Friday, June 21, 2013

बाढ़ नहीं आई

डरानेवाली चेतावनियां भी डरकर दुबक गईं। चार पांच दिनों तक दिल्ली पर मंडरानेवाला असाढ़ के "बाढ़ का खतरा" टल गया। घुटनेभर पानी में घुसकर दम घुट जाने से बचाने का उपाय बतानेवाले चैनलकारों की चिल्ल पों भी दिल्ली से दूर देहरादून घाटी शिफ्ट हो गई। नाप जोख के जितने आंकड़े पैमाने बनाये गये थे, कुछ काम नहीं आये। जिस यमुना में किलोमीटर भर गाद भरी हो इस यमुना की मिलीमीटर और सेन्टीमीटर में पानी के उतार चढ़ा की नाप जोख की जा रही थी। यह जानते हुए कि दिल्ली के दरवाजे से यमुना का जो पानी दाखिल हो रहा है वह नियंत्रित पानी है और उसका आकार प्रकार उतना ही ऊपर नीचे होगा, जितना सरकारें चाहेंगी। फिर भी, झटके में वह सारा रंगमंच तैयार कर दिया गया जिससे देश के रंगमंच पर बाढ़ का मंचन हो सके।
ऊधर पहाड़ पर प्रलय बरस रही थी लेकिन इधर दिल्लीवाले बाढ़ की आस लगाये बैठे थे। हरियाणा के हथिनीकुंड बैराज से आठ लाख क्यूसेक पानी छोड़ने के साथ ही यमुनानगर से सिर्फ पानी ही बहकर दिल्ली की ओर नहीं दौड़ा, बाढ़ की खबर भी साथ साथ बहती हुई आई। कुछ दिल्लीछाप अखबार और चैनलों ने दिल्लीवाली सरकार के हवाले से चेतावनी भी जारी कर दी कि सावधान हो जाएं। बाढ़ आ रही है। कौन सावधान हो जाए, और क्यों सावधान हो जाए इसका स्पष्टीकरण बस इतना ही था कि बाढ़ आ रही है, इसलिए सावधान हो जाएं। टंकी के पानी से भी परे जिनका जलज्ञान सिमटकर बॉटल और कमोड के बीच अटक गया है उन दिल्लीवालों के लिए इन चेतावनियों का वह मतलब नहीं निकला जो दिल्ली सरकार और अखबार देना चाहते थे। मतलब वह निकला जो दरियादिल दिल्ली का दस्तूर है।

यमुना नदी को काटने वाले जितने भी पुल बनाये गये हैं, उन पुलों पर अचानक लोगों की सवारियां रुकने लगी। जनता के हाथ में कोई मीटर, घनमीटर तो होता नहीं इसलिए आंखों ही आंखों से बाढ़ का अंदाज लिया जाने लगा। "अभी तो बाढ़ नहीं आई है, हो सकता है शाम तक पानी और बढ़े।" "पानी बढ़ रहा है, रात तक चढ़ जाएगा।" बढ़ते और चढ़ते पानी की इन आशंकाओं के बीच उनके लिए सुखद यही है कि वे उस नदी में पानी देख पा रहे हैं जिसें साल भर सिर्फ औद्योगिक घरानों का कचरा, दिल्ली वालों का मलमूत्र और इन दोनों से बननेवाली गाद नजर आती है। तीन चार दिनों तक अगर दिल्लावाले छल्लीवालों के पास खड़े होकर छल्ली खाते हुए बाढ़ का इंतजार करते रहे तो सरकार भी कोई हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठी थी। दिल्ली सरकार के पास औपचारिक तौर पर ही सही कुछ ऐसे विभाग तो हैं ही जो बाढ़ जैसी भीषण परिस्थितियों से निपटने के लिए हर साल कुछ बजट मिल जाता है। उनके बजटीय प्रावधान की मजबूरी उन्हें भी बाध्य करती है कि वे बाढ़ की विभिषिका के लिए ईश्वर से प्रार्थना करें। करीब करीब तीन दशकों से भगवान ने ऐसे विभागों में काम करनेवाले बाबुओं की प्रार्थना तो नहीं सुनी है लेकिन सुनी सुनाई बातों को सुनामी बताकर ये डिपार्टमेन्ट हर साल तंबू लेकर दिल्ली के पुश्ते वाली सड़कों पर डेरा डाल देते हैं।

दिल्लीवालों पर बाढ़ की दोहरी मार पड़ी है। उधर पहाड़ में जो पहाड़तोड़ बारिश हुई है उसका खामियाजा भी सबसे अधिक दिल्लावालों को ही भुगतना पड़ा है क्योंकि सबसे ज्यादा लॉज और होटल यहीं के व्यापारियों ने वहां बना रखे हैं तो गर्मी की छुट्टियों में सबसे ज्यादा धर्मयात्राएं भी यहीं के लोग करते हैं। जाहिर है मरनेवालों से लेकर गायब होनेवालों तक सबसे बड़ी संख्या आखिरकार दिल्लीवालों की ही होगी। लेकिन उधर बाढ़ से बड़ी मार इधर बाढ़ का इंतजार करनेवाले दिल्लीवालों पर पड़ी है जिन्हें 'फ्लड' को 'एन्ज्वाय' करने का मौका नहीं मिल पाया।

इस बार भी ऐसा ही हुआ। जैसे ही हमेशा गलत भविष्यवाणी करनेवाले मौसम विभाग और राज्य सरकार ने मिलजुलकर जल बढ़ाव की आशंका जताई ये डिपार्टमेन्ट अपने अपने जामे से बरसाती मेंढक की तरह बाहर निकल आये। उधर नोएडा से लेकर उधर वजीराबाद तक कमोबेश पूरी यमुना नदी के किनारे किनारे सड़कें बन चुकी हैं। इन सड़कों को पुश्तेवाली रोड कहा जाता है। इन पुश्तेवाली और बिना पुश्तेवाली सड़कों के किनारे भी, तंबू कनात तान दिये गये। तत्परता और फुर्ती ऐसी कि बुधवार शाम तक ये तंबू कनात गड़ गये और उनके भीतर पता नहीं कहां से उठाकर लाई गई खाट और चारपाइयां भी बिछा दी गई। शौचालय जैसी आवश्यक जरूरतों को ध्यान में रखते हुए सचल शौचालय भी साथ साथ निर्मित कर दिये। जो लोग सालभर यमुना के पाट पर नित्यकर्म करते हैं उनके लिए बाढ़ का ऐसा जुगाड़ निश्चित रूप से साल भर बाढ़ के बढ़े रहने की मनौती से कम नहीं है।

दिल्ली के छुट्टा कारोबारी बड़ी जल्दी भांप जाते हैं कि व्यापार की बेहतर संभावना कहां पैदा हो रही है। रामलीला मैदान के भीतर कोई आंदोलन हो कि जंतर मंतर पर धरना ये छुट्टा व्यापारी ऐसे अवसरों में औकातभर व्यापार खोज लेने में माहिल होते हैं। इसलिए जैसे ही बाढ़ की अफवाह उड़ी ये छुट्टा कारोबारी जहां मौका मिला यमुना के किनारे किनारे खड़े हो लिए। छल्लीवाले, कोल्डड्रिंक की ठेलियां चलानेवाले, आम अमरूद और ककड़ी खीरा के कारोबारी, कई जगह तो गुब्बारे बेचनेवाले भी नजर आने लगे। यमुना के आर पार आने जानेवाले तो रुककर आंखों ही आंखों में बाढ़ का अंदाजा ले ही रहे थे, जो बाकायदा बाढ़ देखने ही आ रहे थे, उनके लिए ये खुदरा कारोबारी बेहतरीन नजारे का पिकनिकनुमा माहौल प्रदान कर रहे थे।

इस बीच दिल्ली सरकार यमुना नदी के आस पास खाली पड़ी जमीन पर खेती करनेवाले जिन खेतिहर मजदूरों को खदेड़कर किनारे पर लाई थी, उनके लिए घर का इंतजाम भी हो गया और सरकारी आंकड़े भी जारी होने लगे कि दिल्ली सरकार ने पांच हजार "बाढ़ प्रभावित" लोगों का रेस्क्यू आपरेशन कुशलता से पूरा कर लिया है। इस रेस्क्यू आपरेशन (बचाव अभियान) के साथ साथ दो जगहों पर बाढ़ का पानी चढ़ जाने की खबर भी सुनाई दी। एक मजनू का टीला पर और दूसरा दिल्ली के बस अड्डे वाली रिंग रोड पर। मजनूं का टीला वाले मोहल्ले में जिसमें ज्यादातर तिब्बती शरणार्थी रहते हैं, वहां दिल्ली पुलिस के जवानों ने लाउडस्पीकर लगाकर चेतावनी भी दे डाली तो कुछ मनचले नौजवानों ने प्लास्टिक की लाइफ बोट भी दौड़ा दी। शुक्र है बोट तैर गई क्योंकि उसको तैरने के लिए घुटनेभर पानी से ज्यादा की जरूरत नहीं होती है। चैनलवाले कैमरे ले लेकर दौड़ लगा रहे थे और बार बार लोहेवाले पुल के पास डेरा डाल रहे थे। कुछ लाइफ बोट जैसे दृश्य भी दिखाए गये जिसमें बैठे जवान तफरी करते नजर आ रहे थे। चैनलवालों के कहने पर वे माइक लगाकर चेतावनियां भी जारी कर रहे थे, लेकिन उन चेतावनियों को सुननेवाले उधर बीच यमुना में कोई नहीं था, बल्कि इधर सड़क पर लोग खड़े थे।

बाढ़ का सारा रंगमंच तैयार हो चला था। सारी तैयारियां हो गई थी, बस एक अदद बाढ़ का ही इंतजार था। लेकिन दो तीन दिनों की इन तैयारियों पर तब तुषारापात हो गया जब खबर आई कि यमुना का बढ़ा पानी दिल्ली आने से पहले ही यूपी में फैल गया है, इसलिए अब खतरे के निशान तक पहुंच रहा पानी घट जाएगा। और बुधवार तक बाढ़ का इंतजार कर रहे दिल्लावालों के लिए मुंआ शुक्रवार तो ऐसे आया जैसे रातों रात कोई यमुना का पानी पी गया हो। वजीराबाद वाला वह लड़का बड़ा निराश होकर बताने लगा कि, फिर यमुना वहीं पहुंच गई, जहां थीं। वह पूरा सच तो नहीं बोल रहा था लेकिन हर वक्त एन्ज्वाय तलाशते दिल्लावाले पूरा सच जानते भी कहां हैं जो बोलने लगेंगे?

फिर भी, अभी दिल्लीवालों के लिए उम्मीद की एक किरण बाकी है कि 'अभी खतरा पूरी तरह से टला'' नहीं है। यमुना को उचक उचक कर निहारनेवाले लोग हों कि दिल्ली की दरियादिल सरकार, चैनलवाले हों कि खोमचेवाले, वे सब अभी भी एक अदद बाढ़ के इंतजार में हैं।

Wednesday, June 12, 2013

मोदी मूर्खाय नमो नम:

एक बार फिर साबित हो गया कि सचमुच भारतीय जनता पार्टी एक लोकतांत्रिक पार्टी है। इतनी लोकतांत्रिक कि उसके तंत्र की चिंता खुद उससे ज्यादा लोक और लोक प्रचारकों को होती है। गोवा में भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारियों और प्रदेश अध्यक्षों की दो दिवसीय बैठक और संसदीय समिति की एक दिन की पूर्व नियोजित तफरी के मौके पर देश के मीडिया जगत ने इतना आतंक फैलाया कि न जाने कितनों को 'नमो'निया हो गया। पल पर हर पल की रिपोर्टिंग के सारे रिकार्ड टूटते बिखरते वह घड़ी भी आई जब 'टेबल सजने और एक और टेबल लगने' तक की जानकारी का आंखों देखा हाल सुनाया गया, और तीन दिन की बैठक के बाद दो तीन मिनट के लिए पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह सहोदरों सहित मीडिया से मुखातिब हुए।

राजनाथ सिंह के पास इतना समय तो नहीं था कि वे सैद्धांतिक बातों को मीडिया के सामने रखते क्योंकि उनका विशेष विमान गोवा से दिल्ली लाने के लिए पणजी एयरपोर्ट पर तैयार खड़ा था लेकिन उससे भी ज्यादा शायद वे जानते थे कि लोग क्या सुनना चाहते हैं, इसलिए वही बोला और चलते बने। अरुण जेटली, सुषमा स्वराज और अनंत कुमार की मौजूदगी में जो बोला वो कम से मीडियावालों के मुंह पर तमाचा था। राजनाथ सिंह ने निहायत संक्षेप में कहा कि लोकसभा चुनाव किसी भी राजनीतिक दल के लिए चुनौती होते हैं और इस बार हम विजय संकल्प लेकर आम चुनाव में उतरने जा रहे हैं। इसी बात को ध्यान में रखते हुए पूरे चुनावी अभियान के संयोजन का काम गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को सौंपने का फैसला किया गया है। राजनाथ का आखिरी वाक्य था ''आज मैंने गुजरात के मुख्यमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी को चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष घोषित किया है।" इसके बाद संक्षेप में उन्होंने एक वाक्य और जोड़ा कि फैसला सर्वसम्मति से लिया गया है।

राजनाथ सिंह सर्वसम्मति वाली बात सिर्फ बोल ही नहीं रहे थे बल्कि उसका प्रदर्शन भी कर रहे थे। नरेन्द्र मोदी के नाम की कोई ऐसी घोषणा हो जिस पर आडवाणी के विरोध की खबरें आ रही हों, और साथ में सुषमा स्वराज तथा अनंत कुमार खड़े बैठे नजर आयें तो जाहिर है, फैसला सर्वसम्मति से ही लिया गया होगा। लेकिन सर्वसम्मति से लिया गया फैसला क्या वही है जिसको लेकर मीडिया ने पिछले तीन दिनों से बवंडर मचा रखा था? क्या भाजपा ने वह किया है जो संघ और नरेन्द्र मोदी चाहते थे? शायद नहीं। पूरी भाजपा ने मिलकर सिर्फ मोदी को ही मूर्ख नहीं बनाया है बल्कि मीडिया को भी उसी केटेगरी में लाकर खड़ा कर दिया है।
तो, सबसे पहले यह जान लीजिए कि यह चुनाव अभियान समिति होती क्या है जिसके अध्यक्ष के रूप में नरेन्द्र मोदी की 'ताजपोशी' हुई है? यह चुनाव अभियान समिति कम से कम भाजपा के संविधान में किसी चिड़िया का कोई नाम नहीं है। भाजपा के संविधान में चुनाव से जुड़ी जिस समिति का जिक्र है उसका नाम है केन्द्रीय चुनाव समिति। अगर नरेन्द्र मोदी को इस केन्द्रीय चुनाव समिति का अध्यक्ष बनाया जाता तो कहा जा सकता था कि नरेन्द्र मोदी नामक तीरंदाज ने कोई तीर मार लिया है। क्योंकि ऐसा होने पर वे पार्टी के भीतर अध्यक्ष के समानांतर ताकतवर व्यक्ति हो जाते। यह केन्द्रीय चुनाव समिति ही वह व्यवस्था है जो सांसदों, विधायकों के टिकट के बंटवारे, और चुनाव अभियानों के संचालन को अंतिम रूप से स्वीकृति देती है। इसमें संसदीय समिति के सदस्यों के अलावा 8 अन्य सदस्य होते हैं जो चुनावी अभियान की समस्त गतिविधियों का संचालन करते हैं। पार्टी संविधान की जिस धारा 26 में इस केन्द्रीय चुनाव समिति का जिक्र किया गया है उसमें इस बात का जिक्र नही है कि इस केन्द्रीय चुनाव समिति का अध्यक्ष कौन होगा। इसलिए पदेन यह पद पार्टी अध्यक्ष के पास ही रहता है लेकिन ऐसी कोई संवैधानिक बाध्यता नहीं है कि यह पद पार्टी अध्यक्ष के पास ही रहे। संसदीय समिति अगर सामूहिक निर्णय लेकर यह संसंदीय समिति में ही किसी अन्य को दे दिया जाता है तो कम से कम भाजपा के संविधान में इसकी कोई मनाही नहीं है।

राजनाथ सिंह को अध्यक्ष बनाते समय सहमति इसी बात पर बनी थी कि इस समिति की बागडोर किसी ऐसे व्यक्ति के हाथ में रहेगी जो संघ का विश्वसनीय व्यक्ति हो। केन्द्रीय चुनाव समिति के अध्यक्ष पद के लिए नरेन्द्र मोदी और नितिन गडकरी का नाम उसी समय से चल रहा था। अगर ऐसा होता तो सबसे अधिक घाटे में राजनाथ सिंह रहते। अध्यक्ष रहते हुए भी वे सिर्फ कुर्सी की शोभा बनकर रह जाते। लेकिन आखिरकार ऐसा हो नहीं पाया। आडवाणी के गोवा न जाने, सुषमा स्वराज के इस्तीफे की धमकी दे देने और न जाने ऐसी कितनी अनगिनत बातों और विरोधों के बीच पार्टी ने मोदी और मोदी समर्थकों को शांत करने के लिए पार्टी के भीतर एक नया रास्ता निकाल लिया। चुनाव अभियान समिति। कोई और पार्टी हो न हो लेकिन कम से कम भाजपा मोर्चों और समितियों का समुद्र है। दर्जनों समितियां और मोर्चे हैं जो आमतौर पर छुटभैये नेताओं को पद देकर खपाने के लिए इस्तेमाल किये जाते हैं। ऐसी समितियों और मोर्चों का पार्टी के संविधान के अनुसार कोई संवैधानिक अधिकार नहीं होता और उनका होना न होना पार्टी की संसदीय समिति के निर्णय पर निर्भर करता है।

इसलिए मोदी को भी जिस चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष बनाकर मामले को रफा दफा किया गया है ऐसी समितियां पहले भी बनती रही हैं। प्रमोद महाजन भी कभी ऐसी ही प्रचार समिति के अध्यक्ष हुआ करते थे। अब मोदी के लिए इसी तरह की एक समिति बना दी गई है जो पार्टी के प्रचार प्रसार की व्यवस्था देखेगी। अब सवाल यह है कि अगर बात इतनी निरर्थक थी तो इतना हो हंगामा क्यों खड़ा किया गया? खुद लालकृष्ण आडवाणी गोवा क्यों नहीं गये? क्या वे ऐसी एक समिति का अध्यक्ष भी नरेन्द्र मोदी को नहीं बनने देना चाहते थे? उनका डर और दशा अपनी जगह। लेकिन भाजपा के इस निर्णय से मोदी से भी अधिक फायदे में राजनाथ सिंह रहे। एक तीर से उन्होंने कई शिकार किये। बतौर अध्यक्ष केन्द्रीय चुनाव समिति अपने पास रखने में तो कामयाब हो ही गये, संघ और मोदी दोनों को खुश करते हुए आडवाणी और सुषमा को भी नाराज होने से बचा लिया। और इस समिति का अध्यक्ष बनने से मोदी को क्या मिला? फेसबुक वाला ठेका तो पहले ही उनका प्रचार करनेवाली कंपनी को दिया जा चुका था, अब बाकी मीडिया और प्रचार वाला काम यह समिति करेगी। ध्यान रखिए, काम करेगी, निर्णय नहीं लेगी। तकनीकि तौर पर निर्णय केन्द्रीय चुनाव समिति और संसदीय बोर्ड ही लेगा जिस पर इस समिति को अमल करना होगा। फिलहाल उन समितियों में मोदी की हैसियत एक सदस्य से ज्यादा नहीं है।

Wednesday, June 5, 2013

बुलक कार्ट के देश में बुलेट ट्रेन का ख्वाब

चीन की शंघाई मैग्लेव दुनिया की सबसे तेज गति ट्रेन है
अभी अभी चीन के प्रधानमंत्री भारत दौरे पर आये तो भारत के बाद पाकिस्तान भी गये। इसके ठीक बाद भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जापान का दौरा किया। अपने तीन दिवसीय दौरे के दौरान भारत के प्रधानमंत्री ने सिर्फ तात्कालिक तौर पर चीन को कूटनीतिक जवाब ही नहीं दिया बल्कि जापान में भारतीय प्रधानमंत्री ने एक ऐसे समझौते पर हस्ताक्षर किया जो चीन को दीर्घकालिक रणनीतिक जवाब साबित होगा। भारतीय प्रधानमंत्री ने जापानी बुलेट ट्रेन कंपनियों से एक समझौता किया है जो जापान सरकार की आर्थिक मदद से बैलगाड़ी वाले देश भारत में बुलेट ट्रेन प्रणाली विकसित करेंगी।

भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और जापानी प्रधानमंत्री शिंजो आबे के बीच जो समझौता हुआ है उसके अनुसार कर्ज के बतौर जापान भारत सरकार को बुलेट ट्रेन दौड़ाने के लिए एक ट्रिलियन येन प्रदान करेगा और पहले चरण में भारत मुंबई से अहमदाबाद के बीच 500 किलोमीटर की बुलेट यात्रा का सपना साकार करेगा। अभी यह सब शुरूआती अवस्था में है और जापान के साथ मिलकर भारत सरकार का रेल मंत्रालय अंतिम रिपोर्ट अगले एक साल में तैयार करेगा। इस रिपोर्ट के तैयार होने के बाद ही इस रूट पर काम शुरू हो सकेगा। इसलिए भारत सरकार की ओर से इस बुलेट ट्रेन मार्ग की कोई समय सीमा निर्धारित नहीं की गई है।
उम्मीद करनी चाहिए कि फिजिबिलटी स्टडी पूरा होने के बाद अगर 2015 तक भी बुलेट ट्रेन बनाने की दिशा में काम शुरू हो जाता है और पूरी गति से काम पूरा किया जाता है तो भी न्यूनतम 10 से 15 साल का समय इसे पूरा होने में लग सकता है। भारत के महत्वाकांक्षी कश्मीर रेलवे परियोजना को देखें तो इस समयसीमा में अंतहीन विस्तार भी हो सकता है। भारत की महत्वाकांक्षी कश्मीर रेलवे परियोजना को अटल बिहारी वाजपेयी सरकार द्वारा राष्ट्रीय महत्व की परियोजना का दर्जा दिये जाने के बाद इसे 2007 तक पूरा करने का लक्ष्य था लेकिन अब भी यह दस साल की देरी से चल रही है। दिल्ली से श्रीनगर के जुड़ने में अभी भी कम से कम चार साल की देर है। इस लिहाज से बुलेट ट्रेन की दिशा में भारत सरकार का रेल मंत्रालय बुलेट की गति से काम करेगा, यह सोचना थोड़ा सा दिन में तारे देखने जैसा है।

लेकिन भारत को बुलेट ट्रेन का ख्वाब दिखानेवाला जापान दिन में तारे देखनेवाले देशों में नहीं है। ट्रेन की रफ्तार बढ़ाने की दिशा में जापान ने बुधवार को एक ऐसा प्रयोग किया जो असल में ट्रेन परिचालन का भविष्य साबित होने जा रहा है। बुधवार 5 जून को जापान ने मैग्लेव ट्रेन का सफल परीक्षण किया जिसकी अधिकतम गति सीमा 581 किलोमीटर प्रति घंटा है। जापान की सेन्ट्रल जापान रेल कंपनी द्वारा शुरू की गई इस परियोजना को 2027 तक पूरा करने की योजना है। इस परियोजना के पूरा हो जाने के बाद जापान के टोक्यो से नागोया के बीच की दूरी महज 40 मिनट में पूरी की जा सकेगी। जापान की राजधानी टोक्यो से नागोया की दूरी 342 किलोमीटर है और वर्तमान समय में भी बुलेट ट्रेन (शिंकनसेन) के जरिए औसत 90 से 100 मिनट में यह दूरी तय की जा रही है।

जापान में जो जापान रेलवे सेन्ट्रल इस मैग्लेव ट्रेन को संचालित करने की योजना पर काम कर रही है, उसी कंपनी ने आज से दशकों पहले 1964 में जापान में पहली बुलेट ट्रेन चलाई थी। यानी, जापान अगले एक दशक में वहां पहुंचने की छलांग लगा रहा है जो ट्रेन की दुनिया में भविष्य होगा। जब बैलगाड़ी वाला देश अपनी छुक छुट ट्रेन पर फिल्मी गाने फिल्मा रहा था, उस वक्त भी जापान बुलेट ट्रेन की सवारी कर रहा था, और बड़ी देर बाद जब भारत सरकार को गति पकड़ने की आवश्यकता महसूस हुई तो वह इतनी देर से बुलेट ट्रेन की सवारी करने की तैयारी कर रहा है कि जब तक बुलेट ट्रेन चलाने की तैयारी होगी, दुनिया मैग्लेव युग में प्रवेश कर चुकी होगी।

मैग्लेव, मैग्नेटिक लेविटेशन का संक्षिप्त नाम है जो चुंबकीय आकर्षण और विकर्षण के सिद्धांत पर काम करता है। इस सिद्धांत के तहत जो रेल प्रणाली विकसित की जा रही है उसकी पटरियां वर्तमान के मोनोरेल की पटरियों जैसी होती है। यानी, मैग्लेव ट्रेन के सर्फेस पर बिजली का करंट देनेवाला कोई वायर नहीं बिछाया जाता है और पटरियों के नाम पर सीमेन्ट की पटरियों में लोहे का गाडर नहीं फंसाया जाता है। एक सपाट कंक्रीट स्लैप के बीचो बीच चुंबकीय आकर्षण और विकर्षण पैदा करनेवाले चुंबक लगाये जाते हैं जिनके प्रभाव में मैग्लेव ट्रेन पटरियों से कुछ मिलीमीटर ऊपर दौड़ती नहीं बल्कि तैरती है। मैग्लेव ट्रेन के बारे में पिछले चार पांच दशकों से प्रयोग हो रहे हैं लेकिन पहली बार चीन की शंघाई मैग्लेव ट्रेन ने इस सपने को साकार कर दिया जब 2004 में 30 किलोमीटर लंबे रूट पर चीन ने एयरपोर्ट से शंघाई शहर को मैग्लेव ट्रेन के जरिए जोड़ दिया। चीन की शंघाई मैग्लेव अधिकतम 480 किलोमीटर की गति से दौड़ सकती है इस लिहाज से यह आज के समय में दुनिया की सबसे तेज गति वाली ट्रेन है। लेकिन अब जापान चीन को मैग्लेव ट्रेन के मामले में पीछे छोड़ने के लिए तैयार हो चुका है।

चीन जापान के इस तकनीकि जंग में भारत जैसे रेल बहुल देश में  आज भी हमारे ट्रेनों की स्पीड बैलगाड़ी की गति के आसपास ही हैं। भारत में मेल एक्सप्रेस ट्रेन की औसत गति सीमा 50 से 60 किलोमीटर प्रति घंटा ही होती है। यानी देश के सबसे व्यस्ततम दिल्ली मुंबई रूट पर अगर आप ट्रेन से सफर करते हैं तो एक मेल एक्सप्रेस ट्रेन से दिल्ली से मुंबई पहुंचने में 24 से 25 घण्टे का समय लगता है। जबकि समय रहते अगर सरकार ने ट्रेनों की दशा सुधारने की दिशा में काम किया होता तो दिल्ली से मुंबई की दूरी एक बुलेट ट्रेन से 300 किमी औसत की गति से 4.5 से 5 घण्टे में पूरी की जा सकती है। अब जाकर भारत सरकार को होश आया है कि देश की आर्थिक राजधानी को राजनीतिक राजधानी के बीच कम से कम राजधानी ट्रेनों की गति औसत 175 से 200 किलोमीटर के बीच करना जरूरी है, इसलिए जापान यात्रा के दौरान उन्होंने दिल्ली मुंबई रेलमार्ग को सेमी हाईस्पीड रेल कारीडोर के रूप में विकसित करने का भी समझौता किया है। समझौता भले ही हो गया हो लेकिन साकार होने में अभी भी दशक भर से कम का समय नहीं लगेगा।

भारत में बुलेट ट्रेन को लेकर जब तब कुछ अध्ययन और आहट आती रही है लेकिन अभी तक इस दिशा में कोई ठोस पहल नहीं हो सकी है। भारत में पहली बार 1980 में तत्कालीन रेल मंत्री माधवराव सिंधिया ने बुलेट ट्रेन का सपना देखा था लेकिन रिपोर्ट तैयार होकर धूंल फांकने चली गई। इसके बाद 2009 में रेल मंत्रालय ने विजन 2020 जो श्वेत पत्र तैयार किया था उसमें देश में छह रेल कारीडोर विकसित करने का सपना देखा था जिन पर 250 से 300 किलोमीटर की गति से ट्रेनों के परिचालन की बात कही गई थी। इस दिशा में चार साल बीत जाने के बाद सिर्फ एक प्रगति हुई है कि रेल मंत्रालय ने एक अलग विभाग बना दिया है जिसका नाम है हाई स्पीड रेल कारपोरेशन आफ इंडिया। वह भी अभी एक साल पहले ही अस्तित्व में आया है। जब सपना देखने के बाद एक डिपार्टमेन्ट बनाने में रेलवे को तीन साल लग गये तब ऐसे में रेल के छह कारीडोर कब तक आकार ले लेंगे जिन पर ट्रेने बुलेट की स्पीड से दौड़ लगायेंगी, कल्पना ही की जा सकती है। तब तक आप बुलेट ट्रेन का ख्वाब देखते हुए 'बुलक ट्रेन' में सफर करते रहिए, दुनिया बुलेट से भी आगे मैग्लेव पर जाने की तैयारी कर चुकी है।

Monday, June 3, 2013

मयप्पन के श्वसुर "वीरप्पन"

लंबोदर एन श्रीनिवासन निजी जिंदगी में भी लंबोदर गजानन के भक्त हैं। चेन्नई के क्रिकेट इतिहास में वे इसलिए तो जाने ही जाते हैं कि वे खानदानी क्रिकेट प्रेमी हैं लेकिन उनको इसलिए भी याद किया जाता है कि चेपक स्टेडियम के बाहर उन्होंने गणेश जी का मंदिर भी स्थापित करवा रखा है। आधुनिकता के इस खेल में परंपरा का ऐसा मेल सिवा श्रीनिवासन के कर कौन सकता था? लेकिन श्रीनी ऐसा ही सोचते हैं और अपने लंबोदर गजानन की कृपा से जीवन में इसी तरह उन्नति करते हुए अडिग बने रहे हैं।

इस वक्त वे जिस भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के अध्यक्ष हैं, उस भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के भीतर उनका प्रवेश कोषागार संभालने के लिए करवाया गया था, 2005 में। तब तक वे परिवार की विरासत इंडिया सीमेन्ट लिमिटेड अर्थात आईसीएल संभालते थे। अब वह कंपनी भी 35 सौ करोड़ रूपये का कारोबार कर रही है और नब्बे लाख टन सीमेन्ट पैदा करके भारत निर्माण के काम में लगी हुई है। इधर 2005 में वे भले ही बीसीसीआई पहुंच गये हों लेकिन कारोबार पर कभी कोई फर्क नहीं आया।

फर्क आया उस साल जिस साल ललित मोदी ने भारतीय क्रिकेट के इतिहास में एक अनोखा प्रयोग कर दिया। क्रिकेट के ललना ललित मोदी रणजीत ट्राफी की फीकी होती चमक से परेशान थे और चाहते थे कि एक ऐसा क्रिकेट का धरातल तैयार हो जो क्रिकेट में सिनेमाहाल की बजाय मल्टीप्लेक्स का मजा देता हो। ललित मोदी ने क्रिकेट का जो मल्टीप्लेक्स निर्मित किया वह ब्रिटेन के काउंटी क्रिकेट से कुछ कुछ मेल खाता था जहां दुनिया भर के खिलाड़ी अनुबंध के तहत जाकर क्रिकेट खेलते थे, और मनोरंजन करते थे। ललित मोदी की योजना इसलिए भी बीसीसीआई के भीतर परवान चढ़ गई क्योंकि 2007 में जी नेटवर्क के नेता सुभाष चंद्रा आईसीएल लेकर मैदान में उतर चुके थे। अब अगर बीसीसीआई को अपनी साख बचानी थी, तो तत्काल उसे कुछ ऐसी करना था जो इंडियन क्रिकेट लीग का मैदान साफ कर सके।

इसलिए 2008 में आईपीएल का अवतार हो गया। फरवरी 2008 में आईपीएल के लिए पहली बोली लगी और उसी साल आनन फानन में आठ टीमें बनकर तैयार हो गई। भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान महेन्द्र सिंह धोनी उस साल सबसे मंहगे खिलाड़ी के रूप में बिके और उन्हें खरीदनेवाले कोई और नहीं बल्कि बीसीसीआई के कोषागार प्रमुख लंबोदर एन श्रीनिवासन ही थे। इस साल जो आठ टीमें बनी उसमें चेन्नई सुपर किंग्स भी थी। इस टीम को तैयार किया था इंडिया सीमेन्ट ने जिसके मालिक एक बार फिर वही एन श्रीनिवासन थे जो बीसीसीआई के कोषागार प्रमुख थे। सिर्फ धोनी को ही उन्होंने 15 लाख रूपये में नहीं खरीदा बल्कि दस सालों के लिए आईपीएल की फ्रेंचाइजी पाने के लिए 91 मिलियन डॉलर बीसीसीआई को अदा किये। श्रीनिवासन ने कृष्णमाचारी श्रीकांत को चेन्नई सुपर किंग्स का ब्रांड एम्बेसडर भी नियुक्त कर लिया जो गलती से उस वक्त बीसीसीआई की चयन समिति के अध्यक्ष थे।

भ्रष्टाचार और सट्टेबाजी की खबरें भले ही आईपीएल के पांच साल बाद सतह पर आई हों लेकिन खुद आईपीएल खेल ही भ्रष्टाचार और सट्टेबाजी की बुनियाद पर खड़ा है। ललित मोदी ने आईसीएल को किनारे करने के लिए जिस आईपीएल की शुरूआत की थी, आगे चलकर वह क्रिकेट की कब्रगाह साबित ही होनेवाला था। अस्सी किलो के एन श्रीनिवासन की रुचि खेल में इसलिए नहीं हो सकती कि किसी जमाने में उन्होंने क्रिकेट खेला है। उनकी रूचि होगी तो सिर्फ इसलिए होगी क्योंकि आज वे इस खेल में पूंजी का खेल कर सकते हैं। और पहले दिन से वे वही कर रहे हैं। तमाशा यह है कि जो उन्हें हटाने की मांग कर रहे हैं, वे भी कोई क्रिकेट प्रेम में ऐसा नहीं कर रहे हैं। उन्हें भी इस सल्तनत की गद्दी चाहिए, ताकि वह खेल वे खुद कर सकें जो अभी मयप्पन और उनके ससुर ''वीरप्पन" मिलकर कर रहे थे। यह सब करने के बाद 2008 के पहले ही मुकाबले में सब कुछ होने के बाद फाइनल मुकाबला राजस्थान रॉयल्स और चेन्नई सुपर किंग्स के बीच करवा दिया गया। सिर्फ फाइनल मुकाबला ही चेन्नई और राजस्थान के बीच हुआ हो ऐसा भी नहीं है, विजेता भी चेन्नई सुपर किंग्स हो गई। देखते ही देखते पूरी तरह से खेल भावना का आदर करते हुए सिर्फ चेन्नई सुपर किंग्स तीन बार विजेता ही नहीं बनी बल्कि उस टीम का ब्रांड वैल्यू भी आसमान छूने लगा क्योंकि टीम का सक्सेस रेट 66.67 प्रतिशत था। अब तक आईपीएल में चेन्नई सुपर किंग्स ने कुल 39 मैच खेलकर 26 मैच जीत लिए थे। जाहिर है, चेन्ऩई सुपर किंग्स की इस सफलता के लिए सारा श्रेय श्रीनिवासन की दूरदर्शी व्यापारिक सोच को ही दिया जा सकता है जो अब इंडिया सीमेन्ट से बढ़िया व्यापार कर रहे थे।

यह आईपीएल में चल रहे पूंजी के खेल का ही कमाल था कि इस टूर्नामेन्ट के जन्मदाता को ही देश से दरबदर कर दिया गया। कहते हैं ललित मोदी ने अकेले आईपीएल से इतना माल कमाया है जितना देश के समस्त मोदी मिलकर सारे व्यापारिक गतिविधियों से नहीं कमा सके होंगे। ललित मोदी के जाते ही किसी गुप्त समझौते के तहत आईपीएल की कमान कांग्रेसी शुक्ला को सौंप दी गई जबकि बीसीसीआई की गद्दी पर शरद पवार अपने करीबियों को हटाते बिठाते रहे। इन दो भाई के अलावा क्रिकेट का कारोबारी एक तीसरा भाई भी है जो सट्टे लगवाता है। उस भाई का नाम अब अनआफिसियल नहीं रहा। दिल्ली पुलिस भी कह रही है कि क्रिकेट में कुछ भाईगीरी का चक्कर भी शामिल है। अगर ऐसा है तो तीन भाईयों की कहीं न कहीं कोई न कोई तिकड़ी भी बनी होगी जिसके कारण श्रीनिवासन को वीरप्पन सा स्वरूप अख्तियार करना पड़ गया होगा। आखिर, अंडरवर्ल्ड के अपने कायदे कानून जो होते हैं।

2011 में इस "वीरप्पन'' ने बीसीसीआई के भीतर सबसे बड़ा मुकाम हासिल कर लिया। जिसका केवल कोषागार उनके हाथ में अब उसका सारा कारोबार ही उनको सौंप दिया गया। शशांक व्यंकटेश मनोहर पेशे से वकील थे, इसलिए उनके राज में उन्नति बहुत अच्छी नहीं थी। उन्नति कैसे की जाती है यह तो व्यापार जगत के इस वीरप्पन को पता था। लेकिन उन्नति के इस चक्रव्यूह में खुद व्यापार का वीरप्पन ही फंस गया है। जिस दामाद गुरूनाथ मयप्पन को उन्होंने फिक्सिंग के कारोबार में लगा रखा था, वह बेचारा मुंबई पुलिस के हत्थे चढ़ गया है। श्रीनी और उनकी कंपनी दोनों कह रहे हैं कि तकनीकि तौर पर दामाद के भ्रष्टाचार में फंसने के कारण ससुर को दरवाजा नहीं दिखाया जा सकता। वैसे भी बेचारा मयप्पन क्रिकेट का कोई खिलाड़ी तो था नहीं। वह तो चेन्नई सुपर किंग्स फ्रेंचाइजी का सिर्फ कोई प्रिंसिपल भर था। जैसे ही भ्रष्टाचार में उसके लिप्त होने की खबर आई उसकी प्रिंसिपली भी उससे वापस ले ली गई। लेकिन ये दुनियावाले अब भी श्रीनी का पीछा नहीं छोड़ रहे हैं।

लेकिन क्रिकेट की दुनियावाले ही श्रीनी के पीछे पड़े हों, ऐसा भी नहीं है। खुद श्रीनी भी क्रिकेट की दुनिया का पीछा इतनी आसानी से नहीं छोड़नेवाले। वे जानते हैं कि क्रिकेट कितना महत्वपूर्ण कारोबार है और किसी कारोबारी से कोई उसका कारोबार नहीं छीन सकता। ठीक वैसे ही जैसे किसी जंगल से किसी वीरप्पन को बाहर नहीं किया जा सकता वैसे ही किसी कारोबारी को उसके कारोबार से अलग नहीं किया जा सकता। मयप्पन के ससुर ऐसे ही क्रिकेट के कारोबारी हैं। अरबों का दाम दांव पर लगा है। दाम गया तो दम निकलते देर नहीं लगेगी। इसलिए इस नूरा कुश्ती का आगाज भले ही अचानक हो गया हो लेकिन अंजाम बहुत 'कत्लेआम' के बाद ही निकलेगा। वैसे भी, ''वीरप्पन'' इतनी आसानी से जंगल नहीं छोड़ा करते।

Popular Posts of the week