Tuesday, March 12, 2013

लैपटॉप लो और वोट दो!

राजनीति सेवा का ऐसा क्षेत्र है जहां बिना स्वार्थ के कुछ नहीं किया जाता। कुछ नहीं बोले तो कुछ भी नहीं। सांस भी बहुत सोच समझकर ली जाती है और छोड़ी जाती है। शायद इसीलिए राजनीति ऐसा निरंकुश व्यापार हो जाती है जहां लोगों की भलाई के नाम पर अपने वोटों की कमाई की जाती है। उत्तर प्रदेश के अखिलेश यादव का लैपटॉप भी ऐसे ही एक पोलिटिकल बिजनेस मॉडल के रूप में सामने आया है। आज लखनऊ के तालुकेदार कालेज में लैपटॉप वितरण कार्यक्रम की आज विधिवत शुरूआत करते हुए मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने सिर्फ लैपटॉप वितरण योजना को ही अंजाम नहीं दिया बल्कि आगामी आम चुनाव के लिए प्रचार अभियान भी शुरू कर दिया।

जिन्होंने अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री बनने से चार छह महीने पहले मिलने की कोशिश की होगी वे जानते होंगे कि उनकी मुलाकात लखनऊ में शायद ही हुई हो। चुनाव से करीब छह आठ महीना पहले से ही अखिलेश यादव ने साइकिल पर पैडल मार दिया था प्रदेश भर का दौरा शुरू कर दिया था। इतनी साइकिल चलाई होगी जितनी शायद अब तक की जिन्दगी में न चलाई हो। फिरोजाबाद से लेकर फैजाबाद तक अखिलेश यादव हर जगह साइकिल से गये। इस साइकिल यात्रा का नतीजा तब सामने आया जब बैलट बॉक्स खुले और प्रदेश में मायावती का सूपड़ा साफ हो गया। लगभग गुमनामी और तंगहाली में पूरा प्रचार अभियान चलानेवाले अखिलेश यादव ने चुपचाप अपने लिए संभावनाओं का दरवाजा खोल लिया था। अब वे किसी के लिए राइजिंग स्टार थे तो किसी के लिए समाजवादी पार्टी के उज्ज्वल भविष्य। लेकिन अखिलेश ने बहुत पहले से जो काम शुरू किया था उसकी ओर तब भी कम ही लोगों का ध्यान गया।

अपने उसी चुनावी अभियान के दौरान अखिलेश यादव ने एक नारा दिया था कि पढ़ाई और दवाई तो मुफ्त ही होनी चाहिए। सत्ता में आने के बाद अखिलेश यादव को याद था कि उन्होंने पढ़ाई और दवाई को मुफ्त देने की बात कही है। इक्कीसवीं सदी के इस युग में बिना कम्प्यूटर के पढ़ाई का कोई मोल नहीं है। हमारे जीवन के अधिकांश काम काज अब इंटरनेट और कम्प्यूटर के जरिए ही पूरे होते हैं और सचमुच अगर पढ़ाई के दौरान इंटरनेट का साथ मिल जाए तो कहने ही क्या। इसलिए अखिलेश यादव की लैपटॉप देनेवाली स्कीम उन पंद्रह लाख बच्चों के लिए सुनहरे सपने से कम नहीं है जिनके जीवन में कापी कलम दवात के आगे कोई दुनिया होती नहीं है। लेकिन इसी योजना को निर्धारित समय पर पूरा करते हुए लैपटॉप का जो चेहरा सामने आया उसने अखिलेश यादव की नेकनीयती की आड़ में छिपी समाजवादी सरकार की बदनीयती भी सामने ला दी।

अखिलेश यादव के लैपटॉप में सिर्फ 500 जीबी का हार्डडिस्क, 2 जीबी की रैम, एचडी स्क्रीन और डूएल स्पीकर ही नहीं लगा है। इसके हार्डवेयर और साफ्टवेयर पर समाजवादी सरकार का ठप्पा भी लगा है। सिर्फ विन्डोज 7 लगाकर लैपटॉप का लॉलीपॉप थमाने की बजाय स्पेशल प्रोग्रामिंग भी की गई है ताकि इस्तेमाल करनेवाला कभी यह भूल न पाये कि उसे वास्तव में क्या सुनना है और किसे देखना है।

उत्तर प्रदेश में एक सरकारी विभाग है यूपीईसी, यानी उत्तर प्रदेश इलेक्ट्रानिक कारपोरेशन। इस कारपोरेशन के जिम्मे काम बहुत है लेकिन अभी तक इसने ऐसा कुछ किया नहीं है कि इसका नाम बड़े सम्मान के साथ लिया जाए। ऐसे ही विभागों की देन हैं कि उत्तर प्रदेश में आधुनिकता और सूचना संचार का युग इक्कीसवीं सदी का एक दशक पार कर जाने के बाद भी बीसवीं सदी के आखिरी दशक के आगे नहीं निकल पाया है। फिर भी, इसी विभाग ने माननीय मुख्यमंत्री जी के वचन को पूरा करने के लिए लैपटॉप कंपनियों से 15 लाख लैपटॉप सप्लाई करने के लिए निविदाएं मंगवाईं। इतनी बड़ी संख्या में लैपटॉप की खरीदारी हार्डवेयर की आईटी कंपनियों के लिए बड़ा मौका था। तपाक से चार बड़ी हार्डवेयर कंपनियां इस रेस में शामिल हो गईं। एचसीएल, लेनोवो, एचपी और एसर। इन चारों कंपनियों ने जो निविदांएं दी थी उसमें एचपी कंपनी की निविदा में एक लैपटॉप की कीमत टैक्स जोड़ने के बाद 19,058 रूपये थी। और एचपी को ही सप्लाई करने का आर्डर दे दिया गया। एचपी ने आनन फानन में यह सब कैसे किया पता नहीं लेकिन उसने दिसंबर में निविदा हासिल करने के बाद उत्तर प्रदेश सरकार के लिए विशेष तौर पर निर्मित लैपटॉप की पहली खेप तैयार कर लिया और आज से उसके वितरण का कार्यक्रम भी शुरू कर दिया गया।

15 लाख लैपटॉप वितरण की यह पहली ही परियोजना 28 अरब 58 करोड़ 70 लाख की है। एचपी कंपनी के लिहाज से देखें तो उसे सॉलिड बिजनेस मिल गया लेकिन सरकार के लिहाज से देखें तो उन्हें क्या मिला? उन्हें वह मिला जो किसी भी राजनीतिक पार्टी को चाहिए होता है। सत्ता में रहने का लाइसेंस। यह लाइसेंस कोई और नहीं बल्कि जनता देती है। इस लाइसेंस को पाने के कई प्रकार हैं लेकिन अखिलेश यादव ने अपनी महत्वाकांक्षी परियोजना को ही अपने लाइसेन्स एग्रीमेन्ट में तब्दील कर दिया। लैपटॉप को ही पार्टी के ऐसे चुनाव चिन्ह में तब्दील कर दिया है जो हर वक्त प्रदेश के पंद्रह लाख परिवार में मौजूद रहेगा। लैपटॉप के हार्डवेयर पर भी पार्टी के नेता मुलायम और मुख्यमंत्री अखिलेश की छाप नहीं छोड़ी गई है बल्कि साफ्टवेयर भी पूरी तरह से समाजवादी बनाया गया है। आपरेटिंग सिस्टम के बतौर भले ही विन्डोज सेवेन को स्टैंडर्ड रखा गया है लेकिन एचपी कंपनी ने विशेष तौर पर साफ्टवेयर में ऐसा कन्फीगरेशन किया है कि लाल निशान इस लैपटॉप की अमिट छाप बन जाए। उस झोले तक को नहीं छोड़ा गया है जिसे लैपटॉप के कैरी बैग के रूप में दिया जा रहा है। उस पर भी नेताजी और बेटा जी मुस्कुराते हुए मौजूद हैं।

लैपटॉप के बाहर भीतर किये गये इस समाजवादी साज श्रृंगार का संदेश साफ है- लैपटॉप लो और वोट दो। लेकिन वोट मांगने का यह प्रचार अभियान अभी यहीं खत्म नहीं होनेवाला। आनेवाले दिनों में जिन्हें लैपटॉप नहीं दिया जा सकेगा उन्हें टेबलेट दिया जाएगा। प्रदेश के हर पढ़ने लिखनेवाले बच्चे के हाथ में ऐसा कुछ होगा जिस पर सीधे तौर पर समाजवाद के नेताजी और सरकार के बेटा जी दोनों मौजूद रहेंगे, यह बताते हुए कि वे ही हैं जो आपके बेहतर भविष्य के बारे में सोचते हैं और काम करते हैं। भला कौन सा ऐसा परिवार होगा जो ऐसे समाजवादी चिंतन को चकनाचूर करना चाहेगा जो उनके बच्चों के ऐसे बेहतर भविष्य के बारे में विचार करता हो। इसलिए लैपटॉप और टेबलेट भले ही बच्चों को दिये जा रहे हैं लेकिन उन पर मौजूद समाजवादी छाप उन्हें प्रभावित करने के लिए हैं जो बड़ी हरशत से अपने बच्चे को लैपटॉप पर लाली लप्पा करते हुए देखेंगे। आप ही सोचकर बताइये है कोई और ऐसी स्कीम जिस पर महज 28 अरब रूपया खर्च करके 15 लाख घरों तक चुनाव चिन्ह पहुंचा दिया जाए? है तो वह भी अखिलेश यादव को बताइये। वे उसे भी पूरा करने की कोशिश करेंगे।

Saturday, March 9, 2013

बिजनेस स्कूल यू फूल!

कौन मूर्ख होगा जो वहां नहीं जाना चाहेगा जहां से निकले 88 हजार छात्र दुनिया की व्यापारिक दुनिया पर राज कर रहे हों? उद्योग, अर्थ, वित्त, तकनीकि, मीडिया, एनजीओ इस आधुनिक सभ्यता में लूटपाट के जितने भी उपकरण है उन सबमें एक ही स्कूल से निकले 88 हजार लोग काम पर लगे हों तो उस स्कूल का महत्व अपने आप बहुगुणा हो जाता है। जिस स्कूल के अतीत में वारेन बफेट हों और भविष्य में कोई आदित्य मित्तल और अनिल अंबानी तो बताने की जरूरत ही नहीं रहती कि उस स्कूल का महत्व क्योंकर होना चाहिए। व्हार्टन ने जब अमेरिका के एक विश्वविद्यालय में अपने पितरों के नाम के सम्मान में जब इस स्कूल की नींव रखी होगी तब शायद उनके जेहन में भी वह सब नहीं रहा होगा जो आज उस स्कूल के नाम पर हासिल हो रहा है।
जोसेफ व्हार्टन के पितर सत्रहवीं शताब्दी में इंग्लैंड से चलकर भटकते हुए अमेरिका आये थे। अमेरिका में कमोबेश दस दशक बीत जाने के बाद भी अमेरिकी व्यवस्था में शायद व्हार्टन फेमिली या उनके जैसे लोगों को वह स्थान और हक हासिल नहीं हो सका था जो इंसानियत के नाते होना चाहिए था। यह भी हो सकता है इंग्लैण्ड और यूरोप से थोक में जो जनसंख्या स्थानांतर अमेरिका हुआ था उसमें व्हार्टन फेमिली को अपना रसूख कायम करने में एक शताब्दी लग गई। इसलिए खुद जोसेफ की पढ़ाई लिखाई अपने ही कुनबे के स्कूल में हुई थी जो आज जैसी व्यावसायिक बिल्कुल नहीं थी। शायद लोहे का कारोबार करते हुए व्हार्टन को यह अहसास हुआ हो कि कम से कम उनके समुदाय के लिए व्यापार की समुचित शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए इसलिए 1881 उन्होंने एक व्यावसायिक स्कूल की शुरूआत की। व्हार्टन स्कूल दुनिया का पहला ऐसा बिजनेस स्कूल था जिसे किसी विश्वविद्यालय ने मान्यता दी थी।

अठारवीं सदी में पश्चिमी जगत जिस शिक्षा क्रांति को अंजाम दे रहा था उस दौर की कुछ क्रांतिकारी घटनाएं उन देशों में भी पहुंची थी जहां जहां बतौर उपनिवेशक वे मौजूद थे। उसी दौर में भारत में बने कुछ विश्वविद्यालय इसी शिक्षा क्रांति का परिणाम थे। लेकिन यूनिवर्सिटी आफ पेन्सिलवेनिया तो उस दौर में भी दशकों आगे दौड़ रहा था। शिक्षा के सभ्य समाज में किसी व्यापारिक स्कूल को अपनी मान्यता देना उस दौर में निहायत नीच कर्म रहा होगा। लेकिन पेन ने उस 'नीच कर्म' को करने से भी कोई गुरेज नहीं किया। अपने अधीन स्कूलों की स्थापना करके शिक्षा में क्रांति लाने का जो काम पेन ने शुरू किया था वह तो बाद में रोल मॉडल ही बन गया। इससे सीधे सीधे विश्वविद्यालय का ढांचागत खर्च बचता है और अपने डिग्री के खर्च पर वह अपना नाम दान देकर अपनी प्रतिष्ठा अर्जित कर लेता है। शिक्षा जगत के तत्कालीन सभ्य समाज में भले ही उस वक्त उसे "ज्वाइंट डिग्री प्रोग्राम" जैसी बाजारू भाषा प्रदान करके उसका महत्व कम करने की कोशिश की गई हो लेकिन आज वही प्रयोग दुनिया का आदर्श है। ऐसा आदर्श जिसे हर कोई हासिल कर लेना चाहता है।

पेन का ज्वाइंट डिग्री प्रोग्राम व्हार्टन जैसे स्वप्नद्रष्टाओं के लिए बेहतरीन अवसर था जो पूंजी के बल पर मान सम्मान हासिल करना चाहते थे। हो सकता है उस वक्त तक के यूरोपीय प्रभाववाले अमेरिका या फिर खुद यूरोप में व्यापार दोयम दर्जे का कारोबार रहा हो लेकिन भविष्य में अगर व्यापार अव्वल दर्जे का प्रोफेसन बना तो निश्चित रूप से इसके पीछे वे महत्वपूर्ण बदलाव रहे होंगे जिन्हें पेन जैसे विश्वविद्यालयों ने सबसे पहले मान्यता दी। इस मान्यता के दूरगामी प्रभाव हुए। बड़ा से बड़ा व्यापारी हो या कि पैसेवाला आदमी आखिर में वह पैसे से सम्मान ही खरीदने की ख्वाहिश रखता है। हो सकता है आज सुनने में यह थोड़ा अतिरेक लगे लेकिन तो भी कम से कम पूंजीवाला आदमी अपनी पूंजी का बेहतर भविष्य तो चाहता ही है। पूंजी का यह बेहतर भविष्य उसके अपने कारखाने में सुरक्षित नहीं होता है जहां मानव संसाधन का निर्माण करता है, बल्कि उस क्लासरूम में सुरक्षित होता है जहां मानव को ही संसाधन के रूप में परिवर्तित कर दिया जाता है।

अगर अमेरिकी विश्वविद्यालयों में यह क्रांतिकारी बदलाव न आया होता तो विज्ञान कभी तकनीकि के रूप में परिवर्तित न हो पाता। तब हो सकता है हमारी आज की दुनिया वह न होती जिसमें हम जी रहे हैं लेकिन जैसे चर्च से मुक्ति ने यूरोप में नियंत्रित जनवाद की नींव डाली वैसे ही व्यावसायिक घरानों ने विज्ञान को परिवर्तित करते हुए उसे तकनीकि का स्वरूप दे दिया और अपने लिए व्यावसायिक संभावनाओं का दरावाजा खोल लिया। दोनों एक दूसरे के लिए बेहद जरूरी और एक दूसरे के पूरक हैं। यह सब कोई एक दिन एक महीने या एक साल में नहीं हुआ। दशकों लगे हैं। लेकिन दशकों की यह मेहनत बेकार बिल्कुल नहीं गई है। आज दुनिया में विज्ञान की पढ़ाई दूसरे नंबर की पढ़ाई हो गई तो इसका कारण कुछ और नहीं बल्कि व्यावसायिक घरानों का वही प्रयोग है जो उन्होंने उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी में जमकर किया और दुनियाभर के विश्वविद्यालयों को अपने प्रभुत्व में लेकर उन्हें यह समझाने में कामयाबी हासिल कर ली कि जो विश्वविद्यालय व्यापार नहीं सिखाता उसके होने का कोई मतलब नहीं है। उस वक्त का वैज्ञानिक नजरिया हमारे समय की तकनीकि में तब्दील हो गया तो इसके पीछे भी वही व्यावसायिक दिमाग है जो पूरी दुनिया को संचालित करने की ख्वाहिश रखता था।

अपनी वह ख्वाहिश पूरी करने में उसने दशकों विश्वविद्यालों में जो पूंजी निवेश किया उसका सुखद परिणाम उसे मिला भी है। दुनिया का कौन सा ऐसा विश्वविद्यालय है जो आंख उठाकर यह कह सके कि व्यवसाय की पढ़ाई दोयम दर्जे की है? व्यवसाय की पढ़ाई को लेकर आज हम सबके जेहन में अव्वल दर्जे वाला खयाल ही होता है। पूंजी, स्कालरशिप, प्रभाव और मोटी सैलेरी का ऐसा मायाजाल है कि कोई मूर्ख ही इस दुनिया में प्रवेश करने से कतरायेगा। भारत में व्यवसाय की ऐसे संगठित पढ़ाई की शुरूआत सत्तर के दशक में व्यवस्थित रूप से हुई जब देशभर में आईआईएम स्कूलों के स्थापना की शुरूआत की गई। इसके पीछे भी वही सोच काम कर रही थी जिसने कभी अमेरिका में व्यावसायिक स्कूलों को स्थापित करने के पीछे काम किया था। व्यावसायिक प्रबंधन के लिए जो व्यावसायिक अफसर चाहिए थे उनको पैदा करनेवाली फैक्ट्री वे विश्वविद्यालय नहीं हो सकते थे विज्ञान और कला का ब्ला ब्ला कर रहे थे। इसके लिए बिजनेस स्कूल की जरूरत थी। भारत के योजना आयोग की इस पहल को अमेरिका के ही एक विश्वविद्याल (यूनिवर्सिटी आफ कैलिफोर्निया) ने मदद की और 1961 में कलकत्ता में पहला बिजनेस स्कूल शुरू करवा दिया। जल्द ही फोर्ड फाउण्डेशन मैदान में आ गया और उसकी मदद से अहमदाबाद एक और बिजनेस स्कूल शुरू कर दिया। फिर तो मानों सिलसिला ही शुरू हो गया। आर्थिक नवाकाल ने व्यावसायिक प्रबंधकों की मांग इतनी तेज कर दी कि अब तक हम 13 आईआईएम के संचालक हो चुके हैं। एमबीए की डिग्री देनेवालों की संख्या तो हजारों में हैं।

व्यावसायिक शिक्षा के इस बढ़ते महत्व के पीछे व्यावसायिक घरानों और पूंजीवादी लोगों ने इतनी पूंजी लगाई कि यही मुख्यधारा की व्यावसायिक पढ़ाई नहीं हुई, मुख्यधारा की शिक्षा दीक्षा बन गई। बाकी सारी पढ़ाई लिखाई हर जोताई के बराबर कर दी गई। यह पूंजी का कमाल तो था ही लेकिन इसके मूल में वह संगठित सोच भी काम कर रही थी जो दुनिया में व्यावसायिक और आर्थिक केन्द्रीयकरण करना चाहते थे। अर्थ वित्त की दुनिया में जितनी ज्यादा समझ होगी उतना बड़े व्यावसायिक घरानों के लिए व्यापार करने में मुश्किल पैदा होती है। ठंडा का मतलब तो कोका कोला ही होना चाहिए। ठंडा मतलब दुनिया के ढेर सारे ठंडे पेय बने रह जाएंगे तो इसे किसी कोका कोला कंपनी की असफलता नहीं बल्कि किसी न किसी हार्वर्ड बिजनेस स्कूल या फिर व्हार्टन स्कूल की असफलता माना जाएगा जो अरबों रूपये की ग्रांट डकारकर भी दुनिया को ठंडा मतलब कोका कोला का फार्मूला नहीं दे पाते हैं।

फिर भी, हमारे नेता पनेता, व्यापारी व्यभिचारी किसी व्हार्टन स्कूल के दरवाजे पर दस्तक देने के लिए ऐसे अकुलाए रहते हैं मानों स्कूल का दरवाजा नहीं उनके मोक्ष का दरवाजा है। व्यापारी व्यभिचारी ऐसा करें तो उनकी बला से, ये नेता लोगों को इतनी अकुलहाट क्यों होती है? नेता का सम्मान किसी व्हार्टन स्कूल से बढ़ेगा या फिर उस पाठशाला से जिसे जनता की पाठशाला कहा जाता है? अमेरिका से बुलावा किसी नरेन्द्र मोदी को आये कि अरविन्द केजरीवाल को? ठगों के ऐसे समूह को संबोधित करके भी वे क्या हासिल कर लेंगे?

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