Saturday, April 27, 2013

हरिद्वार में हर हर मोदी

जो लोग हरिद्वार नहीं गये हैं, वहां किसी मठ मंदिर में कुछ वक्त नहीं गुजारा है उनके लिए यह समझना थोड़ा मुश्किल होगा कि हमारे युग की यह धर्मनगरी दुनिया के लिए भले ही धर्म नगरी हो लेकिन खुद अपने लिए राजनीति क्षेत्र है। एक ऐसा राजनीति क्षेत्र, जहां के मठों, मंदिरों, अखाड़ों में दिल्ली से ज्यादा राजनीतिक जीवंतता दिखाई देगी। अगर आप हरिद्वार के मठों, मंदिरों, धर्मशालाओं में रुकें और संतों महंतों से थोड़ा करीब से संपर्क में आयें तो आप यह देखकर दंग रह सकते हैं कि राजनीति दिल्ली के लुटियन्स जोन से ज्यादा जीवंतता के साथ हरिद्वार के मठों और मंदिरों में पाई जाती है।

राजनीति, देश, समाज की ऐसी गहन चिंता तो उन नेताओं के दरबार में भी देखने को नहीं मिलती जितनी यहां धर्मगुरुओं की धर्म सभाओं में दिखाई देती है। इसलिए शुक्रवार को अगर हरिद्वार में बाबा रामदेव के सजाये मंच पर मोदी की मौजूदगी में तथाकथित धर्मगुरुओं ने झुक झुककर मोदी को सलाम किया और उनसे राष्ट्र पीड़ा हरने का आह्वान किया तो यह उन संतों की सचमुच स्वाभाविक वेदना है। कथा, पूजा का अपना अपना कारोबार पूरा करने के बाद ये संत महंत इसी तरह की राजनीतिक चिंताओं में डूबे रहते हैं। शुक्रवार को वे गंगा तट पर मोदी की मौजूदगी में कुछ ज्यादा ही गहरे उतर गये।

करीब साढ़े पांच घण्टे चले इस कार्यक्रम में थोक में तथाकथित संतों ने "राष्ट्रसंत" रामदेव और ''राष्ट्रनायक'' नरेन्द्र मोदी का गुणानुवाद किया। इन संतों महंतों में ज्यादातर वे संत महंत थे, जो स्वयंभू हैं। यानी अपनी कूबत पर अपनी संतई कायम की है। ऐसा भी नहीं है कि जो शंकराचार्य, रामानन्दाचार्य द्वारा संगठित किये गये सनातन व्यवस्था के संत हैं उनका स्वभाव इन स्वयंभू संतों से कुछ अलग है, फर्क सिर्फ इतना है कि ये स्वयंभू संत भी जब मान्यता प्राप्त करना होता है तो उन्हीं संतों की शरण में जाते हैं जिन्हें शंकराचार्य या फिर रामानंदाचार्य द्वारा निर्मित की गई व्यवस्था के रूप में देखा जाता है। भारत में हिन्दू धर्म की संरचना इतनी जटिल है इसे भेद पाना तो दूर समझना ही बहुत दूभर है। इस विविधता का लाभ हमारी नेता जमात खूब उठाती है। अभी हाल में ही कुंभ में विश्व हिन्दू परिषद की जो धर्म संसद हुई उसमें नरेन्द्र मोदी को बुलाया गया था। वे नहीं गये। हरिद्वार में नरेन्द्र मोदी ने भले ही कह दिया हो कि प्रयाग के कुंभ में न जाने का प्रायश्चित उन्होंने यहां हरिद्वार आकर कर लिया। लेकिन नरेन्द्र मोदी भी शायद यह नहीं जानते हैं कि प्रयाग की उस धर्म संसद में जो संत इकट्ठा दिखाई दे रहे थे उनमें ज्यादातर वे थे, जिनसे हरिद्वार में इकट्ठा होनेवाले संत अपने होने का प्रमाणपत्र हासिल करते हैं। यानी विश्व हिन्दू परिषद की धर्म संसद में ज्यादातर शंकराचार्य व्यवस्था के संत महंत उपस्थित थे जिसमें बाबा रामदेव जैसे लोगों को कोई जगह नहीं होती है। बाबा रामदेव और विश्व हिन्दू परिषद वैसे भी एक दूसरे को चाटकर फेंक चुके हैं।

फिर भी न विश्व हिन्दू परिषद अपनी धर्म वाली राजनीति से पीछे लौटी है और न बाबा रामदेव अपनी राजनीति वाले धर्म से अलग हुए हैं। दोनों ही अपने अपने रास्तों पर अपने अपने तरीके से आगे बढ़ रहे हैं। विश्व हिन्दू परिषद की धर्म वाली संसद को सीधे तौर संघ परिवार का समर्थन रहता है जबकि बाबा रामदेव से तल्ख संबंधों के बाद कभी संघीय राजनीति के हाशिये पर फेंके जा चुके गोविन्दाचार्य और उमा भारती ने उन पर डोरे डालने की कोशिश की थी। लेकिन धागे ऐसे उलझे कि उमा भारती वापस भाजपा में पहुंच गई और गोविन्दाचार्य अपने गाय गोरू बचाने के सनातन कर्म की ओर पुन: अग्रसर हो गये। विश्व हिन्दू परिषद, उमा गोविन्द ही अकेले ऐसे नाम नहीं है जो रामदेव की चमत्कारिक शक्तियों के वशीभूत होकर उनका दोहन करने उनके करीब पहुंचे थे। लालकृष्ण आडवाणी को भी जब काले धन के मुद्दे पर लाल होने का मौका मिला तो उन्होंने जिन लोगों को इस लड़ाई में लड़ाका घोषित किया था उसमें एक बाबा रामदेव भी थे। लेकिन रामदेव तो ठहरे रामदेव। मुद्दा और मुद्दई दोनों खुद बन गये तो आडवाणी और रामदेव में दूरी बढ़ गई। दिल्ली के रामलीला मैदान में जब रामदेव पर कांग्रेसी कहर टूटा था तो राजघाट पर धरना देनेवालों में लालकृष्ण आडवाणी भी थे। उसके बाद से न रामदेव ने आडवाणी का नाम लिया और न ही आडवाणी ने रामदेव के समर्थन में कुछ कहा। इसी घटना के बाद से आश्चर्यजनक रूप से बाबा रामदेव नरेन्द्र मोदी के प्रशंसक हो गये। 2010 तक जो बाबा रामदेव आडवाणी को महानतम नेता बोलते थे, 2011 में उन्हीं रामदेव को नरेन्द्र मोदी में भावी प्रधानमंत्री के गुण नजर आने लगे। शुक्रवार को हरिद्वार योगपीठ में जो कुछ बोला जा रहा था, वह उसी का चरम था।
इसी अप्रैल की 7-8 तारीख को रामदेव के इसी पतंजलि योगपीठ में एक गुप्त बैठक हुई थी जिसमें रामदेव के राजनीतिक दल की रूपरेखा पर विचार विमर्श किया गया। इस बैठक में कुछ टायर्ड समाजसेवियों, रिटायर्ड अधिकारियों के अलावा भारतीय मूल के वे विदेशी भी शामिल हुए थे जिन्हें अपनी चिंता पूरी कर लेने के बाद अब देश की चिंता सताने लगी है। इस बैठक में तय किया गया है कि रामदेव की अगुवाई में भारत स्वाभिमान पार्टी के तहत आगामी लोकसभा चुनाव लड़ा जाएगा। रामदेव ने 300 सीटें जीतने का लक्ष्य निर्धारित किया है। अगर रामदेव का लक्ष्य खुद तीन सौ सीटें जीतकर दिल्ली में दखल देने का है तो भला वे मोदी नाम की माला क्यों जप रहे हैं?

और इस चरम की कोई सीमा नहीं थी। हालांकि इस दफा आडवाणी और रामदेव के मध्यस्थ चिदानंद मुनि मंच पर नजर नहीं आये लेकिन बहुत सारे ऐसे संत महंत वहां नजर आ रहे थे जिनकी छवि भाजपा समर्थक की है। शांति कुंज के संचालक प्रणव पांड्या हों कि विजय कौशल महाराज, उमा भारती के गुरू हों कि साध्वी ऋतंभरा के गुरू। ऐसे कई संत महंत उस मंच पर मौजूद थे जिन्हें निश्चित रूप से रामदेव बुलाने में इसलिए कामयाब हो गये होंगे क्योंकि नरेन्द्र मोदी आनेवाले थे। रामदेव वैसे भी 'डबल क्रास' करने में मास्टर हैं। संतों समाज जुए एक व्यक्ति का दावा है कि ये सारे लोग वहां इसलिए नजर आ रहे थे क्योकि बाबा रामदेव ने सबको यही संदेश भिजवाया था कि नरेन्द्र मोदी वहां आ रहे हैं, जबकि नरेन्द्र मोदी को यह मैसेज गया था कि सारे संत वहां इकट्ठा हो रहे हैं। कोई भी राजनेता हो, ऐसा मौका भला क्यों छोड़ना चाहेगा? और बात हिन्दुत्ववादी नरेन्द्र मोदी की हो, तो मौका चूकना वैसे भी शोभा नहीं देता। रमेशभाई ओझा जैसे कथाकार अपनी कथाओं में पहले से ही नरेन्द्र मोदी का गुणगान कर रहे हैं इसलिए ऐसे मौकों पर उनके मौजूद रहने से कोई बहुत आश्चर्य नहीं होता है। मोरारी बापू की मौजूदगी जरूर चौंकानेवाली है लेकिन सिर्फ मोरारी बापू ही यहां एकमात्र ऐसे संत मौजूद थे जिन्होंने सीधे सीधे मोदी को भविष्य का प्रधानमंत्री नहीं बनाया। बहुत संयमित शब्दों में बार बार उन्होंने यही कहा कि "राष्ट्र तय करेगा।" हालांकि इसके बावजूद वे यह कहने से अपने आपको रोक नहीं पाये कि प्रशासन के लिए मोदी एक अनुष्ठान की तरह काम करते हैं। फिर भी, राष्ट्र ही तय करेगा।

मोरारी बापू के अलावा बाकी जिन संतों को मौका मिला मोदी प्रशंसा में हर हर गंगे करने से अपने आपको रोक नहीं आये। रमेशभाई ओझा जैसे कथाकारों से जो उम्मीद हो सकती थी, उन्होंने वही बोला कि नर नहीं बल्कि अब कुर्सी नरेन्द्र को खोज रही है। जरूर उनकी अच्छी भावना का सम्मान किया जाना चाहिए। लेकिन अगर आपको उस कार्यक्रम की पूरी रिकार्डिंग देखने का मौका मिले तो जरूर देखिए। अपने भाषण में नरेन्द्र मोदी ने कपाल भांति से कपाल भ्रांति दूर करने का जो तर्क दिया वह उनके भाषण से पहले संतों में ही जमकर दिखाई दिया। पूरे कार्यक्रम के दौरान दो बातें बहुत भ्रमात्मक रूप से साफ दिखाई दीं। पहली बात, वे संत जो वैसे तो बाबा रामदेव को संत भी मानने को तैयार नहीं होते वे वहां रामदेव को संसार का सबसे महान संत घोषित कर रहे थे, और दूसरा मोदी की मौजूदगी में मानों सब जबर्दस्ती अपना आशिर्वाद देकर मोदी की गुड बुक में अपना भी नाम लिखवा लेना चाहते थे। ऐसे लोभ से वे प्रणव पांड्या भी अपने आपको नहीं बचा पाये जिनकी सांसारिक क्षमता गायत्री परिवार के कारण रामदेव से कई गुणा अधिक है। इन तथाकथित संतों का यह राजनीतिक गुणानुवाद भले ही मोदी ने अपने भाषण में यह कहकर खारिज कर दिया हो उन्हें संतों से ऐसा आशिर्वाद नहीं चाहिए जो कुर्सी से जुड़ा हो लेकिन जो भी संत उठा उसने नरेन्द्र मोदी को कुर्सी मिलने का ही आशिर्वाद दिया। इसलिए संतों की इस सभा में नरेन्द्र मोदी ने क्या कहा, इसकी समीक्षा से ज्यादा जरूरी उन संतों की समीक्षा जरूरी जान पड़ती है जो कुर्सी की राजनीति में दिन रात डूबे रहते हैं।

कम से कम यहां तीन ऐसे संत मौजूद थे जिनकी चिंता इन दिनों परम सत्ता से ज्यादा राज सत्ता है। इसमें एक हैं विजय कौशल, दूसरे हैं प्रणव पांड्या और तीसरे हैं बाबा रामदेव। विजय कौशल और प्रणव पांड्या तो बार बार व्यवस्था बदलने की पहल भी करते रहते हैं। दिल्ली, लखनऊ, वृंदावन और हरिद्वार में अक्सर बैठकें होती रहती हैं जिसमें व्यवस्था परिवर्तन जैसे विचारों के जरिए राजनीतिक पहल की दबी कुचली इच्छा प्रकट होती रहती है। विजय कौशल खुद संघ पृष्ठभूमि से आते हैं, लेकिन अब उनकी कोशिश है कि संघवालों को किनारे रखकर कोई राजनीतिक मंच पैदा किया जाए। उनके इस पवित्र काम में प्रणव पांड्या अक्सर शामिल दिखाई देते हैं। लेकिन रामदेव तो उन दोनों से भी मीलों आगे हैं। उन्होंने सिर्फ अपना राजनीतिक दल बनाने की ही घोषणा नहीं की है बल्कि उसके लिए जोर शोर से तैयारियां भी शुरू कर दी हैं। इसी अप्रैल के 7-8 तारीख को रामदेव के उसी पतंजलि योगपीठ में एक गुप्त बैठक हुई थी जिसमें राजनीतिक दल की रूपरेखा पर विचार विमर्श किया गया। इस बैठक में कुछ टायर्ड समाजसेवियों, रिटायर्ड अधिकारियों के अलावा भारतीय मूल के वे विदेशी भी शामिल हुए थे जिन्हें अपनी चिंता पूरी कर लेने के बाद अब देश की चिंता सताने लगी है। इस बैठक में तय किया गया है कि भारत स्वाभिमान पार्टी के तहत आगामी लोकसभा चुनाव लड़ा जाएगा और 300 सीटें जीतने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है।

रामदेव के इस 300 सीटों वाले लक्ष्य को हासिल करने के लिए अपने सच झूठ के बल पर न केवल बाबा रामदेव खुद जोर शोर से मैदान में उतरनेवाले हैं बल्कि वे आर्य समाज से लेकर देवबंद तक को शामिल करने की तैयारी कर रहे हैं। ऐसे में स्वाभाविक सवाल यह उठता है कि अगर बाबा रामदेव खुद अपना राजनीतिक दल बनाकर लोकसभा की 300 सीटें जीतना चाहते हैं तो फिर मोदी को प्रधानमंत्री होने की मुहिम चलाकर क्या साबित करना चाहते हैं? क्या नरेन्द्र मोदी अब भाजपा की बजाय रामदेव के स्वाभिमान पार्टी की तरफ से पीएम पद की दावेदारी करेंगे? फिर, मोदी को भी इतना तो मालूम ही है कि संघ परिवार बाबा रामदेव से खफा रहता है और अब रामदेव भी संघ परिवार के करीब जाने से कतराते हैं। तो फिर, मोदी रामदेव के जरिए प्रयाग का प्रायश्चित हरिद्वार में कर रहे हैं या फिर रामदेव मोदी के जरिए दिल्ली का दरवाजा खोल रहे हैं? दोनों का अतीत "इस्तेमाल करो और आगे बढ़ो" वाला है। अबकी देखना सिर्फ यह होगा कि यह काम पहले कौन करके बाजी मार लेता है?

गुडिया के नाम पर गुंडागर्दी


उस वक्त जब आम आदमी पार्टी के नेता कार्यकर्ता न्याय की पुरजोर मांग के समर्थन में इंडिया गेट जा रहे थे तो उन्हीं लोंगो ने उनका उसी तरह से बहिष्कार कर दिया था जिस तरह से अरविन्द केजरीवाल के समर्थक जंतर मंतर पर नेताओं का किया करते थे। शायद वह आंदोलन निरा जनता का ऐसा आंदोलन था जिसमें आम आदमी के अग्रदूत अरविन्द केजरीवाल के लिए भी कोई जगह नहीं थी। इस बार ऐसा नहीं है। इस बार अगर अरविन्द केजरीवाल की पार्टी न रही होती तो यह मामला ही सामने नहीं आता। एक अबोध बच्ची के साथ जो दरिंदगी अंजाम दी गई, वह अगर सामने आई तो सिर्फ और सिर्फ आम आदमी पार्टी की सक्रियता की वजह से सामने आई। लेकिन इस बार जनता का यह गुस्सा और आक्रोश वैसा नहीं है जैसा दिसंबर में था। इस बार गुस्से में राजनीति भी शामिल है और कूटनीति भी।

जिस अबोध बच्ची के साथ जघन्य अपराध को अंजाम दिया गया उस पर पुलिस की कार्रवाई का तरीका निरा आपत्तिजनक है। इसलिए यहां इस बात के लिए निश्चित रूप से 'आप' की तारीफ करनी चाहिए कि उन्होंने एक पीड़ित बच्ची के लिए पहल किया और मीडिया के जरिए शासन प्रशासन को चौकस किया। लेकिन इसके बाद से आंदोलनवादी पार्टी ने जो आंदोलन शुरू किया वह निरा राजनीति के अलावा कुछ नहीं है। आखिर क्या कारण है कि एक अबोध बच्ची के पक्ष में शुरू हुआ आंदोलन दिल्ली पुलिस के मुखिया नीरज कुमार के विपक्ष में तब्दील कर दिया गया? दयानंद अस्पताल में प्रदर्शनकारी लड़कियों पर एसीपी का थप्पड़ और झिड़की निश्चित रूप से चौंकानेवाली थी लेकिन क्या किसी ने यह ध्यान दिया कि उन दोनों लड़कियों में से एक उस एसीपी का बिल्ला नोचने के लिए हाथ आगे बढ़ा रही थी, जिसका हाथ तेजी से एसीपी ने झटक दिया जिसे कैमरा कंपनी ने ऐसे प्रचारित किया मानों गाज गिर पड़ी हो? क्यों भाई कैमरा कंपनीवालों? पुलिस की यह ज्यादती क्या उससे भी बड़ी ज्यादती है आम आदमी के जीवन में रोजमर्रा की जिंदगी का किस्सा है? तय मानिए, अगर कैमरा कंपनी दिल्ली पुलिस का दामन बचाने पर आती तो इसी थप्पड़ और झिड़की को 'कानून व्यवस्था का हिस्सा' बता देती और आप पार्टी वाले माफी मांगते घूम रहे होते।

लेकिन मामला ऐसा था कि दिल्ली पुलिस की भी बोलती बंद थी। एक अबोध बच्ची के साथ जघन्य कुकर्म किया गया और उसके बाद एफआईआर दर्ज कराने पीड़ित परिवार पहुंचा तो उसे दो हजार रूपये देकर चुप करने के लिए कहा जाए तो कौन होगा जिसका सिर गर्व से ऊंचा उठ जाएगा? दिल्ली पुलिस की यही चूक उसके लिए भारी पड़ गई। जिस आफत से बचने के लिए रिश्वत लेनेवाली दिल्ली पुलिस ने दो हजार की रिश्वत ऑफर की थी, वह आफत न केवल उसके गले पड़ गई बल्कि एक बार फिर देश दहल गया। गृहमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति तक ने अफसोस जाहिर किया। टीबी कंपनी वाले इस मामले को तूल देना ही चाहते थे। उन्होंने तूल दे भी दिया। वहां तक सब अच्छा किया। लेकिन खून मुंह में लग जाए तो जीभ बार बार स्वाद चखना चाहती है। 16 दिसंबर की घटना के बाद विरोध का जैसा ज्वार दिल्ली में उमड़ा था, एक बार फिर वैसे ही ज्वार का उभार पैदा करने की कोशिश की गई। रिपोर्टिंग की निर्भया पैटर्न पर सब घटनाओं को अंजाम देने की कोशिश की गई। आप पार्टीवालों की सक्रियता ने बाप पार्टी वालों (भाजपा) को भी सक्रिय कर दिया और माताएं तथा बहनों को दिल्ली की बच्चियों की चिंता सताने लगी तो वे भी सोनिया के घर तक जा पहुंची। इधर आप पार्टीवाले तो देर शाम तक आक्रामक थे ही, लेकिन शुक्र है जनमानस का, उसने इस बार 'आप' का साथ नहीं दिया।

ऐसा लगता है, मीडिया के लिए भी बलात्कार एक भरा पुरा बाजार बनकर सामने आया है। दिसंबर के बाद से ही जिस तरह से मीडिया पूरी तरह से  "बलात्कारी" हो गया है उससे अब तो वह महिला भी घबराने लगी हैं, जिसके नाम पर ऐसे काम को अंजाम दिया जा रहा है। दुर्भाग्य से मीडिया का यह बलात प्रचार बलात्कार को कम करने की बजाय उन्हें बढ़ाने का काम करते हैं। फिर भी, बड़े ही छद्म रूप से कॉरपोरेट मीडिया और राजनीतिक दल इस सामाजिक बुराई को कानून व्यवस्था की तात्कालिक समस्या साबित करके अपनी अपनी मुनाफाखोरी में लगे हुए हैं।
ऐसा शायद इसलिए क्योंकि इस बार जो कुछ हो रहा है वह आंदोलन नहीं बल्कि राजनीति है। एक अबोध बच्ची के छत विक्षत शरीर पर की जानेवाली राजनीति। अगर आप पार्टी की सक्रियता की वजह से खजूरी में पुलिस सक्रिय हुई, बच्ची का इलाज सुनिश्चित हुआ, आरोपी पकड़ा गया तो उसी की वजह से यह मामला राजनीतिक रंग में भी रंग दिया गया। शुरूआत वहीं से हुई जहां से यह मामला उठा। जिस इलाके में यह वीभत्स घटना हुई है वह इन दिनों आम आदमी पार्टी की सक्रियता का बड़ा केन्द्र है। पूर्वी दिल्ली के वे इलाके जहां सचमुच इस देश का दिल्ली पार बसता है, वहां अरविन्द केजरीवाल के पार्टी की खासी सक्रियता है। इसमें कोई दो राय नहीं कि आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ता इस वक्त दिल्ली के इन इलाकों में दूसरे राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं से ज्यादा सहज उपलब्ध हैं। इसलिए उन तक यह सूचना पहुंची और बुधवार से लेकर शुक्रवार के बीच हंगामा इतना बड़ा हो गया कि दिल्ली पुलिस के होश उड़ गये। और केवल दिल्ली पुलिस के ही क्यों, देश का आला सत्ता प्रतिष्ठान के भी होश ठिकाने आ गये। इसलिए एक बार फिर आप पार्टी को ही इस बात का श्रेय जाता है कि उन्होंने इस मामले में अपनी सक्रियता की वजह से सख्त कार्रवाई को अंजाम दिलवाया लेकिन जब आरोपी पकड़ा भी गया, बच्ची का इलाज भी सुनिश्चित हो गया उसके बाद भी शनिवार और रविवार को आप पार्टी ने इसे राजनीतिक रंग देते हुए दिल्ली पुलिस के कमिश्नर को हटाने का अभियान चला दिया।

समझ में नहीं आता कि ऐसा हर बार अरविन्द केजरीवाल के साथ ही क्यों होता है कि उनके आंदोलन से सीधे या परोक्ष रूप से दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को ही फायदा पहुंचने लगता है। इस बार भी ऐसा ही हुआ। भले ही संदीप दीक्षित को खजूरी में खड़ा न होने दिया गया हो जिस क्षेत्र के वे इस वक्त सांसद है, इसके बाद भी उन्होंने अरविन्द केजरीवाल और उनकी आप पार्टी की उस मांग का समर्थन कर दिया जो दिल्ली के पुलिस कमिश्नर को हटाने से जुड़ी थी। अब जब कभी पुलिस कमिश्नर को हटाने की राजनीतिक मांग की जाती है तब उसका मतलब कानून व्यवस्था बिल्कुल नहीं होता है। मतलब क्या होता इसे उस समय की स्थिति परिस्थिति को देखकर भी अंदाज लगाया जा सकता है। वैसे भी दिल्ली पुलिस से दिल्ली सरकार का छत्तीस का आंकड़ा है और जिस मुख्यमंत्री मां के संदीप दीक्षित बेटे हैं उस मुख्यमंत्री की कुर्सी और दिल्ली में पुलिस कमिश्नर की कुर्सी कमोबेश बराबर ही होती है। ऐसा इसलिए क्योंकि दिल्ली पुलिस आज भी दिल्ली सरकार के तहत नहीं बल्कि गृह मंत्रालय के तहत काम करती है। इसलिए कोई भी मुख्यमंत्री यही चाहेगा कि कम से कम कमिश्नर उसकी पसंद का होना चाहिए। शीला दीक्षित वैसे तो इस समय खुद ही अस्पताल में इलाज करा रही है, लेकिन कम से कम उन्हें इस बात की राहत जरूर पहुंची होगी कि कमिश्नर को काम पर लगाने का जोरदार दबाव उनके राजनीतिक शत्रुओं ने कर दिया है।

क्या बलात्कार को सिर्फ कानून व्यवस्था की समस्या मानना चाहिए? कायदे से सोचें तो यह कानून व्यवस्था से ज्यादा सामाजिक समस्या है। कानून बनाकर भय पैदा करके जो लोग बलात्कार जैसी 'मानवीय समस्या' को हल करना चाहते हैं वे दिन में तारे गिन रहे हैं। यह कड़वी सच्चाई कोई स्वीकार करे या न करे लेकिन गुड़िया के साथ जिस जघन्य अपराध को अंजाम दिया गया अगर उसे सिर्फ कानून व्यवस्था की समस्या मान लिया गया तो उसे ठीक करने के लिए आधी दिल्ली को दरबदर करना होगा। बदलाव कहीं और करना है लेकिन जहां करना है उस ओर न तो कोई राजनीतिक दल सचेत करता है और न ही मीडिया कभी उसका जिक्र छेड़ता है। वह शायद इसलिए क्योंकि सामाजिक बदलाव की वह पहल इन दोनों के लिए घाटे का सौदा है।शनिवार और रविवार को इस बात की कोशिश जारी रही कि 'गुड़िया' के नाम पर जो गुण्डागर्दी शुरू की गई है वह जारी रहे लेकिन इस बार न जाने ऐसा क्या हुआ कि इस आंदोलन को जन समर्थन हासिल न हो सका। शायद आम आदमी ने भांप लिया था कि आम आदमीवाले राजनीति कर रहे हैं, इसलिए कम से कम वह उमड़कर आगे आगे नहीं दौड़ा। लेकिन जो दौड़े उनकी दौड़ किसी घुड़दौड़ से कम नहीं थी। आम आदमी पार्टीवाले हों या कि कैमरा कंपनी। तीन दिनों तक उन्होंने अबोध बच्ची के क्षत विक्षत शरीर पर गुस्से की कोई परत चढ़ाने से बाज नहीं आये। सारा फायदा अकेले 'आप'को न हो जाए इसलिए दिल्ली भाजपा ने भी बहती गंगा में हाथ धो लिया। सुषमा स्वराज ने तो सीधे सीधे फांसी की मांग कर डाली। उन्होंने कहा कि ऐसे मामलों में तत्काल फांसी दे दी जानी चाहिए, तो उनकी पार्टी की महिलाओं ने सोनिया गांधी का घर घेरकर अपना जोश और आक्रोश दोनों दिखा दिया। कांग्रेस के आला नेताओं ने भी बयानबाजी करके जो कुछ श्रेय हासिल हो सकता था, उसे लेने से गुरेज नहीं किया।

लेकिन गुड़िया के नाम पर गुण्डागर्दी करनेवालों में अकेले आप पार्टी या भाजपा ही नहीं है। मीडिया ने भी कम गुण्डागर्दी नहीं की है। भारत में टीवी मीडिया के विकसित होते बाजार के लिए 16 दिसंबर की घटना के बाद बलात्कार नया औजार बनकर हाथ लग गया है। बाजार के इस विकसित होते बाजार में अगर कुछ जघन्य हो जाए तो बाजार के लिए सोने पर सुहागा होता है। इसलिए अचानक ही हमारी पूरी कैमरा कंपनी बलात्कार को लेकर बेहद संवेदनशील हो गई है। बाजार की संवेदनशीलता हमेशा उसके मुनाफे से जुड़ी होती है। मीडिया के बाजार में ऐसी मुनाफाखोरी की संभावना संकटकाल में सबसे अधिक होती है। जितना गहरा संकट होता है मीडिया का बाजार उतना ही विकसित और मुनाफेवाला बनता चला जाता है। ऐसे में अगर कोई संकट कुछ दिनों के लिए स्थाई बनाया जा सकता है तो मीडिया ऐसा करने से पीछे नहीं रहती। ऐसा इसलिए नहीं कि उसे समाज या सरोकार की चिंता सताए जा रही है। ऐसा सिर्फ इसलिए क्योंकि इससे मुनाफाखोरी को बड़ी मदद मिलती है। ऐसे में अगर राजनीतिक दल मुनाफाखोर मीडिया का साथ दे दें तो सोने पर सुहागा हो जाता है। उस दफा 'दामिनी' (इंडिया टीवी) ने वह काम किया था, इस दफा 'गुड़िया' (आज तक) ने बाजी मार ली है। अगर ऐसा नहीं होता तो तय मानिए कि गुड़िया के नाम पर ऐसी गुण्डागर्दी कभी न की जाती।

Wednesday, April 24, 2013

तलवार पर संदेह की कटार

15 मई 2008 की आधी रात को नोएडा के जलवायु विहार के उस घर में जो कुछ हुआ था उसके बारे में आज गाजियाबाद की अदालत में सीबीआई ने जो जांच पड़ताल पेश किया है उसमें शायद ही ऐसा कुछ हो जिसे सुनकर कोई चौंक जाए। किंवंदिंतों और कहानियों में अभी तक जो बातें कही जाती थीं, उसी बात को सीबीआई ने अपनी जांच पड़ताल बनाकर सामने रख दिया है। इसका मतलब यह तो नहीं हो सकता कि सीबीआई ने किवंदियों और किस्सों को कागजों में नत्थी करके अपना काम पूरा कर लिया। लेकिन मतलब यह जरूर हो सकता है कि सीबीआई ने आज जो कुछ कहा वह जनता का एक बड़ा वर्ग बहुत पहले से कहता आ रहा था। आरुषि और हेमराज की हत्या उसके ही मां-बाप राजेश और नुपुर तलवार ने की थी।

हालांकि सीबीआई के इस तफ्सीस का अब अदालती परीक्षण होगा और जिरह दर जिरह यह साबित करने की कोशिश की जाएगी यह सब सच है या नहीं है। पिछले चार सालों में आरुषि तलवार के मां बाप ने जिस तरह से अपने आपको बचाने की कोशिश की है उसे देखकर नहीं लगता है कि इतनी जल्दी वे अपना गुनाह कबूल कर लेंगे। वे इसे एक लंबी अदालती लड़ाई में तब्दील करने की कोशिश करेंगे ताकि जेल के बाहर उन्हें ज्यादा से ज्यादा दिन जीने का मौका मिल सके।

सीबीआई अब जितनी सफाई से राजेश तलवार और नुपुर को हत्यारा बता रही है, तब उसने इतनी सफाई से यह बात नहीं कही थी जब 2010 में 29 दिसंबर को गाजियाबाद की इसी विशेष अदालत में क्लोजर रिपोर्ट लगाया था। उस वक्त सीबीआई ने तलवार दंपत्ति पर शक व्यक्त करते हुए फाईल बंद कर दी थी। आरुषि और हेमराज की हत्या के लिए सीबीआई अपनी जांच में पहले दिन से दांतों के डॉक्टर को शक की निगाह से देख रही थी। और सीबीआई ही क्यों? 18 मई 2008 को जब इस मामले की जांच में दिल्ली पुलिस शामिल हुई तो उसने सरसरी निगाह दौड़ाने के बाद ही कह दिया कि ''हत्या या तो किसी डॉक्टर ने की है, या फिर किसी कसाई ने।''

आज कमोबेश चार साल बाद सीबीआई जिस नतीजे पर पहुंची है वह उसी संदेह को पुष्ट करती है जो दिल्ली पुलिस ने व्यक्त किया था। सीबीआई की ओर से जांच अधिकारी एजीएल कौल ने जो विवरण दिया है वह बताता है कि 15 मई की आधी रात आरुषि के मां बाप घर लौटे तो उन्होंने घर के चालीस वर्षीय नौकर हेमराज और अपनी चौदह वर्षीय बेटी को आपत्तिजनक अवस्था में पाया। ऐसी स्थिति में कोई भी मां-बाप बेकाबू हो सकता है। तलवार दंपत्ति भी बेकाबू हो गये। उन्होंने गोल्फ स्टिक से हत्या तो हेमराज की लेकिन गोल्फ स्टिक से की गई मारपीट में बेटी के सिर में भी गहरी चोट आई। पूरे कमरे में खून ही खून भर गया। कहते तो यह भी हैं कि आरुषि का भेजा बाहर निकल आया था। सीबीआई मानती है कि तलवार दंपत्ति द्वारा हेमराज की हत्या अगर जानबूझकर की गई तो आरुषि की हत्या अचानक हो गई। लेकिन हत्या हो गई तो इसके आगे की कहानी और भी वीभत्स है।

राजेश और नुपुर ने अपनी ही बेटी का गला उस चाकू से रेत दिया जिससे आपरेशन किया जाता है। सीबीआई भी मानती है कि ऐसा इसलिए किया गया ताकि यह मामला हेमराज द्वारा की गई हत्या का लगे। हेमराज के शव को छत पर ही छिपा दिया गया और 16 मई को जो कहानी गढ़ी गई उसमें तलवार दंपत्ति द्वारा मृत हेमराज को ही सस्पेक्ट बता दिया गया। सीबीआई का कहना है कि हेमराज और आरुषि की हत्या के बाद तलवार दंपत्ति रातभर शराब पीते रहे और पूरे कमरे का खून साफ करते रहे ताकि अगले दिन आरुषि की हत्या के लिए हेमराज को दोषी साबित किया जा सके। जाहिर है, मृत हेमराज कभी मिलता नहीं और मामला अपने आप रफा दफा हो जाता। लेकिन तलवार दंपत्ति की यह चालाकी एक दिन से भी अधिक कायम न रह सकी। 17 मई को ही उन्हीं की छत से हेमराज का शव बरामद कर लिया गया और पूरी कहानी पलट गई। हालांकि इसके बाद भी तलवार दंपत्ति लगातार अपनी पहुंच और प्रभाव का इस्तेमाल करके बचाव करते रहे लेकिन मामला इतना साफ था कि वे चाहकर भी बहुत कीचड़ फैला नहीं पाये।

अब जबकि सीबीआई ने अपनी दलील दे दी है तब अदालत को तय करना है कि वह क्या फैसला करती है लेकिन जिस वक्त यह खबर आई है वह ऐसा वक्त है जब बेटियों सचमुच चिंता का कारण बनी हुई हैं। जो कहानी बार बार सामने आ रही है वह यही है कि हेमराज और आरुषि को एक कमरे में देखकर तलवार दंपत्ति आग बबूला हो गये जिसके बाद यह हत्याकांड हुआ। लेकिन जो बात कभी जिरह में शामिल नहीं हुई वह यह कि आखिर नौंवी क्लास में पढ़नेवाली एक तेज तर्रार लड़की घर के चालीस वर्षीय व्यक्ति के साथ आपत्तिजनक अवस्था तक कैसे पहुंच गई? उसे अबोध मान भी लें तो क्या हेमराज दोषी था? अगर ऐसा था, तो हो सकता है इसका लाभ तलवार दंपत्ति को मिल जाए क्योंकि सीबीआई ने अपनी रिपोर्ट में एक बात तो कह ही दिया है कि आरुषि की हत्या दुर्घटनावश हो गई। यानी वह हेमराज इसलिए मार दिया गया क्योंकि वह एक अबोध बच्ची के साथ हमबिस्तर था, जबकि वह अबोध बच्ची इसलिए मर गई क्योकि एक दुर्घटना हो गई?

एक सामान्य समझ वाला व्यक्ति भी ऐसी अवस्था में तलवार दंपत्ति को संदेह का लाभ दे देगा जैसी स्थिति पैदा की जा रही है। जबकि जो कहानी अनाधिकारिक रूप से सामने आई है उसमें कहीं न कहीं आरुषि अपने ही मां-बाप के किसी काम से इतनी नाखुश थी कि उसने प्रतिक्रिया में हेमराज से संबंध विकसित कर लिया। कहते हैं आरुषि के इस सवाल का जवाब तलवार दंपत्ति कभी नहीं दे पाते थे कि वे दोनों अक्सर रात में उसे अकेला छोड़कर जाते कहां हैं और पूरी पूरी रात गायब रहते हैं। जाहिर है, आरुषि को कुछ बातें ऐसी भी पता चली होंगी जिसके कारण उसके कच्चे मन को गहरी चोट पहुंची होगी। इसलिए यहां भी सीबीआई को उन परिस्थितियों की पड़ताल भी सामने लानी चाहिए कि आखिर क्या कारण है कि हेमराज की गोद में खेलनेवाली आरुषि उसके साथ आपत्तिजनक अवस्था में पाई गई? इस पहलू से इस घटनाक्रम को देखना इसलिए भी जरूरी है कि अभी तक जो परिस्थितियां पैदा की गई हैं उसमें भविष्य में तलवार दंपत्ति को संदेह का लाभ मिल सकता है। आखिरकार, अब तक अपने संबंधों का इस्तेमाल करके तलवार दंपत्ति अपने आपको बचाते ही रहे हैं। खुद कौल ने भी स्वीकार ही किया है कि उनके वरिष्ठ अधिकारियों ने भी जांच में दखल देने की कोशिश की थी।

तलवार दंपत्ति का अब तक व्यवहार देखकर लगता नहीं है कि वे इतनी आसानी से अपना गुनाह कबूल कर लेंगे। अब अदालत की जिम्मेदारी बनती है कि वह इस पूरे मामले के संदर्भों को भी समाहित करके किसी निष्कर्ष की तरफ आगे बढ़े ताकि कम से कम तलवार दंपत्ति को संदेह का लाभ न मिल सके। किसी भी कीमत पर। किसी भी सूरत में।

Monday, April 8, 2013

लेडीज एण्ड लेजीड के मोदीज

ऊपर उठ गये तो महिला और पुरुष बराबरी पर आ हो जाते हों, शायद ऐसा नहीं होता। अगर ऐसा होता तो देश की सबसे बड़ी व्यावयासिक घरानापतियों की संस्था फिक्की में फिक्की फ्लो पैदा नहीं होता। फ्लो का मतलब एफएलओ। एफएलओ यानी फिक्की फार लेडीज आर्गेनाइजेशन। इस फिक्की फ्लो की लेडीज के बीच बोलने के लिए इसकी अध्यक्षा नैनालाल किदवई खड़ी हुईं औपचारिकतावश लेडीज एण्ड जेन्टलमैन न कह सकीं। उन्होंने हंसते हुए लेडीज एण्ड लेडीज ही कहा। लेडीज एण्ड लेडीज के बीच यहां किसी लजीज व्यंजन पर बात नहीं हो रही थी कि देश इनके बारे में जानने सुनने की कोशिश करता। आज इन लेडीज के बीच मोदीज की भी मौजूदगी थी। मोदीज महोदय लेडीज के बीच गुजरात गौरव गान करने आये थे और यह बताने भी कि आधी दुनिया का सशक्तीकरण कैसे हो सकता है।

नैनालाल किदवई कोई छोटी मोटी हस्ती नहीं है। भले ही उन्हें महिला अधिकारों के लिए बने फिक्की के महिला विभाग का अध्यक्ष होना पड़ रहा हो नहीं तो वे भारत में एचएसबीसी बैंक की अध्यक्ष हैं। एचएसबीसी कोई छोटा मोटा बैंक नहीं है। हांगकांग एण्ड संघाई बैंक कारपोरेशन दुनिया का सबसे बड़ा बैंक है। इस लिहाज से नैनालाल किदवई देश में दुनिया के सबसे बड़े बैंक की सर्वेसर्वा हैं। ऐसे लोग क्या बोलेंगे इसे तोलने की जरूरत नहीं होती। जो जितने ऊंचे ओहदे पर होता है उसकी जिम्मेदारियां उतनी ही बड़ी होती हैं। उसे देश चलाना होता है। व्यापार करना होता है। समाज संचालित करना होता है। पॉवर और एम्पावर का खेल करना होता है इसलिए उसके बोलने के लहजे में स्वाभाविक तौर पर वह नहीं होता जो साधारण आदमी की सोच में होता है। ऐसे लोगों की सोच असाधारण हो जाती है। इनकी चिंताएं भी चिता समान हो जाती है जिसमें वे दिन रात जलते हैं। सर्वव्यापी सोच रखने के कारण जग हसें हम रोय वाली हालत हो जाती है। सबकी चिंता इनको खाये जाती है।

मसलन, और बातों के अलावा नैनालाल ने यह भी कहा कि "वी कैन्नाट इग्नोर एग्रीकल्चर।" इनकी चिंता भरी वाणी सुनकर कोई भी सहृदय नागरिक द्रवित हुए बिना नहीं रह पायेगा क्या कि देखो कैसी लेडीज है जो न गांव जानती है, न खेत जानती है, न खलिहान जानती है लेकिन इसको कितनी चिंता है। ऊंचे लोगों की ऐसी चिंताएं बड़ी चिंतित करनेवाली होती है। इसलिए तो मन में दूसरा ही सवाल उठ रहा है। नैनालाल्स होती कौन हैं 'इग्नोर' करने या न करने वाली? उनको किसने यह कहा कि वे हमारे एग्रीकल्चर की चिंता करें? ऐसी चिंताओं की आड़ में वे किसकी चिंता करती हैं, हमें खूब पता है। लेकिन हाय रे हमारी सोच, हम जिस सोच से यह सवाल कर रहे हैं इस सोच की दशा भी बड़ी सोचनीय हो चली है। अब कम लोग हैं जो इस सोच से साबका रखते हैं। जो रखते हैं उनकी सोच सुनने वाला कोई नहीं है। सो, नैनालाल्स जैसे चाहें वैसे सोच सकती हैं, लोकतंत्र उन्हीं की बपौती जो हैं।

फिर चिंतित होने की बपौती अकेले नैनालाल्स की ही हो इतना भर भी नहीं है। मनमोहन्स और मोदीज भी उसी धरा धरातल के आदमी हैं। बिल्कुल सफाचट। साफ। कहीं किसी दाग का नामोनिशान नहीं। न व्यवहार में, न चरित्र में, न सोच में। सब सफाचट। ये उतना ही सोचते हैं जितना सोचने से उनका फायदा होता है। अगर आप मनमोहन्स और मोदीज की आर्थिक धारा और विचारधारा को जांचना परखना शुरू करें तो पायेंगे कि दोनों की सोच असाधारण रूप से एक जैसी है। दोनों ही औद्योगिक सभ्यता, छद्म पूंजीवाद और सत्ता के निरंकुश तंत्र में विश्वास रखते हैं। दोनों का कम से कम आर्थिक चाल, चरित्र, चेहरा और चिंतन हमेशा एक नजर आयेगा। पूरी तरह से पूंजीपतियों को समर्पित। औद्योगिक सबलीकरण से नागरिक निर्बलीकरण की जिस नीति पर मनमोहनॉमिक्स काम करती है, ठीक उसी नीति पर मोदीज का गुजरात भी चमकता दमकता है। ऐसी सोच में नैनालाल्स वाली चिंता उसका मूल तत्व होती है। यानी, वे किसी को इग्नोर नहीं कर सकते। एग्रीकल्चर को भी नहीं। बाजार किसी को तब तक इग्नोर करता है जब तक उसका शोषण पूरा नहीं हो जाता। जैसे ही गन्ने की तरह उसकी चुसाई पिराई पूरी हो जाती है, बाजार नयी संभावनाओं की ओर आगे बढ़ जाता है। जैसे, कल तक पश्चिम में लकदक अमीरी का प्रतीक लम्बोर्गिनी और पोर्स आज भारत में छुछुआते हुए घूम रहे हैं कि कहीं कोई ग्राहक मिल जाए और अपनी चार कारें बेंच लें। कल तक इनकी गाड़ियों के लिए भारत कोई बाजार ही नहीं था, आज उनके लिए भारत और चीन से ज्यादा संभावनाओं वाला कोई बाजार नहीं है, लिहाजा टाटाज भी लैण्डरोवर और जगुआर इसलिए खरीद लेते हैं कि भारत और चीन के बाजार से इस कंपनी को घाटे से उबारा जा सकता है।

साफ है, जहां बाजार है, उसे 'इग्नोर' करके बाजरवादी पूंजीवाद अपनी पूंछ नहीं कटा सकता। बाजारवादी पूंजीवाद की नाक नहीं होती, सिर्फ पूंछ होती है। नाक तो नागरिक और नागरिक समाज की होती है। उन्हें इसकी चिंता हो तो हो, बाजार को नाक की चिंता कभी नहीं होती। सिर्फ पूंछ की चिंता होती है। लेकिन दुनिया में अभी भी इतना लोकतंत्र बचा हुआ है कि अक्सर इस पूंजीवाद की पूंछ कहीं न कहीं फंस ही जाती है। उस अमेरिका में तो इसकी पूंछ काटने के कानून ही बना दिये गये हैं ताकि यह कहीं भी अपनी पूंछ न घुसा सके। लेकिन अभी अपने यहां विकास हो रहा है। इसलिए नाक पूंछ का कोई अता पता नहीं है। नेहरूज ने भी कभी बिना पूंछ वाले विकास की कोशिश की थी। उनके विकास में नाक थी, इसलिए सडांध सामने आ गई। लेकिन गांधीज और मनमोहन्स के मॉडल में जब नाक ही नहीं है तो सड़ांध सूंघने की गुंजाइश ही नहीं है। मोदीज भी विकास के उसी मॉडल को आदर्श मानते हैं। इसलिए उद्योगपतियों के आकार प्रकार को हर प्रकार से दुरुस्त रखना हैं। मोदीज के स्टेट में उद्योगपतियों को जितनी सुविधा दी जाती है उतनी सुविधा बिहार में अब आंदोलनों को भी मिलनी बंद हो गई है। नीतीश कुमार्स भी अब उसी मॉडल में आंदोलन घुसाने की बात कर रहे हैं जिसे दिल्ली से लेकर डलास तक मान्यता मिल रही है।

जाहिर है, अर्थ के शब्द पर मोदीज कुछ ऐसा नहीं सोच रहे हैं जिसे समझने में नैनालाल्स या फिक्कीज को कोई डिक्शनरी उठानी पड़े। वे बहुत सपाट तरीके से समझ सकते हैं कि लेडीज के बीच बतौर लीडर मोदीज जो बोल रहे हैं वह क्या है। वही तो उद्योगपतियों का स्वर्ग है, जिसे मोदीज निर्मित कर रहे हैं। यह तो राहुल गांधी जैसे कुछ नासमझ नेता हैं जो सीआईआई पहुंचकर उद्योगपतियों को नसीहत देने लगते हैं। उन्हें समझाने लगते हैं कि देश की जनता का बड़ा हिस्सा विकास की संभावनाओं से अछूता छूट रहा है। उद्योगपतियों को इस बारे में सोचना चाहिए। बोलने की शैली और हावभाव ऐसा कि वह उद्योगपतियों की चमचागीरी करने की बजाय उन्हें डांट रहा है। हो सकता है ऐसे भाषण सुननेवालों को अच्छा लग भी जाए लेकिन उद्योगपतियों के मन का रियेक्शन होना तय है। अब गांधीज के बोल में बाजार का बैंड बजता है जबकि मोदीज के बोल से बाजार का सांड़ नांक भौं सिकोड़कर फुंफकारते हुए छलांग मारता है। सर्र सर्र सेसेक्स ऊपर की ओर उठता है तो पूंजीपतियों की झोली भरता है। ऐसे में आप ही बताइये इन राहुल गांधीज में संभावना नजर आती है कि उन मोदीज में जो बाजार के सामने पूरे नागरिक समाज को सजा संवारकर पेश करने का आश्वासन देते हों?
लिहाजा, ली मैरीडियन में प्रवचन के बाद फ्लो की लेडीज और मोदीज दोनों अहो धन्यभाव से ग्रस्त हैं तो उसके मूल में एक ही बात है कि फिक्कीज को नेता मिल गया है। सीआईआईज को नेता मिल गया है। पीएचडी चैम्बर्स आफ कामर्स को नेता मिल गया है। अंबानीज से लेकर नैनालाल्स तक को नेता मिल गया है। वह नेता जो बाजार में निखार लाने का वादा करता है। इस देश की लोकतांत्रिक सच्चाई यही है कि नेता जनता तय नहीं करती। वह वही लोग तय करते हैं जिनके बीच अब मोदीज की ही चर्चाएं हैं। जनता तो लंबे समय तक विज्ञापन देखकर सिर्फ ठप्पा लगा आती है, फिर घर बैठकर गालीज देती है। देती रहे। किसे फर्क पड़ता है?

Popular Posts of the week