Friday, August 8, 2014

इराक में फिर अमेरिका

अराबिल में अमेरिकी और इसाई नागरिकों की चिंता तो सिर्फ जरिया है लेकिन संकट में फंसे इराक में अमेरिका का असल संकट यह है कि आइसिस क्रिसिस में इराक ही हाथ से निकला जा रहा है। अल मलीकी का तीसरी दावेदारी से इंकार, इराक में बढ़ता रूस का दखल, ईसाईयों का कत्लेआम और बगदादी का अमेरिका के खिलाफ जेहाद का ऐलान ऐसे कारण बने हैं जिसके बाद अब 300 सैन्य सलाहकार भेजनेकर स्थितित पर नजर रखनेवाले अमेरिका ने इराक में हवाई कार्रवाई की शुरू कर दी है।  
 
इन संदेहों के बीच कि कट्टर इस्लामिक संगठन आइसिस भी अमेरिकी गुप्तचर एजंसी सीआईए की देन है अब अमेरिका ने उन संदेहों को गलत साबित करते हुए आइसिस के खिलाफ हवाई हमले करने की मंजूरी दे दी है। देर से ही अमेरिका ने अपनी आंखें खोल दी हैं और अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अपने ताजा ह्वाइट हाउस संबोधन में कहा है कि वे अपनी आंख मूंदकर नहीं बैठ सकते। इसलिए अब अमेरिका 'इराक की मदद' के लिए एक बार फिर अपने लड़ाकू विमानों के जरिए इराक के आसमान में उड़ान भरने जा रहा है। लेकिन क्या सचमुच अमेरिका इराक की मदद करने जा रहा है या फिर अमेरिका अपने हाथ से फिसलते इराक को दोबारा हासिल करने जा रहा है?

अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की आंख अचानक से खुली जरूर है लेकिन अनायास नहीं खुली है। 10 जून को जब आइसिस के आतंकियों ने इराक की जमीन पर कब्जा करना शुरू किया तो अमेरिका ने हस्तक्षेप करने की बजाय सिसायत करना शुरू कर दिया। इराक में रोज मीलों की दर से आगे बढ़ते इस्लामिक आतंकी रोज नये नये शहर कब्जा करते जा रहे थे और अमेरिका राजनीतिक सहमति के बिना हस्तक्षेप करने से कतरा रहा था। अमेरिका के लिए यह राजनीतिक सहमति थी इराकी प्रधानमंत्री अल मलीकी की विदाई। सीरिया में सक्रिय आतंकी अचानक से इराक की तरफ क्यों आगे बढ़ गये और शहर दर शहर कब्जा करने लगे यह सवाल तो बाद में उभरा लेकिन अल मलीकी की विदाई की शर्त रखकर अमेरिका ने आइसिस से अमेरिकी रिश्तों के शक को और पुख्ता कर दिया। इसे सिर्फ संयोग तो नहीं माना जा सकता कि सीरिया में अमेरिका और आइसिस दोनों ही अल असद की 'तानाशाही' को समाप्त कर देना चाहते हैं।

और वही आइसिस अगर अचानक सीरिया से आगे उत्तरी इराक की तरफ कूच कर जाती है तो अमेरिका मदद करने से पहले राजनीतिक समाधान की मांग रख देता है। जबकि इराक को तत्काल अमेरिका के हवाई मदद की जरूरत होती है ताकि बगदाद की तरफ तेजी से बढ़ रहे आइसिस आतंकियों को रोका जा सके। लेकिन अमेरिका अपनी जंगी बेड़ा एच डब्लू बुश फारस की खाड़ी में तो खड़ा करता है लेकिन उस पर खड़े एफ-18 लड़ाकू विमान जार्ज बुश पर ही खड़े के खड़े रह जाते हैं। इसका असर क्या होता है? इसका असर यह होता है कि आनन फानन में इराक ईरान द्वारा बंधक बनाये गये अपने पुराने लड़ाकू विमान मांग लेता है जो चार दशक पुराने थे। सुखोई एसयू-25 के इन्हीं विमानों के जरिए कभी इराक की हवाई ताकत बनती थी। जाहिर है, उसके पास उसके पायलट आज भी मौजूद हैं। आनन फानन में रूस से इसी श्रेणी के कुछ और विमान खरीदे जाते हैं और जून के पहले हफ्ते में आइसिस के कब्जे की शुरूआत के बाद जुलाई के पहले हफ्ते में इराक हवाई हमलों से जवाब देना शुरू करता है। अपने पुराने कबाड़ हो चुके रूसी एमआई सीरिज के हेलिकॉप्टरों, चार दशक पुराने टूटे फूटे सुखोई और मिग विमानों के जरिए जैसे तैसे इराक आइसिस आतंकियों पर कार्रवाई शुरू करता है लेकिन इतने से भी इराक आइसिस पर निर्णायक बढ़त हासिल करना शुरू कर देता है।

पूरे जुलाई महीने में इराक ने आइसिस आतंकियों पर जबर्दस्त कार्रवाई करी है। हजारों की तादात में आइसिस के आतंकी मारे गये हैं या घायल हुए हैं। सैकड़ों की तादात में उन्हें पकड़ा गया है। पूरे उत्तरी इराक में इराक की इस जबर्दस्त कार्रवाई में खुद अल बगदादी के गंभीर रुप से घायल होकर सीरिया की सीमा पर भाग जाने की अपुष्ट खबर भी आ रही है। इस बीच एक और बड़ी पहल करते हुए इराक के रक्षामंत्री ने जुलाई महीने में ही रूस का गुपचुप दौरा करके एक अरब डॉलर का रक्षा सौदा भी कर लिया है। इस सौदे के तहत रुस इराक को तत्काल जंगी साजो सामान मुहैया करेगा जिसमें लड़ाकू विमान से लेकर मिसाइल और मिसाइल लांचर सबकुछ शामिल है। जाहिर है, अमेरिका की तरफ से मिली निराशा के बाद इराक ने रूस की तरफ अपना रुख किया। इसी तरह मलीकी के मामले में भी इराक की सुप्रीम रिलिजियस काउंसिल और पोलिटिकल पार्टियों ने उन्हें हटाया तो नहीं लेकिन तीसरी बार दावेदारी करने से जरूर रोक लिया है। अब जबकि इराक आइसिस आतंकियों से अपने दम पर निर्णायक जंग लड़ रहा है, राजनीतिक समाधान भी निकाल रहा है और सैन्य साजो सामान के लिए अमेरिका पर निर्भरता की बजाय दुनिया के दूसरे देशों का रुख कर रहा है तो फिर अचानक से अमेरिका की आंख क्यों खुल रही है?

अमेरिका की आंख इसीलिए खुल रही है क्योंकि इराक में आइसिस का दांव (अगर वह है तो) अब अमेरिका के लिए उल्टा पड़ता जा रहा है। जार्डन के एक अखबार ने आइसिस के खलीफा के हवाले से 6 अगस्त को दावा किया है कि बगदादी न सिर्फ कुवैत पर कब्जा करने की तैयारी कर रहा है बल्कि उसने अमेरिका के खिलाफ भी जेहाद का ऐलान कर दिया है। अगर ऐसा है तो यह इस बात का संकेत है कि आइसिस अब अपनी स्वतंत्र सोच के सात आगे बढ़ रहा है और अगर कहीं अमेरिकी खुफिया एजंसियों का कोई रोल रहा भी होगा तो अब उस रोल को लादेन की तर्ज पर बगदादी ने भी मान सम्मान देने से मना कर दिया है। कुवैत पर कब्जे का ऐलान या फिर अमेरिका के खिलाफ बगदादी की धमकी के बाद अमेरिका की आंख खुलनी ही है लेकिन सवाल सिर्फ धमकी भर का भी नहीं है। अमेरिका के सामने संकट इराक में रूस की बढ़ती मौजूदगी का भी है, इराक द्वारा अपने स्तर पर निकाले जा रहे राजनीतिक समाधान का भी है। अल मलीकी ने तीसरी बार दावेदारी करने से मना कर दिया है और इराक के दो महत्वपूर्ण मुस्लिम समुदाय कुर्द और शिया आइसिस के खिलाफ लामबंद हो रहे हैं। जिस तरह से आइसिस आतंकियों ने कुर्दिश आर्मी के साथ जगह जगह मुटभेड़ शुरू की है उससे कुर्द (सुन्नी) भी आइसिस के समर्थक होने से रहे। हालांकि कुर्दिस आर्मी कमजोर पड़ी है और कई मोर्चों से वापस लौटना पड़ा है लेकिन जंग जारी है। इस बीच हर धर्मगुरू द्वारा बार बार सबसे पहले इराक को बचाने की पुकार भी इराक में आइसिस के समर्थन को कमजोर कर रही है।

जाहिर है, इराक में अमेरिकी अप्रासंगिकता के खिलाफ खड़े हो रहे इस चौतरफे संकट ने अमेरिका की एक नहीं दोनों आंखें खोलकर रख दी हैं। अराबिल के बहाने ही सही अमेरिका की यह कार्रवाई कमजोर पड़ती कुर्दिश आर्मी और शहर से भागकर पहाड़ियों पर फंसे हजारों लोगों की ही मदद नहीं करेगी बल्कि इराक में आइसिस के हौसले भी पस्त होंगे और अमेरिका के बुलंद। लेकिन एक बार फिर खतरा यह खड़ा हो सकता है कि रुस और अमेरिका इराक को अफगानिस्तान की तरह एक ऐसी युद्धभूमि में तब्दील न कर दें जिसमें अलकायदा, ओसामा और इस्लामिक लड़ाके सब लड़ रहे होते हैं लेकिन लंबे समय तक असल जंग अमेरिका और रूस के बीच ही हो रही होती है।

Thursday, August 7, 2014

नाबालिग की उम्र से अप्राकृति छेड़छाड़

नयी नयी सरकार की नयी नयी महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने जो सुझाव दिया था आखिरकार सरकार ने उस पर अपनी सहमति देते हुए कानून हो जाने का रास्ता साफ कर दिया है। अब सन 2000 में बने उस कानून में संशोधन होगा जिसमें 18 साल तक की उम्र को बचपन और किशोरावस्था घोषित किया गया है। इस नये प्रस्ताव के कानून बन जाने के बाद बचपन 16 साल में समाप्त हो जाएगा और किसी जघन्य अपराध में दोषी पाये गये किसी किशोर के लिए वही सजा होगी जो कि ऐसे ही किसी अपराध में किसी वयस्क को सुनाई जाती है। सरकार के सभी मंत्रालयों से राय ले ली गई है और सभी मंत्रालयों ने जघन्य अपराध के मामलोंं में सजा की उम्र घटाकर सोलह करने के लिए अपनी सहमति दे दी है। मोदी सरकार के इस फैसले पर सबसे पहला सवाल यही उठता है कि क्या यह फैसला सही है?

जरा याद करिए संसद का वह हंगामेदार सत्र जब दिल्ली में चलती बस में हुए एक रेपकांड के बाद बलात्कार के खिलाफ सख्त कानून बनाने के लिए पक्ष प्रतिपक्ष एकसाथ आकर खड़े हो गये थे। दिल्ली के ऐतिहासिक दिसंबर आंदोलन से घबराई मनमोहन सरकार सख्त कानून बनाने के पक्ष में तो थी लेकिन जेएस वर्मा कमेटी के कुछ सुझावों को मानने से इंकार कर दिया था। इसमें दो बातें महत्वपूर्ण थी। एक, पत्नी पत्नी के बीच जोर जबर्दस्ती के रिश्ते को बलात्कार के दायरे में नहीं लाया जा सकता और दूसरा हर बलात्कारी को फांसी नहीं दी जा सकती। मनमोहन सिंह की कैबिनेट जिस कानूनी प्रस्ताव को मंजूरी दी उसमें सहमति से संबंध की न्यूनतम उम्र 16 साल बरकरार रखी और सरकार का प्रस्ताव कानून होने के लिए संसद के भीतर प्रवेश कर गया।

बाकी सब बातों पर तो कमोबेश एकराय थी लेकिन छेड़छाड़ रोकने के लिए किये गये कानूनी प्रावधान और सहमति से संबंध की उम्र पर जबर्दस्त विरोधाभास थे। अगर विपक्ष छेड़छाड़ रोकने के लिए भारतीय दंड संहिता की धारा 354 में किये जा रहे बदलावोंं का विरोध कर रही थी तो उसे यह भी स्वीकार नहीं था सरकार सहमति से संबंध की उम्र 16 साल रखे। जिन दलों और दल प्रतिनिधियों ने छेड़छाड़ के लिए प्रस्तावित कानूनोंं के गलत उपयोग की आशंका जता रहा था कमोबेश हर वही दल और नेता सहमति से रिश्ते बनाने की उम्र को बढ़ाकर 18 साल किये जाने की वकालत कर रहा था। इनमें सबसे मुखर मुख्य विपक्षी भारतीय जनता पार्टी थी। भाजपा का तर्क था कि अगर किसी लड़के के लिए किशोरावस्था 18 साल तक है तो फिर लड़की के मामले में यह भेदभाव क्यों किया जा रहा है? आखिरकार सरकार झुकी और सदन में नेता सत्ता पक्ष सुशील कुमार शिंदे ने घोषणा की कि सरकार सहमति से शारीरिक संबंध बनाने की उम्र 16 साल से बढ़ाकर 18 साल करने के लिए तैयार हो गयी है। संसद ने प्रस्ताव पारित कर दिया और नया कानून बनकर भारत के लोगों पर लागू हो गया। भारत में पूर्व में बलात्कार विरोधी जो कानून है उसमें भी सहमति से संबंध बनाने के लिए निर्धारित उम्र सोलह साल ही थी। लेकिन विपक्ष का ऐसा जबर्दस्त दबाव था कि सरकार कोई तर्क वितर्क न कर सकी। हालांकि बाद में शिंदे ने सार्वजनिक रूप से नाखुशी जाहिर की लेकिन उस वक्त तो कानून बनना था। कानून बन गया।

लेकिन उसी कानून के कारण एक पेंच फंस गया। और वह पेंच भी उसी मामले में फंसा जिसके परिणाम स्वरूप संसद ने नया कानूनी प्रावधान किया था। चलती बस में उस लड़की के साथ जो दरिंदगी हुई थी उसमें एक किशोर भी शामिल था। राष्ट्रवादी विचारधारा के रॉबिनहुड डॉ सुब्रमण्यम स्वामी ने सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर करके आग्रह किया कि उस सत्रह वर्षीय किशोर के साथ भी वैसी ही न्यायिक प्रक्रिया अपनाई जाए जैसा कि बाकी दोषियों के साथ अपनाई जा रही है। क्योंकि वह किशोर सत्रह साल का था इसलिए उसका मामला किशोर न्याय बोर्ड में भेज दिया था जहां से उसे अधिकतम तीन साल के न्याय सुधार गृह में ही भेजा जा सकता था, जबकि निर्भया बलात्कार मामले में फांसी की अंतिम सजा के तौर पर मांगी जा चुकी थी। डॉ स्वामी ने भले ही सुप्रीम कोर्ट से लिखित तौर पर यह मांग की हो कि वह मानसिक और शारीरिक रूप से स्वस्थ है तो इस जघन्य अपराध में शामिल है तो फिर उसे एक कानून की आड़ में बचने का मौका क्यों दिया जाए? लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने स्वामी का तर्क मान्य नहीं किया और मामले को किशोर न्यायालय में ही चलाने का आदेश दिया।

निर्भया कांड के बाद संसद में बीजेपी ने ही सबसे ज्यादा जोर इस बात पर दिया था कि लड़की के लिए सहमति से संबंध की उम्र 16 से बढ़ाकर 18 साल कर देनी चाहिए और वही सरकार कैबिनेट में एक ऐसे कानूनी प्रस्ताव को मंजूरी देकर संसद की दहलीज पर जा रही है जो यह कह रही है कि किसी पुरुष को रेप का दोषी करार देने के लिए उसका 18 साल का होना जरूरी नहीं है। अगर 18 साल से कम उम्र लड़की 'सहमति से भी शारीरिक संबंध बनाने' के लिए कानूनन अयोग्य है तो 18 साल से कम उम्र लड़का 'जबरन शारीरिक संबंध' बनाने के योग्य कैसे करार दिया जा सकता है? सरकार के 'सक्षम' होने की दलील मान भी लें तो फिर लड़कियों के मामले में सहमति से शारीरिक संबंध बनाने की समयसीमा 18 करने का क्या तुक रह जाता है? अगर लड़कों के मामले में सरकार यह मान रही है कि 18 वर्ष से कम उम्र में शरीर संबंध बनाने में सक्षम हो जाता है, तो लड़कियों के मामले में कानूनन इंकार कैसे कर सकेगीं? सरकार का यह विरोधाभाषी प्रस्ताव है जो आनेवाले दिनों में कानूनी पेचीदिगियां पैदा करेगा। 

डॉ स्वामी की सक्रियता और पीड़ा समझना ज्यादा मुश्किल नहीं है। जिस किशोर राजू का नाम लेकर स्वामी सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे पर खड़े हुए थे वह एक खास समुदाय से संबंधित है। उसी समुदाय से जिसे राष्ट्रवादी राजनीति में मुख्यधारा का नागरिक नहीं समझा जाता है। हो सकता है इसी खास अल्पसंख्यक समुदाय के कारण स्वामी का दर्द और बढ़ा हो लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने आखिरकार कानून को ही सर्वोपरि रखा और किसी एक मामले में कानून के उल्लंघन की इजाजत देने से इंकार कर दिया। बीते साल 22 अगस्त को आये फैसले के बाद स्वामी ने फिर से पुनर्विचार याचिका दायर की जिसे इसी साल मार्च में सुप्रीम कोर्ट ने फिर से खारिज कर दिया। इस बार चीफ जस्टिस पी सदाशिवम की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने साफ कहा कि जो प्रावधान है वह संविधान और अंतरराष्ट्रीय कानूनोंं के अनुरूप है। इससे छेड़छाड़ नहीं किया जा सकता है। लेकिन स्वामी जी को न्याय चाहिए था, तो न्याय चाहिए था। न्याय का यह मौका अब उन्हीं की पार्टी बीजेपी की मोदी सरकार ने देने का फैसला कर लिया है।

इस मामले में शिंदे और स्वामी के अपने अपने तर्कों से परे भी मोदी सरकार के इस फैसले से कुछ गंभीर संकट पैदा हो सकते हैं। मसलन, उस वक्त सहमति से शारीरिक संबंध बनाने की उम्र बढ़ाने के लिए जो सबसे बड़ा तर्क दिया गया था वह यही कि पुरुषों के मामले में अगर वयस्क होने की उम्र 18 साल निर्धारित है तो फिर महिलाओं के मामले में यह 16 साल क्यों रहनी चाहिए? उस वक्त सिविल सोसायटी की ओर से जो लोग सहमति से संबंध बनाने की उम्र 18 वर्ष का प्रावधान करने की मांग कर रहे थे उनका सबसे बड़ा तर्क यही था कि ऐसा प्रावधान हो जाने से लड़कियों की मानव तस्करी पर रोक लगाने मेें मदद मिलेगी। निश्चित रूप से यह स्वागतयोग्य कदम था लेकिन अब क्या होगा? अगर सरकार पुरुषों के मामले में यह कानूनी बदलाव करने जा रही है कि 16 वर्ष में रेप जैसे गंभीर मामलों में नौजवान किशोर की बजाय वयस्क माना जाएगा तो फिर लड़कियों के मामले में यह 18 साल कैसे रह पायेगा?

सरकार जो प्रावधान कर रही है उसके पीछे तर्क है कि अगर कोई नौजवान 18 साल से कम उम्र में शारीरिक संबंध बना सकता है तो उसे बाल या किशोर कैसे माना जा सकता है? इसका मतलब एक तरफ सरकार यह मान रही है कि शारीरिक विकास 18 साल से पहले ही ऐसा हो जाता है कि शारीरिक संबंध बन सकते हैं। बस सजा सिर्फ इसलिए दी जानी चाहिए कि ऐसे संबंध अगर असहमति से बनते हैं तो बलात्कार की श्रेणी में गिने जायेंगे और उनकी सुनवाई भी नियमित अदालत में ही होनी चाहिए। सरकार की इस बात को सरासर सही मान लें तो समझ आता है कि सारा संकट सहमति और असहमति के बीच फंसा है। तब सवाल उठता है कि अभी जो कानूनी प्रावधान किये गये हैं उसके मुताबिक 18 साल से कम उम्र की लड़की के साथ सहमति से संबंध बनाना भी बलात्कार के दायरे में आता है। यानी वही सरकार जो नये संशोधन के जरिए एक तरफ यह मानने जा रही है कि 18 साल से कम उम्र में शारिरीक संबंध बनाये जा सकते हैं तो दूसरी तरफ वही सरकार कह रही है कि 18 साल से कम उम्र में शारीरिक संबंध नहीं बनाये जा सकते हैं क्योंकि उस उम्र के पहले तक शरीरिक संबंध बनाने के लिए अविकसित होता है। अगर सहमति से भी ऐसे संबंध बनते हैं तो इसके लिए दोषी नौजवान के लिए अधिकतम उम्रकैद तक का प्रावधान किया गया है। यह सजा तब भी निर्धारित है जबकि यह साबित हो जाए कि संबंध सहमति से बने थे। तो फिर किशोर बलात्कार के ऐसे मामलों में अदालतें क्या फैसला देंगी? लड़के और लड़की के लिए खुद सरकार बालिग और नाबालिग की दो अलग अलग उम्र कैसे कायम रख पायेगी?

इन पहलुओं के अलावा बाल श्रम का भी एक पहलू है जिसके बाद कानूनी रूप से इतने पेंच फंसेंगे कि एक कानून को बदलने के बाद सरकार को कई कानूनों में बदलाव करना होगा। सरकार ने जो नया प्रस्ताव तैयार किया है और जिसे कैबिनेट ने अब मंजूरी दे दी है उस तर्क को स्वामी की याचिका पर सुनवाई करते हुए सुुप्रीम कोर्ट पहले ही अव्यावहारिक करार दे चुका है। फिर आखिरकार सरकार सुप्रीम कोर्ट सलाह को भी दरकिनार करके कानूनी संशोधन क्यों करने जा रही है जबकि स्वामी के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 'संवैधानिक दायरे में सही' होने की बात कही थी। तो क्या एक मनमाफिक फैसले की चाहत में सरकार संवैधानिक दायरे से भी छेड़छाड़ करने जा रही है?

यह सब आनेवाले समय में समय समय पर बहस का मुद्दा बनेगा लेकिन इन कानूनी पहलुओं से परे स्त्री पुरुष की अवस्था को लेकर एक प्राकृतिक पहलू भी है जो किसी कानून से ज्यादा स्त्री पुरुष के जीवन पर लागू होता है। यही वह प्रकृति है जो स्त्री पुरुष की शारीरिक, मानसिक संरचना में फर्क करता है। कानूनन कौन कब वयस्क होता है यह तय कर देने से शरीर की संरचना और प्राकृतिक व्यवस्था पर कोई फर्क नहीं पड़ता है। स्त्री हो कि पुरुष उसके विकास और संसर्ग की अवस्था के निर्धारण के सरकारी प्रयास अप्राकृतिक छेड़छाड़ से कम नहीं हैं। दुनिया के वे देश जो लंबे समय तक ऐसे आदर्शवादी और मनमौजी कानूनों के सहारे अपने आपको आदर्श राज्य बताते रहे हैं अब उन्होंने भी अपने यहां प्रकृति संगत कानून बनाये हैं। नया नया कानूनतंत्र हुए भारत में यह प्रथा अब एक कुप्रथा में बदलती जा रही है कि एक गलती को हम दूसरी गलती से ठीक करने की कोशिश करते हैं। भारत सरकार का ताजा प्रयास और प्रस्ताव उसी कड़ी का एक हिस्सा है।

Sunday, August 3, 2014

केजरीवाल को भीड़ का भरोसा

अभी तीन नहीं बजे थे कि ट्विटर वार शुरू हो गया था। सोशल मीडिया पर अरविन्द केजरीवाल की रैली को लेकर आशंकाएं जतायी जाने लगी थीं कि लोग नहीं आये। नहीं आयेंगे। तत्काल जवाबी कार्रवाई करते हुए अरविन्द केजरीवाल की तरफ से फोटो अपलोड होने लगे कि भीड़ आई है और तीन बजे तक हजारों लोग वहां पहुंच चुके हैं। हालांकि खुद केजरीवाल अभी जंतर मंतर नहीं पहुंचे थे लेकिन केजरीवाल का बैनर थामे भीड़ तो पहुंच चुकी थी। जो लोग केजरीवाल की भीड़ को चुनौती दे रहे थे वे थोड़ी ही देर में चुप हो गये। उनकी तरफ से चुनौती मिलनी बंद हो गयी। क्योंकि अगर मसला सिर्फ भीड़ का ही था तो जंतर मंतर पर आज उस दिन से भी ज्यादा बड़ी भीड़ थी जिस दिन जंतर मंतर ने देश को केजरीवाल दिया।

मिन्टो रोड ब्रिज से गुजरते हुए वहां करीब दर्जनभर बसें दिंखी जिनमें ज्यादातर पर किसी न किसी आप पार्टी के स्थानीय नेता वाला बैनर लगा हुआ था। जाहिर है, यह बस वही भीड़ लेकर जंतर मंतर आयी होगी जो भीड़ को जंतर मंतर छोड़कर कहीं पार्किंग खोज रही थीं। संसद मार्ग पर भी कुछ बसें खड़ीं थीं। उन बसों से आनेवाले लोग भी जंतर मंतर पर जरूर मौजूद रहे होंगे। लेकिन संसद मार्ग भी लोगों से खाली कहां था? दिल्ली के भूगोल पर संसद मार्ग और जंतर मंतर अगल बगल की दो सड़कों का नाम है। कभी कभी लोग जब बड़ी रैलियों का आयोजन करते हैं तो सरकारी तौर पर संसद मार्ग (पार्लियामेन्ट स्ट्रीट) का एक हिस्सा बंद करके वहां रैली करने की इजाजत दे दी जाती है। आज वह हिस्सा भी बंद था और हमेशा की तरह जंतर मंतर भी। अगर भीड़ भर की बात करें तो भीड़ की पूरी भाड़ आई थी। कमोबेश पूरा जंतर मंतर भरा हुआ था। तीन लेयर में लोग बैठे हुए थे। मंच के सामने। मंच से थोड़ी दूर पर लगे एलसीडी स्क्रीन के सामने और एक आखिरी जत्था जो सबसे पीछे था। आसपास की दीवारों, कैंटीन, पानी के टैंकर, यहां तक कि लोगों की सुविधा के लिए खड़े किये गये सचल शुलभ शौचालय पर भी लोग बैठे नजर आ रहे थे। इसके अलावा संसद मार्ग पर चहलकदमी करते समर्थक और मंच के पीछे मौजूद लोगों की तादात अलग से। तीन बजे से साढ़े चार बजे के बीच हो सकता है भीड़ की संख्या ने एक लाख की आबादी को भी पार कर लिया हो लेकिन साढ़े चार बजते बजते अगल बगल का इलाका खाली हो गया था और अब जो लोग थे वे सिर्फ जंतर मंतर रोड पर ही थे।

इसी जंतर मंतर पर 3 अगस्त 2012 को अरविन्द केजरीवाल ने भीड़ के भरोसे ही राजनीतिक भाड़ में प्रवेश का ऐलान किया था। आज दो साल बाद इसी जंतर मंतर पर जब अरविन्द केजरीवाल दोबारा लौटे तो उन्हें यह देखकर जरूर संतोष हुआ होगा कि राजनीतिक भाड़ में प्रवेश के बाद भी दिल्ली की 'भीड़' ने उन्हें निराश नहीं किया है। 

तादात क्या रही होगी, पता नहीं लेकिन भारी उमस और गर्मी के बीच पसीने से तरबदतर इन लोगों को देखकर कोई भी सहज ही अंदाज लगा सकता था कि अब यह जनता वह जनता नहीं है जो भ्रष्टाचार मिटाने किसी आंदोलन का समर्थन करने आई है। उसे अब अन्ना हजारे की चाह भी नहीं है। यह वह आम आदमी है जो अरविन्द केजरीवाल की समर्थक है। उस पार्टी से जुड़ी हुई जिसकी शुरूआत 2012 में इसी जंतर मंतर पर ठीक इसी तारीख तीन अगस्त को हुई थी। उस वक्त अन्ना हजारे भी मौजूद थे, लेकिन भीड़ उतनी बड़ी तादात में तब भी न थी जितनी बड़ी तादात में आज नजर आ रही थी। कमोबेश हर सिर पर टोपी थी। वही टोपी जो आम आदमी पार्टी की पहचान बन गई है। यानी जो लोग वहां आये थे वे पार्टी के लिए काम करनेवाले लोग हैं। अगर काम नहीं भी करते हैं तो उन्हें पार्टी का समर्थक होने का अधिकार हासिल है। इसलिए इस भीड़ को सिर्फ मजमा कहकर न तो इसे नकारा जा सकता है और न ही इसे दिल्ली की जनता बताकर इसकी राजनीतिक सोच को कमतर किया जा सकता है। जो लोग आये, वे दिल्ली में आम आदमी पार्टी के समर्थक हैं। कार्यकर्ता हैं। जो इस बात की मजबूत दावेदारी करते हैं कि दिल्ली में आम आदमी पार्टी अब एक स्थाई राजनीतिक वजूद वाली पार्टी बन चुकी है जिसके लिए अब अरुण जेटली को यह कहने की जरूरत नहीं पड़ेगी कि दिल्ली में कोई एक नयी पार्टी आई है जिसके बारे में वे कुछ कहना अपनी राजनीतिक शान के खिलाफ समझते हैं।
अन्ना हजारे और अरविन्द केजरीवाल का आखिरी संयुक्त अनशन हुआ था उसका समापन भी तीन अगस्त 2012 को इस घोषणा के साथ हुआ था कि अब अरविन्द केजरीवाल एक राजनीतिक विकल्प की तलाश करेंगे और अन्ना हजारे उनके मार्गदर्शक बने रहेंगे। तीन महीने में अरविन्द केजरीवाल ने राजनीतिक दल तो बना लिया लिया लेकिन अब अन्ना हजारे उनके मार्गदर्शक नहीं रह गये थे। बाद के दिनों में तो वे आलोचक ही बन गये थे लेकिन 3 अगस्त 2012 को भीड़ के भरोसे अरविन्द केजरीवाल ने जो राजनीतिक यात्रा शुरू की थी आज दो साल बाद ही 3 अगस्त 2014 को उसका असर दिखाई दे रहा था। हालांकि तकनीकि तौर पर भले ही आम आदमी पार्टी की स्थापना उसके बाद की गई हो लेकिन केजरीवाल और उनके साथियों की राजनीतिक भूमिका का ऐलान आज ही के दिन किया गया था इसलिए आप कह सकते हैं कि केजरीवाल की राजनीतिक पार्टी का जन्म अन्ना हजारे की मौजूदगी में आज ही के दिन हुआ था। उसी भीड़ के भरोसे जिस भीड़ को लोकतंत्र में जनता की ताकत कहा जाता है।

हालांकि उस वक्त 3 अगस्त 2012 के कम से कम तीन चेहरे आज नदारद थे लेकिन अब आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ता और समर्थक बन चुके लोगों के उत्साह और जोश में कोई कमी नजर नहीं आ रही थी। उस वक्त हर मंच पर नजर आनेवाले कुमार विश्वास, किरण बेदी और शाजिया इल्मी की कमी केजरीवाल को व्यक्तिगत स्तर पर खले तो खले लेकिन मंच संचालन का जिम्मा अब मनीष सिसौदिया के हाथ में था और मंच पर शाजिया इल्मी की जगह छोटी मायावती कही जानेवाली राखी विड़ला ने ली ली थी। योगेन्द्र यादव, गोपाल राय जैसे पुराने साथियों के अलावा आशुतोष जैसे नये सिपहसालार अब आम आदमी पार्टी की नयी नेतृत्व पंक्ति हैं। इसलिए भीड़ को इससे कोई फर्क न तब पड़ा था कि नेता की जगह कौन कौन है और न ही आज दिखाई दिया कि नेता की जगह कौन कौन है। उसे तब भी अरविन्द केजीरावल से ही मतलब था। उसे अब भी अरविन्द केजरीवाल से ही मतलब है। इसलिए देर से ही सही जब केजरीवाल के मंच पर आने की घोषणा की जाती है तो भीड़ में नया जोश आ जाता है और दोनों हाथ उठाकर उनका इस्तकबाल करती है।

इन दो सालों में अरविन्द केजरीवाल और उनकी पार्टी ने जितनी तेजी से उतार चढ़ाव देखे हैं यह लोगों के लिए भले ही आश्चर्यजनक हो लेकिन केजरीवाल की कार्यशैली को समझनेवाले लोगों को कोई आश्चर्य नहीं हो सकता। वे तेज चलते हैं। सफलता और असफलता दोनों को दरकिनार करते हुए आगे बढ़ना उनकी नियति है। और इस काम को उन्होंने कभी बंद नहीं किया। न तब जब पहली दफा 2011 के अप्रैल महीने में जंतर मंतर पर ऐसिताहिस भीड़ जुटी थी और न तब जब इसी जंतर मंतर पर अन्ना हजारे भी उन्हें छोड़ गये थे। उस वक्त भी अरविन्द केजरीवाल ने भीड़ के भरोसे ही भाड़ में प्रवेश किया था और आज भी वे उस बढ़ती हुई भीड़ के भरोसे ही नयी नयी चुनौतियां सामने रखते जा रहे हैं। इन दो सालों में जय पराजय, सफलता, असफलता, दिल्ली बनारस का उनका एक छोटा उतार चढ़ाव आया है लेकिन ऐसा लगता है कि अब वे लोग इन उतार चढ़ावों से बाहर निकल आये हैं। शायद उन्हें अपनी औकात का अंदाज भी हो गया है इसलिए अब सारा जोर सिर्फ वहां हैं जहां से कुछ राजनीतिक सफलता के परिणाम निकल सके। फिर वह चाहे दिल्ली हो कि हरियाणा और पंजाब। कहने के लिए मंच से भले ही मनीष सिसौदिया यह कहते रहें कि उन्हें सत्ता नहीं चाहिए वे तो व्यवस्था बदलना चाहते हैं लेकिन हकीकत यही है कि उन्हें व्यवस्था बदलने के लिए ही सत्ता चाहिए। पूरी रैली के दौरान बार बार 49 दिनों का जिक्र हो कि दिल्ली में अपनी बढ़ती ताकत का पुर्वानुमान, ये दोनों ही बातें ये साबित करती हैं कि वे दिल्ली में दोबारा जल्द से जल्द चुनाव चाहते हैं। और शायद दिल्ली भी दोबारा चुनाव ही चाहती है। कम से कम वहां मौजूद समर्थक भीड़ तो इस बात की तस्दीक कर ही रही थी।

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