Monday, December 28, 2015

वीवीआईपी विमान के नाम पर जनधन की हानि

इंडियन प्रोटोकॉल के मुताबिक भारत में तीन पद सुपर वीवीआईपी की कैटेगरी में आते हैं। प्रेसीडेन्ट, प्राइम मिनिस्टर और वाइस प्रेसिडेन्ट। इनके बाद जितने भी ओहदे हैं वे सब वीआईपी की कैटेगरी में चले जाते हैं।
इन तीन वीवीआईपी लोगों की देखरेख पर भारत की जनता सबसे ज्यादा धन खर्च करती है। इनके रहन सहन, परिवहन, आफिस सब पर खर्च में भारत के लोग कोई कोताही नहीं करते हैं। करना भी नहीं चाहिए क्योंकि यही तीन पद भारतीय लोकतंत्र के प्रतीक पद हैं जो जहां खड़े होते हैं वहां भारत को रिप्रेजेन्ट करते हैं।

इन तीनों पदों पर बैठे लोगों के परिवहन के आधुनिकीकरण पर बीते डेढ़ दशक में पानी की तरह पैसा बहाया गया है। एम्बेसडर, कन्टेसा और सफारी गाड़ियों को हटाकर हाईएन्ड बीएमडब्लू, मर्सीडीज की गाड़ियों को काफिले में शामिल किया गया है। सब बख्तरबंद हैं और किसी आपातस्थिति में वीवीआईपी को सुरक्षित रखने का भरोसा देती हैं। इनके टायरों में आग नहीं लगती, इनके तेल टैंक तक फायर प्रूफ हैं तथा रासायनिक हथियारों के हमले से भी वीवीआईपी को बचाने का भरोसा देती हैं।

इसी तरह हवाई सेवा का भी आधुनिकीकरण करते हुए तीन नये बोइंग बिजनेस जेट 737-800 को शामिल किया गया। इनमें से हर एक विमान की कीमत 950 करोड़ रुपये है। ये विमान हमले की स्थिति में सेल्फ डिफेन्स सिस्टम से लैस हैं। बोइंग ने ये बिजनेस जेट दुनिया के वीवीआईपी लोगों को ध्यान में रखकर ही बनाये हैं जिसमें एक वीवीआईपी की सुरक्षा और सुविधा का पूरा ध्यान रखा गया है। कांफ्रेस एरिया, बेडरुम, शॉवर, मिनी आफिस और सेटेलाइट फोन की सुविधा इन बिजनेस जेट में होती है। इन सबसे बड़ी खूबी यह कि ये बिजनेस जेट नॉन स्टॉप 17 हजार किलोमीटर तक उड़ान भर सकते हैं। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में इन्हीं सारे 
पहलुओं पर गौर करने के बाद ही शायद इन बिजनेस जेट को खरीदने का निर्णय लिया था।

लेकिन इन खूबियों के बाद भी वीवीआईपी की अंतरराष्ट्रीय उड़ानों में इन विमानों का इस्तेमाल नहीं किया जाता। अंतरराष्ट्रीय उड़ानों के वक्त इंडियन एयरफोर्स एयर इंडिया से उसका विमान 747-200 उधार लेता है। अब क्योंकि यह विमान पुराना पड़ चुका है इसलिए इंडियन एयरफोर्स को एयर इंडिया से दो बोइंग 777ER विमान पूरी तरह सौंपने का निर्णय लिया गया है। ये दोनों विमान पूरी तरह से सिर्फ वीवीआईपी की सेवा में रहेंगे और पहले के 747 की तरह उनका इस्तेमाल एयर इंडिया नहीं कर सकेगा। इस तरह से अब भारत के तीन वीवीआईपी के लिए पांच विमान हमेशा सेवा में खड़े रहेंगे।

सरकार के इस फैसले पर सवाल उठाने की जरूरत है। जब तक वीवीआईपी के परिवहन के लिए विशेष विमान नहीं खरीदे गये थे तब तक एयर इंडिया से उधार लेकर परिवहन करना न्यायसंगत था लेकिन अब जबकि तीन हजार करोड़ खर्च करके तीन विशेष विमान, राजदूत, राजहंस और राजकमल खरीदे गये हैं फिर चार हजार करोड़ के दो अतिरिक्त विमान वीवीआईपी की सेवा में तैनात करने का क्या तुक है? सुरक्षा एजंसी एसपीजी जो तर्क दे रही है वह यह कि लंबी दूरी की यात्रा के लिए बिजनेस जेट नाकाफी हैं। सरकार का यह तर्क नाकाफी है।
जिस बोइंग बिजनेस जेट को भारत सरकार ने खरीदा है वह नॉनस्टॉप 17 हजार किलोमीटर की उड़ान भर सकता है। राष्ट्राध्यक्षों की लंबी दूरी की उड़ानों को ध्यान में रखते हुए बोइंग कंपनी ने इन विमानों में अतिरिक्त फ्यूल टैंक लगाये हैं। जबकि लंबी दूरी का हवाला देकर जिस बोइंग 777 को एयर इंडिया से लेकर वीवीआईपी की सेवा में तैनात किया जा रहा है उसकी नॉनस्टॉप उड़ान 9700 किलोमीटर है। यानी भारत के वीवीआईपी अपने राजदूत में नई दिल्ली से न्यूयार्क की यात्रा कर सकते हैं। फिर सवाल यह है कि भारत की जनता के चार हजार करोड़ रूपये वीवीआईपी की यात्रा के नाम पर बेवजह बर्बाद किये जा रहे हैं?

इस सवाल का जवाब मिलना मुश्किल है क्योंकि ये फैसले एसपीजी की सलाह पर खुद कैबिनेट सचिवालय लेता है। लेकिन सवाल तो पूछा ही जाना चाहिए कि क्या चार हजार करोड़ के दो बड़े विमान सिर्फ इसलिए लिये जा रहे हैं कि इन यात्राओं में बड़ी संख्या में डेलिगेशन और सुरक्षा का तामझाम भी जाता है जिसे बोइंग बिजनेस जेट में ले जाना संभव नहीं है? लंबी दूरी की यात्रा, सुरक्षा और सुविधा तो बहाना है असल कारण शायद यही है। लेकिन यह कारण कोई वाजिब कारण नहीं है। वाजिब इसलिए नहीं है क्योंकि इनकी वजह से विमान खरीदने और उनको सिर्फ वीवीआईपी यात्राओं के लिए सुरक्षित रखने का जो अतिरिक्त बोझ भारत की जनता पर पड़ेगा वह फिजूलखर्ची है। ऐसी यात्राओं के वक्त विमान किराये पर लिये जा सकते हैं और बहुत कम खर्चे में डेलिगेशन और सुरक्षा तंत्र को साथ में ढोया जा सकता है।

यह देश सक्षम है, समर्थ हो रहा है लेकिन इतना भी अमीर नहीं है कि प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति की यात्राओं के लिए पांच पांच विमानों का बोझ उठाये। सरकारी खर्चे को कम करने की बजाय जनता के ऊपर चार हजार करोड़ का अतिरिक्त बोझ डालना एक कल्याणकारी और जनता के प्रति जिम्मेदार सरकार का नजरिया नहीं हो सकता, न होना चाहिए।

Sunday, December 27, 2015

जकजकी का जलजला

अगर लखनऊ के छोटे इमामबाड़े में "एक शाम नाइजीरिया के मुसलमानों के नाम" कार्यक्रम न भी होता तो भी इसका जिक्र करना जरूरी है। बोको हरम के लिए बदनाम नाइजीरिया में एक हजार मुसलमानों (गैर सरकारी आंकड़ा) को कत्ल कर दिया गया है। मारे गये मुसलमान शिया मुसलमान हैं लेकिन यह कत्लेआम सुन्नियों के चरमपंथी समूह बोको हरम ने भी नहीं किया है। यह "कत्लेआम" नाइजीरिया की सेना ने किया है। नाइजीरिया में शियाओं के सर्वोच्च धर्मगुरु इब्राहिम जकजकी भी इस हत्याकांड के बाद से लापता हैं और खबर यह है कि उनकी पत्नी और बेटे इस हत्याकांड में मार दिये गये हैं।

नाइजीरिया की कुल 18 करोड़ आबादी में अब ईसाई और मुसलमानों की आबादी आधी आधी हो चुकी है। कुछ स्रोत मुसलमानों की आबादी कुल आबादी का सत्तर फीसदी भी बताते हैं। जो भी हो सच यह है कि नाइजीरिया में मुसलमान बहुसंख्यक हो गये हैं। अभी नाइजीरिया सेकुलर स्टेट है और शासन, प्रशासन और सेना का चरित्र सेकुलर है। लेकिन मुसलमानों के बहुसंख्यक होने के साथ शरीया कानून लागू करने की मुहिम भी तेज हो गयी है। बीते डेढ़ दशक से सुन्नी आतंकी संगठन बोको हरम नाइजीरिया में शरीया लॉ लागू करने के लिए मारकाट कर रहा है। लेकिन सेकुलरिज्म पर अकेला संकट बोको हरम ही नहीं है। नाइजीरिया के अल्पसंख्यक शिया मुसलमान भी इस्लामिक कायदे कानून के लिए अपने तरीके से सशस्त्र संघर्ष कर रहे हैं।

नाइजीरिया में सिर्फ सुन्नी मुसलमान ही नहीं बल्कि शिया मुसलमान भी एक चरमपंथी समूह है। नाइजीरिया में शिया मुसलमानों की तादात कुल मुसलमानों में पांच फीसदी से भी कम है लेकिन पांच फीसदी का यह विस्तार भी अस्सी के दशक से अब तक हुआ है। उसके पहले नाइजीरिया में शिया मुसलमान नाममात्र के ही थे या बिल्कुल नहीं थे। लेकिन 1979 में इरान ने इब्राहिम ज़कज़की को ईरान बुलाकर शिया इस्लाम की शिक्षा दी और वापस लौटकर ज़कज़की ने इस्लामिक मूवमेन्ट आफ नाइजीरिया की नींव रखी। ईरान ने उन्हें नाइजीरिया के 'अयतोल्ला' की पदवी दे रखी है जिसका मतलब होता है जिसमें अल्लाह के निशान दिखते हो।

अयतोल्ला इब्राहिम जक़ज़की की नाइजीरिया में जो भूमिका है वह एक चरमपंथी नेता की ही है। वे भी नाइजीरिया में इस्लामिक स्टेट बनाना चाहते हैं लेकिन उस इस्लामिक स्टेट का आधार सऊदी-बहावी नहीं बल्कि ईरान होगा। इब्राहिम ज़कज़की का इस्लामिक मूलमेन्ट भले ही बोको हरम की तरह कत्लेआम नहीं करता है लेकिन नाइजीरिया में उसकी भी पहचान एक चरमपंथी संगठन के रूप में ही है। नीइजीरिया के शिया मुसलमान दोहरा टकराव रखते हैं। एक तरफ सेकुलर सरकार से तो दूसरी तरह चरमपंथी सुन्नी इस्लाम से। नाइजीरिया में सेना ने जो कार्रवाई की है उसका कारण कहीं न कहीं वही चरमपंथ है जिस पर बोको हरम और इस्लामिक मूवमेन्ट दोनों अमल करते हैं।

लेकिन हमारा सवाल तो लखनऊ वाले कल्बे जव्वाद नकवी साहब से है जिनकी खबर ईरान के सरकारी पोर्टल पर छपी है कि क्या इब्राहिम जकजकी नाइजीरिया में सेकुलर सिद्धांतों के लिए लड़ रहे थे जो सेना की कार्रवाई के खिलाफ आप दुनियाभर का समर्थन चाहते हैं? यह ठीक है कि इस्लामिक मूवमेन्ट बोको हरम जैसे कत्लेआम नहीं करता लेकिन नाइजीरिया में वह भी शरीया लागू करने का हिमायती है बिल्कुल बोको हरम की तरह। नाइजीरिया में जकजकी की वह छवि नहीं है जो ईरान दुनिया के सामने पेश कर रहा है, और जिसके समर्थन में लखनऊ में मातम मन रहा है। जिस सैन्य कार्रवाई की ये दुहाई दे रहे हैं वह कार्रवाई भी तब शुरू हुई जब इस्लामिक मूवमेन्ट के लोगों ने सेना के जनरल पर धावा बोल दिया था।

यह कत्लेआम जितना निंदनीय है उतना ही निंदनीय नाइजीरिया में शरीया लागू करनेवाले प्रयास भी हैं जिसके लिए सिर्फ बोको हरम ही नहीं बल्कि इस्लामिक मूवमेन्ट भी जिम्मेदार है जिसके अगुआ इब्राहिम जकजकी हैं। दोनों लोकतांत्रिक मूल्यों और सिद्धांतों के खिलाफ लड़ रहे हैं।

(फोटो: नाइजीरियाई इस्लामिक मूवमेन्ट के सर्वोच्च नेता इब्राहिम ज़कज़की)

Sunday, December 13, 2015

बुलेट ट्रेन पर बक बक

बैलगाड़ी के देश में बुलेट ट्रेन की बात की जाए तो आलोचना होना स्वाभाविक है। हमारे सामने रोजमर्रा से जुड़ी जिन्दगी की समस्याओं के ऐसे अंबार खड़े हैं कि बुलेट ट्रेेन की बात भी बेमानी लगती है। हम पहले गरीब के पेट में रोटी पहुंचाएं कि बुलेट ट्रेन चलाएं? आखिर एक लाख करोड़ का कर्ज हम कहां निवेश करें?

आप मुझसे पूछेंगे तो मैं कहूंगा बुलेट ट्रेन में ही निवेश करिए। अव्वल तो यह एक लाख करोड़ न हमारी पूंजी है और न ही हमें दान में मिल रही है। इसका अस्सी फीसदी हिस्सा एक सॉफ्ट लोन है जो जापान 0.1 के व्याज दर पर हमें एक परियोजना में लगाने के लिए दे रहा है। जाहिर है, वह पैसा दे रहा है तो उसे अपना पैसा वापस भी चाहिए। गरीबी उन्मूलम पर यह रकम खर्च करके हम जापान को वापस कैसे करेंगे? यह पैसा व्यवसाय के लिए मिल रहा है और जाहिर सी बात है यह वहीं खर्च किया जाएगा जहां से कमाकर अपनी कीमत वापस निकाल सके। बुलेट ट्रेन वह व्यवसाय है जिसमें जापान पूंजी निवेश करके कमाई करेगा। हालांकि इस मामले में जापान अपने कर्ज से उतना व्याज नहीं वसूल सकेगा जितना वह आमतौर पर लेता है लेकिन घाटे का सौदा तो नहीं ही है।

अब दूसरा सवाल यह है कि अगर यह पैसा बुलेट ट्रेन में लगाने की बजाय देश के मूल रेल ढांचे पर खर्च कर दिया जाए तो देश की ज्यादा बड़ी आबादी को फायदा पहुंचेगा फिर रोजाना महज 40 हजार यात्रियों की सुविधा के लिए इतनी बड़ी रकम क्यों खर्च की जा रही है? तो इसका जवाब होगा कि यह पैसा सिर्फ ट्रेन में नहीं तकनीकि में निवेश किया जा रहा है। वह तकनीकि जिसमें भारत चार दशक पीछे चल रहा है। भारत में ऐसे अनेक व्यावसायिक रूट हैं जिस पर व्यापारी वर्ग थोड़ा अधिक पैसा खर्च करके बुलेट ट्रेन का यात्री बन सकता है। भारत सरकार आनेवाले कुछ सालों में इन सभी रूट पर ट्रेनों की गति बढ़ानेवाली है और कुछ पर बुलेट ट्रेन भी चलानेवाली है। चीन, जापान और फ्रांस के साथ कई तरह के करार किये जा रहे हैं जो भारतीय रेलवे का कायाकल्प कर देंगे। ट्रेनों की औसत गति बढ़ाने, रेलवे स्टेशनों को नये सिरे से बनाने और हाईस्पीड कारिडोर बनाने का काम शामिल है।

रेलवे में सुधार की ये कोशिशें हर दौर में चलती रही हैं लेकिन लालू युग से इसमें तेजी आयी और मनमोहन सिंह के कार्यकाल में जितने भी रेलवे मिनिस्टर हुए उन्होंने बुलेट ट्रेन की बुनियाद को कमजोर करने की बजाय इसे और मजबूत किया। माधवराव सिंधिया ने जिस बुलेट ट्रेन का ख्वाब देखा था और पूंजी न जुटा पाने के अभाव में दिल्ली-आगरा-कानपुर रुट पर पहली बुलेट ट्रेन नहीं चला पाये थे उसे फिर से लालू प्रसाद यादव ने अपने बजटीय भाषण में शामिल किया। लालू इस बारे में इससे ज्यादा कुछ खास न कर सके लेकिन 2009 में जब दूसरी दफा मनमोहन सिंह प्राइम मिनिस्टर बने तो उन्होंने बुलेट ट्रेन की परियोजना को सिरे चढ़ाना शुरू किया। हाई स्पीड ट्रेनों के लिए रेल विकास निगम के तहत एक कंपनी बनाई गयी जो इन परियोजनाओं के निर्माण के प्रति जवाबदेह थी। कई रूट पर विचार किया गया जिसमें दिल्ली कानपुर, दिल्ली अमृतसर, और मुंबई अहमदाबाद का रूट शामिल था। मुंबई अहमदाबाद रूट को पहले पुणे से जोड़ने का विचार था जिसे बाद में त्याग दिया गया। इस समूची कवायद का मकसद सिर्फ इतना था कि पहली बुलेट ट्रेन किस रूट पर चलायी जाए कि वह घाटे का सौदा न बने। जाहिर है, मुंबई अहमदाबाद का हीरा रूट बुलेट ट्रेेन के लिए सबसे आकर्षक रूट था इसलिए चार साल की तैयारी के बाद मई 2013 में जापान सरकार के साथ समझौता हो गया और मुंबई अहमदाबाद रूट पर पहली बुलेट ट्रेन चलाने के लिए जापान सरकार ने मनमोहन सिंह को एक ट्रिलियन येन का सॉफ्ट लोन देने की हामी भी भर दी। अब जो हो रहा है वह सिर्फ पिछले सरकार के फैसले को लागू करने का काम हो रहा है। और अच्छा हो रहा है।

Friday, December 11, 2015

कश्मीर में आईटी क्रांति का आगाज

डॉ अमिताभ मट्टू का परिवार कश्मीरी पंडितों के उन आखिरी परिवारों में था जिन्होंने तब भी कश्मीर घाटी नहीं छोड़ा जब सब सब घाटी छोड़कर जा रहे थे। डॉ मट्टू का परिवार वहीं रहा। समय बीता और डॉ मट्टू ने जेएनयू से पढ़ाई पूरी करने के बाद वहीं अध्यापन शुरू किया। फिर जम्मू यूनिवर्सिटी के वाइस चॉसलर भी रहे। जिन्दगी में अब तक उन्होंने बहुत कुछ किया है लेकिन आज कश्मीर में वे जो कर रहे हैं वह शायद कश्मीर की तकदीर बदल दे।

डॉ मट्टू को ओमर अब्दुल्ला ने कश्मीर लौटने के लिए कहा था, डॉ मट्टू जब तक लौटते तब तक ओमर अब्दुल्ला कुर्सी से हट चुके थे। लेकिन वे लौटे और आज मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद के सलाहकार हैं। डॉ मट्टू के साथ मिलकर जम्मू कश्मीर सरकार घाटी में आईटी क्रांति लाने की कोशिश कर रहे हैं। कश्मीर के नौजवानों के लिए यह शायद सबसे बेहतर समाधान है। अगर जम्मू कश्मीर की सईद सरकार और मट्टू अपने अभियान में सफल रहे तो वह दिन दूर नहीं जब श्रीनगर की एक और खूबसूरत पहचान दुनिया को दिखाई देगी जो आज की पहचान से बिल्कुल अलग होगी। बंदूकों को अपनी पहचान बना चुके श्रीनगर में आज भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो बंदूक उठाने को आखिरी विकल्प समझते हैं लेकिन सईद और मट्टू की जोड़ी सफल रही तो दस साल में तस्वीर दूसरी होगी।

फिलहाल दिल्ली, मुंबई और चेन्नई की आईटी कंपनियों को न्यौता दिया जा रहा है कि वे श्रीनगर और जम्मू में आईटी कैंपस स्थापित करें। अनिल अंबानी की रिलांयस ने 3000 नौजवानों को नौकरी देनेवाले काल सेन्टर की बुनियाद भी रख दी है। अन्य कंपनियों को यहां आने के लिए प्रेरित किया जा रहा है।

जेएनयू में डॉ मट्टू अस्त्रविहीन समाज का विज्ञान पढ़ाते थे। अब उनके सामने मौका है कि वे उन सिद्धांतों को जमीन पर उतार सकें ताकि एक समाज शस्त्र छोड़कर अपने हाथों में तरक्की का शास्त्र पकड़ ले। उनकी आगाज अच्छा है। उम्मीद करिए अंजाम भी अच्छा ही हो।

Thursday, December 10, 2015

धमकी, चमकी और बातचीत

धमकी, चमकी और फिर बातचीत। भारत पाकिस्तान के बीच बीते बीस सालों से यही दिख रहा है। लेकिन इन बीस सालों में एक महत्वपूर्ण बदलाव आया है। खासकर कारगिल वार के बाद। अब बातचीत भारत की नहीं बल्कि पाकिस्तान की मजबूरी बन गयी है। कारगिल वार के बाद जहां पाकिस्तान सैन्य स्तर पर कमजोर हुआ है वहीं भारत की ताकत कई गुना बढ़ी है। आर्थिक मोर्चे पर भी पाकिस्तान भारत के सामने कहीं नहीं ठहरता। इन दो बातों के मद्देनजर पाकिस्तानी हुक्मरान जानते हैं कि भारत के साथ युद्ध कोई विकल्प नहीं बचा है। सैंतालिस, पैंसठ और इकहत्तर का दुस्साहस अब चाहकर भी पाकिस्तान नहीं कर सकता। ऐसे में भारत के साथ बातचीत के अलावा कोई विकल्प भी नहीं है।

लेकिन एक पेंच है। पाकिस्तान भारत से ही अलग होकर एक देश बना है जिसके मूल में टू नेशन थ्योरी है। ये टू नेशन हैं हिन्दू और मुसलमान। पाकिस्तान के हुक्मरान इस बात को पैंसठ साल में पचा नहीं पाये हैं कि एक देश बन जाने के बाद रिलिजन स्टेट सब्जेक्ट नहीं रह जाता। न तो आप रिलिजन के आधार पर देश चला सकते हैं और न ही सरकार। वो भी ऐसे देश को जहां मुसलमानों में रिलिजियस मेजोरिटी और माइनरिटी का बड़ा बंटवारा हो। पाकिस्तान की करीब आधी आबादी बरेलवी मुसलमानों की है। लेकिन बरेलवी मुसलमानों की बड़ी आबादी के बाद भी देओबंदियों की जमात सेना से लेकर प्रशासन और रिलिजियस एक्टिविटी तक सब जगह हावी हैं। ये देओबंदी जिस रेडिकल इस्लाम को तवज्जो देते हैं न तो वह बरेलवी को पसंद है और न ही शिया या अहमदिया को।

लेकिन भारत के साथ जब जब रिश्तों की बात आती है ये देओबंदी पाकिस्तान पर हावी हो जाते हैं। पाकिस्तान में जब भी भुट्टो खानदान कुर्सी पर रहा है भारत के साथ उसके संबंध उतने तल्ख नहीं रहे हैं क्योंकि तब पॉलिसी मेकिंग और उस पर अमल पाकिस्तान के शिया मुसलमान करते हैं।  लेकिन जैसे ही पाकिस्तान में रेडिकल देओबंदी हावी होते हैं टू नेशन थ्योरी को लागू करने लगते हैं। शरीफ परिवार सत्ता में आने के बाद कितनी भी शराफत दिखा ले लेकिन सत्ता में आने और बने रहने के लिए कट्टरपंथी देओबंदियों को अपने साथ मिलाकर रखता है।

सेना में देओबंदियों की दखल का नतीजा यह है कि भारत के साथ बातचीत की किसी पहल में वही टू नेशन थ्योरी आड़े आ जाती है जो बांग्लादेश बनने के साथ ही खत्म हो गयी थी। पाकिस्तान को ही नहीं भारत के हुक्मरानों को भी पाकिस्तान से बात करते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि पाकिस्तान की बहुसंख्यक आबादी कट्टर नहीं बल्कि सेकुलर है। हाफिज सईद या सेना के कमांडर पाकिस्तान नहीं है। इससे परे एक बहुत बड़ा पाकिस्तान है जो भारत से आवाजाही का रिश्ता चाहता है। रही बात पाकिस्तान की तो उसे आज नहीं तो कल इस टू नेशन थ्योरी के ख्वाब से बाहर निकलना ही होगा। नहीं निकलेगा तो जिस थ्योरी पर वह बना था वही थ्योरी उसे बिगाड़ भी देगी। हिन्दू और मुसलमान न तो कल दो राष्ट्र थे, न आज हैं और न आगे कभी होंगे।

इसलिए इधर नरेन्द्र मोदी हों कि उधर नवाज शरीफ। राजनीतिक रूप से दोनों ही रेडिकल हिन्दुत्व और रेडिकल इस्लाम की नुमांइदगी करते हैं। सत्ता में आने के लिए दोनों ने ही चरमपंथियों का इस्तेमाल किया है। अगर इधर कट्टरपंथी हिन्दूवाद की नाव पर बैठकर पूंजीवादी पतवार के सहारे मोदी सत्ता तक पहुंचे हैं तो उधर नवाज शरीफ ने भी यही किया है। पाकिस्तानी पंजाब के कुछ आतंकी संगठनों ने इस चुनाव में शरीफ को सपोर्ट किया था जिसमें लश्कर चीफ हाफिज सईद भी है और लश्कर-ए-झांगवी का सरगना मलिक इशहाक भी था। मलिक इशहाक अपनी मूर्खताओं के कारण मारा गया जबकि चालाक हाफिज सईद अभी भी मुरिदके से लाहौर, इस्लामाबाद और रावलपिंडी तीनों जगह अपनी दखल रखता है।

लेकिन नवाज और मोदी दोनों में एक दूसरी समानता भी है। दोनों अपने अपने देश में व्यापारी वर्ग का प्रतिनिधित्व भी करते हैं। इसलिए जैसे एक चालाक व्यापारी धार्मिक भावनाओं का इस्तेमाल व्यापारिक संभावनाओं के लिए करता है वैसे ये दोनों भी कर रहे हैं। इसमें कोई शक नहीं कि शरीफ भी मोदी की तरह पाकिस्तान का विकास चाहते हैं। लेकिन दोनों की मजबूरी यह है कि कट्टरपंथ के जिस घोड़े पर सवार होकर सत्ता तक पहुंचे हैं वह घोड़ा उनके दरवाजे पर  खड़ा है।

इसलिए अगर ये दोनों "शरीफ" बात करना चाहते हैं तो इसका स्वागत ही करना चाहिए। लेकिन दोनों बात ही करते रहेंगे इसकी उम्मीद भी मत करिए। दोनों को फिर से चुनाव में जाना है, और दोनों को अच्छी तरह पता है कि दरवाजे पर खड़ा उनका कट्टरपंथी घोड़ा अभी भी हिनहिना रहा है।

Monday, November 2, 2015

पाक दामन में हिन्दू दमन

तो क्या पाकिस्तान में दमन, उत्पीड़न, धर्मांतरण के खतरों के बाद भी हिन्दुओं की संख्या बहुत धीमी गति से, लेकिन बढ़ रही है? प्यू रिसर्च के कुछ आंकड़ों को सही मानें तो शायद हां।

बंटवारे के वक्त वेस्ट पाकिस्तान से हिन्दुओं और सिखों की कमोबेश पूरी आबादी भारत आ गयी थी। डॉ बीना डिकोस्टा की किताब नेशनलिज्म, जेंडर एण्ड वार क्राइम्स इन साउथ एशिया में कहती हैं कि बंटवारे के बाद 1951 में पाकिस्तान में कुल आबादी के 1.6 हिन्दू रह गये थे। जबकि ईस्ट पाकिस्तान में कुल आबादी के 22 फीसदी हिन्दू आबादी थी। ईस्ट और वेस्ट पाकिस्तान की कुल आबादी के 12.9 फीसदी थी जो दस साल में ईस्ट पाकिस्तान में तेजी से घटी और ईस्ट वेस्ट दोनों को मिलाकर 1961 तक 10.2 रह गयी।

बंटवारे के वक्त अगर वेस्ट पाकिस्तान में हिन्दुओं का सबसे बड़ा नरसंहार हुआ तो बंटवारे के बाद यह नरसंहार ईस्ट पाकिस्तान पहुंच गया जहां अभी भी 22 फीसदी बंगाली हिन्दू थे। डॉ डिकोस्टा इसका कारण बताती हैं बंगाली राष्ट्रवाद जो वेस्ट पाकिस्तान के हुक्मरानों को पसंद नहीं था। वेस्ट पाकिस्तान बंगाली राष्ट्रवाद को कुचलना चाहते थे ताकि ईस्ट पाकिस्तान को प्योर इस्लामिक राष्ट्र बनाया जा सके। और इसका जरिया उन्होंने कट्टर इस्लाम को बढ़ावा देकर किया जिसका खामियाजा आखिरकार वेस्ट पाकिस्तान को ही भुगतना पड़ा और ईस्ट पाकिस्तान बांग्लादेश बन गया।

जनरल टिक्का खान और प्रेसिडेन्ट अयूब खान ने बड़े पैमाने पर ईस्ट पाकिस्तान में कत्लेआम शुरु करवाया ताकि हिन्दुओं और बंगाली राष्ट्रवाद दोनों को कुचल दिया जाए। वेस्ट पाकिस्तान के इस आतंकवाद ने ईस्ट पाकिस्तान में हिन्दुओं की करीब आधी आबादी को या तो जान से हाथ धोना पड़ा या फिर वे शरणार्थी बनकर भारत आ गये। 1974 में बांग्लादेश के पहले जनसंख्या सर्वे में हिन्दू आबादी घटकर 13.5 प्रतिशत रह गयी थी। जो आज 2011 की जनगणना के मुताबिक 8.2 से 9.6 के बीच है।

यहां गौर करने लायक बात यह है कि अगर बंटवारे के बाद वेस्ट पाकिस्तान में जो हिन्दू आबादी बची उसमें बहुत धीमी बढ़त दिख रही है तो बांग्लादेश में यह लगातार गिर क्यों रही है? अगर वेस्ट पाकिस्तान कट्टर था तो 71 के बाद भी बांग्लादेश की हिन्दू आबादी में गिरावट क्यों दर्ज की जा रही है। उसका जवाब है शायद अमीरी और गरीबी। वेस्ट पाकिस्तान में जो हिन्दू बचे हैं उनमें दो तिहाई जातीय हिन्दू यानी दलित हैं बाकी आदिवासी। इनमें कमोबेश सारे हिन्दू सिन्ध और बलोचिस्तान में बसते हैं जहां कट्टरता का बोलबाला वैसा नहीं है जैसा पंजाब या पख्तूनवा में। शिया और बलोच बहुल इन इलाकों में आदिवासी या नीची जाति के हिन्दू शायद इसलिए बचे हुए हैं क्योंकि वे इस्लाम के लिए फिलहाल कोई खतरा नहीं है। जबकि बांग्लादेश में हिन्दुओं की बंगाली आबादी पढ़ी लिखी और व्यापारी समुदाय थी जिसे जानबूझकर निशाना बनाया गया क्योंकि इस्लाम को इनसे खतरा था।

इसलिए प्यू रिसर्च का यह आंकड़ा सही होते हुए भी कि वर्तमान पाकिस्तान में हिन्दुओं की आबादी घटने की बजाय बढ़ रही है और 2050 तक कुल आबादी का 2 फीसदी हो जाएगी, बहुत आशाजनक नहीं है। 1951 में भी हिन्दू कुल आबादी के 1.6 फीसदी थे और आज भी कुल आबादी के 1.6 फीसदी हैं। फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि अगले पैंतीस साल में वे बढ़ ही जाएंगे? प्यू रिसर्च का कहना है कि पाकिस्तान में प्रति महिला हिन्दू बच्चों की जन्मदर वही है जो भारत में मुसलमान बच्चों का है। लेकिन सवाल यह है कि जो बच्चे पैदा होते हैं क्या उन्हें सुरक्षित पलने बढ़ने का मौका मिलता है? पाकिस्तान के हालात देखकर ऐसा बिल्कुल नहीं कहा जा सकता। अल्पसंख्यकों में आत्विश्वास पैदा करने, उनको मुख्यधारा का हिस्सा बनाने के लिए उसे बहुत कुछ करना है।
पाकिस्तान में हिन्दू, ईसाई और मुस्लिम अल्पसंख्यकों के खिलाफ जो हिन्सा हो रही है उसी के कारण धार्मिक सहिष्णुता की लिस्ट में वह सबसे निचले पायदान पर है। एक देश के तौर पर उसे अपने अतीत ही नहीं वर्तमान से भी बाहर निकलना होगा जहां कायदे आजम के सेकुलर पाकिस्तान का स्वप्न साकार हो सके।

Wednesday, October 28, 2015

अपने ही उसूलों के विरोधाभाषों में फंसा इस्लाम

राशिद अहमद गंगोई और मुहम्मद कासिम ननोत्वी। दोनों की पैदाइश उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में हुई। 1857 की असफल क्रांति के बाद दोनों इस्लाम में पुनर्जागरण के लिए प्रयासरत थे इसलिए देओबंद में दारुल उलूम की स्थापना की। सुन्नत और शरीया के आधार पर ब्रिटिश हुक्मरानों के खिलाफ मुसलमानों को एक करने का बीड़ा उठाया। सुन्नी इस्लाम के चार स्कूलों में दारुल उलूम ने हनफी स्कूल को अपना रास्ता बनाया।

आला हजरत अहमद रजा खान बरेलवी। जन्म: बरेली। मूल रूप से अफगानिस्तान के दुर्रानी पख्तून परिवार में पैदा होनेवाले अहमद रजा खान ने देओबंदी मुस्लिम मूवमेन्ट की खिलाफत करते हुए बरेलवी मुस्लिम मूवमेन्ट की शुरूआत की। आला हजरत ने जिस मुस्लिम मूवमेन्ट की शुरूआत की वह भी सुन्नी इस्लाम के हनफी स्कूल के तहत ही था लेकिन देओबंदी और बरेलवी में एक फर्क था। देओबंदी सऊदी अरब के बहावी मूवमेन्ट को अपना आदर्श मानता है जबकि बरेलवी की धार्मिक शिक्षाओं में सूफीज्म का जोर है और वे सऊदी अरब की तरफ ताकने की बजाय अपनी शिक्षाओं में स्थानीय समाज और परिवेश को महत्व देते हैं।

साल 1947। देश बंटा। दक्षिण एशिया में सुन्नी इस्लाम के दोनों बड़े मदारिस भारत में रह गये। आजादी से पहले का मिश्रित सभ्यता वाला पाकिस्तान आजादी के बाद सुन्नी पाकिस्तान हो गया। शासन, प्रसाशन और सेना में सिन्ध के शिया धीरे धीरे कमजोर पड़ते गये औप पंजाबी सुन्नी हावी होते गये। सुन्नी इस्लाम के हनफी स्कूल के दो विचारधाराओं देओबंदी और बरेलवी में आज पाकिस्तान में बरेलवी मुसलमानों की तादात सबसे ज्यादा है। पाकिस्तान की की करीब आधा आबादी बरेलवी है। 20 प्रतिशत के करीब देओबंदी हैं 18 फीसद शिया हैं और 4 फीसद अहले हदीस।

लेकिन पाकिस्तान की जमीनी हकीकत यह है कि सुन्नी मुसलमानों में देओबंदियों का सबसे ज्यादा जोर है। बहुसंख्यक होने के बावजूद बरेलवी पाकिस्तान में वह असर नहीं रखते जो देओबंदी रखते हैं। देओबंदियों का भी दो धड़ा है जिसमें से एक के मुखिया हैं मौलाना फजलुर्रहमान है। जबकि दूसरे धड़े के मुखिया हैं मौलाना शमीउल हक। मौलाना शमी उल हक पाकिस्तान के सबसे बड़े देओबंदी मदरसे दारुल उलूम हक्कानिया के हेड हैं। उन्हें पाकिस्तान में फादर आफ तालिबान भी कहा जाता है। पाकिस्तान का सबसे ताकतवर मदरसा और तालिबान का दीनी कारखाना देओबंद हक्कानिया दारुल उलूम देओबंद की शिक्षाओं पर चलता है। भारत का मोस्ट वांटेड अपराधी हाफिज सईद पाकिस्तान में उस देओबंदी इस्लाम का सबसे बड़ा पैरोकार है जिसके चीफ शमीउल हक हैं।

हालांकि दारुल उलूम की शुरुआत ब्रिटिश हुक्मरानों के खिलाफ मुसलमानों को गोलबंद करने के लिए की गयी थी इसलिए भारत में दारुल उलूम आज भी हिन्दू मुस्लिम एकता की दुहाई देता है और बंटवारे का विरोध करता है लेकिन उसी की शिक्षाओं के आधार पर पाकिस्तान में बने मदरसे हिन्दुओं और भारत को अपना सबसे बड़ा दुश्मन घोषित करते हैं। देओबंदी मुसलमानों के विरोध में जो बरेलवी मुवमेन्ट शुरू हुई वह पाकिस्तान में बहुसंख्यक हैं और बहावी के खिलाफ है लेकिन पाकिस्तान सरकार बहावियों को अपना माई बाप मानती हैं।
भारतीय उपमहाद्वीप में इस्लाम का इतिहास और वर्तमान ऐसे ही विरोधाभाषों से भरा पड़ा है।

Sunday, October 25, 2015

पाकिस्तान में मुहर्रम का मातम

इधर भारत में मोहर्रम के दिन मातम चौदह सौ साल पुराना ही रहा लेकिन उधर पाकिस्तान के जकोबाबाद में एक शिया मस्जिद पर एक आत्मघाती हमलावर ने 22 काफिरों को दोजख भेजने के बाद खुद जन्नत चला गया. मोहर्रम का मातम मौत के मातम में तब्दील हो गया.

सिंध सरकार हरकत में आती इससे पहले ही पंजाब का आतंकी संगठन लश्कर-ए-झांगवी हरकत में आ गया और उसने कहा "धर्म" का यह काम उसने किया है. लेकिन थोड़ी ही देर बाद सिंध सरकार हरकत में आयी तो उसने लश्कर से बड़ा धमाका किया. सिंध के होम मिनिस्टर ने दावा किया कि हमला रॉ की साजिश है.

होम मिनिस्टर साहब की कोशिश गलत नहीं है. पाकिस्तान में अमूमन हर आतंकी हमला रॉ की साजिश ही करार दिया जाता है. फेडरल गवर्नमेन्ट जब सिन्ध में किसी जेबकतरे को पकड़ती है तो उसे भी रॉ का एजंट बता देती है. पाकिस्तान के शिया, अहमदिया और मोहाजिर मुसलमान तो घोषित तौर काफिर और इंडिया के एजंट होते ही हैं. लेकिन इस बार मजेदार यह है कि सिंध के होम मिनिस्टर जिस लश्कर-ए-झांगवी के हमले को रॉ की करतूत बता रहे हैं वह नवाज शरीफ का चुनाव में समर्थन कर चुका है.

पंजाब का यह सुन्नी आतंकवादी संगठन सिन्ध और शिया मुसलमानों पर आतंकी हमलों के लिए बदनाम है. पंजाब के दूसरे आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तैयबा और लश्कर-ए-झांगवी के बीच खुद को बड़ा साबित करने की होड़ चलती रहती है. झांगवी के अमीर मलिक इशाक की हत्या के बाद झांगवी अपने वजूद की जंग लड़ रहा है. इसलिए इस बात की पूरी संभावना है कि आनेवाले दिनों में वह शिया और अहमदिया मुसलमानों के खिलाफ हमले तेज करेगा ताकि लश्कर-ए-तैयबा पर लीड ले सके।

Friday, October 23, 2015

शरीफ सरकार के गुड तालिबान

अच्छा! तो शरीफ साहब पंजाबी तालिबान के खिलाफ कार्रवाई करेंगे? अगर आप ऐसा सोच रहे हैं तो आप ऐसा ख्वाब देख रहे हों जो कभी हकीकत ही नहीं बन सकता. पाकिस्तान में पंजाबी तालिबान का मतलब सेना और सरकारी संगठन का ऐसा गठजोड़ होता है जिसे तोडयने का मतलब है पाकिस्तान टूटने का खतरा पैदा हो जाएगा. क्यों हो जाएगा, इसको समझने के लिए तालिबान की फैक्ट्री को देखना जरूरी है जो पाकिस्तान के पंजाब में चलती है. 

जरा यहां साथ में दी गयी फोटो को गौर से देखिए. तीन लोगों की इस फोटो में दो  चेहरे नजर आ रहे हैं. एक चेहरा कोई अनजाना नहीं है. लेकिन जो चेहरा अनजाना है और ठीक आपकी तरफ देख रहा है वाे उस आतंकी सरगना से बड़ा रसूख रखता है जिसे दुनिया हाफिज सईद के नाम से जानती है.

ये है मौलाना समी उल हक देओबंदी उर्फ मौलाना सैंडविच. मौलाना सैंडविच को पाकिस्तान में फादर आफ तालिबान कहा जाता है. अफगानिस्तान में सोवियत संघ से जंग के लिए जनरल जिया ने आईएसआई के हामिद गुल और कर्नल सुल्तान अमीर तरार की अगुवाई में जो टीम बनाई थी उसने तालिबान की स्थापना के लिए इन्हीं मौलवी को अपना मोहरा बनाया था. मौलाना सैण्डविच न सिर्फ अफगान तालिबान के हेड रहे मुल्ला उमर के उस्ताद रहे बल्कि हाफिज सईद के इस्लामिक आका यही हैं.

मौलाना सैंडविच पाकिस्तान के दारुल उलुम हक्कानिया (देओबंदी) के चांसलर हैं जहां से अफगान तालिबान, हक्कानी नेटवर्क और लश्कर ए तोएबा पैदा हुए हैं. दारुल उलूम हक्कानिया इस्लाम का वही जिहादी पाठ पढ़ाता है जो पढ़ते ही तालिब तालिबान बन जाता है. बेनजीर भुट्टो की हत्या में दारुल उलूम हक्कानिया का नाम आ चुका है जो बहुत हद तक सही लगता है. क्योंकि यह बेनजीर भुट्टो ही थीं जिन्होंने पीएम रहते आईएसआई के भीतर तालिबानी मूवमेन्ट पर रोक लगाने की कोशिश की थी.

बिना शक दारुल उलूम हक्कानिया ही पाकिस्तान में तालिबानी आतंकवाद का मदर इंस्टीट्यूशन है जिसके हेड मौलाना सैंडविच है. आप मुल्ला उमर को मार दीजिए, हाफिज सईद को मार दीजिए उससे क्या फर्क पड़ेगा? जब तक दारुल उलुम हक्कानियां जैसे इस्लामिक मदरसे और मौलाना सैंडविच जैसे चांसलर जिन्दा हैं पाकिस्तान में तालिबान पैदा होते रहेंगे. ये पाकिस्तान के वही गुड तालिबान हैं जो सरकारें बनाने बिगाड़ने का खेल करते हैं. इनका खेल बिगाड़ने की कोशिश की गयी तो शरीफ का खेल बिगड़ते देर नहीं लगेगी.

वैसे भी शरीफ सरकार से यह उम्मीद करना कि वे पंजाबी तालिबान को खत्म करने का काम करेंगे शेखचिल्ली के किस्से जैसी हकीकत है. जिन पंजाबी तालिबानियों की मदद से वे सरकार में आये हैं उनके खिलाफ कार्रवाई करेंगे? भूल जाइये.

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