Monday, December 5, 2016

एक जिन्दगी जयललिता सी

गजब जीवन था जयललिता का। जिन्दगी में उन्हें वह कुछ नहीं मिला जो वह पाना चाहती थीं लेकिन जो मिला वही उनकी पहचान बन गया। पैदा हुईं कर्नाटक में लेकिन  पहचान मिली तमिलनाडु में। दो साल की उम्र में पिता का निधन हो गया तो पालन पोषण मां के कंधे पर आ गया। मां रोजगार की तलाश में फिल्मों की तरफ गयीं तो संयोग ऐसा बना कि एक बाल कलाकार के रूप में एक हिन्दी फिल्म में उन्हें तीन मिनट का रोल मजबूरी में करना पड़ा। भरतनाट्यम् की विद्यार्थी जयललिता अभी मैट्रिक में ही थीं कि उन्हें तमिल फिल्मों में अभिनय का आफर आ गया। मां के दबाव में उन्होंने अभिनय करना तो स्वीकार कर लिया लेकिन कैसी विडंबना थी कि पंद्रह साल की उम्र में उन्हें एक "केवल वयस्कोंं के लिए" वाली फिल्म में काम करना पड़ा। फिल्म रिलीज हुई तो वो खुद नहीं देख पायीं क्योंकि वो खुद वयस्क नहीं थी।

इसके बाद प्रथम श्रेणी कि फिल्मों में उनका पहला रोल विधवा स्त्री का था। यहां से उनका तमिल फिल्मों में विधिवत प्रवेश हुआ। फिर तो जैसे जयललिता ने तमिल फिल्मों में उबाल ला दिया। पहली बार तमिल फिल्मों में जयललिता ने बिना बाजू के ब्लाउज पहने जो सनसनी जैसी थी। फिल्मों में काम करते हुए उन्हें शोभन बाबू से प्यार हो गया। लेकिन उनका पहला प्यार परवान न चढ़ सका क्योंकि शोभन बाबू शादीशुदा थे। इसके बाद जयललिता की जिन्दगी में एमजी रामचंद्रन का प्रवेश होता है जो अपने दौर के तमिल सुपरस्टार थे। एमजीआर के साथ उनके जिन्दगी की जो फिल्मी पारी शुरू हुई तो एमजीआर की मौत के बाद सियासी रंगमच पर आकर खत्म हुई।

एमजीआर के साथ उन्होंने अट्ठाइस हिट फिल्मों सहित अस्सी हिट फिल्में दी। एमजीआर राजनीति के सितारे बने तो विरासत संभालने के लिए एक बार फिर जयललिता आगे आयीं। हालांकि खुद जयललिता राजनीति में नहीं आना चाहती थीं। न फिल्म उन्होंने चुना और न ही राजनीति। लेकिन दोनों ही जगह वे एक रोल मॉडल बनीं। शायद फिल्म और राजनीति ने अपनी प्रसिद्धि के जयललिता का चयन किया था। मानो द्रविण स्क्रिप्टराइटर करुणानिधि ने अपनी फिल्मों से तमिलनाडु में जो नास्तिक फिजा बनाई थी उसकी काट के रूप में अम्मा (देवी) का उभार होता है। फिल्मी सितारे राजनीति के सितारे शायद इसलिए बन गये क्योंकि तमिल समाज लंबे समय से फिल्मों के जरिए नायकत्व ही नहीं विचारधारा की तलाश कर रहा था।

जयललिता ने तमिल राजनीति में वह जगह भरी जो एमजीआर खाली कर गये थे। बहुत अतिवाद और जिद्द के समानांतर उनका एक जनवादी उदार चेहरा भी हमेशा सामने आता रहा। शंकराचार्य जयेन्द्र सरस्वती को जेल भिजवाने का मामला हो या फिर करुणानिधि सरकार द्वारा बनायेे गये विधानसभा भवन को अस्पताल बनाने का मसला उनकी जिद्द का चरमोत्कर्ष था। लेकिन ठीक इसके विपरीत वो जनता से जुड़ी सहूलियतों का इतना ध्यान रखती थीं कि मिक्सी ग्राइंडर तक राशन कार्ड से बंटवाने में संकोच नहीं करती थीं। एक तरफ उनका लकदक जीवन है और दूसरी तरफ उनका जीवन दर्शन।  दत्तक पुत्र की शादी करती हैं तो सारे देश में उनके शाहखर्ची के चर्चे हो जाते हैं लेकिन वही जयललिता जनता की छोटी छोटी जरूरतों का ऐसा ध्यान रखती थीं कि उनका वादा भी करतीं और पूरा भी।

फिल्मों की शोख चंचल और दिलकश अदाकारा राजनीति में आयी तो इतनी धीर गंभीर हो गयी कि लोगों ने देवी के रूप में स्वीकार कर लिया। यह सिर्फ जयललिता ही कर सकती थीं। यह सिर्फ उन्होंने ही किया भी।

Sunday, October 2, 2016

तारिक फतेह की फतेह

तारिक फतेह फिर चर्चा में हैं। बीते डेढ़ दो सालों से वे अक्सर चर्चा में रहते हैं क्योंकि अचानक से भारतीय आसमान पर उदित हुए हैं। भारत के मुसलमान उनसे पाकिस्तान के मुसलमानों से भी ज्यादा नफरत करते हैं। कम्युनिस्ट तो खैर गाली देते ही हैं।

लेकिन तारेक फतेह के बारे में कम लोग जानते हैं कि वे मुसलमान तो हैं ही, मार्क्सिस्ट भी हैं। इस्लाम की उनकी आलोचना उनके मार्क्सिस्ट बैकग्राउण्ड के कारण ही है। तारिक फतेह पाकिस्तान में पत्रकार थे। जैसे एक मार्क्सवादी कठमुल्लापन और सत्तातंत्र के खिलाफ बोलता है वैसे ही उन्होंने भी बोलना शुरू किया। यह बात पाकिस्तानी सैन्य हुक्मरानों को हजम नहीं हुई। उन्होंने तारिक की तुड़ाई करने के बाद जेल में डाल दिया। अंदर बाहर होते होते आखिर में तारिक फतेह कनाडा चले गये और कनाडा में उन पाकिस्तानियों के समूह से जुड़ गये जो पाकिस्तान को एक प्रगतिशील अपनी मिट्टी से जुड़ा पाकिस्तान देखना चाहते थे, सऊदी अरब की फोटोकॉपी नहीं।

यहां इसी समूह से जुड़ने के बाद वे भारत आये और वही सब बोलना शुरू किया जो कनाडा के प्राइवेट चैनलों पर बोलते थे। वे घोषित तौर पर कठमुल्लेपन के खिलाफ लिखते बोलते रहे हैं। इसलिए कनाडा में सरकार उनकी सलाह भी लेती है, शायद मदद भी करती हो। इस्लामी आतंकवाद के खिलाफ तारेक फतेह एक मुखर आवाज हैं। लेकिन भारत आकर जब वही सब बोलना शुरू किया तो पहला विरोध मुसलमानों ने ही दर्ज किया। वो दम से कहते हैं कि मैं हिन्दुस्तानी मुसलमान हूं। राजपूत पंजाबी। तुम अरब से आये होगे, मेरा पांच हजार साल से इस मिट्टी से रिश्ता है।

यह तारिक फतेह की वह पहचान है जिससे आमतौर पर हिन्दुस्तानी मुसलमान को दूर किया जा रहा है। सऊदी के पैसे पर चलनेवाले मदरसों में होनेवाली पढ़ाई और मस्जिदों में होनेवाली तकरीर मुसलमानों को यह समझा रही है कि तुम पहले मुसलमान हो और आखिर में भी सिर्फ मुसलमान हो। इसके अलावा तुम्हारी कोई पहचान नहीं है। जो कुछ है वह सिर्फ अरबी संस्कृति है। अरबियों में भी उस नज्दी कबीले की संस्कृति जिसके लोग बीते कई दशकों से सऊदी अरब पर शासन कर रहे हैं। अरबियों में भी वैसे ही सांस्कृतिक विविधता है जैसे किसी देश या समाज में होती है। तरह तरह की पगड़ी, लबादा ये सब अरबियों को ही आपस में एक दूसरे से अलग पहचान देती हैं लेकिन सऊदी शासक के पैसे से जो नये तरह का इस्लाम फैलाया गया है वह दुनिया के मुसलमानों पर समान रूप से सऊदी संस्कृति लाद देना चाहता है।

अल्लामा इकबाल ने इसका विरोध किया था। वे मुसलमानों के लिए अलग जमीन चाहते थे लेकिन उस अलग जमीन पर अरबी इस्लाम को बेदखल करते थे। उनकी ख्वाहिश थी कि एक हिन्दुस्तानी इस्लाम होना चाहिए जो यहां की मिट्टी, सभ्यता और संस्कृति में रचा बसा हो। दुर्भाग्य ये है कि मुसलमानों ने अलग पाकिस्तान तो ले लिया लेकिन हिन्दुस्तानी इस्लाम हासिल नहीं कर पाये। उन्होंने अरबी इस्लाम को अपनी सांस्कृतिक पहचान बना लिया। जाहिर है, ऐसे में कोई तारिक फतेह जैसे मुसलमान सीना ठोककर कहता है कि वह हिन्दुस्तानी मुसलमान है और उसे औरंगजेब से नहीं बल्कि दाराशिकोह से मोहब्बत है तो जेहनी तौर पर बीमार मुससमान उसका विरोध शुरू कर देते हैं। कमी तारिक फतेह में नहीं है, कमी है इन मुसलमानों में जिन्हें इस कदर गुमराह कर दिया गया है कि वे अपनी जमीन को अपनी कहने से डर रहे हैं। अपनी पहचान को अपनी बताने से डर रहे हैं। तारिक फतेह इस जड़ता के खिलाफ पानी में फेंके गये उस कंकर के समान हैं जिसने पूरे पानी में हलचल पैदा कर दिया है।

Wednesday, September 28, 2016

पाकिस्तान का इस्लामिक वॉर मॉडल

पाकिस्तान के साथ यह बड़े कमाल की बात है कि जो देश बिना लड़े हुए बन गया वह बनने के बाद से लगातार लड़ रहा है। इस लड़ाई के लिए उसने एक वॉर मॉडल विकसित किया है जिसे समझे बिना आप यह नहीं समझ सकते कि आखिर पाकिस्तान हर वक्त हिन्दुस्तान के साथ जंगी हालात में क्यों रहता है। पाकिस्तान ने हिन्दुस्तान से साथ लड़ने के लिए जो वार मॉडल डेवलप किया है उसके मूल में है इस्लाम। हर तरह के सही गलत तथ्यों का सहारा लेकर पाकिस्तान की जनता को यह समझाया गया है कि हिन्दुस्तान से जंग मोहम्मद साहब का फरमान है जिसे हमें पूरा करना है।

दुनिया में सिर्फ हिन्दुस्तान ही ऐसा मुल्क है जहां "बुतपरस्ती" बची हुई है। और जैसा कि नबी ए करीम ने फरमाया है कि "गजवा ए हिन्द" करना है तो पाकिस्तान जो जंग लड़ रहा है वह "गजवा ए हिन्द" की जंग है जो पीढ़ियों तक चलती रहेगी। जुल्फिकार अली भुट्टो ने जब कहा था कि हजार साल तक लड़ेगें तो उसके पीछे भी कठमुल्लों का यही तर्क था। जो काम जिन्ना जैसे सनकी मुसलमान भी नहीं कर पाये वह काम किया मौलाना मौदूदी जैसे धीर गंभीर इस्लामिक विद्वान ने। उन्होंने पाकिस्तान की नसों में यह जहर भरा कि वह बना ही इसलिए है क्योंकि उसे हिन्दुस्तान का विनाश करना है। देश की तो बात ही नहीं है। बात है ईमान की। वह ईमान जो हिन्दुओं के विनाश के बाद पूरी तरह कायम होगा।

इसलिए पाकिस्तान की फौज कहती है वह किसी देश की सुरक्षा नहीं कर रही बल्कि वह अल्लाह के लिए जिहाद पर है। इस काम को अंजाम देने के लिए मुल्ले मौलवियों, फौजियों और कट्टरपंथियों का एक गठजोड़ बना हुआ है जिसे आप पाकिस्तान का कठमुल्ला एलांयस कह सकते हैं। इस कठमुल्ला एलायंस के समर्थक हिन्दोस्तान में भी हैं जो चुपचाप ऐसी जंगों का समर्थन करते हैं क्योंकि नबी ए करीम के काम के आड़े आनेवाले वे होते कौन हैं? जब हिन्दोस्तान से मुशरिक (मूर्तिपूजक) मिटा दिये जाएंगे तो अल्लाह का काम पूरा हो जाएगा।

इसलिए पाकिस्तान में बड़ी आसानी से हिन्दोस्तान से लड़नेवाले मुजाहिद मिल जाते हैं। मुल्ला मौलवी इन मुजाहिदों का ब्रेनवाश करते हैं और मिलिट्री ट्रेनिंग देकर सीमापार करा देती है। इसके बाद जब वे अपना काम अंजाम दे चुके होते हैं तो प्रशासन से लेकर टीवी स्टूडियो में बैठे लोग सभी उसका बचाव करते हैं। यह मूर्तिपूजक हिन्दुओं और हिन्दोस्तान के खिलाफ पूरा एक वॉर मॉडल है जिसमें सब अपनी अपनी भूमिका निभा रहे हैं। समझ में आये तो ठीक। समझ में न आये तो भी ठीक।

Saturday, September 3, 2016

खतरे में हिन्दुस्तानी इस्लाम

जैसे क्रोध दूसरों से ज्यादा अपने लिए नुकसानदेह होता है वैसे ही कट्टरपंथ दूसरों से ज्यादा अपने धर्म और समाज के लिए खतरा पैदा करता है। इस लिहाज से आरएसएस इस्लाम से ज्यादा हिन्दुओं के खतरा है फिर भी कट्टरपंथी इस्लामिस्ट और कम्युनिस्ट इस्लाम के लिए आरएसएस को सबसे बड़ा खतरा बताते हैं। यह अनायास नहीं है। इसका कारण है। कारण रिलिजिसय नहीं पोलिटिकल है। हमारे देश के इस्लामिस्ट और कम्युनिस्ट अपना पोलिटिकल स्कोर सेटल करने के लिए आरएसएस को खतरा बताकर अपने फायदे के लिए मुसलमानों को चारे की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं वैसे ही जैसे आरएसएस अपने पोलिटिकल फायदे के लिए हिन्दुओं के एक वर्ग का चारे की तरह इस्तेमाल करता है।

हमारे यहां बड़ी गलती यह हो रही है कि सदियों में इस्लाम ने फारसी सभ्यता के साथ मेल मिलाप करके जो हिन्दुस्तानी इस्लाम गढ़ा था अब उसे हटाकर इस्लाम के नाम पर अरब की संस्कृति लायी जा रही है। अरब की भी क्या कहें, उस नज्द कबीले की संस्कृति लायी जा रही है जिस कबीले के लोग इस वक्त सऊदी पर शासन कर रहे हैं। मोटे तौर पर कहें तो 'खुदा' को 'अल्लाह' से रिप्लेस किया जा रहा है। खुदा हाफिज जैसे प्रचलित शब्द को अल्ला हाफिज बना दिया गया है। बाबा बुल्ले शाह के कलाम तक में खुदा हटाकर अल्लाह भर दिया गया है। गालिब के खुदा अब नज्दी अल्लाह के सामने कमजोर पड़ते जा रहे हैं। खुदा, खुदारा जैसे शब्द आम बोलचाल से ही गायब हो गये हैं।

यह सब अरबी संस्कृति की देन है। इस्लाम की जिस सूफी पंरपरा पर हिन्दुस्तानी मुसलमान अलग छवि रखता था उस पर अब देओबंदी बहावी इस्लाम लादा जा रहा है। जिस देश में अस्सी फीसदी से ज्यादा मुसलमान बरेलवी, शिया और सूफी मत को मानते हों उस देश में बीस फीसद कट्टर बहावी देओबंदी इस्लाम की आवाज बन गये हैं। ये वही बीस फीसद लोग हैं जो इस्लाम को पोलिटिकल पॉवर के लिए इस्तेमाल करते हैं और अरबी संस्कृति को सच्चा इस्लाम बताते हैं। बाकी मुसलमान जो सिर्फ यह जानता है कि वह मुसलमान है इन लोगों के झांसे में आकर उनकी बात को ही इस्लाम की बात मान बैठता है।

इन लोगों के कारण कपड़े से लेकर नाम तक, भाषा से लेकर खान पान तक हर तरफ हिन्दुस्तानी इस्लाम खतरे में है। जिस इस्लामी तहजीब का केन्द्र कभी लखनऊ या भोपाल हुआ करता था उस इस्लामी तहजीब को कट्टरपमथी मदरसों के फतवों से नेस्तनाबूत किया जा रहा है। पाकिस्तान में तो कुछ लोग इसके खिलाफ बोलते भी हैं यहां तो मुसलमान अजीब सी मूर्खता के शिकार हो गये हैं। इस्लाम पर की जानेवाली हर बात उन्हें इस्लाम पर हमला नजर आती है इसलिए बिना कुछ सोचे समझे विरोध में खड़े हो जाते हैं। दुर्भाग्य से बीते कुछ दशकों से कम्युनिस्ट विचारक और कम्युनल पोलिटिकल पार्टियां मुसलमानों का यह भ्रम बनाये हुए हैं ताकि उनकी राजनीति चलती रहे।

Sunday, August 28, 2016

बलोचिस्तान का नाम: कितना फायदा कितना नुकसान?

लालकिले से भाषण सुने पखवाड़ा बीत गया लेकिन अभी भी तय कर पाना मुश्किल है कि बलोचिस्तान का नाम लेकर हमें फायदा होगा या नुकसान? बलोच की आजादी से भारत को क्या हासिल होगा? ऐसे वक्त में जब चीन वहां जाकर बैठ गया है तब क्या हम बलोचिस्तान का नाम लेकर किसी युद्ध की तैयारी कर रहे हैं?

अमेरिका से दोस्ती तो ठीक है लेकिन अमेरिका के इशारे पर चीन से दुश्मनी ठीक नहीं। भारत पाकिस्तान के दरम्यान जो बीते दो तीन सालों में जो परिस्थितियां बन रही हैं उसमें चीन और कुछ हद तक रूस भी पाकिस्तान के साथ हैं। अमेरिका पूरी तरह से पाकिस्तान से दूर चला गया है। उसकी दूरी का नतीजा यह हुआ है कि पाकिस्तान पूरा का पूरा चीन की गोद में जाकर बैठ गया है। गोटी बोटी का रिश्ता जोड़ लिया है। हालांकि इस गोटी बोटी के रिश्ते के बाद भी चीन पूरी तरह से पाकिस्तान से चौकन्ना है और इस्लामिक कट्टरता का समर्थन केवल पाकिस्तान के भीतर तक ही सीमित है। इस्लामिक कट्टरता का एक कतरा भी वह चीन में घुसने देने के लिए तैयार नहीं और पाकिस्तान में जो निवेश कर रहा है वह सब मंहगा कर्ज है जो आज नहीं तो कल पाकिस्तान को बहुत भारी पड़नेवाला है।

चीन को मध्यपूर्व और यूरोप जाने का रास्ता चाहिए जो बलोचिस्तान के ग्वादर पोर्ट से होकर जाएगा। पोर्ट लगभग तैयार है और उसे शुरु करने के लिए पाकिस्तान ने अपना समूचा अस्तित्व दांव पर लगा दिया है। सेना, प्रशासन सब झोंक दिया है। लेकिन इसी ग्वादर को लेकर बलोचिस्तान खुश नहीं है। बलोचिस्तान की शिकायत है जिस सीपेक के जरिए यह सारा ढांचा खड़ा किया जा रहा है उसमें बलोचिस्तान को कुछ हासिल नहीं होनेवाला है। शिकायत सिन्ध की भी है। पाक अधिकृत कश्मीर में भी जो प्रदर्शन हुए हैं वो इसी बात को लेकर हुए हैं कि सीपेक में उनको हिस्सेदारी नहीं मिल रही है। लेकिन शरीफ खानदान और सेना ने चीन के आगे अपने आपको बिछा दिया है। जैसे भी हो यह सीपेक बनना चाहिए। इसी में पाकिस्तान का भविष्य छिपा हुआ है।

वह भविष्य उजाले से भरा है कि अंधकारमय इसे लेकर पाकिस्तान में ही दो मत हैं। एक वर्ग है जो मानता है कि सीपेक के जरिए पाकिस्तान पर चीन का कब्जा हो जाएगा। जो काम चार दशक पहले सोवियत संघ नहीं कर पाया वह काम चीन चार साल में कर जाएगा। चिंता वही है इस्लाम वाली कि चीन आयेगा तो पाकिस्तान की पहचान इस्लाम खतरे में पड़ जाएगी। लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि जो इस्लाम के ठेकेदार हैं वे चीन का माथा को चूमकर पाकिस्तान ला रहे हैं। इसका नतीजा यह हो रहा है कि पाकिस्तान के अंकल यूएई नाराज हो गये हैं। ग्वादर बना तो यूएई का दुबई का बंदरगाह कमजोर पड़ जाएगा। चीन की बढ़त से अंकल सैम को तो खैर खतरा है ही।

इसलिए आप चाहें जिस तरफ से देखें पाकिस्तान एक चक्रव्यूह में फंसता नजर आ रहा है। उसके चारों तरफ सिर्फ एक विकल्प है खाईं। उसके पैरों की जमीन लगातार खिसक रही है और वह इधर की खाईं में गिरने से रोकता है तो उधर की खाईं नजर आने लगती है। कश्मीर के मुद्दे पर वह जानबूझकर अटकता है क्योंकि यहीं से उसे थोड़ी राहत मिलती है। नेशनल लेवल पर भी इंटरनेशनल लेवल पर भी। लेकिन आइने को पलटकर वह कब तक अपनी बदसूरती छिपा पायेगा? पाकिस्तान का के एक पॉकेट में परमाणु बम है तो दूसरे में जिहादी। अभी तो सेना के हाथ दोनों जेब में मजबूती से जमे हुए हैं लेकिन कब तक?

यह वह सवाल है जिसका जवाब दुनिया में किसी के पास नहीं है। "माइग्रेन" बढ़ता जा रहा है इसलिए हो सकता है अमेरिकी चुनावों के बाद सीरिया भूलकर अमेरिका पाकिस्तान पर निगहबान हो जाए। जान मैक्केन कुछ महीने पहले पाकिस्तान का दौरा करके जा चुके हैं। ये वही अमेरिका के सीनेटर जान मैक्केन हैं जिनके सीरिया दौरे के कुछ साल बाद असद विरोधी अभियान शुरू हो गया था और अंतत: कुख्यात आइसिस का जन्म हुआ। ऐसे में समस्या पाकिस्तान की नहीं है, उसकी नियति तो तय है कि उसे आज नहीं तो कल, इधर नहीं तो उधर किसी न किसी खाईं में गिरना ही है। ऐसे में क्या यह होना जरूरी है कि हिन्दुस्तान धक्का देता नजर आये?

कूटनीतिक लिहाज से कहें तो नहीं। बीते सत्तर सालों में युद्ध अब तक भारत की कूटनीति का हिस्सा नहीं रहा है। तो क्या मोदी सरकार ने भारत के परंपरागत पंचशील के कूटनीतिक सिद्धांत को पलट दिया है? लाल किले से अपने भाषण में उन्होंने बलोचिस्तान का नाम लेने से पहले एक और बात कही थी जिस पर शायद किसी ने ध्यान नहीं दिया। उन्होंने कहा था, "हम टालनेवाले नहीं टकरानेवाले लोग हैं।" शुरुआत में जिस सवाल से बात शुरू हुई थी वह इसी वाक्य से निकला है। जिस टकराव को हम अपनी नयी नीति बनाने जा रहे हैं क्या उससे भारत को वह सब कुछ मिल जाएगा जो उसे सत्तर सालों से नहीं मिला है? या फिर वह भी एक युद्धरत देश बन जाएगा जैसा कि टकरानेवालों की नियति होती है? 

Friday, August 26, 2016

आफत में हिन्दुस्तानी मुसलमान

अल्ताफ हुसैन के पिता इंडियन रेलवे में नौकरी करते थे। जब जिन्ना ने पाकिस्तान जिन्दाबाद का नारा दिया तब अल्ताफ हुसैन के पिता नाजिर हुसैन ने भी जिन्ना की आवाज से आवाज मिलाया और पाकिस्तान बनते ही आगरा से कराची चले गये। अल्ताफ हुसैन का जन्म पांच साल बाद कराची में ही हुआ लेकिन उन्होंने अपने पिता की तरह कभी पाकिस्तान जिन्दाबाद नहीं कहा। पाकिस्तान के हालात कभी भी हिन्दुस्तानी मुसलमानों के लिए ऐसे रहे ही नहीं कि वे पाकिस्तान जिन्दाबाद कह पाते। वे मोहाजिर (शरणार्थी) होकर गये थे और मोहाजिर ही रह गये। आज सत्तर साल बाद अल्ताफ हुसैन की एक तकरीर से पूरे पाकिस्तान में उबाल आया हुआ है। अपने पिता के उलट उन्होंने पाकिस्तान मुर्दाबाद का नारा दिया है।

अल्ताफ हुसैन वो शख्सियत हैं जिन्होंने शरणार्थी मुसलमानों के हक और हुकूक के लिए मोहाजिर कौमी मूवमेन्ट की शुरूआत की। जाहिर है यह काम पाकिस्तान को पसंद नहीं आया लिहाजा अल्ताफ हुसैन को भागकर लंदन में शरण लेनी पड़ी। मोहाजिर कौमी मूवमेन्ट जिसका नाम बदलकर अब मुत्तहिदा कौमी मूवमेन्ट हो गया है उसके नेताओं और कार्यकर्ताओं को लंदन से संबोधित करते हुए अल्ताफ हुसैन ने कुछ ऐसा नहीं कहा जो आज पाकिस्तान के बारे में दुनिया नहीं कह रही है। उन्होंने अपने भाषण में कहा कि पाकिस्तान दुनिया के लिए आतंकवाद का केन्द्र बन गया है। उन्होंने कहा कि हम इस पाकिस्तान को बर्दाश्त नहीं करेंगे। इसके टुकड़े टुकड़े कर देंगे। जो चालीस लाशें हमारे भाइयों की कब्र में दफन हैं उसका बदला लेंगे। उन्होंने अपने भाषण में न सिर्फ पाकिस्तान मुर्दाबाद का नारा लगाया बल्कि यह भी कहा कि हमारे पुरखों ने पाकिस्तान बनाकर गलती की है।

अल्ताफ हुसैन ने यह भाषण निजी मीटिंग में पार्टी कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए कही थी लेकिन भाषण का कुछ हिस्सा किसी ने रिकार्ड कर लिया और उसे सोशल मीडिया पर डाल दिया। देखते ही देखते यह लीक पाकिस्तान में आग की तरह फैल गया और पूरे पाकिस्तानी मीडिया में इसकी जबर्दस्त प्रतिक्रिया हुई। तत्काल मोहाजिर कौमी मूवमेन्ट का कार्यालय नाइन जीरो सील कर दिया गया और पाकिस्तानी रेन्जर्स ने कार्रवाई शुरू कर दी। आनन फानन में एमक्यूएम के नंबर दो नेता फारुख सत्तार ने प्रेस कांफ्रेस की और सुलह सफाई दी लेकिन पाकिस्तान के हुक्मरान तो हमेशा इसी ताक में रहते हैं कि कब कोई मौका मिले और वे हिन्दुस्तानी मुसलमानों की घेरेबंदी कर दें। इस बार क्योंकि मामला पाकिस्तान मुर्दाबाद और उसके टुकड़े करने से जुड़ा था इसलिए गुस्सा और दुखड़ा भी ज्यादा जमकर रोया जा रहा है। इस बार ऐसी कार्रवाई की जा रही है कि पाकिस्तान से एमक्यूएम का नामो निशान मिट जाए।  लेकिन सवाल यह उठता है कि अल्ताफ हुसैन ने ऐसा क्यों कहा?

यह बात सही है कि भारत से जाने वाले मुसलमान पाकिस्तान के लिए सांस्कृतिक समस्या बन गये। कराची के आसपास ज्यादातर हिन्दुस्तानी मुसलमानों को बसाया गया था लेकिन उन्हें वह न हासिल हो सका जिसके लिए वे देश छोड़कर पाकिस्तान गये थे। शुरूआती टकराव सिन्धियों से हुआ लेकिन बाद में पंजाबी मुसलमानों से आमना सामना हो गया। पाकिस्तान सत्तर सालों में पंजाबी पाकिस्तान में तब्दील हो चुका है और भले ही कहने के लिए उर्दू पाकिस्तान की सरकारी भाषा है लेकिन उर्दू बोलनेवालों को आज तक पाकिस्तानी होने का दर्जा नहीं मिला। वे आज भी मोहाजिर (शरणार्थी) कहे जाते हैं। उनके साथ होनेवाले भेदभाव को खत्म करने के लिए और हिन्दुस्तानी मुसलमानों को उनका राजनीतिक हक दिलाने के लिए अल्ताफ हुसैन ने राजनीतिक हस्तक्षेप किया उसका परिणाम यह है कि सिन्ध में आज एमक्यूएम दूसरी बड़ी राजनीतिक ताकत है। राज्य से लेकर नेशनल असेम्बली तक एमक्यूएम पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के बाद दूसरी बड़ी हैसियत रखती है। जिस वक्त अल्ताफ के बयान पर बवाल मचा ठीक उसी वक्त कराची में जो नया मेयर चुना गया वह एमक्यूएम का है।

जाहिर है, पंजाबी रेन्जर्स इस बार अल्ताफ हुसैन की हैसियत को मिटाने के लिए मैदान में उतरे हैं। अब तक न केवल नाइन जीरो को सील किया जा चुका है बल्कि कई सांसदों और विधायकों सहित एमक्यूएम के बड़े नेताओं को गिरफ्तार किया जा चुका है। एमक्यूएम के स्थानीय कार्यालयों पर बुल्डोजर चलाया जा रहा है। पाकिस्तान सरकार ब्रिटिश गवर्नमेन्ट में लॉबिंग कर रही है कि एमक्यूएम को आतंकवादी संगठन घोषित किया जाए। पाकिस्तानी रेन्जर्स और आईएसआई बीते दो साल से एमक्यूएम में तोड़फोड़ कर रही हैं। कुछ नेता पार्टी छोड़कर चले भी गये हैं। चालीस लोगों की हत्या की जा चुकी है। शायद इसी कार्रवाई का गुस्सा था कि अल्ताफ हुसैन पाकिस्तान मुर्दाबाद तक बोल गये। लेकिन उस गुस्से को समझने की बजाय पंजाबी हुक्मरानों ने एमक्यूएम को निपटाने की मुहिम शुरू कर दी। असर क्या होगा यह आज नहीं कह सकते लेकिन पाकिस्तान में इसका असर होगा जरूर यह भरोसे से कह सकते हैं।

Tuesday, August 23, 2016

बिकिनी बनाम बुर्किनी

 चौदह सौ साल बीत गये। बुर्के के आविष्कार के चौदह सौ साल बाद अब इस्लाम में औरतों के लिए एक नया आविष्कार हुआ है। बुर्किनी। थोड़ा बुर्का मिलाया गया और थोड़ा सा बिकनी। इस तरह से औरत को ऐतिहासिक आजादी देनेवाले बुर्किनी का निर्माण हो गया।

फ्रांस से आई इस खबर को देखकर अफाक खयाली की याद आ रही है जो आजकल कनाडा में रहते हैं। मां बाप इंडिया से पाकिस्तान गये और वो से जवानी में ही अमेरिका चले गये। वहां वे किताबों के एक स्टोर में काम करते थे। पहली बार जब उन्होंने प्लेब्वाय देखा तो मारे शर्म के लाल हो गये। खैर धीरे धीरे उन्होंने अनुभव किया कि यहां के लोगों के लिए यह सब आम बात है। एक इंटरव्यू में उन्होंने जिक्र किया कि एक बार उनके एक दोस्त किसी न्यूड बीच नामक जगह पर लेकर गये। वे बड़े हैरान हुए लेकिन माहौल देखकर इतने प्रसन्न हुए कि अक्सर वहां जाने लगे। फिर तीन चार बार जाने के बाद उन्हें लगा कि यहां आना टाइम की बर्बादी है। मन के भीतर जो इस्लामिक कुंठा भरी थी वह तीन चार बार में ही बाहर निकल गयी। फिर उन्होंने वहां जाना बंद कर दिया।

लेकिन पाकिस्तान से कोई आता तो वह उन्हें उस बीच पर ले जाने के जरूर कहता। उन्होंने अपने इंटरव्यू में बड़ी खूबसूरत बात कही। उन्होंने बताया कि अब जैसे ही कोई पाकिस्तान से आता और वहां जाने की बात करता तो वे अपनी बीवी से कहते कि "बीमार आये हैं। इलाज के लिए लेकर जा रहे हैं।" यह उनका और उनकी पत्नी का कोडवर्ड होता था। बीमार कहने पर वे समझ जातीं थी कि कौन लोग आये हैं और वे कहां जा रहे हैं। यही वह बीमारी है जिसे मजहब के नाम पर ढंककर रखा जाता है।

बिकनी पहनकर बीच पर इसलिए नहीं जाते कि उन्हें अपने शरीर की नुमाइश करनी है। बल्कि इसलिए जाते हैं कि सर्द देशों में शरीर पर सूरज की ज्यादा से ज्यादा रोशनी पड़े। नहाते हैं तो शरीर की धुलाई सफाई हो। ये बुर्कीनी पहनकर जाएंगे तो बीच पर क्या पायेंगे? 

Friday, August 19, 2016

कश्मीर नहीं है बलोचिस्तान

जब से पीएम मोदी ने १५ अगस्त को अपने भाषण में बलोचिस्तान का नाम लिया है चारों तरफ बलोचिस्तान की तुलना कश्मीर से की जा रही है। जबकि ऐसा है नहीं। कश्मीर के हालात और बलोचिस्तान के हालात बिल्कुल मुख्तलिफ हैं। बलोचिस्तान कश्मीर नहीं है और न ही कश्मीर बलोचिस्तान है।

यह बात सही है कि दोनों ही समस्याओं का जन्म पाकिस्तान बनने के साथ ही हुआ था लेकिन तब से लेकर अब तक दोनों जगह के हालात बिल्कुल अलग रहे हैं। बलोचिस्तान को मोहम्मद अली जिन्ना ने कुरान का हवाला देकर पाकिस्तान में शामिल करने का दावा किया था जबकि बलोच लोग इस दावे को खारिज करते हैं। वे कहते हैं कि एक्सेसन पेपर्स पर बलोचिस्तान के नवाब का जाली हस्ताक्षर किया गया। खान आफ कलात कभी भी पाकिस्तान में खुद को शामिल नहीं करना चाहते थे जबकि कश्मीर में इसके उलट महाराजा हरि सिंह ने भारत में विलय के हस्ताक्षर किये थे और उस विलय की वैधता को आज तक कोई चुनौती नहीं दे सका है।

इसी तरह कश्मीर में कुछ मुसलमान इस्लाम के नाम पर अलग होने की वकालत करते हैं जबकि बलोचिस्तान में मजहब कोई मसला ही नहीं है। अगर इस्लाम के नाम पर ही पाकिस्तान में कश्मीर शामिल होना चाहिए तो फिर इस्लाम के नाम पर ही बलोचिस्तान पाकिस्तान के साथ क्यों नहीं रहना चाहता? जाहिर है, किसी देश में रहने या न रहने का आधार अकेला मजहब नहीं हो सकता। बलोच लोगों की लड़ाई पाकिस्तान के धोखाधड़ी के खिलाफ है जिसे सही साबित करने के लिए बीते सत्तर सालों से वह सेना के बल पर बलोचिस्तान पर कब्जा किये हुए है। जबकि कश्मीर में वही पाकिस्तान इस्लाम के नाम पर लगातार अलगाववाद की आग को भड़काता रहता है।

बलोचिस्तान न कभी पाकिस्तान का हिस्सा था और न आज है। ब्रिटिश हूकूमत में बलोचिस्तान और नेपाल की स्थिति एक जैसी थी जबकि कश्मीर को ब्रिटिश हुक्मरानों ने कश्मीर रियासत को महाराजा को पांच लाख रूपये में बेच दिया था। जब बंटवारे का खाका खींचा गया उस वक्त बलोचिस्तान को यह अवसर दिया गया कि वह जो चाहे वह निर्णय ले सकता है। बलोचिस्तान के वकील मोहम्मद अली जिन्ना, वॉयसराय और खान आफ कलात के बीच ४ अगस्त १९४७ को जो वार्ता हुई उसमें उसकी स्वतंत्रता की ही दलील दी गयी थी। उधर बलोचिस्तान की असेम्बली में जो बहस हुई उसमें भी पाकिस्तान के साथ मिलने का कोई प्रस्ताव नहीं था। बलोचिस्तान ने उस वक्त चार प्रस्ताव पर चर्चा किया था।

पहला प्रस्ताव था कि वह भारत के साथ रहे, दूसरा प्रस्ताव था कि वह ईरान के साथ मिल जाए, तीसरा प्रस्ताव था कि वह अफगानिस्तान का हिस्सा हो जाए और चौथा प्रस्ताव था कि वह एक स्वतंत्र देश बने। इन प्रस्तावों में कहीं भी पाकिस्तान का हिस्सा होने का जिक्र नहीं था। लेकिन १५ अगस्त के बाद सारे हालात रातों रात बदल गये। मोहम्मद अली जिन्ना ने इधर कश्मीर पर कबाइली हमला करवाया तो उधर बलोचिस्तान पर सैनिकों की कार्रवाई शुरू कर दी। १९४७ से बलोचिस्तान पर पाकिस्तान ने जो सैन्य कार्रवाई शुरू की तो आज तक बंद नहीं किया है। इस बीच कई बार पाकिस्तान के सैनिक बलोचिस्तान में नरसंहार को अंजाम दे चुके हैं, वहां के बड़े कबीले के सरदारों को देश निकाला दे चुके हैं लेकिन बलोचिस्तान के आजादी की जंग अब दूसरी पीढ़ी के हाथ में है।

बलोचिस्तान में बुग्ती सबसे बड़ा कबीला है। इसके बाद मरी और मेंगल हैं। ये तीनों ही कबीले पाकिस्तान से आजादी की जंग लड़ रहे हैं। जो नवाब अकबर खान बुग्ती और खैर बख्श मरी कभी जिन्ना के करीब थे वे बाद में पाकिस्तान के खिलाफ हो गये। नवाब बुग्ती, खान आफ कलात और खैर बख्श मरी ने पाकिस्तान के खिलाफ आजादी की जो जंग छेड़ी थी अब वह उनके बच्चों के हाथ में हैं। ब्रामदाह बुग्ती, हर्बरशयार मरी इस वक्त बलोचिस्तान के बाहर रहकर बलोचिस्तान की आजादी की जंग लड़ रहे हैं। इसके अलावा बलोच जनता की तरफ से उनका नया लीडर भी पैदा हुआ है जो किसी कबीले का सरदार नहीं है लेकिन इस वक्त बलोचिस्तान का सबसे असरदार आदमी है। बलोच लिबरेशन फ्रंट के डॉ अल्ला नजर बलोच इस वक्त बलोचिस्तान की आजादी के जन नायक हैं। पढ़ाई से डॉक्टर अल्ला नजर बलोच को पाकिस्तान आर्मी ने इतना टार्चर किया कि आखिरकार वह भी जंगे आजादी के मैदान में कूद गये।

लिहाजा यह कहना कि कश्मीर और बलोचिस्तान के हालात एक हैं, यह दोनों के इतिहास और परिस्थितियों का सतही सरलीकरण है। दोनों का इतिहास अलग है दोनों की वास्तविकताएं अलग हैं। अगर एक होता तो कश्मीर में इस्लाम के नाम पाकिस्तान जो दावा करता है वही दावा बलोचिस्तान में काम क्यों नहीं आता है?

Wednesday, August 17, 2016

प्रमुख स्वामी का प्रस्थान

अक्षर का अर्थ है जिसका कभी क्षर न हो। जिसका कभी विनाश नहीं होता वह होता है अक्षर। वैष्णव मत के स्वामीनारायण संप्रदाय ने अपने संस्थापक गुरू स्वामीनारायण को अक्षर पुरुषोत्तम घोषित किया है। वे ऐसे जागृत पुरुष (आत्मा) थे जिनकी चेतना का कभी क्षरण नहीं होगा। वह अनंतकाल तक धरती में मौजूद रहेगी।

सत्रहवीं सदी में अयोध्या के पास छपैया में पैदा होनेवाले घनश्याम पांडे ही स्वामीनारायण हुए जिन्हें स्वामीनारायण संप्रदाय से जुड़े विष्णु का अवतार मानते हैं। प्रमुख स्वामी महाराज इसी स्वामी नारायण संप्रदाय से जुड़े थे। प्रमुख स्वामी महाराज जिस बीएपीएस शाखा के प्रमुख थे वह स्वामी नारायण की शिक्षाओं का प्रचार करने के लिए एक सौ पंद्रह साल पहले बनायी गयी थी। लेकिन सबसे अधिक विस्तार प्रमुख स्वामी के कार्यकाल में ही हुए। बेहद सरल, सरस और सक्रिय प्रमुख स्वामी का ही प्रभाव था कि दुनियाभर में ११०० से अधिक मंदिर निर्मित किये गये जिनमें दुनिया के कुछ मशहूर मंदिर भी है। अमेरिका का सबसे बड़ा मंदिर, यूरोप का सबसे बड़ा मंदिर और भारत का सबसे बड़ा मंदिर परिसर प्रमुख स्वामी महाराज ने बनवाया।

प्रमुख स्वामी द्वारा बनवाये गये मंदिर न सिर्फ बड़े हैं बल्कि स्थापत्य कला के अद्भुद उदाहरण भी है। लेकिन प्रमुख स्वामी ने एक और बड़ा काम किया। उन्होंने सन्यास को समय के साथ जोड़ा। मसलन एक सन्यासी बिल्कुल आधुनिक दुनिया के साथ तालमेल करता हुआ आदमी होना चाहिए। इसलिए आधुनिक शिक्षा और तकनीकि को उन्होंने परपंरागत ज्ञान के साथ जोड़कर सन्यास का नया स्वरूप सामने रखा। सन्यासी को आधुनिक उपदेशक के साथ साथ सेवक होने का मार्ग प्रशस्त किया। सन्यास में प्रमुख स्वामी का यह योगदान अतुलनीय है। 95 वर्ष की अपनी जीवन यात्रा में उन्होंने न सिर्फ स्वामीनारायण संप्रदाय का विस्तार किया बल्कि संपूर्ण मानव समाज के उत्थान के लिए काम किया। उनके प्रस्थान को नमन।

स्वात घाटी में बौद्ध स्तूप

स्वात धरती का दूसरा स्वर्ग था। कहा जाता है कि रहस्यमय सांग्रीला घाटी में अमर सन्यासी रहा करते थे। वैदिक युग से दो हजार साल पहले तक शांति, ज्ञान और प्रज्ञा को उपलब्ध होने के जितने उपाय यहां हुए, शायद ही कहीं हुए होंगे। बौद्ध धर्म का भी यहां खूब विकास हुआ। यहां पैदा होनेवाले पद्मसंभव दूसरे बुद्ध कहे गये जिन्होंने तिब्बत, चीन और नेपाल में बौद्ध धर्म का प्रचार किया।

बुद्ध गये तो उनके शांत शरीर की राख बारह हिस्सों में बांट दी गयी जिन्हें देश के बारह हिस्सों में भेज दिया गया। उनके अंतिम अवशेष का एक हिस्सा यहां इस स्वात घाटी में भी लाया गया। सम्राट अशोक ने बुद्घ के अवशेष को चिरकाल तक सुरक्षित रखने के लिए यहां एक भव्य स्तूप का निर्माण करवाया। लेकिन अब यहां बुद्ध के सानिध्य में ध्यान करने कोई नहीं आता।

जो स्वात घाटी विद्या और प्रज्ञा की भूमि थी उसे पाकिस्तान ने तालिबान रिक्रूटमेन्ट की फैक्ट्री बना दिया। बीते तीन दशकों से स्वात घाटी में इस्लामिक आतंकवाद इस उफान पर है कि दुनिया का कोई बौद्ध यहां आने की सोच भी नहीं सकता। तालिबान कई बार बौद्ध अवशेषों पर हमला कर चुके हैं और बामियान के बाद बुद्ध की दूसरी सबसे बड़ी मूर्ति को नुकसान भी पहुंचा चुके हैं। लेकिन सौभाग्य से यह स्तूप अभी बचा हुआ है। अच्छा हो कि दुनिया की सरकारें पहल कर इस स्तूप को विश्व धरोहर घोषित करवायें ताकि इस्लाम के नाम पर किसी दिन बुद्ध के इस ऐतिहासिक अवशेष का सफाया न हो जाए।

Tuesday, August 2, 2016

कश्मीर में कट्टरपंथ और कम्युनिज्म का नापाक गठजोड़

जिस वक्त ब्रिटिश हुकूमत ने भारत से जाने की तैयारी की उसने "हिन्दू मुस्लिम" समस्या का समाधान करने का भी निश्चय किया। जो हिन्दू मुसलमान एक साथ मिलकर १८५७ की जंग में ब्रिटिश हूकूमत को चुनौती दे चुके थे वही हिन्दू मुसलमान १९४७ आते आते इतनी बड़ी समस्या बन गये थे कि ब्रिटिश हुकूमत बिना उनका समाधान किये अपना उपनिवेश नहीं छोड़ना चाहती थी। उसने हिन्दू मुस्लिम समस्या का जो समाधान दिया वह देश का तीन हिस्सों में बंटवारा था। जो हिस्सा मुस्लिम बहुल था उसे पाकिस्तान बना दिया बाकी भारत को हिन्दुस्तान रहने दिया।

बंटवारे की इस जद्दोजहद में सबसे बड़ी समस्या थे देश के पांच सौ सेे अधिक छोटे बड़े रजवाड़े। बाकी सबने बंटवारे की ब्रिटिश योजना तो स्वीकार कर ली लेकिन इस बंटवारे के वक्त तीन राज्य ऐसे थे जिन्हें यह अधिकार दिया गया कि वे खुद फैसला करें कि वे किसके साथ जाना चाहेंगे। कश्मीर, बलोचिस्तान और हैदराबाद को स्वनिर्णय का अधिकार दिया गया। हैदराबाद में बहुसंख्यक हिन्दू पर निजाम का शासन था जबकि कश्मीर में बहुसंख्यक मुसलमान पर हिन्दू राजा का शासन था। एक और राज्य था जूनागढ़ जिसके बहुसंख्यक हिन्दू जनता की बदौलत मुस्लिम शासक ने खुद को भारतीय गणराज्य का हिस्सा बना लिया। हैदराबाद भी भारत गणराज्य का हिस्सा हो गया और कश्मीर के राजा ने भी भारत में विलय कर लिया। लेकिन पाकिस्तान ने मुस्लिम बहुसंख्यक जनता के आधार पर बंटवारे के तुरंत बाद कश्मीर पर दावा कर दिया और कबाइलियों के जरिए आधे कश्मीर पर कब्जा भी कर लिया।

तब से अब तक कश्मीर इस विवाद में फंसा हुआ कि उसे आत्मनिर्णय का अधिकार नहीं दिया गया जैसा कि उससे वादा किया गया। तकनीकि तौर पर यह दावा ही गलत है कि कश्मीरी जनता को आत्मनिर्णय का अधिकार नहीं दिया गया क्योंकि जिस वक्त बंटवारा हो रहा था उस वक्त कोई जनमत सर्वेक्षण नहीं करवाया गया था। राजा के निर्णय को ही प्रजा का निर्णय मानकर उसे अंतिम मान लिया गया था। हैदराबाद और जूनागढ़ इसका उदाहरण थे। कश्मीर के महाराजा हरि सिंह ने भी पाकिस्तानी हमले से कश्मीरियों को बचाने के लिए भारत से समझौता कर लिया था। इसलिए यह कहना कि कश्मीर को आत्मनिर्णय का अधिकार ही नहीं मिला यह बात सिरे से ही गलत और बेबुनियाद है।

कश्मीर की जनता ने अलगाववाद का रास्ता अख्तियार भी नहीं किया था लेकिन आधा कश्मीर पर कब्जा करने के बाद पाकिस्तान ने पूरे कश्मीर पर कब्जे की जो योजना बनाई उस योजना के तहत उसने कश्मीर में इस्लामिक आतंकवाद को पैदा किया। ईस्ट पाकिस्तान के अलग होने के बाद वेस्ट पाकिस्तान ने एक पॉलिसी बनाई जिसके तहत उसने बहुत सुनियोजित तरीके से कश्मीर में इस्लामिक आतंकवाद का बीजारोपण किया। वह मकबूल भट जो श्रीनगर जेल से फरार होकर गुलाम कश्मीर चला गया था उसने वहां जब कश्मीर की आवाज उठानी चाही तो पाकिस्तान की एजंसियों ने दोबारा कश्मीर में फेंक दिया। लेकिन उसी मकबूल भट को एक हिन्दू की हत्या के जुर्म में जब दिल्ली में फांसी दी गयी तो पाकिस्तान ने उसके आतंकी संगठन को मदद करना शुरू कर दिया। हिजबुल मुजाहीदीन के आतंकियों को पाकिस्तान में ट्रेनिंग दी और पाकिस्तान के आतंकियों को जिहाद के नाम पर भेजना भी शुरू किया जिसने दो दशक तक कश्मीर में आतंक का माहौल बनाकर रखा।

कश्मीर में आतंकवाद के मूल में इस्लाम की वह जिहादी मानसिकता है जो मूल रूप से कश्मीर की है ही नहीं। कश्मीर शैव भूमि है। यहां जो इस्लाम पनपा वह सूफी परंपरा से पैदा हुआ जिसके मूल में लाल देवी हैं। कश्मीर में जितनी मजारें हैं उतना शायद ही हिन्दुस्तान (भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश) के किसी दूसरे हिस्से में हों। लेकिन पाकिस्तान ने कश्मीर की इस धरोहर को नष्ट किया और आजादी के नाम पर जिहादी इस्लाम को बढ़ावा दिया जिसमें गैर मुस्लिम कश्मीरियों के लिए भी कोई जगह नहीं थी। अब जो कश्मीर में आजादी की जंग है वह कश्मीरियत की नहीं बल्कि इसी इस्लामियत की जंग है जिसमें घाटी का एक वर्ग शामिल है।

घाटी की इस इस्लामियत को दिल्ली में कम्युनिस्ट विचारधारा से जुड़े लोग पहले दबे छिपे समर्थन करते थे लेकिन बुरहान वानी की हत्या के बाद पहली बार ऐसा हुआ है कि उन्होंने खुलकर सोशल मीडिया पर "कश्मीर की आजादी" का समर्थन भी किया है और बुरहान वानी के बारे में वह लाइन ली है जो पाकिस्तान के आतंकवादियों की लाइन है। उन्होने प्रतिबंधित आतंकी संगठन हिजबुल मुजाहीदीन को न तो आतंकी संगठन माना है और न ही उसके कमांडर को आतंकवादी। अगर आप भारत के बंटवारे का थोड़ा भी इतिहास और उसमें कम्युनिस्ट पार्टियों की भूमिका को जानते हैं तो इस समर्थन से आपको कोई खास आश्चर्य नहीं होगा। कम्युनिस्ट पार्टियों ने इसी तरह से १९४० के बाद लगातार मुस्लिम लीग और जिन्ना के बंटवारे के फार्मूले का समर्थन किया था और उनके मुस्लिम आंदोलन को अपना वैचारिक समर्थन भी दिया था।

इस बात की भारत में कम जांच पड़ताल हुई है कि भारत के बंटवारे के लिए असल दोषी कौन था? क्या वास्तव में मुसलमान दोषी थे या फिर ब्रिटिश हुकूमत और कम्युनिस्टों ने अपने अपने तरीके से उन्हें बंटवारे के लिए तैयार किया। लेकिन कश्मीर में कम्युनिस्ट विचारकों की संदिग्ध और जिहादी भूमिका को देखते हुए इस बात पर यकीन किया जा सकता है कि भारत के बंटवारे में कम्युनिस्टों ने अहम रोल अदा किया था। हिन्दू मुसलमान के बीच विवाद पैदा करने में जितनी भूमिका ब्रिटिश हुकूमत की थी उससे कम भूमिका कम्युनिस्ट विचारकों की नहीं थी। पाकिस्तान में जो कुछ शोध हुए हैं उससे यह बात साबित होती है कि १९४० के बाद कम्युनिस्ट विचारक पूरी तरह से मुस्लिम कट्टरपंथियों के साथ हो गये थे और उन्होंने बंटवारे को अंजाम भी दिलवाया। यही भूमिका अब वे कश्मीर में निभाना चाहते हैं।

कश्मीर में कम्युनिस्ट विचारधारा से जुड़े लोग अब खुलकर अलगाववादियों का समर्थन कर रहे हैं। वे आतंकवाद को भी जायज ठहरा रहे हैं और कम्युनिस्ट पार्टियों से जुड़े कुछ छात्र संगठन विश्वविद्यालयों में यह भ्रम फैला रहे हैं कि कश्मीर को आत्मनिर्णय का अधिकार मिलना चाहिए। सोशल मीडिया, टेलीवीजन चैनलों और अखबारों के दफ्तरों में बैठे कम्युनिस्ट पत्रकार लोगों को गुमराह कर रहे हैं कि कश्मीर का आतंकवाद असल में सशस्त्र संघर्ष है। वैसा ही सशस्त्र संघर्ष जैसा देश के भीतर नक्सली सरकार के खिलाफ कर रहे हैं। इस सरलीकरण के वक्त वामपंथी पत्रकार भूल जाते हैं कश्मीर में कोई स्थानीय जंग नहीं है। इस जंग का साजो सामान पाकिस्तान से आता है। खुफिया तौर पर चीन भी इसमें शामिल हो तो इससे इन्कार नहीं किया जा सकता क्योंकि इस वक्त चीन के लिए  यह फायदे में है कि वह भारत अमेरिका की बढ़ती नजदीकी के बीच कश्मीर को अशांत करके भारत को अस्थिर रखे।

हालांकि आधिकारिक तौर पर तो इसके कोई प्रमाण नजर नहीं आये हैं लेकिन देश के भीतर जिस तरह से कम्युनिस्ट बिरादरी ने कश्मीर में आतंकवाद का समर्थन किया है उससे शक बढ़ता है कि कहीं चीन भी तो अब इसमें शामिल नहीं? भारत के कम्युनिस्ट बिरादरी की कश्मीर में सक्रियता को देखते हुए किसी भी आशंका से इन्कार नहीं किया जा सकता। मामला सिर्फ आतंकियों के पास से मिलने वाले मेड इन चाइना हथियार भर नहीं है। मामला भारत से कम्युनिस्टों का आतंकवादियों को दिया जा रहा नैतिक समर्थन भी है। अगर ऐसा है तो कश्मीर में यह अब तक का सबसे नापाक गठजोड़ है। 

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