Tuesday, December 29, 2009

कांग्रेस के सवा सौ साल

कांग्रेस की पहली बैठक
कांग्रेस शब्द की उत्पत्ति उस समय के साम्राज्यवादी देश इंग्लैण्ड की बजाय वर्तमान के साम्राज्यवादी देश अमेरिका में हुई. मूल लातिन के कांन+ग्रादि का अपभ्रंस कांग्रेस शब्द का इस्तेमाल अमेरिका के विभिन्न राज्यों को एकीकृत करने के लिए होने वाली बैठकों के लिए किया गया और कांग्रेस शब्द के रूप में शायद पहली बार 1621 में प्रयुक्त किया गया.

बाद में यह शब्द यूरोप में भी काफी प्रचलित हुआ और उन्नीसवी सदी के उत्तरार्ध में इसी नाम से भारत में एक राजनीतिक दबाव समूह का गठन हुआ जिसका नाम रखा गया इंडियन नेशनल कांग्रेस. आज से सवा सौ साल पहले के देश की कल्पना करें तो औसत भारतीय का मानस आज से बहुत भिन्न रहा होगा ऐसा नहीं है. उस वक्त भी हम अपने समाज और अपने लोगों को प्रतिष्ठा नहीं देते थे, आज भी नहीं देते हैं. 1857 की क्रांति के बाद क्या राजनीतिक रूप से भारत में कोई समूह कार्यरत हो सकता था? आखिर ऐसा क्या कारण था कि ब्रिटिश गवर्नर डफरिन की इजाजत से स्काटिश अधिकारी एलेन ओक्टेवियन ह्यूम ने जो पहल की उसे ही तत्कालीन बुद्धजीवियों ने राजनीतिक विकल्प माना? व्योमेश चंद्र बनर्जी की अध्यक्षता में मुंबई में कांग्रेस की जो पहली बैठक हुई उसमें शामिल होने वाले 72 प्रतिनिधि देश को राजनीतिक रूप से मुखर करनेवाले लोग नहीं थे. संभवत: वे ब्रिटिश राज में जिस तरह की प्रतिष्ठा चाहते थे कांग्रेस पार्टी उनको यह मौका दे रही थी. आज के संदर्भों में इसे समझना हो तो आप ऐसे समझ सकते हैं कि जैसे किसी अमेरिकी संस्था की मानद सदस्यता पाने के लिए कोई भारतीय जोड़-तोड़ करे. सम्मान और प्रतिष्ठा उस वक्त ब्रिटिश साम्राज्य के साथ ही जुड़ा हुआ था इसलिए एक ब्रिटिश अधिकारी की पहल को पूरा पूरा सम्मान मिला.

28 से 31 दिसंबर तक मुंबई में हुई पहली बैठक का भारतीय जनमानस और समस्याओं से कितना गहरा लगाव था इसे आप इसी उदाहरण से समझ सकते हैं कि यह बैठक पुणे में होनी थी लेकिन उस वक्त पुणे में प्लेग का प्रकोप था इसलिए बैठक का स्थान बदलकर मुंबई कर दिया गया. स्थापना के शुरूआती दिनों में कांग्रेस का कैरेक्टर मुंबई प्रांत के नेताओं से ही निर्धारित होता रहा इसलिए अगले लगभग दो दशक तक इस दल की कोई राष्ट्रव्यापी मौजूदगी नहीं हुई. क्योंकि कांग्रेस राजनीतिक प्रतिष्ठा पाने का मंच था इसलिए इसमें वे सभी बुद्धिजीवी राजनीतिज्ञ जुड़ते चले गये जो ब्रिटिश साम्राज्य का कृपा पात्र बनना चाहते थे. लेकिन नियति का अपना नियम होता है. वह कब कहां से कौन सा रास्ता खोल देगी कोई नहीं जानता. भारतीय मानसिकता को फ्रेम करने के लिए गवर्नर डफरिन ने जिस कांग्रेस की स्थापना को मंजूरी दिया था, उन्नीसवीं सदी के पहले दशक में उसी कांग्रेस ने अपने अंदर से विरोध की वह चिंगारी पैदा कर ली जिसे दबाने के इसका गठन किया गया था. 1894 में ए ओ ह्यूम भारत छोड़कर वापस लंदन चले गये जहां 1912 में उनकी मृत्यु हो गयी. 1907 तक कांग्रेस में दो विचारधाराएं स्पष्ट रूप से उभरकर सामने आ गयी थीं. एक विचारधारा थी गरम दल और दूसरी विचारधारा थी नरम दल. पक्षी विशेषज्ञ एओ ह्यूम की राजनीतिक पहल ने पहली दफा राजनीतिक स्वरूप अख्तियार करना शुरू कर दिया था. गोपालकृष्ण गोखले के नरम दल और बाल गंगाधर तिलक के गरम दल ने कांग्रेस को राजनीतिक शक्ल देना शुरू कर दिया.

कांग्रेस की स्थापना के सवा सौ साल बाद जब हम गैर कांग्रेसवाद की बात करते हैं तो उसका अर्थ होना चाहिए कांग्रेस का विकल्प. देश के दुर्भाग्य से कोई भी राजनीतिक दल इस कसौटी पर खरा उतरता दिखाई नहीं देता. खुद भारतीय जनता पार्टी कांग्रेस का विकल्प बनने की बजाय कांग्रेस की हमशक्ल बनना चाहती है.
1907 से 1915 तक कांग्रेस की राजनीति इन्हीं दो धड़ों के बीच बंटी रही. 1915 में कांग्रेस में गांधी युग शुरू होने से पहले बाल गंगाधर तिलक, गोपालकृष्ण गोखले, बिपिन चंद्र पाल, लाला लाजपत राय और मोहम्मद अली जिन्ना कांग्रेस के कर्णधार बने रहे. लेकिन 1915 में कांग्रेस में गांधी के पदार्पण के साथ ही कांग्रेस से ए ओ ह्यूम की आत्मा सदा सर्वदा के लिए समाप्त हो गयी. महात्मा गांधी भी उन्हीं लोगों में से थे जो विदेश सिर्फ इसलिए पढ़ने गये थे क्योंकि विदेश में पढ़नेवाले को उस वक्त अतिशय सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था और उसकी कमाई भी बहुत अच्छी होती थी. आज की तरह उस समय तकनीकि का बोलबाला नहीं था इसलिए विदेशी भूमि से डिग्री पाने के लिए कानून ही सबसे उर्वर जमीन होती थी. भारत के तत्कालीन अधिकांश नेताओं की तरह गांधी के पिता भी उन्हें एक सफल बैरिस्टर बनते हुए देखना चाहते थे. अपने जीवन के शुरूआती दिनों में गांधी अपने पिता के अनुसार सफल जीवन जीते भी रहे लेकिन जल्द ही उनके ऊपर उनके पिता की बजाय सृष्टि के सर्वव्यापी पिता की मर्जी प्रभावी हो गयी. जिस ब्रिटिश प्रणाली में प्रतिष्ठा की खोज करने गांधी विदेश गये थे अब उसी ब्रिटिश साम्राज्य को जड़ से उखाड़ देने के लिए नियति ने उन्हें महात्मा की उपाधि सौंप दी थी.

1915 से 1947 तक कांग्रेस का इतिहास आजादी के आंदोलन के एकमात्र राजनीतिक दल का इतिहास है. लेकिन 1947 के बाद अखिल भारतीय कांग्रेस का इतिहास मात्र एक राजनीतिक दल का इतिहास हो जानेवाला था. संभवत: महात्मा गांधी ने इसीलिए कांग्रेस को विसर्जित करने का भी सुझाव दिया था. ऐसा नहीं है कि 1907 से कांग्रेस में अलग अलग विचारधाराओं का जो टकराव शुरू हुआ वह 1915 के बाद बंद हो गया. फिर भी कांग्रेस बिना किसी संदेह के सबके लिए एक प्रतिनिधि दल था. ब्रिटिश साम्राज्य ने जिस राजनीतिक चेतना को डिफ्यूज करने के लिए कांग्रेस को औजार की तरह चलाया था वही अब अपनी पूरी मारक क्षमता के साथ ब्रिटिश साम्राज्य पर ही प्रहार कर रहा था. 1947 में ब्रिटिश उपनिवेशवाद से छुटकारा मिलने के बाद कांग्रेस एक राजनीतिक दल के रूप में देश के सामने था. उपनिवेशवाद से मुक्ति के बाद भारत को विरासत में जो कांग्रेस मिली लंबे समय तक लोगों का उसके प्रति जुड़ाव पूरी तरह से भावनात्मक बना रहा. बीसवीं सदी के उत्तरार्ध तक गांव-घर के बड़े बुजुर्ग कांग्रेस को महात्मा गांधी की कांग्रेस ही समझते रहे और दुहाई देते रहे कि जिस पार्टी ने देश को आजाद करवाया आज उसे ही लोग सम्मान नहीं दे रहे हैं. लेकिन इक्कीसवी सदी में अब न वे लोग बचे हैं जो आजादी के आंदोलन से कांग्रेस को जोड़कर खुद भावनात्मक रूप से जुड़े रह सकें और न ही वह झूठ बचा है कि जो उस कांग्रेस और इस कांग्रेस के बीच एक महीन धागे के रूप में जुड़ा हुआ बताया जाता था.

उपनिवेशवाद के खात्मे के साथ ही देश में गैर कांग्रेसवाद की राजनीति ने भी आकार लेना शुरू कर दिया. देश में गैर कांग्रेसवाद की राजनीति पर सोचेंगे तो दो नाम सबसे अहम दिखाई देंगे. एक, श्यामा प्रसाद मुखर्जी और दो, डॉ राममनोहर लोहिया. ये दो नाम ऐसे हैं जो कांग्रेस के धरातल से पूरी तरह दूर जाकर देश में विपक्ष की स्थापना करना चाहते थे. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की धारा आगे चलकर लगातार मजबूत होती गयी और आज भारतीय जनता पार्टी के रूप में उस धारा का दूसरा सबसे बड़ा राजनीतिक दल देश में मौजूद है जबकि राममनोहर लोहिया की धारा लगातार बिखरती चली गयी. आज जो अपने आप को लोहिया के लोग कहनेवाले भी कांग्रेस के अहाते में ही शरण पाना चाहते हैं. साठ सालों में राजनीति भी विचार और व्यवहार से हटकर सत्ता और सौदेबाजी का सब्जेक्ट हो गया है इसलिए अब गैर कांग्रेसवाद जैसा शब्द उतना आकर्षित नहीं करता जैसा सत्तर और अस्सी के दशक में करता था. अटल बिहारी वाजपेयी जैसा धैर्य भी किसी राजनीतिज्ञ में नहीं दिखता जो लंबे समय तक इस बात की प्रतीक्षा करता है कि उसे देश में पहली गैर कांग्रेसी सरकार देनी है. सच्चे अर्थों में अटल बिहारी वाजपेयी ने यह काम किया और देश को छह साल तक विशुद्ध गैर कांग्रेसी सरकार दिया. लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी के युग के अवसान के साथ ही एक बार फिर गैर कांग्रेसवाद किनारे कर दिया गया.

आज कांग्रेस की स्थापना के सवा सौ साल बाद एक बार फिर यह अहम सवाल सामने है कि क्या देश में गैर कांग्रेसवाद है? कांग्रेस की आज जो राजनीति दिख रही है वह केन्द्र में अगली दो सरकारों तक डटे रहने की राजनीति है. कोई चमत्कार न हो तो फिलहाल अगले दो आमचुनाव में कांग्रेस को टक्कर देता कोई दिखाई भी नहीं दे रहा है. विपक्ष के नाम पर जो भी राजनीतिक दल हैं वे सत्ता के जूठन से ज्यादा कोई राजनीतिक सोच नहीं रखते हैं. वामपंथी दलों की अपनी कोई खास निष्ठा नहीं है. वे कांग्रेस के साथ यथास्थितिवाद में ज्यादा विश्वास करते हैं इसलिए उनकी चर्चा करने का कोई तुक नहीं है. और खुद भाजपा कांग्रेस का राजनीतिक विकल्प बनने की बजाय कांग्रेस का राजनीतिक हमशक्ल बनने में ज्यादा दिलचस्पी रखती है. हो सकता है भाजपा के नेता इसी में अपना उद्धार देखते हों. लेकिन सवा सौ साल बाद क्या सचमुच इस देश में गैर कांग्रेसवाद के लिए कोई जगह नहीं बची है? अगर है तो फिर उसे हमारे राजनीतिक दल पहचान क्यों नहीं पा रहे हैं? और अगर नहीं है तो फिर उसे बनाने की कोशिश क्यों नहीं कर रहे हैं जैसे लोहिया और श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने किया था. राजनीतिक दलों को यह समझना होगा कि अगर देश में लोकतंत्र को मजबूती से टिके रहना है तो गैर कांग्रेसवाद को उससे अधिक मजबूती से मौजूद रहना होगा.

Thursday, November 26, 2009

पूंजीवाद को पटखनी देने की कमजोर कोशिश

21 नवंबर को जिस वक्त भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह नई दिल्ली अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे से अपने विशेष विमान द्वारा अमेरका के लिए उड़े तो वहां उन्होंने अगले चार दिनों तक ओबामा प्रशासन के साथ जो तालमेल किया वह भारत में गहराते पूंजीवाद को और मजबूती से धंसाने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम साबित हुआ. खुद अमेरिकी राष्ट्रपति ने स्वीकार किया कि भारत बिनाशक अमेरिका का रणनीतिक साझीदार है.

लेकिन जिस वक्त भारत के प्रधानमंत्री अमेरिका में पूंजीवाद को गहराने की योजनाओं को अंजाम दे रहे थे उसी समय नई दिल्ली में दुनियाभर के कम्युनिस्ट भी इकट्ठा थे. भारत के प्रधानमंत्री से उलट वे पूंजीवाद को पटकने की योजनाओं को साझा कर रहे थे. भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों सीपीआई और सीपीआईएम के लिए यह बहुत ही शानदार मौका था जब वे ग्यारहवें कम्युनिस्ट एण्ड वर्कर सम्मेलन को आयोजित करने के लिए आगे आये. तीन दिनों तक आयोजित किये गये इस अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन के सामने मुख्य रूप से कम्युनिस्ट पार्टियों ने अपने छीजते जनाधार को बचाने और पूंजीवाद के आधार को कमजोर करने की दिशा में विचार विमर्श किया गया. दुनिया के 65-67 देशों के 80 से अधिक कम्युनिस्ट पार्टियों ने इस सम्मेलन में हिस्सा लिया और निश्चित रूप से उन्होंने वही घोषणा की जिसे उन्हें करना चाहिए था. पूंजीवाद को पटक देंगे. सम्मेलन में आये लब्ध प्रतिष्ठित कम्युनिस्टों का इरादा तो नेक है लेकिन पटखनी देने की तमन्ना भी नेक है लेकिन यह काम वे करेंगे कैसे? सीपीआई (एम) के महासचिव प्रकाश कारत ने कहा-"संघर्ष से हम पूंजीवाद को पछाड़ देंगे."

पूंजीवाद को पछाड़ने की यह प्रकाशमयी दहाड़ पूरी तरह से वास्तविक लग सकती अगर पूरी दुनिया में साम्यवाद को आज भी एक बेहतर विकल्प के रूप में देखा जाता. पूर्वी यूरोप और सोवियत संघ के प्रतिनिधि भी इस सम्मेलन में आये थे. और उनकी तकलीफ यह है कि अब स्थानीय जनता उन्हें अतीत का हिस्सा मानने लगी है. प्रकाश कारत ने इस मौके पर आयोजित रैली में कहा भी कि "समाजवाद के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं है और हम इसे लोगों के सामने रखेंगे." लेकिन लोग तो साम्यवाद के तरीके से निकले समाजवाद की ओर अब संभावना भरी नजरों से देखते भी नहीं. खुद भारत में जहां इस साल यह सम्मेलन आयोजित किया गया वहां कम्युनिस्ट पार्टियां कमजोर हुई हैं और हाल में ही बीते लोकसभा चुनाव में कम्युनिस्ट पार्टियों को कुल मिलाकर 25 सीटें हासिल हुई हैं जो कि पिछले लोकसभा चुनाव के 61 के मुकाबले आधे से भी कम है. क्या फिर भी हमें कम्युनिस्ट पार्टियों के इस पवित्र संकल्प पर पुनर्विचार करना चाहिए कि वे पूंजीवाद को पटकने में सक्षम हैं?

जिन प्रमुख देशों के प्रतिनिधि आये उनमें रूस, चीन, जापान, मिश्र, पुर्तगाल, फ्रांस, जर्मनी, वियेतनाम, उत्तर कोरिया, क्यूबा, अर्जेंटीना, वेनेजुएला और ब्राजील से आये प्रतिनिधि भी शामिल थे. कमोबेश इन देशों में पूंजीवाद की वैसी स्वीकार्यता सिद्धांतरूप में नहीं है कि उन्हें अमेरिका का पिछलग्गू कह दिया जाए लेकिन इन देशों में भी विकास का जो माडल काम कर रहा है वह वही है जिसे पूंजीवाद कहते हैं. अभी हाल में ही साम्यवाद के नये नेता चीन ने अपने नये प्रशासन के साठ साल पूरे किये हैं. साठ साल पूरे होने के मौके पर देश के जो कम्युनिस्ट समर्थक चीन गये थे उन्होंने भी चीन की प्रगति और विकास की भूरि भूरि प्रशंसा की. चीन ने विकास का जो माडल अपनाया है वह पूंजीवाद का चरम है. चीनी प्रशासन विकास को जारी रखने के लिए हर प्रकार से नवीनतम तकनीकि को बढ़ावा देता है और औद्योगीकरण का वह स्वरूप सामने रखता है जिसमें केन्द्रीकरण, बाजार पर अधिपत्य, समाज और पर्यावरण का विनाश तीनों शामिल है. फिर भी वर्तमान समय में चीन न केवल साम्यवादी बना हुआ है बल्कि पूरी दुनिया के साम्यवादियों का आदर्श नेता भी है. भारत से प्रकाशित होने वाले अखबार द हिन्दू के संपादक 60 साला उत्सव को कवर करने जब चीन गये थे और 2 अक्टूबर 2009 को अहोभाव में उन्होंने लिखा था- -"थियामेन चौक पर 33 मिनट तक चले फायरवर्क और नृत्य, गीत, संगीत ने बीजिंग ओलंपिक की याद दिला दी है. जब मैं यह लिख रहा हूं, यहां थियामेन चौक पर शाम काफी जवान है." जवान शाम की मदहोशी में डूबे दुनिया के कम्युनिस्ट वर्कर और समर्थक पूंजीवाद से लड़ने की बात करते तो हैं लेकिन बदले में परिस्कृत पूंजीवाद ही सामने रख देते हैं. यह बिल्कुल वैसे ही है जैसे भारत सरकार महात्मा गांधी को अपना आदर्श मानते हुए भी विकास के वैश्विक मानचित्र पर छा जाने की तमन्ना रखता है.

दिल्ली में कम्युनिस्ट पार्टियों के संकल्प से शायद ही किसी को समस्या हो. लेकिन सवाल यह भी है कि संकल्प करेनवाले आखिर कौन हैं? पिछले तीन चार सालों में साम्यवाद के समसे मजबूत गढ़ पश्चिम बंगाल में औद्योगीकरण को चीन की तर्ज पर जिस तरह से जबरी थोपने की कोशिश की गयी उसकी प्रतिक्रिया इतनी तीव्र है कि सबसे मजबूत गढ़ के ही गिर जाने का खतरा पैदा हो गया है. फिर भी शब्द रूप में ही सही 'पूंजीवाद' का पराजय ही साम्यवादी आंदोलन का आधार है. इस मौके पर आयोजित एक रैली को संबोधित करते हुए सीपीआई के महासचिव ए बी वर्धन ने कहा-"पूंजीवाद का जोर पुरजोर है. वर्तमान समय में भारत में जो पूंजीवादी अजगर संकट बनकर सामने खड़ा है वह कीमतों में आ रही बढ़ोत्तरी है. ऐसा सिर्फ इसलिए हो रहा है क्योंकि भारत में विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की मौद्रिक नीतियों को लागू किया गया है." अभी ए बी वर्धन की बात को पूरी तरह से पचा पायें इससे पहले प्रकाश कारत इसकी अगली कड़ी जोड़ते हैं-"अमेरिका के साथ भारत की बढ़ती नजदीकी हम स्वीकार नहीं करते. न तो रणनीतिक और न ही सामरिक." साम्यवाद का विरोध अमेरिका विरोध पर आकर सिमट जाता है और शायद यही कारण है कि पूंजीवाद को पटकने की उनकी आवाज ध्यानाकर्षण भी नहीं कर पाती है.

फिर भी, पिछले ग्यारह सालों से पूरी दुनिया के कम्युनिस्ट किसी एक साझा मंच पर आ रहे हैं. सोवियत रूस के टूटने के दशकभर बाद 1999 में पुरातात्विक शहर और ग्रीस की राजधानी एथेन्स में ऐसे मेल जोल की शुरूआत की गयी थी. अगले सात सालों तक कुछ देशों के कम्युनिस्ट नेता यहीं मिलते रहे लेकिन सात साल बाद यह निर्णय हुआ कि अब मेलजोल का दायरा ग्रीस से बाहर ले जाना चाहिए. इसके बाद पुर्तगाल, बेलारूस और पिछले साल ब्राजील होते हुए यह आयोजन इस साल भारत में आयोजित किया गया. शुरुआत में विचार विमर्श का मुख्य मुद्दा था कि दुनिया में कमजोर होती कम्युनिस्ट ताकत को कैसे मजबूत किया जाए लेकिन जैसे जैसे समय बीता और लातिन अमेरिकी देशों में कुछ चुनावी सफलताएं मिली कम्युनिस्ट मुलाकातियों का यह सिलसिला धुर अमेरिका विरोध पर आकर ठहर गया. इसकी जरूरत से इंकार नहीं किया जा सकता लेकिन अगर कम्युनिज्म का अगुआ चीन थेमैन चौक पर शाम को उसी पूंजीवाद के परोपकार से शाम जवान करता है जिसका विरोध करता है तो आगे बड़ी दूर तक विरोध सिर्फ एकांगी विरोध ही नजर आता है, विकल्प नहीं.

Tuesday, September 29, 2009

बोफोर्स विवाद को आखिरी सलामी

केन्द्र सरकार ने 22 साल बाद देश की सर्वोच्च अदालत में बोफोर्स विवाद को आखिरी सलामी दे दी है. सोमवार को सुप्रीम कोर्ट में केन्द्र सरकार के महाधिवक्ता गोपाल सुब्रमण्यम ने सूचित किया कि केन्द्र सरकार ने फैसला किया है कि वह बोफोर्स विवाद के मुख्य आरोपी इटैलियन व्यवसायी औट्टावियो क्वात्रोच्ची के खिलाफ सारे मामले वापस लेता है. महाधिवक्ता ने सुप्रीम कोर्ट को सूचित किया कि "केन्द्र सरकार क्वात्रोच्ची के खिलाफ लंबित सभी मामलों को निरस्त कर रहा है."

निरस्तीकरण का यह प्रस्ताव इतनी अनहोनी भी नहीं है. आम चुनाव में जाने से ठीक पहले केन्द्र की यूपीए सरकार ने एक बड़ा कदम उठाते हुए 28 अप्रैल 2009 को इंटरपोल द्वारा क्वात्रोच्ची के खिलाफ रेड कार्नर नोटिस को निरस्त कर दिया था. मतलब अब भारत सरकार को क्वात्रोच्ची के खिलाफ किसी प्रकार की शिकायत नहीं रह गयी और केन्द्रीय खुफिया एजंसी ने भी अपनी वेबसाइट से रेड कार्नर के तहत दर्ज अपराधियो की सूची से क्वात्रोच्ची का नाम हटा दिया था. उस वक्त भी इस मामले में विवाद उठ खड़ा हुआ था लेकिन न तो विपक्ष ने इसे चुनाव में अपना मुद्दा बनाया और न ही सरकार ने इसे मुद्दा बनने दिया.
64 करोड़ की बोफोर्स तोप दलाली ने 1989 में भले ही केन्द्र से राजीव गांधी सरकार को उखाड़ फेंका हो लेकिन अब 22 साल बाद क्वात्रोच्ची के खिलाफ केस वापस लेने पर शायद ही किसी के ऊपर कोई फर्क पड़ता हो. कांग्रेस खुद बोफोर्स के इस कलंक से मुक्ति पाना चाहती थी. निश्चित रूप से कांग्रेस की यूपीए सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में जो हलफनामा दिया है वह उसकी कलंकमुक्ति के लंबे अभियान का आखिरी कार्य है. 1987 में घटित हुए इस दलाली काण्ड में इटली की बोफोर्स एबी कंपनी की होवित्जर तोपों ने कारगिल युद्ध के दौरान देश को जैसी सलामी दी उसने भाजपा को भी इस मुद्दे पर रक्षात्मक कर दिया है. शायद इसीलिए जब केन्द्र सरकार ने क्वात्रोच्ची के खिलाफ रेड कार्नर नोटिस वापस लिया और अब सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दायर करके केस को खत्म होने की सूचना दी तो भी भाजपा इस मुद्दे पर कुछ साफ बोलने की स्थिति में नहीं है. पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह अब हैं नहीं, अगर होते तो वे भी शायद इस निर्णय का स्वागत ही करते क्योंकि उन्होंने भी आखिरी दिनों में मान लिया था कि कांग्रेस ही देश का भविष्य है और सोनिया गांधी तथा उनके बच्चों के हाथ में ही देश सुरक्षित रह सकेगा. शायद यह उनका बोफोर्स प्रायश्चित था जिसने उन्हें फर्श से अर्श पर पहुंचा दिया था.

कथित दलाली के दस साल बाद 1990 में सीबीआई ने यह केस दर्ज किया. सीबीआई ने अपने आरोप पत्र में रक्षा सौदों के दलाल विन चड्ढा, इटली के व्यापारी अट्टावियो क्वात्रोच्ची, हिन्दुजा भाईयो, राजीव गांधी और तत्कालीन रक्षा सचिव एस के भटनागर को मुख्य आरोपी बनाया. 1998 में देश में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनी लेकिन छह साल तक इस मामले में चुप्पी छाई रही. 2003 में हाईकोर्ट के एक आदेश के बाद अट्टावियो क्वात्रोच्ची के दो ब्रिटिश बैक एकाउण्ट फ्रीज कर दिये गये. एक साल बाद 2004 में दिल्ली हाईकोर्ट ने इस मामले में सुनवाई करते हुए सबसे पहले राजीव गांधी को निर्दोष साबित कर दिया. इसके बाद अगले साल 2005 में दिल्ली हाईकोर्ट ने हिन्दुजा बन्धुओं को भी बोफोर्स के केस से बरी कर दिया.

अब मुख्य रूप से अट्टावियो क्वात्रोच्ची ही मुख्य आरोपी था जिसके खिलाफ सीबीआई भारतीय अदालतों में लड़ रही थी. 6 फरवरी 2007 को क्वात्रोच्ची को अर्जेन्टीना में गिरफ्तार किया लेकिन सीबीआई ने उसकी गिरफ्तारी को तीन दिन तक छिपाये रखा. दो दिन बाद यह राज खुला तो भी सीबीआई उसे भारत नहीं ला सकी क्योंकि अर्जेन्टीना के साथ भारत की प्रत्यर्पण संधि नहीं है. जल्द ही क्वात्रोच्ची मुक्त हो गया. इसके बाद अक्टूबर 2008 में तत्कालीन महाधिवक्ता ने सीबीआई को सलाह दी कि वह अब क्वात्रोच्ची के खिलाफ रेड कार्नर नोटिस वापस ले ले. इसके छह महीने बाद अप्रैल 2009 में क्वात्रोच्ची के खिलाफ रेड कार्नर नोटिस वापस ले ली गयी. अब 29 सितंबर 2009 को केन्द्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को सूचित किया है कि जब क्वात्रोच्ची के खिलाफ कोई मामला लंबित नहीं है तो फिर इस केस पर सुनवाई का कोई औचित्य नहीं है. महाधिवक्ता की इस दलील पर सुप्रीम कोर्ट ने अपनी मुहर लगा दी है.

22 साल पुराने इस तोप घोटाले का आखिरी गोला दग चुका है और रक्षा सौदे के बिचौलिये अट्टावियो क्वात्रोच्ची को पूरी तरह से दोषमुक्त कर दिया गया है. भारतीय सेना में होवित्जर तोपे आनेवाले दिनों में भी सीमा पर अपने गोले दागती रहेंगी लेकिन अब बोफोर्स तोपों से राजनीतिक गोलाबारी नहीं होगी. ऐसा इसलिए नहीं कि देश ने भ्रष्टाचार पर फतेह हासिल कर ली है बल्कि ऐसा इसलिए क्योंकि अब भ्रष्टाचार सेवा शुल्क का रूप धारण कर चुका है. रक्षा सौदे आज भी देश के सबसे भ्रष्ट सौदों में गिने जाते हैं लेकिन अब कोई रक्षा सौदा विवाद नहीं बनता. बदलते वक्त के साथ भ्रष्टाचार ने जिस प्रकार से सलाहकार और सेवा क्षेत्र का स्वरूप धारण कर लिया है, उसमें बोफोर्स के 64 करोड़ अब प्रासंगिक भी नहीं रह गये हैं. इससे कई गुना अधिक तो सीबीआई इसकी जांच पर खर्च कर चुकी है. सादगी अभियान चलाकर देश की पूंजी बचाने में लगी केन्द्र सरकार के इस काम को भी आप उसी बचत अभियान का हिस्सा मानिए, और भूल जाइये. सरकार इस मामले की जांच पर पैसा बर्बाद भी करे तो आखिर क्यों?

Monday, July 13, 2009

श्रीधरन पर सवाल

रविवार की भोर दिल्ली के जमरूदपुर इलाके में हुए एक हादसे में एक इंजीनियर सहित पांच लोग मारे गये. 15 अन्य घायल हैं जिसमें चार की हालत गंभीर है. जब हादसा हुआ तो श्रीधरन दिल्ली में नहीं थे. सुबह की फ्लाईट पकड़कर बंगलौर से दिल्ली आये और घटनास्थल का निरीक्षण करने के बाद लोधी रोड स्थित अपने कार्यालय गये और अपना इस्तीफा लिख दिया. उन्होंने तय किया कि वे सोमवार से दफ्तर नहीं आयेंगे. बड़े निर्माण कार्य के दौरान मानवीय और मशीनी चूक की गुंजाइश हमेशा बनी रहती है इसलिए इस दुर्घटना को अप्रत्याशित नहीं कहा जा सकता. लेकिन यह एक मौका जरूर है जब श्रीधरन के कामकाज की समीक्षा की जानी चाहिए.

श्रीधरन केरल से हैं और बड़ी परियोजनाओं को बखूबी संभालने में सक्षम हैं. दिल्ली मेट्रो का कार्यभार संभालने से पहले वे चुनौतीभरे कोंकण रेल परियोजना का काम देख चुके हैं. असल में कोंकण रेल परियोजना का काम काज देखकर ही उन्हें दिल्ली में शहरी यातायत को सुगम बनाने के लिए प्रस्तावित दिल्ली मेट्रो का काम सौंपा गया था. श्रीधरन ने बखूबी उसे पूरा भी किया और 25 सालों से फाइलों में दौड़ रही मेट्रो परियोजना को साकार करते हुए 25 दिसंबर 2002 को शाहदरा से तीस हजारी के बीच पहली ट्रेन को परिचालित कर दिया और 11 नवंबर 2006 को दिल्ली मेट्रो के पहले चरण को पूरा घोषित कर दिया. पहले चरण के दौरान कुल 53 किलोमीटर मेट्रो लाईनों का निर्माण किया और इन लाईनों पर कुल 59 स्टेशन बनाए गये. दिल्ली के लिए यह बहुत बड़ी उपलब्धि थी जहां रिंग रेल सेवा बनने के 20 साल बाद भी यात्रियों तक न पहुंच पा रही हो उस शहर में एक रेल परियोजना घोषित समय से पहले पूरा कर ली गयी. ऐसा नहीं था. दिल्ली मेट्रो रेलों का परिचालन भले ही समय पर हो गया लेकिन आप दिल्ली मेट्रो के पहले चरण का निरीक्षण करें तो पायेंगे कि छुट-पुट काम पिछले साल तक चलता रहा है. फिर श्रीधरन ने ऐसा क्यों किया कि आधी अधूरी परियोजना को पूरा घोषित करके वे अगले चरण की ओर बढ़ गये?

भारत सरकार की अपनी ही इतनी सारी एजंसियां हैं जो परियोजनाओं को कई तरह के प्रमाणपत्र देती हैं. मसलन राईट्स है जो किसी रेल परियोजना का मूल्यांकन करता है और सेफ्टी स्टैण्डर्ड की जांच करके गाड़ी परिचालन का अंतिम आदेश भी रेलवे का ही एक और विभाग देता है. 2002 में जब पहली ट्रेन को हरी झण्डी दिखाई गयी तब आईएसबीटी स्टेशन के सिविल वर्क का एक हिस्सा भी पूरा नहीं हुआ था लेकिन रेलवे की सेफ्टी स्टैण्डर्ड कमेटी ने जांच करके लाईन परिचालन की अनुमति दे दी. कम से कम रेलवे के किसी विभाग से ऐसी दरियादिली की अपेक्षा तो नहीं की जा सकती कि परियोजना पर इतना त्वरित फैसला ले ले. देश की दूसरी रेल परियोजनाओं का चाहे जो हाल हो लेकिन दिल्ली मेट्रो की बात आती है तो मामला बदल जाता है क्योंकि यहां श्रीधरन हैं जिनके काम के आड़े प्रशासनिक विभाग तो क्या न्यायालय तक नहीं आता. हड़बड़ी में जल्दी-जल्दी परियोजना को पूरा करने की घोषणा करना और अगले चरण की शुरूआत करना यह दिल्ली की यातायात व्यवस्था को दुरुस्त करने से अधिक पैसा लगा रही फण्डिंग एजंसियों को फायदा पहुंचाने की कवायद है. जो फण्डिंग एजंसियां दिल्ली मेट्रो में पैसा लगा रही हैं वे लंबे समय तक आय के लिए इंतजार नहीं कर सकती. ऐसे में यह जरूरी है कि काम समय और शायद समय से पहले पूरा हो और परिचालन शुरू हो ताकि निवेश की गयी रकम पर वापसी शुरू हो सके. हालांकि दिल्ली मेट्रो बिल्ड आपरेट एण्ड ट्रांसफर की नीति पर नहीं तैयार हो रहा है लेकिन जो निजी निवेशक पैसा लगा रहे हैं उनका दबाव तो है ही.

जब न दिखनेवाले बड़े बड़े हादसों के बाद भी श्रीधरन पर किसी ने सवाल खड़ा नहीं किया तो दिखने वाले एक हादसे को आधार बनाकर श्रीधरन किनारे कर दिये जाएंगे ऐसा बिल्कुल नहीं होगा. जब तक जापान का पैसा, विदेशी कंपनियों के कलपुर्जे और देशी ठेकेदारों की जुगलबंदी रहेगी श्रीधरन बने रहेंगे, फिर चाहे कोई कितने भी सवाल उठाये.

श्रीधरन की जिस कार्यकुशलता का गुणगान हमारे अखबार पीआर एजंसी की भांति करते हैं उसके पीछे की सच्चाई कुछ और है. दिल्ली मेट्रो ने दिल्ली को केवल मेट्रो देने का ही इतिहास नहीं रचा है बल्कि उसने श्रमिकों के शोषण और पर्यावरण के विनाश का भी इतिहास लिखा है. दिल्ली मेट्रो ने यमुना नदी को लगभग खत्म कर दिया लेकिन झुग्गियों पर बवाल करनेवाले न्यायालय, सफाई की राजनीति करनेवाले एनजीओ और राजनीतिक दलों ने इस बारे में कभी कोई सवाल नहीं उठाया. थोक के भाव में एनजीओ कामनवेल्थ गेम्स न बनने देने का विरोध करते रहे लेकिन ठीक बगल में कामनवेल्थ गेम्स विलेज से दोगुनी जमीन पर दिल्ली मेट्रो ने आवासीय परियोजना से ज्यादा खतरनाक ट्रेन धुलाई का संयत्र और मेट्रो कर्मचारियों के लिए आवासीय परिसर का निर्माण कर लिया लेकिन किसी एनजीओ ने कभी उसके खिलाफ सवाल खड़ा नहीं किया. कुछ लोग बोले भी तो दिल्ली मेट्रो के पीआर एजंसी की बतौर काम कर रहे मीडिया ने उसे कभी जगह नहीं दिया. दिल्ली मेट्रो के यमुना बैंक विस्तार पर खुद राईट्स ने सवाल उठाया था और निर्माण कार्य शुरू होने के पहले सौंपी गयी अपनी रिपोर्ट में कहा था कि इस जगह स्थाई निर्माण कार्य नहीं होना चाहिए क्योंकि यह जगह पूर्वी दिल्ली का सबसे निचला इलाका है और यमुना में हल्की सी बाढ़ या फिर दिल्ली में हल्का सा भूकंप तबाही ला सकता है. लेकिन इस रिपोर्ट और आशंका के बाद भी यहां मेट्रो का पूरा काम काज हुआ और आज भूजल भराव के एकमात्र सबसे संपन्न इलाके पर दिल्ली मेट्रो का स्टेशन और ट्रेन धुलाई का कारखाना खड़ा हो गया है. श्रीधरन पर सवाल किसी ने नहीं उठाया.

दिल्ली मेट्रो ने दिल्ली की तंग सड़कों पर मेट्रो बनाने का काम हाथ में लिया था लेकिन देखते ही देखते वह दिल्ली के रियल स्टेट व्यापार में शामिल हो गया. पहले चरण में तैयार मेट्रो लाईन पर शास्त्री पार्क में ट्रेन मरम्मत का कारखाना लगाया गया था. यह वो इलाका है जिसे सरकार यमुना नदीं को जीवित रहने के लिए जरूरी मानती थी. लेकिन सरकार ने उदार भाव से यह जमीन दिल्ली मेट्रो को दे दी और यह जगह मेट्रो ट्रेनों के रखरखाव के लिए तो इस्तेमाल होता ही है, यहां एक साईबर सिटी भी बन गयी है. क्या कोई सरकारी अधिकारी यह बताएगा कि दिल्ली मेट्रो ने यहां साईबर सिटी कैसे बना ली? दिल्ली मेट्रो ने यह काम कोई छिपे तौर पर नहीं किया है. उसने यह काम अपनी कमाई बढ़ाने के नाम पर किया है. इसी तरह खैबर पास में ट्रेनों को खड़ी करने के लिए जितनी जगह ली गयी उस पर आवासीय फ्लैट बना दिये गये. शाहदरा में स्टेशन की जगह पर दिल्ली के बिल्डर पार्श्वनाथ के साथ मिलकर शापिंग माल बना दिया गया. सवाल श्रीधरन से यह पूछना चाहिए कि अगर वे सिर्फ मेट्रो के लिए जमीन का अधिग्रहण सरकार से करवा रहे थे तो फिर यह कामर्शियल गतिविधियां कहां से पैदा हो गयी? हो सकता है श्रीघरन के पास अपने तर्क हों. जैसे यमुना नदी के बीचो बीच जब मेट्रो स्टेशन बनाने की बात आयी तो उन्होंने उच्च न्यायालय और श्रीमती शीला दीक्षित को एक जवाब सौंपा जिसमें एक अति प्रगतिशील विचार सामने रखा था कि यमुना नदीं को दो पाटों के बीच बांध देना चाहिए. और केवल सुझाव दिया ही नहीं यमुना बैंक स्टेशन पर उन्होंने यह काम करके भी दिखा दिया. सब चुप रहे, श्रीधरन पर सवाल किसी ने नहीं उठाया.

जिस कोंकण रेल परियोजना को सफलता पूर्वक पूरा करने के बाद श्रीधरन दिल्ली मेट्रो के कार्यकारी निदेशक बने उसी कोंकण रेल कंपनी ने दिल्ली में ट्रांसपोर्ट की समस्या को हल करने के लिए स्काई बस का प्रस्ताव रखा था. कोंकण रेल कंपनी के तत्कालीन निदेशक राजाराम तीन-चार साल तक दिल्ली के प्रशासनिक गलियारों में प्रेजेन्टेशन देकर लोगों को समझाते रहे कि दिल्ली की जैसी बसावट है उसमें स्काई बस की परियोजना ज्यादा कारगर साबित होती. दिल्ली मुंबई की तर्ज पर लंबवत नहीं बसी है बल्कि यह गोल घुमावदार तरीके से बसी है. इसलिए मे्ट्रो परियाजना दिल्ली के लिए रैपिड ट्रांसपोर्ट का बेहतर विकल्प नहीं हो सकता. उनकी बात सही है. दिल्ली मेट्रो ने अपने ज्यादातर स्टेशनों का निर्माण सड़कों के ऊपर किया है. कम दूरी के यात्री मेट्रो ट्रेन की बजाय अपने साधन या फिर बस का उपयोग करते हैं क्योंकि एक किलोमीटर के सफर में दिल्ली मेट्रो से जितना समय लगता है उससे चौथाई समय में वह बस से एक किलोमीटर का सफर पूरा कर सकता है. ऐसे में जरूरी था कि सड़कों को ही भविष्य के ट्रांसपोर्ट का माध्यम बनाया जाता. स्काई बस पूरी तरह से स्वदेशी तकनीकि थी और राजाराम का आश्वासन था कि वह मेट्रो के एक किलोमीटर के 225 करोड़ के अनुमानित खर्चे से आधी कीमत पर स्काई बस का एक किलोमीटर ट्रैक बिछा देंगे. दिल्ली की हर प्रमुख सड़क पर स्काई बस परिचालित होने से सड़कों से न केवल बसो का बोझ कम होता बल्कि कम लागत में स्वदेशी तकनीकि और स्वदेशी पूंजी से दिल्ली को उसकी जरूरतों के हिसाब से एक परिवहन प्रणाली मिल जाती. लेकिन आपको जानकर आश्चर्य होगा कि इस परियोजना का सबसे मुखर विरोध श्रीधरन ने ही किया. स्काई बस परियोजना आज भी सिर्फ प्रेजेन्टेशन तक ही सिमटी हुई है और दिल्ली मेट्रो अपने तीसरे चरण के विस्तार की तैयारी कर रहा है. श्रीधरन ने स्काई बस परियोजना का विरोध क्यों किया? सवाल तब भी किसी ने श्रीधरन पर नहीं उठाया.

आखिरकार सवाल उठाया तो फिर एक सरकारी विभाग ने ही. इसी मानसून सत्र में सदन पटल पर रखी गयी नियंत्रक और महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट में श्रीधरन पर सवाल उठाया गया है. और ऐसा सवाल उठाया गया है जो श्रीधरन पर कई तरह के सवाल खड़े करता है. नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) ने सवाल उठाया है कि आखिर क्यों एक कोरियाई कंपनी रोटेम कोरिया को मौखिक बातचीत के आधार पर बीआएमएल से 22 करोड़ रूपये का भुगतान करवा दिया. सीएजी का यह सवाल एक बार फिर श्रीधरन पर सवाल उठाता है कि दिल्ली मेट्रो के कामकाज के दौरान सरकारी एजंसियों को मनमानी तरीके से निजी कंपनियों के फायदे के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है. पेंच बहुत गहरे हैं और वे सारे पेंच आखिर में निजी निवेशकों के लिए फायदे के तल पर जाकर ठहरते हैं. जापान बैंक आफ इंटरनेशनल कोआपरेशन अगर दिल्ली मेट्रो में पैसा लगा रहा है तो ऐसी छोटी मोटी बातों के लिए अपना मुनाफा मरने नहीं देगा. वह यह भी नहीं चाहेगा कि दिल्ली मेट्रो के स्थान पर किसी राजाराम के स्काई बस योजना को मंजूरी मिले. आज श्रीधरन निवेशकों और ठेकेदारों के बीच की ऐसी मजबूत कड़ी बन गये हैं जो हर हाल में बने रहेंगे.

Monday, June 29, 2009

गे परेड

समलैंगिकों ने दिल्ली के जंतर-मंतर पर इकट्ठा होकर जता दिया कि वे अपनी दुनिया में अकेले नहीं है. केवल भारत के ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया की मीडिया ने जिस तरह से समलैंगिकों की समस्या को राष्ट्रीय त्रासदी मानकर प्रचारित किया है उसके बाद भी शर्म न आये अपने अंदर झांककर खोजना चाहिए कि हम इंसान बचे भी हैं या नहीं? अंग्रेजी के सबसे बड़े अखबार ने परेडवाले दिन ही चार पेज गे-जमात के नाम कर दिया. फिर परेड के बाद अगले दिन रिपोर्टिंग के रूप में फ्रण्ट पेज के अलावा अंदर दो पेज और समर्पित किये. अंग्रेजी के चैनलों ने अचानक ही इसे एक राष्ट्रीय मुद्दा बना दिया. बाजी मारी एनडीटीवी ने.

अब प्रिंट के टाईम्स आफ इण्डिया और टीवी के एनडीटीवी के इस गे प्रेम के पीछे क्या है इसको ज्यादा समझने की जरूरत नहीं है. समझना हो तो सिर्फ यह समझिए कि पिछले दो साल में अकेले एनडीटीवी इस मुद्दे पर 22 बार बहस आयोजित करवा चुका है. पिछले दो साल में एनडीटीवी के लिए सबसे बड़ा राष्ट्रीय मुद्दा समलैंगिकता और एड्स ही बने रहे. ऐसा मत समझिए कि एनडीटीवी गे लोगों की पसंदीदा जगह हो सकती है इसलिए भाई बंधुओं की समस्या से टाईम्स आफ इण्डिया और एनडीटीवी दोनों ही पीड़ित हैं. कहानी कुछ और है लेकिन उस पर बाद में आते हैं.

सबसे पहले यह समझने की जरूरत है कि आखिर समलैंगिक लोगों का ऐसा क्या अधिकार है जिसे वे पाना चाहते हैं. देश में एक कानून है 150 साल पुराना. और कानूनों की तरह ही इसे भी अंग्रेजों द्वारा बनाया गया था और जस का तस आज तक लागू होता आ रहा है. इसे ही धारा 377 कहकर बताया जा रहा है. भारतीय दण्ड संहिता की धारा 377 निर्देशित करती है कि अप्राकृतिक यौन संबंध दण्डनीय अपराध हैं जिसमें अप्राकृतिक संबंध बनानेवाले को आजीवन कारावास या फिर दस साल की सजा के साथ फाईन भी हो सकती है. इस धारा की उपधाराओं में इस कानून का विस्तार से वर्णन करते हुए बताया गया है कि अगर कोई व्यक्ति/महिला अप्राकृतिक यौन संबंध स्थापित करता है या करती है तो उसे उपरोक्त सजा प्रदान की जाएगी. ब्रिटिश हुकूमत के खत्म होने के बाद कम से कम इस कानून में संशोधन के बारे में किसी ने कभी सोचा नहीं और इसलिए यह कानून ज्यों का त्यों बना रहा.

लेकिन इस कानून का चुनौतियां लंबे समय से मिल रही हैं. पिछले आठ साल से दिल्ली हाईकोर्ट में एक केस चल रहा है जो सेक्स वर्करों और गे कम्युनिटी के लिए काम करनेवाली संस्था नाज फाउण्डेशन और जैक इंडिया के बीच है. नाज फाउण्डेशन ने दिल्ली हाईकोर्ट में एक याचिका दायर करते हुए मांग की थी कि वह इस कानून को हटाने का आदेश दे क्योंकि इस कानून के कारण एड्स रोकने के काम में बाधा आ रही है. नाज फाउण्डेशन का तर्क था कि क्योंकि समलैंगिक लोगों को कानूनी मान्यता नहीं है इसलिए वे चोरी से संबंध बनाते हैं और एड्स का शिकार हो जाते हैं. अगर कानूनी मान्यता मिल जाए तो ऐसे समलैंगिक लोग खुलकर संबंध स्थापित कर सकेंगे और इनका एक डाटाबेस तैयार हो सकेगा और इनके बीच एण्ड्स की रोकथाम का कार्यक्रम चलाया जा सकेगा. दिल्ली हाईकोर्ट ने उनकी याचिका खारिज कर दी तो नाज फाउण्डेशन सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया. सुप्रीम कोर्ट ने खुद तो सुनवाई करने से इंकार कर दिया लेकिन उसने दिल्ली हाईकोर्ट को आदेश दिया कि वह इस मसले पर पूरी सुनवाई करे.

यहीं से जैक इंडिया लगातार इनके विरोध में अपने पक्ष रख रहा है और अदालत अभी तक किसी नतीजे पर नहीं पहुंची है. जाहिर है मामला अदालत में है तो सरकार भी इस मसले पर कुछ खास नहीं कर सकती. ऐसे में अचानक वीरप्पा मोइली का बयान कोई नासमझी में दिया गया बयान तो नहीं है. और ऐसा भी नहीं है कि वीरप्पा मोइली खुद कोई गे-समर्थक हैं. हकीकत यह है कि गे कम्युनिटी वीरप्पा मोईली के खिलाफ भी जमकर ईमेलबाजी करती है. फिर अचानक ऐसा क्या हुआ कि 150 साल पुराने कानून की याद आ गयी? दिल्ली के टाईम्स आफ इण्डिया ने इस पूरे मामले को राष्ट्रीय मुद्दा बना दिया? आखिर ऐसा क्या है कि एनडीटीवी जैसा संवेदनशील न्यूज चैनल लगातार इस मुद्दे को अभियान की तरह चला रहा है?

इस गे भक्ति का मकसद कुछ और है. मोटे तौर पर इस गे भक्ति के दो कारण हैं. एक, देश के शीर्षस्थ मीडिया घरानों, मनोरंजन उद्योग, व्यापार और नौकरशाही में गे लोगों की संख्या में भारी इजाफा हुआ है. अभी एक हफ्ता पहले ही मध्य प्रदेश में खुलेआम पकड़ा गया एक आईएएस अधिकारी इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है. यही हाल दूसरी जगहों पर भी है. इसलिए इन लोगों का गे लोगों के प्रति नैतिक समर्थन होना कोई असहज करनेवाली बात नहीं है. लेकिन दूसरा और सबसे महत्वपूर्ण कारण है एड्स के नाम पर विदेश से आनेवाला पैसा. नाज फाउण्डेशन जैसी संस्थाएं और मीडिया हाउस एड्स के नाम पर बाहर से आने वाले पैसे पर पलते हैं. धारा 377 इस काम में एक बड़ी बाधा बन रहा है क्योंकि अप्राकृति यौन संबंधों को मान्यता न होने कारण कानूनी रूप से उस फील्ड में एड्स की रोकथाम का पैसा नहीं खर्च किया जा सकता. इसलिए पिछले कुछ सालों में कई सारी गैर-सरकारी संस्थाएं मीडिया घरानों, नौकरशाहों और ऊंचे बैठे रसूखवाले नेताओं के साथ मिलकर इस धारा को खत्म करने की कोशिश कर रहे हैं ताकि एड्स रोकने के नाम पर और अधिक पैसा बाहर से लाया जा सके. 

एक अनुमान के मुताबिक इस समय देश में एड्स की रोकथाम का कोई 5 अरब डालर का कारोबार खड़ा हो चुका है. अब इस कारोबार को विस्तार देने के लिए जरूरी है कि धारा 377 को समाप्त किया जाए. इसलिए गे समर्थक इस एक धारा को खत्म करने के लिए खूब बहस कर रहे हैं. अंग्रेजी अखबारों में गे कम्युनिटी के लिए कैसा समर्थन है इसकी झलक देखनी हो तो हिन्दुस्तान टाईम्स की वह रिपोर्ट देखिए जिसमें कोई पत्रकार बड़ी पीड़ा के साथ लिखता है कि अब वक्त आ गया है कि इस 150 साल पुराने कानून से हम छुटकारा पा ले और इसको कानूनी रूप से दुरूस्त कर लें. उनकी पीड़ा समझी जा सकती है क्योंकि पिछले एक डेढ़ दशक में भारत में भी इलिट वही है जो गे या लेसिबियन होना पसंद करता है. जैसे संपन्न होने के कई पैमाने हैं वैसे ही गे होना भी इलिट होने का एक सबसे बड़ा पैमाना होता है जिसे पाना जरूरी है. रोहित बल जैसे इलिट तो घोषित तौर पर यह कर्म कर रहे हैं और करण जौहर जैसे लोगों के बारे में अफवाहें चलती रहती हैं.

इन अफवाहों और सच्चाईयों के बीच जिस एक कानून को खत्म करने की वकालत की जा रही है वह कानून खत्म होगा तो देश में बलात्कार और अप्राकृतिक यौन संबधों की नये सिरे से व्याख्या करनी होगी जो कि ईमानदारी से की जाए तो फिर वही होगी जो वर्तमान कानून में है. लेकिन देश का इलिट और बिजनेस क्लास अपने हिसाब से सारी व्यवस्था चाहता है फिर उससे किसी भारत जैसे देश की कोई सनातन व्यवस्था भंग हो जाती है तो हो. जो सवाल हर एख नागरिक को सरकार और इन गे समर्थकों से पूछना चाहिए वह यह कि अप्राकृति यौन संबंध को कानूनी जामा पहनाने से पहले तुम्हारी नाक में नकेल क्यों न पहना दी जाए? गे तो परेड करके चले गये. उनके पीछे न जाने कितने समर्थक अभी भी अपनी परेड जारी रखे हुए हैं जिसमें मीडिया घरानों के कुछ पत्रकार और नौकरशाही में बैठे लोग सबसे आगे हैं. अब यह जनता को तय करना है कि इन लोगों को वह कैसे सबक सिखाए?

Thursday, June 25, 2009

नंदन नीलकेणी की राजनीतिक महत्वाकांक्षा

इन्फोसिस के बारे में कहा जाता है कि वह केवल एक व्यापारिक संस्थान भर नहीं है. वह उससे भी अलग कुछ है. इसी बात का प्रमाण उस समय मिल गया जब केन्द्र की कांग्रेस सरकार ने नीलकेणी को देश के महत्वकांक्षी प्रोजेक्ट (एनएयूआई) का अध्यक्ष बनाते हुए उन्हें कैबिनेट मंत्री का दर्जा दे दिया है, और नीलकेणी की राजनीतिक महत्वाकांक्षी को कुछ हद पूरा कर दिया है.


नंदन नीलकेणी इस समय इन्फोसिस के मैनेजिंग डायरेक्टर हैं. नीलकेणी को राजनीति में उसी तरह दिलचस्पी है जैसे नारायणमूर्ति को. हालांकि नीलकेणी की राजनीतिक रूचि आम आदमी के बीच संघर्ष वाली नहीं है और वे प्रशासनिक मामलों में रूचि रखते हैं. लेकिन राजनीतिक गलियारों में उठना बैठना उन्हें भी अच्छा लगता है और कुछ हद तक यह उनकी व्यावसायिक मजबूरी भी है.

लेकिन जब हम इन्फोसिस के बारे में बात करते हैं तो किसी व्यावसायिक घराने की व्यावसायिक वजहों से राजनीति में रूचि एकमात्र कारण नहीं होता है. भारत में नव उदारवादी अर्थव्यवस्था के पहले से परंपरागत व्यावसायिक घरानों से अलग नये तरह के व्यावसायिक घराने पैदा होने शुरू हो गये थे. इनमें सबसे पहला नाम रिलांयस का है. रिलांयस ही वह पहली कंपनी है जिसने देश में जनता के पैसे को व्यवसाय के लिए भरपूर इस्तेमाल किया. भारत में शेयर बाजार का ऐसा व्यापक उपयोग रिलांयस से पहले किसी ने नहीं किया था और शेयर बाजार सिर्फ एक समुदाय के सट्टेबाजी का अड्डा भर हुआ करता था. जबकि सहारा समूह कारपोरेट को परिवार की शक्ल देकर कारपोरेट दुनिया के सामने एक नयी नजीर प्रस्तुत की थी. सहारा उस दौर में अस्तित्व में आया था जब देश में हड़ताल राज और बंद चरम पर था. उसने बड़ी चालाकी से परिवार व्यवस्था का नारा दिया और अपने परिसर से हड़तालियों को बड़ी सफाई से दूर कर दिया.

लेकिन इन्फोसिस ने ये दोनों प्रयोग मिलाकर किये और कारपोरेट कल्चर का नया स्वरूप विकसित किया. इन्फोसिस में काम करनेवाला व्यक्ति इन्फोसिस का कर्मचारी नहीं होता बल्कि मालिक होता है. उनसे देश की ग्लोबल होती इकोनोमी को एक नया और अलबेला रास्ता दिखाया जो सही अर्थों में कारपोरेट कल्चर की स्थापना करता है. इसके अलावा नारायणमूर्ति और नंदन नीलकेणी दोनों ने अपने सामाजिक सरोकारों से कभी पीछा नहीं छुड़ाया. नारायणमूर्ति के दौर में सुधा मूर्ति इंफोसिस फाउण्डेशन के जरिए सामाजिक काम कर रही थीं तो नीलकेणी के जमाने में यह काम रोहिणी कर रही हैं. सुधा मूर्ति जहां बेसहारा बच्चों और बेसहारा लोगों की सेवा को प्राथमिकता देती थीं वहीं रोहिणी पर्यावरण और परंपरागत ज्ञान को आधार देने का काम कर रही हैं.

क्या है नेशनल यूनिक आइडेन्टीफिकेशन? सबसे पहले एनडीए सरकार ने इस प्रस्ताव पर विचार करना शुरू किया था कि देश के हर नागरिक के विविध पहचान पत्र के स्थान पर एक ही पहचानपत्र होना चाहिए. पिछली यूपीए सरकार द्वारा इस दिशा में कोई खास काम नहीं हुआ. लेकिन सरकार जाने से कुछ महीने पहले 28 जनवरी को इस बारे में नोटिफिकेशन जारी किया गया. अब नंदन नीलकेणी इस आयोग के अध्यक्ष होंगे जिसका अनुमानित बजट 1,90,000 करोड़ होगा. नीलकेणी को उम्मीद है कि अगले एक से डेढ़ साल के अंदर वे पहला कार्ड का सेट जारी कर देंगे.

इसमें अन्यथा या निन्दा योग्य कुछ नहीं है. वे भी आईआईटी की उसी जमात के हिस्से हैं जो अपनी समझ के मुताबिक देश का निर्माण करना चाहता है. आईआईटी और आईआईएम कैसे शिक्षण संस्थान है और कौन से भारत का निर्माण कर रहे हैं यह बताने की जरूरत शायद किसी को नहीं है. लेकिन पिछले कुछ सालों में नारायणमूर्ति और नीलकेणी के कामकाज को ध्यान से देखें तो समझ में आता है कि उनकी सामाजिक जिम्मेदारी और राजनीतिक सक्रियता उनकी अपनी महत्वाकांक्षा है. वे चाहते हैं कि देश की व्यवस्था में अपने मुताबिक हस्तक्षेप किया जाना चाहिए. पिछली दफा जब राष्ट्रपति के चुनाव की प्रक्रिया चल रही थी तो  यह खबर भी आयी थी कि अपनी इमेज बिल्डिंग के लिए नारायणमूर्ति ने एक पीआर कंपनी को किराये पर लिया है और वे भी अपना नाम राष्ट्रपति पद के लिए चलवाना चाहते हैं. उसी दौर में उनकी किताब भी आयी थी और एक हद तक उनको प्रचार मिला भी. 

ठीक उन्हीं के नक्शेकदम पर नंदन ने भी हाल में ही एक किताब लिखी है - इमेजिनिन्ग इंडिया. इस किताब में उन्होंने अपने सपनों के भारत का खाका खींचा होगा लेकिन इस किताब के प्रचार पर जमकर पैसे खर्च किये गये. पूरे देश के मीडिया हाउसों को एक तरह से किराये पर ले लिया गया और हर बड़े घराने ने इस किताब का गुणगान किया. नंदन की यह कवायद अनायास नहीं थी. नंदन लगातार राजनीतिक विषयों पर लिखते हैं और अपनी बेबाक राय से लोगों को अवगत भी कराते हैं. मसलन आमचुनाव में मायावती के खराब प्रदर्शन के बाद अपने ब्लाग पर उन्होने लिखा कि जाति हमारे लिए जड़ता है और कहीं न कहीं हमारे विकास में बाधक भी. उनका तर्क है कि दलितों के लिए सत्ता का सिर्फ एक ही मतलब है कि उनके लिए आरक्षण के दरवाजे खुल जाएंगे.

अब तक के उनके लेखन और कार्यकलाप को देखें तो इतना साफ समझ में आता है कि वे कांग्रेस के करीब हैं. इसलिए कांग्रेस की सरकार उनको देश के सबसे महत्कांक्षी प्रोजेक्ट का मुखिया नियुक्त कर रही है तो इसमें कुछ आश्चर्य नहीं है. पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम चाहते थे कि देश में हर नागरिक का एक यूनिक पहचानपत्र हो. आतंकवाद के खतरों के बीच सरकार भी इसे एक जरूरी कदम मान रही है क्योंकि सरकार में बैठे लोग मानते हैं कि इस एक कदम से देश की बहुत सारी आंतरिक समस्याओं का निदान हो जाएगा. यह एक स्वतंत्र विषय है कि इस प्रोजेक्ट का ही कोई महत्व भारत जैसे देश में है या नहीं, या फिर अगर यह प्रोजेक्ट लंबे समय से सरकार के विचाराधीन था तो अरबों रूपये परिचयपत्र बनाने पर क्यों खर्च किये गये? क्या केवल इसलिए कि टाटा कंसल्टेसी को एक बड़ा प्रोजेक्ट मिला रहे?

लेकिन फिलहाल तो नीलकेणी इस नये आयोग के अध्यक्ष होकर कुछ हद तक अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को पूरा कर सकेंगे. प्रोजेक्ट के लिए पहले चरण में 100 करोड़ रूपये का आवंटन हो चुका है इसलिए इंफोसिस के लिए सरकार के पैसे पर एक ऐसा प्रोजेक्ट भी मिल गया है जिसका आंकलन करने और प्रोजेक्ट रिपोर्ट बनाने का खर्च भी उसे नहीं उठाना है. और नीलकेणी की वह राजनीतिक महत्वाकांक्षी भी मुफ्त में पूरी हो जाती है जिसकी बेचैनी और तड़प उनके लेखन में लगातार दिखाई देती रही है. नये दौर के इस कारपोरेट युग में हर बिजनेसमैन की एक राजनीतिक महत्वाकांक्षा भी होती है जिसे कांग्रेस जैसी सरकारें जमकर पूरा करती हैं.  

Friday, May 1, 2009

जूता मारो आंदोलन के जनक मछिन्द्रनाथ

जब जनरैल सिंह ने गृहमंत्री चिदम्बरम की ओर जूता उछाला था तब हम जा पहुंचे थे जंतर मंतर जहां महीनों से मछिन्द्र नाथ जूता मारो आंदोलन की कुटिया छवाये बैठे थे. वह अप्रैल 2009 था. यह जनवरी 2011 है. तब एक चिदम्बरम निशाने पर थे अब हर नेता निशाने पर है. ताजा मामला राहुल गांधी का आया है. उस वक्त मछिन्द्र नाथ ने कहा था कि हमारे लोकतंत्र की हर समस्या का जवाब इस जूता मारो आंदोलन में छिपा है. आज करीब दो साल बाद जिस तरह से जूतामार घटनाएं बढ़ रही है उससे लगता है कि मछिन्द्रनाथ सही कहते थे, शायद. अब तो जंतर मंतर पर न मछिन्द्रनाथ हैं और न उनका जूता मारो आंदोलन. दोनों वहां से हटा दिये गये हैं. फिर भी, एक बार मछिन्द्रनाथ की ओर दुबारा देख लेते हैं शायद क्याोंकि शायद वे ही ऐसे आदमी हैं जो इस आंदोलन के अगुआ कहे जा सकते हैं.

दिल्ली के जंतर-मंतर पर अब मछिन्द्र नाथ का स्थाई बसेरा है. हालांकि वे यहां आये थे अपनी व्यथा दिल्ली को सुनाने लेकिन अब वे अपनी व्यथा से आगे निकलकर समाज की व्यथा पर व्यापक सुनवाई करने का काम भी करते हैं. मछिन्द्र नाथ जब जंतर-मंतर आये थे तो एक सामान्य गृहस्थ थे जो महाराष्ट्र के भ्रष्ट नौकरशाही से लड़ने की मंशा रखते थे. लेकिन अब वे देश के प्रधानमंत्री से लेकर गृहमंत्री तक से लड़ रहे हैं. अपने लिए संघर्ष करनेवाले मछिन्द्रनाथ अब अपने जूता मारो आंदोलन के जरिए लोगों के लिए संघर्ष कर रहे हैं.
पता नहीं जरनैल सिंह को मछिन्द्र नाथ के बारे में पता भी था या नहीं लेकिन मछिन्द्र नाथ मानते हैं कि उनके आंदोलन का ही परिणाम है कि अब लोगों ने जूता अपने हाथ में ले लिया है. जंतर मंतर के ठीक बीचो बीच उनका स्थाई बसेरा हो गया है. एक छोटा सा टेंट लगा लिया है. टेंट में कोई चार पांच लोगों के रहने की पूरी व्यवस्था है. टेंट के बाहर जूता मारो आंदोलन का बड़ा सा बैनर लगा रखा है. मछिन्द्र नाथ मानते हैं कि इस बैनर ने बहुत असर पैदा किया है. जंतर मंतर पर वे 11 नवंबर 2006 से बैठे हैं. वे कहते हैं कि ढाई साल से उनके यहां बैठने का परिणाम यह है कि आते जाते लोगों ने देखा कि कोई व्यक्ति है जो व्यवस्था को सरेआम जूता मार रहा है. इसलिए लोग भी प्रेरित हुए हैं और अब धीरे-धीरे जूता अपने हाथ में ले रहे हैं. मछिन्द्र नाथ जब ऐसा कहते हैं तो याद रखिए कि इराकी पत्रकार तो कम से कम जंतर-मंतर नहीं आया होगा. फिर भी, देश में जूता मारो आंदोलन के जनक मछिन्द्रनाथ मानते हैं कि उनके अभियान का नतीजा है कि अब लोगों ने जूता चलाना शुरू कर दिया है.

मछिन्द्र नाथ लातूर के हैं. छोटी सी किराना की दुकान है. घर परिवार ठीक से चलता था. जिला प्रशासन ने वादा किया कि पिछड़े वर्ग के लोगों को आवास बनाने के लिए पट्टे पर जमीन दी जाएगी. 100 लोगों को जमीन मिलनी थी. जब आवंटन की बात आयी तो मछिन्द्र नाथ से जिला कलेक्टर के लोगों ने घूस की मांग की. मछिन्द्र नाथ को यह मंजूर नहीं था कि अपना हक पाने के लिए वे घूस दें. उन्होंने न केवल घूस देने से मना किया बल्कि लातूर से चलकर मुंबई पहुंच गये. 25 अप्रैल 2006 को उन्होंने मंत्रालय पर भूख हड़ताल की और तत्कालीन मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख से भी मिले. विलासराव ने आश्वासन दिया ही होगा इसलिए वे वापस लातूर लौट गये. लेकिन थोड़े ही दिनों में उनकी शिकायत उन्हें पुलिस ने लाकर वापस कर दी. कोई कार्रवाई नहीं हुई.

मछिन्द्रनाथ के लिए यह असहनीय हो गया. लेकिन इतना असर जरूर हुआ कि जिला कलेक्टर कृष्णा लवेकर ने व्यक्तिगत रूप से मछिन्द्र नाथ के पास संदेश भिजवाया कि वे चाहें तो उनकी जमीन का पट्टा बिना घूस के कर सकते हैं लेकिन बाकी लोगों की मांग वे छोड़ दें. अब मछिन्द्र नाथ इसके लिए तैयार नहीं थे. इस घटनाक्रम के बाद उनका संघर्ष केवल जिला कलेक्टर और एसपी के खिलाफ नहीं रह गया. उन्होंने प्रदेश के मुख्यमंत्री के खिलाफ भी संघर्ष का ऐलान कर दिया. उन्होंने मान लिया कि अब मुंबई जाने से न्याय नहीं मिलेगा. इसलिए उन्होंने जंतर मंतर पहुंचने का निर्णय लिया और देश के सर्वोच्च प्रशासकीय संस्थाओं तक अपनी बात पहुंचाने का प्रण ले लिया.

पिछले ढाई साल में अब तक वे अपनी मांग देश की हर शीर्ष संस्था तक पहुंचा चुके हैं. लेकिन कहीं कुछ नहीं हुआ. वे कहते हैं तीस महीने में अब तक साठ मेमोरेण्डम (मांगपत्र) वे सरकार को सौंप चुके हैं, लेकिन अभी तक किसी ने ध्यान नहीं दिया है. मछिन्द्रनाथ मानते हैं कि जब व्यवस्था इतनी भ्रष्ट हो गयी है तो अब जूता मारने के अलावा कोई रास्ता बचा नहीं है. आश्चर्य तो यह है कि देश के प्रदानमंत्री कार्यालय से लेकर गृहमंत्रालय तक कागजी लड़ाई लड़नेवाले मछिन्द्रनाथ खुद कभी स्कूल नहीं गये. लेकिन वे न केवल अच्छी मराठी जानते हैं बल्कि हिन्दी में भी लिखत-पढ़त का पूरा काम खुद करते हैं. मछिन्द्र नाथ कहते हैं "अंग्रेजी भी पच्चीस टक्का समझ लेते हैं. अगर ऐसा न करें तो सरकार के साथ पत्र व्यवहार करना ही मुश्किल हो जाए."

मछिन्द्रनाथ भारत के उस आम मानस का प्रतिबिंब है जो किसी फण्डिंग एजंसी के लिए झण्डा लेकर नहीं घूमते बल्कि अपनी अपने लोगों के लिए लड़ते हैं और बड़ी शिद्दत से लड़ते हैं. उन्हें लगता है कि अब जीवन में दूसरा कोई काम नहीं बचा है. वे देश से भ्रष्टाचार को समूल उखाड़ देने के लिए जूता को अपना हथियार बना चुके हैं. पिछले ढाई साल में मछिन्द्रनाथ कभी वापस लातूर नहीं गये. हमने जानना चाहा कि फिर खर्चा कैसे चलता है? उन्होंने कहा लोग मदद कर रहे हैं. हालांकि उन्होंने अब अपने जूता मारो आंदोलन का सदस्यता अभियान चला रखा है. दिल्ली के अलावा हरियाणा, उत्तर प्रदेश से जंतर-मंतर आनेवाले लोग उनके सदस्य बन रहे हैं. सदस्यता की फीस के अलावा वे लोगों के लिए अर्जी भी लिखते हैं जिसके बदले में लोग उनके लिए कुछ आर्थिक व्यवस्था करते हैं. मछिन्द्र नाथ की न्याय की इस मुहिम में कम ही सही लेकिन लोग जुड़ भी रहे हैं. मछिन्द्र नाथ कहते हैं- "ये लोग इंसान हो तो हमें न्याय देंगे. ये तो गधे, कुत्ते और सुअर हैं. ये हमें क्या न्याय देंगे." जी, हां उनकी नजर में प्रधानमंत्री गधे हैं, गृहमंत्री कुत्ता और देश का प्रशासनिक तबका सुअर. वे कहते हैं कि इन सबका एक ही इलाज है- जूता.

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