Monday, July 13, 2009

श्रीधरन पर सवाल

रविवार की भोर दिल्ली के जमरूदपुर इलाके में हुए एक हादसे में एक इंजीनियर सहित पांच लोग मारे गये. 15 अन्य घायल हैं जिसमें चार की हालत गंभीर है. जब हादसा हुआ तो श्रीधरन दिल्ली में नहीं थे. सुबह की फ्लाईट पकड़कर बंगलौर से दिल्ली आये और घटनास्थल का निरीक्षण करने के बाद लोधी रोड स्थित अपने कार्यालय गये और अपना इस्तीफा लिख दिया. उन्होंने तय किया कि वे सोमवार से दफ्तर नहीं आयेंगे. बड़े निर्माण कार्य के दौरान मानवीय और मशीनी चूक की गुंजाइश हमेशा बनी रहती है इसलिए इस दुर्घटना को अप्रत्याशित नहीं कहा जा सकता. लेकिन यह एक मौका जरूर है जब श्रीधरन के कामकाज की समीक्षा की जानी चाहिए.

श्रीधरन केरल से हैं और बड़ी परियोजनाओं को बखूबी संभालने में सक्षम हैं. दिल्ली मेट्रो का कार्यभार संभालने से पहले वे चुनौतीभरे कोंकण रेल परियोजना का काम देख चुके हैं. असल में कोंकण रेल परियोजना का काम काज देखकर ही उन्हें दिल्ली में शहरी यातायत को सुगम बनाने के लिए प्रस्तावित दिल्ली मेट्रो का काम सौंपा गया था. श्रीधरन ने बखूबी उसे पूरा भी किया और 25 सालों से फाइलों में दौड़ रही मेट्रो परियोजना को साकार करते हुए 25 दिसंबर 2002 को शाहदरा से तीस हजारी के बीच पहली ट्रेन को परिचालित कर दिया और 11 नवंबर 2006 को दिल्ली मेट्रो के पहले चरण को पूरा घोषित कर दिया. पहले चरण के दौरान कुल 53 किलोमीटर मेट्रो लाईनों का निर्माण किया और इन लाईनों पर कुल 59 स्टेशन बनाए गये. दिल्ली के लिए यह बहुत बड़ी उपलब्धि थी जहां रिंग रेल सेवा बनने के 20 साल बाद भी यात्रियों तक न पहुंच पा रही हो उस शहर में एक रेल परियोजना घोषित समय से पहले पूरा कर ली गयी. ऐसा नहीं था. दिल्ली मेट्रो रेलों का परिचालन भले ही समय पर हो गया लेकिन आप दिल्ली मेट्रो के पहले चरण का निरीक्षण करें तो पायेंगे कि छुट-पुट काम पिछले साल तक चलता रहा है. फिर श्रीधरन ने ऐसा क्यों किया कि आधी अधूरी परियोजना को पूरा घोषित करके वे अगले चरण की ओर बढ़ गये?

भारत सरकार की अपनी ही इतनी सारी एजंसियां हैं जो परियोजनाओं को कई तरह के प्रमाणपत्र देती हैं. मसलन राईट्स है जो किसी रेल परियोजना का मूल्यांकन करता है और सेफ्टी स्टैण्डर्ड की जांच करके गाड़ी परिचालन का अंतिम आदेश भी रेलवे का ही एक और विभाग देता है. 2002 में जब पहली ट्रेन को हरी झण्डी दिखाई गयी तब आईएसबीटी स्टेशन के सिविल वर्क का एक हिस्सा भी पूरा नहीं हुआ था लेकिन रेलवे की सेफ्टी स्टैण्डर्ड कमेटी ने जांच करके लाईन परिचालन की अनुमति दे दी. कम से कम रेलवे के किसी विभाग से ऐसी दरियादिली की अपेक्षा तो नहीं की जा सकती कि परियोजना पर इतना त्वरित फैसला ले ले. देश की दूसरी रेल परियोजनाओं का चाहे जो हाल हो लेकिन दिल्ली मेट्रो की बात आती है तो मामला बदल जाता है क्योंकि यहां श्रीधरन हैं जिनके काम के आड़े प्रशासनिक विभाग तो क्या न्यायालय तक नहीं आता. हड़बड़ी में जल्दी-जल्दी परियोजना को पूरा करने की घोषणा करना और अगले चरण की शुरूआत करना यह दिल्ली की यातायात व्यवस्था को दुरुस्त करने से अधिक पैसा लगा रही फण्डिंग एजंसियों को फायदा पहुंचाने की कवायद है. जो फण्डिंग एजंसियां दिल्ली मेट्रो में पैसा लगा रही हैं वे लंबे समय तक आय के लिए इंतजार नहीं कर सकती. ऐसे में यह जरूरी है कि काम समय और शायद समय से पहले पूरा हो और परिचालन शुरू हो ताकि निवेश की गयी रकम पर वापसी शुरू हो सके. हालांकि दिल्ली मेट्रो बिल्ड आपरेट एण्ड ट्रांसफर की नीति पर नहीं तैयार हो रहा है लेकिन जो निजी निवेशक पैसा लगा रहे हैं उनका दबाव तो है ही.

जब न दिखनेवाले बड़े बड़े हादसों के बाद भी श्रीधरन पर किसी ने सवाल खड़ा नहीं किया तो दिखने वाले एक हादसे को आधार बनाकर श्रीधरन किनारे कर दिये जाएंगे ऐसा बिल्कुल नहीं होगा. जब तक जापान का पैसा, विदेशी कंपनियों के कलपुर्जे और देशी ठेकेदारों की जुगलबंदी रहेगी श्रीधरन बने रहेंगे, फिर चाहे कोई कितने भी सवाल उठाये.

श्रीधरन की जिस कार्यकुशलता का गुणगान हमारे अखबार पीआर एजंसी की भांति करते हैं उसके पीछे की सच्चाई कुछ और है. दिल्ली मेट्रो ने दिल्ली को केवल मेट्रो देने का ही इतिहास नहीं रचा है बल्कि उसने श्रमिकों के शोषण और पर्यावरण के विनाश का भी इतिहास लिखा है. दिल्ली मेट्रो ने यमुना नदी को लगभग खत्म कर दिया लेकिन झुग्गियों पर बवाल करनेवाले न्यायालय, सफाई की राजनीति करनेवाले एनजीओ और राजनीतिक दलों ने इस बारे में कभी कोई सवाल नहीं उठाया. थोक के भाव में एनजीओ कामनवेल्थ गेम्स न बनने देने का विरोध करते रहे लेकिन ठीक बगल में कामनवेल्थ गेम्स विलेज से दोगुनी जमीन पर दिल्ली मेट्रो ने आवासीय परियोजना से ज्यादा खतरनाक ट्रेन धुलाई का संयत्र और मेट्रो कर्मचारियों के लिए आवासीय परिसर का निर्माण कर लिया लेकिन किसी एनजीओ ने कभी उसके खिलाफ सवाल खड़ा नहीं किया. कुछ लोग बोले भी तो दिल्ली मेट्रो के पीआर एजंसी की बतौर काम कर रहे मीडिया ने उसे कभी जगह नहीं दिया. दिल्ली मेट्रो के यमुना बैंक विस्तार पर खुद राईट्स ने सवाल उठाया था और निर्माण कार्य शुरू होने के पहले सौंपी गयी अपनी रिपोर्ट में कहा था कि इस जगह स्थाई निर्माण कार्य नहीं होना चाहिए क्योंकि यह जगह पूर्वी दिल्ली का सबसे निचला इलाका है और यमुना में हल्की सी बाढ़ या फिर दिल्ली में हल्का सा भूकंप तबाही ला सकता है. लेकिन इस रिपोर्ट और आशंका के बाद भी यहां मेट्रो का पूरा काम काज हुआ और आज भूजल भराव के एकमात्र सबसे संपन्न इलाके पर दिल्ली मेट्रो का स्टेशन और ट्रेन धुलाई का कारखाना खड़ा हो गया है. श्रीधरन पर सवाल किसी ने नहीं उठाया.

दिल्ली मेट्रो ने दिल्ली की तंग सड़कों पर मेट्रो बनाने का काम हाथ में लिया था लेकिन देखते ही देखते वह दिल्ली के रियल स्टेट व्यापार में शामिल हो गया. पहले चरण में तैयार मेट्रो लाईन पर शास्त्री पार्क में ट्रेन मरम्मत का कारखाना लगाया गया था. यह वो इलाका है जिसे सरकार यमुना नदीं को जीवित रहने के लिए जरूरी मानती थी. लेकिन सरकार ने उदार भाव से यह जमीन दिल्ली मेट्रो को दे दी और यह जगह मेट्रो ट्रेनों के रखरखाव के लिए तो इस्तेमाल होता ही है, यहां एक साईबर सिटी भी बन गयी है. क्या कोई सरकारी अधिकारी यह बताएगा कि दिल्ली मेट्रो ने यहां साईबर सिटी कैसे बना ली? दिल्ली मेट्रो ने यह काम कोई छिपे तौर पर नहीं किया है. उसने यह काम अपनी कमाई बढ़ाने के नाम पर किया है. इसी तरह खैबर पास में ट्रेनों को खड़ी करने के लिए जितनी जगह ली गयी उस पर आवासीय फ्लैट बना दिये गये. शाहदरा में स्टेशन की जगह पर दिल्ली के बिल्डर पार्श्वनाथ के साथ मिलकर शापिंग माल बना दिया गया. सवाल श्रीधरन से यह पूछना चाहिए कि अगर वे सिर्फ मेट्रो के लिए जमीन का अधिग्रहण सरकार से करवा रहे थे तो फिर यह कामर्शियल गतिविधियां कहां से पैदा हो गयी? हो सकता है श्रीघरन के पास अपने तर्क हों. जैसे यमुना नदी के बीचो बीच जब मेट्रो स्टेशन बनाने की बात आयी तो उन्होंने उच्च न्यायालय और श्रीमती शीला दीक्षित को एक जवाब सौंपा जिसमें एक अति प्रगतिशील विचार सामने रखा था कि यमुना नदीं को दो पाटों के बीच बांध देना चाहिए. और केवल सुझाव दिया ही नहीं यमुना बैंक स्टेशन पर उन्होंने यह काम करके भी दिखा दिया. सब चुप रहे, श्रीधरन पर सवाल किसी ने नहीं उठाया.

जिस कोंकण रेल परियोजना को सफलता पूर्वक पूरा करने के बाद श्रीधरन दिल्ली मेट्रो के कार्यकारी निदेशक बने उसी कोंकण रेल कंपनी ने दिल्ली में ट्रांसपोर्ट की समस्या को हल करने के लिए स्काई बस का प्रस्ताव रखा था. कोंकण रेल कंपनी के तत्कालीन निदेशक राजाराम तीन-चार साल तक दिल्ली के प्रशासनिक गलियारों में प्रेजेन्टेशन देकर लोगों को समझाते रहे कि दिल्ली की जैसी बसावट है उसमें स्काई बस की परियोजना ज्यादा कारगर साबित होती. दिल्ली मुंबई की तर्ज पर लंबवत नहीं बसी है बल्कि यह गोल घुमावदार तरीके से बसी है. इसलिए मे्ट्रो परियाजना दिल्ली के लिए रैपिड ट्रांसपोर्ट का बेहतर विकल्प नहीं हो सकता. उनकी बात सही है. दिल्ली मेट्रो ने अपने ज्यादातर स्टेशनों का निर्माण सड़कों के ऊपर किया है. कम दूरी के यात्री मेट्रो ट्रेन की बजाय अपने साधन या फिर बस का उपयोग करते हैं क्योंकि एक किलोमीटर के सफर में दिल्ली मेट्रो से जितना समय लगता है उससे चौथाई समय में वह बस से एक किलोमीटर का सफर पूरा कर सकता है. ऐसे में जरूरी था कि सड़कों को ही भविष्य के ट्रांसपोर्ट का माध्यम बनाया जाता. स्काई बस पूरी तरह से स्वदेशी तकनीकि थी और राजाराम का आश्वासन था कि वह मेट्रो के एक किलोमीटर के 225 करोड़ के अनुमानित खर्चे से आधी कीमत पर स्काई बस का एक किलोमीटर ट्रैक बिछा देंगे. दिल्ली की हर प्रमुख सड़क पर स्काई बस परिचालित होने से सड़कों से न केवल बसो का बोझ कम होता बल्कि कम लागत में स्वदेशी तकनीकि और स्वदेशी पूंजी से दिल्ली को उसकी जरूरतों के हिसाब से एक परिवहन प्रणाली मिल जाती. लेकिन आपको जानकर आश्चर्य होगा कि इस परियोजना का सबसे मुखर विरोध श्रीधरन ने ही किया. स्काई बस परियोजना आज भी सिर्फ प्रेजेन्टेशन तक ही सिमटी हुई है और दिल्ली मेट्रो अपने तीसरे चरण के विस्तार की तैयारी कर रहा है. श्रीधरन ने स्काई बस परियोजना का विरोध क्यों किया? सवाल तब भी किसी ने श्रीधरन पर नहीं उठाया.

आखिरकार सवाल उठाया तो फिर एक सरकारी विभाग ने ही. इसी मानसून सत्र में सदन पटल पर रखी गयी नियंत्रक और महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट में श्रीधरन पर सवाल उठाया गया है. और ऐसा सवाल उठाया गया है जो श्रीधरन पर कई तरह के सवाल खड़े करता है. नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) ने सवाल उठाया है कि आखिर क्यों एक कोरियाई कंपनी रोटेम कोरिया को मौखिक बातचीत के आधार पर बीआएमएल से 22 करोड़ रूपये का भुगतान करवा दिया. सीएजी का यह सवाल एक बार फिर श्रीधरन पर सवाल उठाता है कि दिल्ली मेट्रो के कामकाज के दौरान सरकारी एजंसियों को मनमानी तरीके से निजी कंपनियों के फायदे के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है. पेंच बहुत गहरे हैं और वे सारे पेंच आखिर में निजी निवेशकों के लिए फायदे के तल पर जाकर ठहरते हैं. जापान बैंक आफ इंटरनेशनल कोआपरेशन अगर दिल्ली मेट्रो में पैसा लगा रहा है तो ऐसी छोटी मोटी बातों के लिए अपना मुनाफा मरने नहीं देगा. वह यह भी नहीं चाहेगा कि दिल्ली मेट्रो के स्थान पर किसी राजाराम के स्काई बस योजना को मंजूरी मिले. आज श्रीधरन निवेशकों और ठेकेदारों के बीच की ऐसी मजबूत कड़ी बन गये हैं जो हर हाल में बने रहेंगे.

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