यवस्था हो या फिर न्याय प्रशासन की, हमने हर जगह एक अबूझ सा तिलिस्म खड़ा कर रखा है। ऐसा तिलिस्म जो इस देश की अधिसंख्य जनता से पूरा अछूता होता है। जिसे देखते ही आम आदमी डरकर उससे इतनी दूर भागता है कि लौटकर दोबारा कभी झांकने नहीं आता। इस तिलिस्माई स्वभाव से हमारा बजट भी अछूता नहीं है।

जैसे ही देश की सर्वोच्च संसद में आम बजट का भाषण पूरा होता है विशेषज्ञ अपनी अपनी कटार पर धार लगाकर हाजिर हो जाते हैं। पहले अखबारों में आने के लिए एकाध दिन का इंतजार करना पड़ता था। अब तो तत्काल टीवी पर हाजिर, वेब पर नाजिर। ऐसे तिलस्मी बजट भाषणों की भाषा, शब्दावली और आंकड़े किसी आम आदमी के बूते के बाहर की बातें होती हैं। इसलिए विशेषज्ञ लोग कठिन, कठोरतम और उच्चतम अर्थसूत्र को परिभाषित करते हैं। अर्थ की जो ज्ञानगंगा सीधे आसमान से उतरती है वह विशेषज्ञों की जटाओं में शरण पाती है। फिर विशेषज्ञ लोग जितना जरूरी होता है उतना धरती की ओर प्रवाहित करते हैं ताकि आम आदमी का आम बजट उस आम आदमी को भी थोड़ा बहुत समझ में आ जाए जिसके नाम पर यह सारा गोरखधंधा किया जाता है। लेकिन बाजीगरी अकेले वित्त मंत्रालय या फिर उसके मुखिया वित्तमंत्री ही करते हों ऐसा कहां होता है। जो बाजीगरी बची रह जाती है उसे विपक्ष के नेतागण और विशेषज्ञ मिलकर पूरा करते हैं। जो विपक्ष हो चुके होते हैं उनके लिए बजट हमेशा आम आदमी का विरोधी होता है और जो सत्ता पक्ष में होते हैं उनके लिए इससे बेहतर कुछ नहीं हो सकनेवाला बजट होता है। विशेषज्ञ इसमें थोड़ी तटस्थ भूमिका जरूर निभाते हैं लेकिन अर्थ का अनर्थ करते करते वे खुद ही खो जाते हैं। सिरा सुलझाते सुलझाते वे कहां पहुंच जाते हैं, खुद उन्हें ही पता नहीं होता तो सुननेवाले को क्या खाक समझ में आयेगा।

बजट में रुचि पैदा करने में सरकार की भले ही सिरे से अरुचि हो लेकिन थोड़ा बहुत कोशिश हमारे मीडियावाले जरूर करते हैं। कई बार बजट को समझाने के लिए वे कुछ तिलस्मी कहानी गढ़ने का सहारा लेते हैं। मसलन वित्त मंत्रालय में एक महीने तक कोई आफिस से बाहर नहीं जाता है। सबका खाना भी वहीं आता है और सोने का इंतजाम भी पर किया जाता है। इसी तरह जहां बजट को छापकर किताब तैयार की जाती है उस जगह भी बड़ी सख्ती रखी जाती है। और खोजी पत्रकारिता होती है तो यह भी बताया जाता है कि वह प्रिटिंग प्रेस जिस पर बजट छपता है वह कहीं तहखाने में लगी हुई है। अब आम बजट में आम आदमी की कोई रुचि हो न हो, ऐसे खोजी किस्सों में उसकी चट से चटोरी रूचि पैदा हो जाती है। आम आदमी के बीच बजट चर्चा में इसलिए नहीं आता है कि सरकार क्या बकबका रही है। आम आदमी के बीच बजट की चर्चा इन्हीं जासूसी कहानियों की वजह से होती है। इसलिए मीडियावालों की इस भूमिका की निश्चित रूप से ही सराहना करनी चाहिए कि अपनी खोजी पत्रकारिता के बूते कम से कम वे आम बजट में आम आदमी की थोड़ी बहुत रुचि पैदा करने में कामयाब होते हैं।

नहीं तो इस देश के आम आदमी को न तो इन सरकारों से कोई मतलब होता है और न इनकी योजनाओं और परियोजनाओं से। उसकी अपनी देश दुनिया इनकी देश दुनिया से निरा अलग होती है। वह वोट देता है, ताली बजाता है और इनके हर काम काज में शरीक भी होता दिखाई देता है लेकिन वह सब इसलिए नहीं कि उसे किसी लोकतंत्र को बहुत मजबूत करना है या फिर अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाना ले जाना है। उसके लिए लोकतंत्र एक बड़ा सुरुचिपूर्ण तमाशा है जो किस्सो कहानियों से निकलकर जमीन पर उतर आया है। तमाशे में बिना पैसे के शामिल होकर मजा लेने का मौका मिले तो भला कौन छोड़कर आगे बढ़ जाएगा? लेकिन ऐसा भी नहीं है कि तमाशेबाज को तमाशबीन की इस मानसिकता का पता नहीं है। उसे खूब पता है कि भारत के बजट का मतलब भारत सरकार के बजट से ही होता है लेकिन देखिए छह दशक में आज तक किसी विशेषज्ञ ने इस नजरिये से बजट को देखा है क्या? तमाशेबाज भी आला दर्जे का है। उसकी भाषा और शब्दावली ही आसमान से नहीं उतारी गई है, वह अपनी समझ और मानसिकता भी आसमान से ही उड़ाकर लाता है। इसलिए हर सरकार अपनी कमाई और खर्चों के हिसाब किताब को आम आदमी का बजट बताती है और विशेषज्ञ ऐनक लगा लगाकर उसमें आम आदमी की भलाई खोजते रहते हैं। आज तक की संख्या को शामिल कर लें तो अब तक 81 बार यह सब हो चुका है और आगे भी अनवरत जारी रहेगा। लेकिन अर्थशास्त्र के इस पहाड़ से पार पाने और बजट के अबूझमाड़ में गोता लगाने के लिए आम आदमी को उस दिन तक इंतजार करना पड़ेगा जिस दिन तक हम व्यवस्था के लिहाज से यूरोप और भाषा के लिहाज से अमेरिका में तब्दील नहीं हो जाते।

Friday, February 15, 2013

डील में काला

इटली की कंपनी फिनमैकेनिका के आगस्टावेस्टलैण्ड 101 हेलिकॉप्टर सौदे में घूसखोरी के आरोप के बाद सिर्फ इटली में ही नहीं बल्कि भारत में भी राजनीतिक बवाल मचा हुआ है। घूस तब दी जाती है जब दाल में कुछ काला करना होता है। इसलिए अगर इटली की कंपनी द्वारा घूस देने की बात सामने आ रही है तो स्वाभाविक तौर पर यह सवाल उठता है कि भारत में शुरू की गई खरीद प्रक्रिया को प्रभावित करने के लिए ही घूस दी गई होगी। भारत के वीवीआईपी परिवहन के लिए जिन 12 हेलिकॉप्टरों के लिए निविदा निकाली गई थी उसमें आखिरकार आगस्टावेस्टलैण्ड को हेलिकॉप्टर सप्लाई का आदेश दे दिया गया।

निश्चित तौर पर रक्षा खरीद की एक प्रक्रिया होती है जो बड़ी लंबी होती है। रक्षा खरीद में होनेवाली इस देरी से भले ही जरूरतों पर असर पड़ता है लेकिन लंबी प्रक्रिया के पीछे एक जटिल व्यवस्था होती है। एक रक्षा सौदे को कई स्तरों पर सहमति हासिल करनी होती है तब जाकर खरीद का आर्डर मिल पाता है। हो सकता है कि इसका निहितार्थ भ्रष्टाचार पर रोक लगाना हो लेकिन यह कम आश्चर्यजनक नहीं है कि इस जटिल प्रक्रिया के बाद भी रक्षा खरीद में ही सबसे अधिक भ्रष्टाचार की खबरें सामने आती हैं, और राजनीतिक तूफान खड़े होते हैं। सरकारे बनती बिगड़ती हैं। इटली हो या कि भारत दुनिया के अधिकांश देशों रक्षा सौदों की दलाली तभी सामने आती है जब किसी समूह द्वारा इसका राजनीतिक फायदा उठाना होता है। मसलन, ताजा विवाद भी इसलिए पैदा हुआ क्योंकि इटली में आम चुनाव हैं और कार्यवाहक प्रधानमंत्री मारियो मोन्टी खुद को भ्रष्टाचार विरोधी साबित करना चाहते थे इसलिए अपने विरोधी को चंदा देनेवाली हेलिकॉप्टर कंपनी पर कानूनी फंदा डाल दिया।

हेलिकॉप्टर कंपनी के चेयरमैन गिरफ्तार हुए तो वहां से ज्यादा बवाल भारत में इसलिए मच गया क्योंकि उन्होंने जो घूस दी है वह भारत के नेताओं और अधिकारियों ने ही खाई है। अब मीडिया खोद खोदकर नई नई खबरें ला रहा है और बता रहा है कि कौन कौन घूसखोर हो सकता है। लेकिन हम इस बहस में पड़ने की बजाय आइये जरा उस सौदे की तफ्सीस करते हैं जिसे अंजाम दिया गया। क्या वास्तव में घूस खाकर हमारे नेताओं और अधिकारियों ने गलत सौदा कर लिया है? हमार रक्षा मंत्री कह रहे हैं कि अगर दलाली की बात सच पाई जाती है तो इस खरीद सौदे को रद्द कर दिया जाएगा। क्या वास्तव में ऐसा करके वे कोई बहादुरी करेंगे? आगस्टावेस्टलैण्ड कंपनी को बाहर दर देने से जो आयेंगे क्या वे सही प्रोडक्ट दे पायेंगे?

चलिए हम उन तीन कंपनियों का जायजा लेते हैं जो इस रक्षा आपूर्ति सौदे की निविदा प्रक्रिया में शामिल थीं। वैसे तो इस मोल तोल में चार कंपनियां शामिल थीं लेकिन रुस की कंपनी पहले ही बाहर हो चुकी थी जिसके बाद इटली की फिनमैकेनिका, फ्रांस की यूरोकॉप्टर और अमेरिका की सिरोस्की मुख्य बोलीकर्ता के तौर पर इस खरीद प्रक्रिया में शामिल थे। फिनमैकेनिका ने जो हेलिकॉप्टर दांव पर लगाया था उसका नाम था आगस्टावेस्टलैण्ड 101। फ्रांस की कंपनी यूरोकॉप्टर ने अपने एनएच 90 का प्रस्ताव किया था जबकि सिरोस्की ने एस-92 हैलिकॉप्टर के खरीदारी का प्रस्ताव भारत को दिया था।

भारत की जरूरत एक ऐसे रक्षा हेलिकॉप्टर की थी जिसे वीवीआईपी परिवहन के लिए इस्तेमाल किया जा सके। हमारे प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति अभी जिस हेलिकॉप्टर की फ्लीट को परिवहन के लिए इस्लेमाल करते हैं वह उनकी जरूरतों के लिहाज से पुराना पड़ चुका है। लिहाजा अमेरिकी मेरीन वन की तर्ज पर भारत सरकार ने भी अपनी मेरीन वन तैयार करने की योजना बनाई थी। भारत पहले ही बोइंग से तीन बिजनेस जेट लेकर उन्हें वीवीआईपी ट्रांसपोर्ट में नियुक्त कर चुका है। इसलिए जब मेरीन वन की ही तर्ज पर वीवीआईपी हेलिकॉप्टर की खोज की गई तो मेरीन वन को भी ध्यान में रखा गया होगा।

अगर खुद फिनमैकेनिका समूह के सीईओ स्वीकार कर लेते हैं कि उन्होंने घूस दिया है तो निश्चित रूप से लेनेवाले लोग भी होंगे ही। उसकी जांच हो और उसका पता लगाया जाना चाहिए, लेकिन इस घूसखोरी के आरोपों के बीच अपने आप को पाक साफ बताने के लिए सौदे को रद्द करना कहीं से समझदारी नहीं होगी। अगर समझौता रद्द होता है तो वह सारी प्रक्रिया भी रद्द हो जाती है जो कई सालों में किसी सौदे को अंजाम तक पहुंचाती है। इसलिए देखने की बात है वह यह कि क्या घूस खाकर हमारे खरीदार घास फूस उठा लाये हैं? अगर हां तो जरूर सौदा रद्द कर दिया जाना चाहिए, लेकिन अगर नहीं तो फिर सौदा रद्द करने पर देश फायदे में रहे न रहे वे दल और दलाल समूह जरूर फायदा उठा लेगे जो इसे रद्द करवाने के लिए सक्रिय हैं। 

जो तीन कंपनियां इस बोली प्रक्रिया में शामिल थीं, उसमें अमेरिकी की सिरोस्की कंपनी का हेलिकॉप्टर एस 92 दोहरे इंजन वाला सैन्य परिवहन हेलिकॉप्टर है। हालांकि यह सिरोस्की कंपनी के सिविल डिपार्टमेन्ट द्वारा बनाया और बेचा जाता है लेकिन दुनिया में इसका ज्यादातर इस्तेमाल वीवीआईपी नहीं बल्कि सैनिकों को लाने ले जाने के लिए किया जाता है। एस-92 में दो पायलट के अलावा19 सैनिकों को लादने की क्षमता होती है। एक बार उड़ान भरने के बाद यह हेलिकॉप्टर 900 किलोमीटर की दूरी तय कर सकता है। 2004 से यह हेलिकॉप्टर हवा में है। इसी तरह दूसरा प्रस्ताव यूरोकॉप्टर की तरफ से था जो अपनी एनएच-90 हेलिकॉप्टर वीवीआईपी परिवहन के लिए भारत सरकार को बेचना चाहता था। एनएच-90 हेलिकॉप्टर भी 2007 से सेवा में है। यूरोकॉप्टर जिस एनएच -90 हेलिकॉप्टर को भारत में बेचने का प्रस्ताव किया था उसका निर्माण फ्रांस, इटली और जर्मनी द्वारा संयुक्त रूप से स्थापित की गई कंपनी एनएच इंडस्ट्रीज के द्वारा किया जाता है। अगर आगस्टावेस्टलैण्ड हेलिकॉप्टर को भारत का सौदा न मिलता तो ज्यादा संभवना थी कि भारत सरकार एनएच-90 को ही अपनी पसंद बनाता। क्योंकि यह सिरोस्की से बेहतर वीवीआईपी परिवहन कॉप्टर है और प्रतिरक्षा के ज्यादा बेहतर उपकरणों से सुसज्जित है। इसमें रॉल्स रॉयस का बेहतर इंजन लगाया गया है, हालांकि इसकी रेंज सिरोस्की एस-92 से भी कम 800 किलोमीटर ही है। इन दोनों हेलिकॉप्टरों की कीमत क्रमश: 30 और 35 मिलियन डॉलर है।

इन दोनों कंपनियों के अलावा आगस्टावेस्टलैण्ड ही वह तीसरी कंपनी थी जो इस रेस में शामिल थी। तकनीकि तौर पर आगस्टावेस्टलैण्ड कहीं से कमतर नहीं था। इस हैलिकॉप्टर में दो की बजाय तीन इंजन लगे हैं जो वीवीआईपी ट्रांसपोर्ट के लिहाज से इसे और अधिक सुरक्षित बनाते हैं। जबकि इस हेलिकॉप्टर को विशेष तौर पर वीआईपी ट्रांसपोर्ट के लिहाज से ही विकसित किया गया है इसलिए इसके इंटरियर और स्पेस को विशेष तौर पर वीआईपी और वीवीआईपी को ध्यान में रखकर विकसित किया गया है। आगस्टावेस्टलैण्ड के 101 सीरीज के कुल हेलिकॉप्टरों में 15 प्रतिशत सिर्फ वीआईपी और वीवीआईपी परिवहन के लिहाज से ही इस्तेमाल किये जाते हैं जो बाकी के अन्य दो प्रतिस्पर्धियों से इसे अलग करता है। इस हेलिकॉप्टर में बेहतर प्रतिरक्षा प्रणाली लगाई जा सकती है और इसमें हवा में ही ईंधन भरने की सुविधा है। जाहिर है, वीवीआईपी के लिहाज से यह न सिर्फ अति सुविधाजनक और सुरक्षित हेलिकॉप्टर साबित हो सकता है। और सबसे आखिर में कीमत में यह हेलिकॉप्टर बाकी के दो प्रतिद्वंदियों से कामी कम था। आगस्टावेस्टलैण्ड 101 के एक यूनिट की कीमत 21 से 22 मिलियन डॉलर के बीच है।

तो इसका मतलब इतना साफ है कि रक्षा खरीद के दौरान जो बातचीत हुई और परीक्षण किये गये उसमें वीवीआईपी की सुविधा और सुरक्षा से कहीं कोई समझौता करने जैसी बात नहीं है। भारतीय रक्षा विभाग ने जो खरीद का फैसला लिया वह कमोबेश हर पैमाने पर खरा साबित होता था। तो फिर अगर घूसखोरी की बात इटली में आई है तो हंगामा भारत में क्यों हो? हंगामा तब जायज होता जब दलाली खाने के नाम पर भारतीय प्रशासन ने कूड़े कबाड़ का सौदा कर लिया होता। जिस रेंज में इस हेलिकॉप्टर का सौदा किया गया उस रेंज में यह हेलिकॉप्टर सबसे सस्ता ही नहीं सबसे अच्छा विकल्प है। इटली में उपजे विवाद का कारण समझ में आता है कि प्रधानमंत्री मोन्टी इसे राजनीतिक मुद्दा बनाकर अपनी जीत पक्की करना चाहते हैं लेकिन भारत में सिर्फ इसलिए विवाद पैदा करके समझौते को खत्म कर देना चाहिए कि इस पूरे प्रकरण में दलाली देने की बात आई है? जिस बोफोर्स तोप सौदे में दलाली के नाम पर राजीव गांधी की सरकार को उखाड़ फेंका गया था वह बोफोर्स तोप न होती तो शायद भारत कारगिल के मैदान में कभी न जीत पाता। पूरा का पूरा बोफोर्स तोप सौदा राजनीतिक सौदेबाजी का हथियार बनकर रह गया। सवाल तो तब खड़ा हो जब घटिया सौदागरी की जाए।

आज की तारीख में भारत दुनिया का सबसे बड़ा रक्षा खरीदार है। नोसेना, वायु सेना और थल सेना सब ओर भारी खरीदारी चल रही है जो कमोबेश इस पूरे दशक चलती रहेगी। बड़े व्यापक पैमाने पर भारतीय सेनाएं अपना आधुनिकीकरण कर रही हैं। जाहिर है, इससे दुनियाभर के रक्षा व्यापारियों को अथाह समुद्र में गोता लगाने का मौका मिल रहा है। कहीं ऐसा तो नहीं है कि कुछ लोगों के इशारे पर जानबूझकर इस सौदे पर सवाल उठाये जा रहे हों ताकि इटली की यह कंपनी पूरे भारत से ही बाहर हो जाए जो कि इस वक्त कई राज्य सरकारों के साथ ही नहीं बल्कि निजी घरानों को भी अपने हेलिकॉप्टर बेंच रही है। आंध्र प्रदेश की सरकार के अलावा उत्तर प्रदेश सरकार के मुकिया भी इसी कंपनी के बनाये हेलिकॉप्टर में उड़ान भरते हैं। किसी रक्षा खरीद को इसलिए खारिज कर दिया जाए कि उसमें कमियां हैं, समझ में आता है लेकिन रक्षा सौदों में दलाली देनेवाले ही दलाली की खबरें चलाते हैं और लोकतंत्र को भी कॉरपोरेट वार का हिस्सा बना लेते हैं। कहीं ऐसा तो नहीं है कि इस मामले में भी कुछ दलाल ही दाल में काला दिखा रहे हैं और हम पूरी दाल को काला बता रहे हैं? कौन जाने, हो भी सकता है। आखिरकार लोकतंत्र और लोकतातांत्रिक प्रणालियां दलालों के दरवाजे की दासी जो ठहरी।

Thursday, February 7, 2013

हवा में हवा हवाई

अपना देश महज दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र भर नहीं है। वह दुनिया का सबसे बड़ा हथियारों की खरीदार देश भी है। हो सकता है इस बात में कोई अतिश्योक्ति नजर न आये कि जितना बड़ा देश होगा उतना ही बड़ा उसका रक्षा बजट होना चाहिए इसलिए वह दुनिया आधुनिक हथियार और गोला बारूद खरीदता रहता है। लेकिन अतिश्योक्ति अगर इस बात में नहीं है तो अतिश्योक्ति इसी बात में छिपी हुई है कि आखिर हम पिछले चार साल में 36 बिलियन डालर (1.93 खरब रूपये) रक्षा खरीद पर खर्च करके साबित क्या करना चाहते हैं? क्या वास्तव में भारत सरकार अपने देश को किसी भी कीमत पर अत्याधुनिक रक्षा उपकरणों से लैस करना चाहती है या फिर डीफेन्स डील की सच्चाई कुछ और होती है? बंगलौर में शुरू हुए एयरो इंडिया शो के दौरान रक्षा मंत्री ने मजबूरी में ही सही इतना तो कहा है कि आयात से ज्यादा उत्पादन पर जोर देने की जरूरत है लेकिन भारत में रक्षा खरीदारों की दबिश और प्रभाव को देखते हुए लगता नहीं है कि भारत इस दिशा में कुछ खास करने की मनस्थिति रख पायेगा।

थल, जल और वायु सेना में अगर हम सिर्फ वायु सेना का आंकलन करें तो जो तस्वीर सामने उभरती है वह हैरान करनेवाली है। अगर दुनिया में भारत हथियारों का सबसे बड़ा खरीदार है तो निश्चित रूप से हथियारों के सौदागर सबसे ज्यादा भारत में ही डेरा डालकर बैठे होंगे। दुनिया के विकसित देश जो पश्चिम की तरफ बसे हैं, उनका असली धंधा नून तेल बेचना नहीं है। वे तो वह दिखावे के लिए करते हैं। उनका असली कारोबार हथियारों का सौदा है और उनकी सरकारें तथा कंपनियां दुनियाभर में घूम घूमकर सिर्फ हथियार ही बेचती हैं। ऐसे में अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा भारत आयें, फ्रांस के राष्ट्रपति आयें या फिर रूस के राष्ट्रपति। वे सब भारत जब भी भारत आते हैं तो कोई न कोई बड़ा रक्षा सौदा हथिया कर वापस जाते हैं। मसलन, बराक ओबामा आये थे तो 4.5 अरब डॉलर का रक्षा सौदा हथियाकर अमेरिका वापस गये थे। उनकी इस कामयाबी का फायदा अमेरिका को मिला रक्षा प्रतिष्ठान में काम कर रहे हजारों लोगों की नौकरी जाने से बच गई। इसी तरह अभी पिछले दिसंबर में रूस के राष्ट्रपति पुतिन भारत आये थे। दिल्ली में जारी कोहराम के बीच पुतिन का यह लगभग गुमनाम सा दौरा 4.5 अरब डॉलर के रक्षा खरीदारों का गवाह बन गया। फ्रांस के संगदिल राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी जब भारत आये थे तो उनका मकसद अपनी प्रेमिका पत्नी कार्ला ब्रूनी के बारे में बताना बिल्कुल नहीं था। फ्रेंच राष्ट्रपति की लॉबिंग का ही नतीजा था कि भारत ने अब तक के इतिहास के सबसे बड़े रक्षा समझौते को अंजाम दिया और फ्रांस से 126 फाइटर जेट खरीदने का सौदा तय कर लिया। कुछ दिनों में फ्रांस के राष्ट्रपति फ्रैंकोज हौलेण्डे फिर भारत आनेवाले हैं। उनका मकसद इस डील को डिलीवरी में तब्दील करना रहेगा।

अमेरिका, यूरोप, रूस या फिर इजरायल ऐसे देश या समूह हैं जो दुनिया के सबसे बड़े हथियारों के सौदागर हैं, और इन सौदागरों का सबसे बड़ा खरीदार है भारत। वर्तमान समय में अकेले भारतीय वायुसेना के आधुनिकीकरण के नाम पर भारत सरकार ने कमर कस रखी है आइये जरा उसका लेखा जोखा लेते हैं। फ्रांस के साथ जिस फाइटर प्लेन राफाले का समझौता हुआ है वह अकेले 20 अरब डॉलर का है। इस समझौते के तहत फ्रांस की डसां कंपनी भारत को 126 फाइटर प्लेन की आपूर्ति करेगी। अगर जून तक समझौते को अंतिम रूप दे दिया जाता है तो तीन साल के भीतर डसां कंपनी पहला फाइटर प्लेन भारत को सौंप देगी। शुरू के 18 फाइटर जेट डसां कंपनी निर्मित करेगी बाकी के प्लेन भारत में ही बनाये जाएंगे। इसके लिए भारत की सरकारी कंपनी हिन्दुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड को फ्रेंच कंपनी टेक्नॉलाजी ट्रांसफर करेगी। असल में यह टेक्नॉलाजी ट्रांसफर ही वह मुद्दा था जिसके कारण अमेरिकी सैन्य कंपनियां उस बोली में पिछड़ गई थीं जिसमें डसां ने बाजी मार ली थी। अमेरिका की लाकहीड मार्टिन कंपनी द्वारा बनाये जानेवाले एफ-16 और बोइंग द्वारा बनाये जानेवाले एफ 18 विमानों के प्रति भी भारत ने उस वक्त अपना रुझान दिखाया था लेकिन लॉकहीड मार्टिन कंपनी टेक्नॉलाजी ट्रांसफर करने के लिए तैयार नहीं थी इसलिए भारत ने अमेरिका की बजाय फ्रांस का रुख किया। फिर भी ऐसा नहीं है कि भारत ने अमेरिका को पूरी तरह निराश कर दिया हो। इस वक्त अमेरिकी रक्षा उत्पादक कंपनियों के साथ जो भारत के विभिन्न समझौते हैं उसके तहत भारत अमेरिका से सैनिक परिवहन विमान सी-17 ग्लोबमास्टर और सी 130 जे सुपर हरक्युलिस खरीद चुका है। इसमें सी130 जे सुपर हरक्युलिस की तैनाती भी दिल्ली से सटे हिण्डन एयरबेस पर हो चुकी है और सी17 विमानों की आपूर्ति जून 2013 तक हो जाएगी। दोनों सौदे संयुक्त रूप से 5.7 अरब डॉलर के हैं। इसके अलावा अमेरिका के ही हॉकर सिडली कंपनी से भारत सरकार 2.4 अरब डॉलर खर्च करके 55 एचएस 78 परिवहन विमान की खरीदारी का सौदा अलग से कर चुकी है। इसके साथ ही भारत 2 अरब डॉलर खर्च करके बोइंग और मैकडोनॉल्ड डगलस द्वारा संयुक्त रूप से निर्मित किये जानेवाले अपाचे अटैक हेलिकॉप्टर भी खरीदने जा रहा है। समझौता हो चुका है और भारत सरकार 22 अटैक हेलिकॉप्टर अमेरिका से खरीदेगा।

रक्षा उत्पादों के मामले में रुस अमेरिका से भी बड़ा सौदागर है। रूस के साथ भारत का रक्षा व्यापार सबसे बड़ा है। रूस ऐसा देश है जो सबसे ज्यादा भारत के रक्षा आयुध का व्यापार करता है। आज हम जिसे भारत की वायुसेना कहते हैं, अगर ठीक से देखें तो यह रूस की वायुसेना नजर आयेगी। भारतीय वायुसेना के पास वर्तमान समय में जो सबसे उन्नत लड़ाकू विमान सुखोई का एसयू 30 एमकेआई है वह रूस का ही बना हुआ है। सुखोई के बाद मिकोयान कंपनी के बने मिग 21 और मिग 29 विमान भारत की प्रतिरक्षा के लिए दूसरे सबसे बड़े हथियार हैं। ये फाइटर प्लेन भी भारत ने रूस से ही खरेदे हैं। भारत के पास इस वक्त 146 सुखोई एसयू 30 और 68 मिग 29 सैन्य विमान सेवा में हैं। विमानों के अलावा एमआई 8 और एमआई 17 हेलिकॉप्टर भी रूस की ही देन हैं जो इस वक्त भारतीय वायुसेना की रीढ़ हैं। अब तीन दशक पुराने हो चुके एमआई-8 और एमआई 17 हेलिकॉप्टरों को बदलने के लिए भारत ने रूस की उसी एमआई मास्को हेलिकॉप्टर प्लान्ट को नये आर्डर दिये हैं जिसके दिये गये हेलिकॉप्टरों से भारत अपनी सीमाओं की सुरक्षा करता रहा है। भारत ने एमआई-8 हेलिकॉप्टरों को बदलने के लिए आधुनिक एमआई 171 और एमआई 17 हेलिकॉप्टरों को बदलने के एमआई 17V5 हेलिकाप्टरों को खरीदने का समझौता कर चुका है। दोनों समझौते क्रमश: 405 मिलियन डॉलर और 1.2 बिलियन डॉलर के हैं।

रूस और अमेरिका के अलावा अब फ्रांस इजरायल को पीछे छोड़ते हुए भारत के लिए तीसरा सबसे बड़ा डिफेन्स सप्लायर बनने जा रहा है। भारतीय वायुसेना के मिराज श्रेणी के विमान उसी डसां कंपनी के दिये हुए हैं जिसके साथ भारत अब राफाले विमान का सौदा करने के कगार पर है। भारत के साथ रक्षा व्यापार करनेवालों में इजरायल और इटली भी अब अहम किरदार निभाने लगे हैं। विमानन क्षेत्र में ही इटली की आगस्टा कंपनी भारत के साथ 560 मिलियन यूरो का वैस्टलैण्ड हेलिकॉप्टर समझौता कर चुकी है जिसके तहत वह एडब्लू 101 हेलिकॉप्टर भारत को सप्लाई करेगी। इजरायल फाइटर जेट के क्षेत्र में तो नहीं लेकिन टोही विमान और द्रोन विमानों की सप्लाई में वह भारत के साथ व्यापार करता है। बराक श्रेणी की मिसाइल और अब सर्फेस टू एयर मिसाइल के सौदे को शामिल कर लें तो भारत करीब 13 हजार करोड़ रूपये का सौदा इजरायल से करके बैठा है। भारत के भीमकाय रक्षा बाजार के ये एक हिस्से वायुसेना की बहुत छोटी सी पड़ताल है। इसी तरह थल सेना और नौसेना के लिए भी इन्हीं देशों से बड़े बड़े रक्षा सौदें किये जाते हैं और भारत के आम आदमी की कमाई से दुनिया के कुछ सबसे ताकतवर देशों की अर्थव्यवस्था को संभालने का काम किया जाता है।

लेकिन इन सबके बीच भारत में पिछले कुछ समय से ऐसा प्रचारित किया जाता रहा है मानों वायुसेना के क्षेत्र में भारत अपने दम पर कोई बहुत तरक्की कर ली है। वायुसेना के क्षेत्र में तेजस परियोजना भारत सरकार की निश्चित रूप से सबसे महत्वाकांक्षी और अब तक की सबसे सफल परियोजना है। यह विमान अब लिमिटेड सीरीज प्रोडक्शन (एलएसपी) केटेगरी में पहुंच गया है और इस केटेगरी में 16 विमानों का निर्माण किया जा रहा है। अभी भी तेजस लड़ाकू विमान को फाइनल क्लियरेन्स मिलना बाकी है और अब जीई कंपनी द्वारा इंजन दिये की बात करने के बाद इतना कहा जा सकता है कि अगले तीन सालों में यह विमान वायुसेना में कम से कम अपनी एक स्क्वार्डन बना लेगा। डीआरडीओ की सहयोगी संस्था एडीए और एचएएल द्वारा संयुक्त रूप से विकसित किये गये मध्यम श्रेणी के बहुउद्देश्यीय लड़ाकू विमान तेजस की सफलता के पीछे भारत ने कोई बहुत बड़ी पूंजी लगा दी हो ऐसा भी नही हैं। कुल परियोजना 1.2 अरब डॉलर की है। अगर भारत के भारी भरकम रक्षा सौदों को देखें तो यह रकम कोई ऐसी बड़ी रकम नहीं है जिसे बहुत बड़ी रकम कहा जाए। और फिर इस परियोजना पर काम करते हुए तीस साल बीत गये हैं। रक्षा अनुसंधान के लिहाज से यह कोई बहुत ज्यादा समय नहीं होता लेकिन भारत की जरूरतों के लिहाज से यह जरूरत से ज्यादा वक्त है। भारत ने जिस मिग-21 विमानों को हटाने के लिए एलसीए प्रोग्राम शुरू किया था अभी भी वह मिग विमान सेना से रिटायर नहीं हुआ है। गाहे बेगाहे वह कहीं किसी खेत में गिरकर किसी न किसी पायलट की जान लेता रहता है। जबकि उसी श्रेणी के भारत में निर्मित अजीत स्ट्राइकर जेट को 1991  में ही रिटायर किया जा चुका है. भारत के स्वदेशी लड़ाकू विमानों में अजीत एक महत्वपूर्ण उपलब्धि थी लेकिन वह न तो कभी किसी युद्ध में शामिल हो सका और न उसे लंबा जीवन हासिल हो सका.

इसी तरह ध्रुव सीरीज के हेलिकॉप्टर और अब लड़ाकू हेलिकॉप्टर रुद्र परियोजनाओं के पीछे की कहानी है। भारत एक तरफ तो रूस, अमेरिका और इटली से हेलिकॉप्टरों का अरबों डॉलर का सौदा करता है लेकिन खुद भारत में लंबी अवधि की परियोजनाओं पर काम नहीं करता है। तेजस लड़ाकू विमान की ही तरह ध्रुव सीरीज के हेलिकॉप्टर भारतीय वैज्ञानिकों की सफलता की अद्भुद कहानी जरूर हैं लेकिन अकेले ध्रुव हेलिकॉप्टर से भारत की रक्षा जरूरतें दूर दूर तक पूरी नहीं होती हैं। भारत ने एक झटके में अमेरिका से अपाचे अटैक हेलिकॉप्टर का सौदा कर लिया लेकिन खुद इसी श्रेणी में भारत के लड़ाकू हेलिकॉप्टर की परियोजना कहां है? जिस दिन भारत में एयरो इंडिया 2013 शुरू हुआ उस दिन दो ध्रुव हेलिकॉप्टरों को भारतीय वायुसेना में शामिल करने की शुरूआत की गई। लेकिन असल कहानी क्या है? फिलहाल दूर दूर तक कॉम्बैट हेलिकॉप्टरों के भारतीय वायुसेना या नौ सेना में शामिल होने की गुंजाइश नहीं है। भारत के पास चीता और चेतक सीरीज के जो आयातित हेलिकॉप्टर हैं उनको बदलने के लिए एचएएल ने प्रोग्राम तो बना रखे हैं लेकिन वे प्रोग्राम भी अभी बहुत प्राथमिक स्तर पर हैं। हेलिकॉप्टर में अगर ध्रुव सीरीज के हेलिकॉप्टर को छोड़ दें तो बाकी सभी परियोजनाएं पूरा होने में लंबा वक्त लेगीं। तो क्या इतना लंबा वक्त भारत के पास है कि वह इन परियोजनाओं के पूरा होने का इंतजार कर सके? बिल्कुल नहीं।

और वक्त की कमी यही वह तर्क है जो भारत को एक सशक्त रक्षा खरीदार में तब्दील कर देता है। ऐसा नहीं है कि भारत में रक्षा उत्पादन के क्षेत्र में परियोजनाओं पर काम नहीं हो रहा है लेकिन भारत सरकार अपने देश में चलनेवाली परियोजनाओं को पूंजी देकर पूरा कराने की बजाय विदेशों से हथियारों की खरीदारी को प्राथमिकता देती है और हर वक्त उसका यही बहाना होता है कि स्वदेशी परियोजनाओं में विलंब हो रहा रहा है ऐसे में रक्षा जरूरतों को ध्यान में रखते हुए खरीदारी बेहद जरूरी है। दुनिया में जिस तेजी से एविएशन सेक्टर आगे जा रहा है उस दुनिया में लाइट कॉम्बैट एविएशन में दखल रखकर भारत बहुत कुछ हासिल करने की स्थिति में कभी नहीं रहेगा। दुनिया के लड़ाकू विमानों की दुनिया में जब स्टील्थ विमानों का आगाज हो चुका हो तब महज तेजस या ध्रुव तारा दिखाकर भारत सरकार भले ही अपने नागरिकों को यह समझाने में कामयाब हो जाए कि रक्षा क्षेत्र में हम तरक्की कर रहे हैं लेकिन हकीकत यही है कि ऐसी परियोजनाओं से भारत की रक्षा जरूरतों को न तो कभी पूरा किया जा सकता है और न ही भारतीय पूंजी को दुनिया के उस रक्षा बाजार में जाने से बचाया जा सकता है जिनके लिए आतंकित दुनिया सपनों का स्वर्ग होता है। अगर हम स्वदेशी रक्षा निर्माण क्षेत्र में अपने पैरों पर खड़े होते हैं तो सिर्फ गौरव और सम्मान भर हासिल नहीं होता बल्कि हम इतनी बड़ी मात्रा में पूंजी बचाते हैं कि देश की बाकी जरूरतों के लिए हमें पूंजी का रोना शायद ही रोना पड़े।

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