Thursday, October 28, 2010

ठाकरे परिवार में कौन बनेगा सरदार?

महाराष्ट्र की राजनीति में पिछले विधानसभा चुनाव में जो नहीं हुआ वह एक महानगरपालिका के चुनाव में हो रहा है. शिवसेना सुप्रीमो बाल ठाकरे अपने ही भतीजे से उलझ गये हैं. कल्याण-डोंबिवली महानगरपालिका चुनाव में जैसे ही राज ठाकरे ने बाल ठाकरे पर छींटाकसी की, बाल ठाकरे ने पलटकर ऐसा वार किया कि महाराष्ट्र की राजनीति गर्म हो गयी. चुप रहने की बजाय राज ठाकरे ने फिर जवाब दिया और आपसी ठसक परिवार की चौखट से निकलकर राजनीतिक के अखाड़े की जंग बन गयी.

शिवसेना की राजनीति को नजदीक से देखने समझनेवाले लोग बताते हैं कि बाल ठाकरे को यह कत्तई मंजूर नहीं है कि ठाकरे परिवार से राजनीति की दो धाराएं फूटे. पिछले विधानसभा चुनाव में उद्धव ठाकरे ने बाल ठाकरे को विश्वास में लिया था कि वे राजनीति में बेहतर प्रदर्शन करेंगे इसलिए वे (बाल ठाकरे) स्वास्थ्य लाभ करें. चुनाव परिणाम आया तो साफ हो गया कि महाराष्ट्र की राजनीति में राज फैक्टर चल निकला है. सीमित और समेकित अर्थों में ही सही राज ठाकरे चाचा बाल ठाकरे के विकल्प के रूप में उभर रहे हैं. राज ठाकरे का रंग रूप, चाल-ढाल, बोलने की शैली और काम करने का अंदाज बिल्कुल वही है जो बाल ठाकरे का है. इसलिए विधानसभा चुनाव के दौरान राज ठाकरे ने मराठियों के उस खास हिस्से को प्रभावित किया जो बाल ठाकरे का विकल्प खोज रहा था. शिवसेना के लिए यह संकट की सूचना थी.

विधानसभा चुनाव बाद बाल ठाकरे का इलाज शुरू हो गया और जैसे जैसे वे ठीक होने लगे उन्होंने योजनाबद्ध तरीके से राज ठाकरे और मनसे को निशाने पर लेना शुरू कर दिया. उन्होंने मराठी राष्ट्रवाद पर शिवसेना का दोबारा दावा ठोंका और मराठी मानुष को संदेश दिया कि बालासाहेब के राजनीतिक वर्चस्व को चुनौती नहीं दी जा सकती. बीती दशहरा रैली में बाल ठाकरे ने खुलकर राज ठाकरे के खिलाफ मोर्चा खोल दिया और ऐसा मुद्दा उठाया जिसे लगभग महाराष्ट्र की राजनीति में कोई नहीं उठा रहा था. बाल ठाकरे ने कहा कि उद्धव ठाकरे को कार्याध्यक्ष बनाने का प्रस्ताव खुद राज ठाकरे ने किया था, अब भला राज ठाकरे ही मेरे ऊपर बेटों को आगे बढ़ाने का आरोप कैसे लगा सकते हैं? उस वक्त तो नहीं लेकिन एक सप्ताह बाद राज ठाकरे ने कल्याण की एक जनसभा को संबोधित करते हुए जवाब दिया कि यह सच्चाई है कि उन्होंने प्रस्ताव किया था, लेकिन ऐसा करके उन्होंने कुछ गलत तो नहीं किया? बस यही बाल ठाकरे चाहते थे कि राज उनके द्वारा उठाये जा रहे सवालों का जवाब दे.

इसके बाद से बाल ठाकरे अपने संपादकीय में कांग्रेस के साथ ही साथ महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना को भी निशाना बना रहे हैं. नकपोछवां कह दिया और भिखारी की संज्ञा भी दे दी है. जाहिर है बाल ठाकरे जितना अधिक राज ठाकरे को निशाना बनाएंगे राज ठाकरे अपनी खाल बचाने के लिए उतना अधिक आक्रामक होंगे. युद्ध खुलकर होना शुरू हो जाएगा. राज ठाकरे ने अगर शिवसेना के मुखपत्र सामना में शाहरुख खान के विज्ञापन पर सवाल उठाया और कहा कि शिवसेना टेण्डर के पैसे से चलती है तो बाल ठाकरे ने पलटवार करते हुए कहा है कि राज ठाकरे बिल्डर है और अपना धंधा चमकाने के लिए कल्याण डोंबिवली महानगरपालिका का चुनाव जीतना चाहता है. मुंबई से लेकर दुबई तक राज ठाकरे का प्रापर्टी का कारोबार है और मातोश्री रियेलटर्स के बैनर तले उन्होंने प्रापर्टी के धंधे में निवेश कर रखा है. कोई तय आकड़ा तो उपलब्ध नहीं है लेकिन कहते हैं कि करीब 2000 करोड़ रुपये का उनका कंस्ट्रक्शन का कारोबार है. निश्चित तौर पर इस कारोबार की नींव तभी पड़ गयी थी जब राज ठाकरे मातोश्री के अगले बालासाहेब के बतौर तैयार हो रहे थे. लेकिन अब दोनों ही चाचा भतीजे सरेआम एक दूसरे की सच्चाई सामने लाने में लग गये हैं.

आज हर कोई यह जानना चाहेगा कि चाचा भतीजे के इस राजनीतिक पोल खोल का असल उद्देश्य क्या है और इस पोल खोल में आखिरकार फायदे में कौन रहेगा? विधानसभा चुनाव के बाद से बाल ठाकरे चाहते थे कि राज ठाकरे को अपने निशाने पर लें. ऐसा दो कारणों से जरूरी था. राज ठाकरे स्वाभाविक तौर पर बाल ठाकरे के राजनीतिक उत्तराधिकारी के बतौर देखे जा रहे थे. अगर राज ठाकरे सीधे बाल ठाकरे से भिड़ते हैं तो उनकी पहली यह छवि टूटती है कि उनमें बाल ठाकरे का राजनीतिक स्वरूप मौजूद है. हम जिसके अक्स के बतौर पहचाने जाते हैं उसी से झगड़कर अपना अस्तित्व भला कितने दिन बचाकर रख पायेंगे? कल्याण डोंबिवली महानगर पालिका चुनाव ने बाल ठाकरे को वह मौका दे दिया है और राज ठाकरे का भी सब्र टूट गया और कल तक इज्जत की दुहाई देनेवाले राज ठाकरे को चाचा नहीं बल्कि अपना राजनीतिक दल मनसे और उसके लिए सत्ता दिखाई दे रही है. कल्याण महानगरपालिका चुनाव में प्रचार के दौरान बुधवार को उन्होंने साफ कहा कि वे सत्ता चाहते हैं ताकि एक बार वे काम करके दिखा सकें और लोगों में यह विश्वास पैदा कर सकें कि मनसे विकास करना जानती है. लेकिन अपने भाषण में भले ही वे नाली, सड़क बनाने की वकालत करते हों लेकिन मराठी माणुस को खुश करने का कोई मौका नहीं चूकते.

निश्चित तौर पर चाचा भतीजे के बीच शुरू हुई इस राजनीतिक जंग का असली लक्ष्य सत्ता है. मनसे और शिवसेना दोनों ही सत्ता को साधना चाहते हैं लेकिन इसके लिए वे मराठी राष्ट्रवाद को अपने विस्तार का आधार बनाना चाहते हैं. इस मराठी राष्ट्रवाद पर शिवसेना पैंतालिस सालों से काबिज है इसलिए वह अपना दावा इतनी आसानी से नहीं छोड़ेगी. लेकिन राज ठाकरे के पास भी सत्ता तक पहुंचने का और कोई दूसरा रास्ता नहीं है इसलिए वे भी इसी में अपनी हिस्सेदारी चाहेंगे. चाचा भतीजे की इस जंग में निश्चित तौर पर नुकसान में राज ठाकरे रहेंगे क्योंकि वे उसी से लड़ पड़े हैं जिसके हमशक्ल होने का फायदा उठाते रहे हैं लेकिन शिवसेना को भी बहुत फायदा हो जाएगा इसकी उम्मीद कम ही है. शिवसेना के पास फिलहाल दूसरा बाल ठाकरे नहीं है जो उन्हीं की तरह शिवसेना को आगे ले जा सके और राज ठाकरे दूसरी शिवसेना बना लेंगे इसमें संदेह है. राजनीतिक विश्लेषक चाहें तो इस विषय पर और विचार कर सकते हैं कि क्या चाचा भतीजे की इस राजनीतिक जंग में आखिरकार उस मराठी राष्ट्रवाद का ही सफाया तो नहीं हो जाएगा जिसे दोनों ही अपना आधार बनाये रखना चाहते हैं? अगर ऐसा होता है तो कम से कम प्रदेश के दूसरे दल जरूर राहत की सांस लेंगे.

Sunday, October 3, 2010

माई नेम इज बाल ठाकरे

साल भर पहले की बात है. 26 फरवरी की देर शाम मुंबई के लीलावती अस्पताल में एक बीमार व्यक्ति को रुटीन चेक-अप के नाम पर अस्पताल लाया गया. डाक्टरों ने परीक्षण किया तो उस बीमार व्यक्ति को अस्पताल में दाखिल कर लिया क्योंकि उन्हें फेफड़े में संक्रमण था. संक्रमण सामान्य नहीं था. डाक्टरों ने लंबे समय तक आराम करने की सलाह दे दी.

घर परिवार के लोगों ने भी इसी सलाह को सही माना और शिवसेना प्रमुख बालासाहेब ठाकरे पूरी तरह से आराम की मुद्रा में चले गये. उनकी बीमारी जितना खुद बाल ठाकरे के लिए तकलीफदेह थी उससे अधिक उनकी पार्टी शिवसेना के लिए साबित होनेवाली थी. मार्च अप्रैल से ही राज्य में विधानसभा चुनाव की तैयारियां शुरू हो गयी थी और अक्टूबर में नयी सरकार के लिए मतदान होना था. मुश्किल तब भी न होती लेकिन बाल ठाकरे के भतीजे राज ठाकरे उनके विकल्प के तौर पर उभारे जा रहे थे. कांग्रेस और एनसीपी दोनों को राज ठाकरे के उभार से अच्छी खासी मदद मिल रही थी इसलिए परोक्ष रूप से राज ठाकरे को राजाश्रय मिला हुआ था. बाल ठाकरे को इतना तो अंदाज लग ही रहा था कि इसका खामियाजा आनेवाले चुनाव में शिवसेना को भुगतना पड़ेगा लेकिन वे लाचार थे. बीमारी सामान्य नहीं थी और 83 साल की उम्र में न तो वे खुद और न ही उनका परिवार कोई रिस्क ले सकता था. चुनाव हो गये. परिणाम आ गये और उद्धव की आशा के विपरीत शिवसेना चारों खाने चित्त गिर पड़ी.

अपने जीवन के अवसान काल में पड़े शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे के लिए निश्चित रूप से यह अपनी निजी बीमारी से बड़े दुख की घड़ी रही होगी. लेकिन ऐसा लगता है यहीं से बूढ़े शेर ने न केवल अपने शरीर पर पड़ी धूल झाड़ दी बल्कि शिवसेना को भी झाड़ने पोछने का जिम्मा उठा लिया. जिन लोगों ने भी उद्धव ठाकरे की रणनीतिक कौशल का तर्क देकर महाराष्ट्र में शिवसेना की सत्ता में वापसी की आस बंधाई होगी, वे भी चुप हो गये और मानों बाल ठाकरे ने कहा- बेटा राजनीति कैसे की जाती है, अब हम तुम्हें बताते हैं. अक्टूबर के बाद से राज्य में भले ही कांग्रेस सत्ता में आ गयी हो लेकिन चर्चा में शिवसेना लौट आयी. इसके सीधे तौर पर दो परिणाम हुए. कांग्रेस का भ्रम टूटा कि शिवसेना बीते दिनों की बात है और राज ठाकरे नामक भस्मासुर को भस्म करना है. यह पुनीत पावन काम भी बाल ठाकरे ने ही करना शुरू कर दिया. पिछले एक महीने में मुंबई खबरों में बनी हुई है. लेकिन आश्चर्य देखिए न तो कोई राज ठाकरे का नाम ले रहा है और न ही उनकी पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना का. बाल ठाकरे ने अपनी राजनीतिक चालों से कांग्रेस और राज ठाकरे दोनों को ढेर कर दिया और हार के बावजूद शिवसेना को दोबारा चर्चा में स्थापित कर दिया. अब महाराष्ट्र की राजनीति एक बार फिर कांग्रेस बनाम शिवसेना की हो गयी है जिसके बीच से मनसे, भाजपा और राष्ट्रवादी कांग्रेस तीनों ही गायब हो गये हैं.

शाहरुख खान के बहाने ही सही बाल ठाकरे ने माइ नेम इज खान पर माइ नेम इस ठाकरे को भारी साबित कर दिया. महाराष्ट्र की राजनीति में जो बाल ठाकरे को दगा हुआ कारतूस मान बैठे थे वे भी बाल ठाकरे की ताजा गतिविधियों से हैरान जरूर होंगे.बाल ठाकरे बहुत चतुर राजनीतिज्ञ हैं ऐसी बात भी नहीं है. अगर आप उनकी राजनीतिक यात्रा देखें तो वे सीधे सपाट राजनीतिज्ञ नजर आते हैं और अपने कुछ पूर्वाग्रहों के साथ जीने में उन्हें मजा आता है. 1966 में शिवसेना की स्थापना के बाद से ही उन्होंने राजनीति में कूटनीति या चतुराई का प्रयोग नहीं किया. फिर भी महाराष्ट्र की राजनीति में वे कांग्रेस का विकल्प बनकर उभरे. फिर बाल ठाकरे ने ऐसा क्या किया कि महाराष्ट्र की राजनीति में वे सत्ता के इतर सत्तातंत्र के स्वामी बन गये? उन्होंने दम-खम की राजनीति की. जो सोचा, वही बोला और वही किया. अब जाहिर सी बात है कि अगर उनका सोचा उत्तर भारतीयों के खिलाफ था तो उत्तर भारतीय तो कभी उनके समर्थन में बात नहीं करेंगे. बाल ठाकरे के इस दम-खम वाली राजनीति को सामान्य बोलचाल की भाषा में गुण्डागर्दी की राजनीति में कहा जाने लगा लेकिन संभवत: बाल ठाकरे जानते थे कि वे राजनीति में किसे और क्यों संबोधित कर रहे हैं? शिवसेना ने जिस मराठी मानुष की भावना को अपनी राजनीति का आधार बनाया वह तत्व हर मराठी व्यक्ति में बहुत गहराई से निहित है. खुद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपनी आंतरिक व्यवस्था में मराठी श्रेष्ठताबोध से मुक्त नहीं है. इसलिए महाराष्ट्र में गैर मराठी का मुद्दा चल निकलना कहीं से अस्वाभाविक नहीं था. जिस दौर में बाल ठाकरे का उदय हो रहा था उसी दौर में उत्तर भारत के लोग बजाय कोलकाता जाने के, मुंबई की ओर रुख कर रहे थे क्योंकि कोलकाता में यूपी-बिहार से गये कामगारों को न काम मिल रहा था और न ही सम्मान. लेकिन उन्हें क्या मालूम था कि जिस बंबई की ओर वे कूच कर रहे हैं वहां बंगाली बाबू से बड़ी मराठी माणुस की मानसिकता उनके लिए चुनौती बनकर खड़ी होगी. बाल ठाकरे ने इसे ही अपनी राजनीति का आधार बना लिया.

23 जनवरी 1926 को पूना में पैदा हुए बाल ठाकरे के पिता केशव ठाकरे एक पाक्षिक पत्रिका प्रकाशित करते थे जिसमें वे प्रबोधनकार के नाम से लिखते थे इसलिए उन्हें प्रबोधनकार ठाकरे के नाम से भी जाना जाता है. बाल ठाकरे का सार्वजनिक अस्तित्व तो बहुत बाद में उभरता है लेकिन प्रबोधनकार ठाकरे खुद एक सुधारवादी आंदोलनकारी थे. उन्होंने महाराष्ट्र की कई कुरीतियों के खिलाफ अभियान चलाया और संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन में बढ़चढ़कर हिस्सा लिया. बाल ठाकरे जब बड़े हुए तो विरासत में पिता से मिली चित्रकारी का कार्टून के रुप में प्रयोग करना शुरू किया. अपने भाई सीताराम ठाकरे (राज ठाकरे के पिता) के साथ मिलकर 1960 में उन्होंने मार्मिक नाम से एक कार्टून पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया. इससे पहले ही एक कार्टूनिस्ट के तौर पर बाल ठाकरे चर्चित नाम हो गये थे और उनके कार्टून न्यूयार्क टाईम्स में भी छप रहे थे. छह साल तक मार्मिक का काम करते हुए 1966 में उन्होंने शिवसेना की स्थापना कर दी. शिवेसना का तब भी एक ही घोषित एजेण्डा था कि मुंबई सिर्फ महाराष्ट्रवालों की है. हां, उस समय बाल ठाकरे या महाराष्ट्रवादियों के निशाने पर उत्तर भारतीय नहीं बल्कि दक्षिण भारतीय थे. राजनीति थोड़ी आधारभूत हुई तो परप्रांतीय के सवाल से आगे बढ़कर उग्र हिन्दुत्व को बाल ठाकरे ने अपना मुद्दा बना लिया और सत्तर के दशक में ही उन्होंने हिन्दू आत्मघाती दस्ते तैयार करने की योजनाओं पर काम करना शुरू कर दिया था. मुसलमानों को कैंसर बतानेवाले बाल ठाकरे इसे कैंसर का आपरेशन मानते थे.

साठ साल के अपने सार्वजनिक जीवन में बाल ठाकरे महाराष्ट्र से बाहर कभी कहीं नहीं गये. महाराष्ट्र में भाजपा के साथ मिलकर सत्ता प्राप्ति के बाद तो उन्होंने महाराष्ट्र में भी जाना छोड़ दिया और बांद्रा स्थित घर और नई मुंबई के फार्म हाउस के बीच सिमटकर रह गये. 1996 में पत्नी मीनाताई ठाकरे की मौत के बाद तो उन्होंने फार्महाउस जाना भी छोड़ दिया क्योंकि उनकी मौत फार्महाउस से लौटते हुए रास्ते में हृदयगति रुक जाने से हुई थी. बाल ठाकरे राजनीतिक रूप से भले ही कितनों को दुख पहुंचाते हों लेकिन खुद उनके निजी जीवन में सुखद क्षण कम ही रहा है. उन्होंने बड़े बेटे बिन्दुमाधव ठाकरे की मौत को बर्दाश्त किया. मझले बेटे जयदेव ठाकरे की घर से बगावत बर्दाश्त की. अपने प्रिय भतीजे और राजनीतिक हमशक्ल राज ठाकरे का दूर जाना बर्दाश्त किया. अब सबसे चहेती बहू स्मिता ठाकरे को भी अपने खिलाफ जाते देख रहे हैं. फिर भी निजी जीवन के क्लेष को बाल ठाकरे ने राजनीतिक समझदारी पर हावी नहीं होने दिया. भारतीय राजनीति में संभवत: क्षत्रप शब्द सटीकता से बाल ठाकरे से ही शुरू होता है और उन्हीं पर खत्म हो जाता है. ऐसे क्षेत्रीय राजनीतिक क्षत्रप ने एक बार फिर साबित कर दिया कि आप बाल ठाकरे पसंद या नापसंद कर सकते हैं लेकिन उन्हें दरकिनार नहीं कर सकते. शायद यही राजनीतिक प्रशिक्षण अब वे अपने तीसरे बेटे उद्धव ठाकरे को दे रहे हैं. उद्धव जितना सीख पायेंगे महाराष्ट्र में शिवसेना का राजनीतिक भविष्य उतना ही होगा.

Tuesday, June 1, 2010

जाति और जनपद पर जिरह

किसी भी ऐसे देश में कोई न कोई सामाजिक और प्रशासनिक व्यवस्था तो रहेगी ही जो अपने आप को किसी सीमारेखा में रेखांकित कर लेता है. धरती पर इंसान तब से सीमारेखाएं खींच रहा है जब से वह अपनी तर्कबुद्धि का इस्तेमाल कर रहा है. आज हम जिसे अपना देश मानते हैं आखिरी बार उसका सीमा निर्धारण 1947 में हुआ. इसी साल से हमने अपने आप को एक लोकतंत्र के रूप में परिभाषित करना शुरू किया और साल दर साल उस लोकतंत्र की मजबूती के लिए कर्मकाण्ड करते रहते हैं.

साठ बासठ साल बीत जाने के बाद देश में बौद्धिक जमात की समस्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही है. जैसे जैसे लोकतंत्र परवान चढ़ रहा है समस्याओं का अंबार बढ़ता चला जा रहा है. जिस किसी समस्या के निदान के लिए हम कोई इलाज खोजते हैं, ज्यादा वक्त नहीं बीतता वह इलाज ही अगली समस्या के रूप में सामने आ खड़ा होता है. ताजा उदाहरण आरटीआई का है. इस लोकतंत्र में भ्रष्टाचार से प्रभावी रूप से निपटने के लिए बड़ी हुज्जत के बाद सूचना का अधिकार कानून बना लेकिन ज्यादा वक्त नहीं बीता सूचना का अधिकार भी भ्रष्टाचार बढ़ाने का एक साधन बन गया है. ऐसे ही इस लोकतांत्रिक व्यवस्था के किसी भी निदान को उठा लीजिए, वह खुद में एक रोग नजर आयेगा. जाति की जनगणना का सवाल और उस पर उठ रहे विवाद इसी रोगग्रस्त मानसिकता का परिणाम हैं.

लंबे समय तक हमें सिखाया पढ़ाया जाता रहा है कि इस देश में बहुत बड़ा दलित और पिछड़ा समुदाय है जिसकी स्थिति बहुत दयनीय है. इस दलित और पिछड़ा समुदाय की दुर्दशा के लिए भारत की वर्ण व्यवस्था दोषी है जो ब्राह्मणों को जन्मना सर्वोच्चता प्रदान कर देती है और वह ब्राह्मण अथवा सवर्ण अयोग्य और पथभ्रष्ट होने के बावजूद दलित तथा पिछड़े वर्ग का शोषण करता है. पिछले दो ढाई सौ सालों में इस विचार को हर प्रकार से तर्कों का जामा पहनाया गया है. किसी भी कार्य के तीन चरण होते हैं. विचार, क्रिया और परिणाम. वैचारिक रूप से लंबे समय तक इस बहस ने हर समझदार आदमी को यह समझने पर मजबूर कर दिया है कि जाति व्यवस्था ने इस देश में अरबों लोगों को आगे बढ़ने का मौका नहीं दिया है इसलिए जाति व्यवस्था को तोड़कर नये तरह की समाज रचना की ओर आगे बढ़ना चाहिए. इस क्रांतिकारी विचार का अगला चरण है क्रिया और फिर परिणाम. क्रियात्मक रूप से इस क्रांतिकारी विचार को लागू करने के लिए पिछले साठ बासठ सालों में पर्याप्त प्रयास हुए हैं. लेकिन सफलता लगभग नगण्य है.

1931 में आखिरी बार भारत में अंग्रेजों ने जातियों का जायजा लिया था. उसके सोलह साल बाद अंग्रेज बहादुर भारत छोड़कर चले गये इसलिए अगले दौर की जातीय जनगणना संभव नहीं हो सकी क्योंकि आजादी के बाद भारतीय नेतृत्व एक फैशनेबुल विचारधारा की गिरफ्त में जा चुका था जिसे समाजवाद कहा गया. समाजवाद के इस फैशन ने जातियों को उसी प्रकार से मानव समाज के लिए अनिवार्य बुराई माना जैसे अंग्रेजों ने परिभाषित कर दिया था. उन्नीसवी सदी के शुरूआत में भारत की जाति व्यवस्था पर कुछ स्वतंत्र ब्रिटिश समाजशास्त्रियों ने काम किया था और उन्होंने एक आश्चर्यजनक नतीजा सामने रखा था. उन्होंने भारतीय जातियों के नामकरण का विश्लेषण किया तो पाया कि भारत में समान रूप से जातियों के नाम संस्कृतनिष्ठ हैं और वे किसी न किसी व्यवसाय की ओर संकेत करते हैं. आदिलाबाद में रहनेवाले रवीन्द्र शर्मा ने कोई अध्ययन तो नहीं किया लेकिन इस तथ्य को अपने कार्य से प्रमाणित कर दिया है कि जाति व्यवस्था कर्म विभाजन ही था और कुछ नहीं. आदिलाबाद में छोटा सा कला आश्रम चलाकर वे जाति व्यवस्था से जुड़े उस बड़े मिथक को तोड़ रहे हैं जिसमें हमें सिखाया पढ़ाया गया है कि जाति का निर्धारण सिर्फ ऊंच नींच का भेदभाव स्थापित करने के लिए किया गया था. अदीलाबाद में उन्होंने अपने काम से साबित कर दिया है कि आज जिन्हें हम दलित, आदिवासी, पिछड़ा कहकर उनके भलाई की दुहाई दे रहे हैं किसी दौर में वे सेवा क्षेत्र (सर्विस सेक्टर) के महारथी और उत्पादक होते थे. अदीलाबाद न भी जाएं तो देश के किसी भी हिस्से के ग्रामीण परिवेश में इतना तो साफ दिख जाता है कि हर जाति किसी न किसी प्रकार के कर्म के लिए समर्पित और सिद्धहस्त है.

जाति की जनगणना करते समय क्या भारत सरकार यह पता करने की भी कोशिश करेगी कि किस जाति समूह में कौन सा कौशल था और वह कैसे गायब हो गया? क्या उस जाति के व्यावसायिक कौशल को वर्तमान समाज में पुनर्जीवित करने का प्रयास किया जाएगा? भारत सरकार शायद ही ऐसा करे क्योंकि ऐसा करने का अर्थ है वर्तमान यूरोपीय इकोनोमिक मॉडल का खात्मा. भारत सरकार इसे शायद ही कभी स्वीकार करे. अगर जातियों को जानने का हमारा मकसद या दृष्टि यह नहीं है तो जातियों के बारे में जानने का कोई तुक नहीं है. 

हम जातियों के बारे में जानकर देश को काटने-बांटने के लिए उसका राजनीतिक दुरुपयोग करेंगे और कुछ नहीं. फिर हमें जाति के नाम पर चिढ़ क्यों होती है? आखिर वे कौन लोग हैं जिन्होंने हमें समझाया और सिखाया कि जाति के नाम पर न केवल आप भेदभाव करिए बल्कि क्रियारूप में हमनें जाति को तोड़ने की पुरजोर कोशिश भी की है. यहां से आगे जाति व्यवस्था पर बात करना इतना आसान नहीं है. जाति व्यवस्था कब व्यवस्था से आगे बढ़कर व्यक्ति की निजी पहचान से जुड़ गया इस पर भरपूर शोध करने की जरूरत है. हमारा कर्म हमारी व्यावसायिक पहचान होगा या हमारी सामाजिक पहचान? जाति के बारे में बात करते समय आधुनिक संदर्भ में भी इस बात को बहुत संवेदनशील तरीके से समझना होगा. आज हम जो कर्म करते हैं क्या वह हमारी नयी जातीय अस्मिता है? अगर ऐसा है तो पुरानी अस्मिता को हम क्यों थामें हुए हैं? अगर हम जातीय व्यवस्था के अनुसार वर्तमान समय में कर्म निर्धारण नहीं करते हैं तो फिर उस व्यवस्था को निजी पहचान के बतौर पकड़े रहने का क्या तुक है? इन तर्कों पर देखें तो जाति व्यवस्था को जितनी जल्दी हो सके खारिज कर देना चाहिए. अन्यथा इसका सिर्फ राजनीतिक इस्तेमाल ही होगा जो देश को अस्थिर करेगा. लेकिन एक सवाल अभी भी शेष रह जाता है. इस व्यवस्था को ध्वस्त करते हुए क्या हम यह विचार करने के लिए तैयार हैं कि हमने जिस कारपोरेट समाज को निर्मित करने के लिए दिन रात योजनाएं बना रहे हैं वह पूर्ण रूप से अस्तित्व में आ गया तो भारत कहां होगा? भारतीय मानस कहां होगा? भारतीय अस्तित्व कहां होगा?

शिक्षा, स्वास्थ्य, न्याय, प्रशासन, सेवा, उद्योग, विज्ञान सब ओर हम अहर्निश रूप से यूरोपीय समाज के फोटोकापी हैं. इस युग का फैशन भी यही है कि जो शिक्षा यूरोपीय सभ्यता से निकली है वह शिक्षा है अन्यथा शिक्षा के दूसरे सब स्वरूप स्थानीय, दकियानूसी व्यवस्था का हिस्सा हैं. यूरोप की जिस व्यवस्था को हम नखशिख लागू किये हुए हैं उस व्यवस्था में जाति अनिवार्य बुराई है. उसके बारे में जानना या समझना निश्चित रूप से निंदनीय है. लेकिन अगर हम भारत को भारत के रूप स्वरूप में जानना समझना चाहते हैं तो जाति और जनपद को गाली देकर दरकिनार कर देने से बड़ी भूल होगी. जाति अगर अपने देश की समाज व्यवस्था है तो जनपद प्रणाली अपनी प्रशासनिक व्यवस्था है. हम जब जनपद कहते हैं तो उसका आशय होता है एक प्रशासनिक व्यवस्था जिसे गांधी जी ने ग्राम स्वराज कहकर परिभाषित किया था. जाति के बिना जनपद व्यवस्था को लागू नहीं किया जा सकता और जनपद के बिना जाति व्यवस्था का कोई औचित्य नहीं है. जातियों के आधार पर जिस समाज की व्यवस्था विकसित होती है उसकी प्रशासनिक व्यवस्था के रूप में जनपद प्रणाली सामने आती है जो अभी भी भारत में विद्यमान है. इस प्रशानिक व्यवस्था से जो लोकतंत्र निकलता है वह राष्ट्र राज्य की सीमा में बंधा कोई देश नहीं होता बल्कि एक ऐसा गणराज्य होता है जो भारत को भारत के वास्तविक स्वरूप में सामने रखता है. हां, यह यूरोपीयन लोकतांत्रिक मॉडल को मान्य नहीं करता है इसलिए हमें ये बातें सिरे से समझ में नहीं आती है.

ऐसे में अब सवाल फिर वही कि क्या जाति की जनगणना होनी चाहिए? इस सवाल का जवाब खोजने वालों को समझना होगा कि अगर हम समाज व्यवस्था के रूप में जाति को स्वीकार नहीं कर सकते तो जाति की जनगणना का कोई तुक नहीं है. असल सवाल तो यह है कि क्या हम भारत को भारत की व्यवस्था में देख पाने में सक्षम हैं भी या नहीं? अगर हम यूरोपीय प्रशासनिक मॉडल को डेमोक्रेसी मानते हैं तो फिर उसमें जाति व्यवस्था अनिवार्य बुराई है इसलिए उसका परित्याग कर देना चाहिए. लेकिन अगर हम मानते हैं कि भारत में जाति का अस्तित्व उसकी सामाजिक व्यवस्था का (भले ही उसमें भीषण दोष आ गये हों) है तो हमें जाति की जनगणना के साथ साथ जनपद (भारतीय प्रशासनिक प्रणाली) को भी पुनर्जीवित करने की मांग करनी चाहिए. जाति की गणना से बड़ा सवाल यह है कि हमें क्या बनना है? क्या हम ईमानदारी से भारत बनना चाहते हैं या फिर हम पूरी तरह से यूरोप हो जाना चाहते हैं? इसी सवाल के जवाब में उस सवाल का जवाब भी मिल जाएगा कि भारत में जाति की जनगणना होनी चाहिए या नहीं?

Saturday, April 17, 2010

खेल के पीछे छिपा खेल

साल 2007 में खेल शुरू होता है जी समूह के सुभाष चन्द्रा द्वारा आईसीएल बनाने से. सुभाष चंद्रा अपना खेल चैनल लेकर आनेवाले थे. मामला अटक गया. बीसीसीआई के दांव से सुभाष चंद्रा पटखनी खा गये. उन्हें क्रिकेट मैचों के प्रसारण अधिकार खरीदने ही नहीं दिये गये. मामला कोर्ट कचहरी तक गया. लेकिन बात नहीं बनी. ऐसे ही वक्त में उन्होंने घरेलू क्रिकेट की टीमों के लिए इंडियन क्रिकेट लीग बना दी.

क्रिकेटरों के खरीद फरोख्त का पहला प्रयोग सुभाष चंद्रा ने ही किया था. फिर क्या था. मानों ललित मोदी को पंख लग गये. बीसीसीआई के बंद बक्से में पड़ा घरेलू क्रिकेट का जिन्न बाहर निकल आया और 2007 में ही आईपीएल का गठन हो गया. जो खेल सुभाष चंद्रा खेलना चाहते थे उसे खेलना शुरु किया ललित मोदी ने. सुभाष चंद्रा खुद टीमों को खरीद रहे थे. ललित मोदी ने खेल खिलाड़ी और असली खिलाड़ियों का ऐसा खाका खींचा कि सितंबर 2007 में क्रिकेट की पहली नीलामी के मौके पर बड़े बड़े व्यावसायिक घराने टीम खरीदने के लिए आ खड़े हुए. मुकेश अंबानी जैसे संजीदे व्यापारी पत्नी के क्रिकेट मोह में खिंचे चले आये तो रंगीले माल्या भी बोली लगाने पहुंचे. पहले ही दौर की नीलामी के बीसीसीआई ने 4500 करोड़ रुपये कमाए. बीसीसीआई के बाजीगर जो अभी तक घरेलू क्रिकेट के रणजी ट्राफी में अटके हुए थे उनके सामने खेल का ऐसा चटकदार रंग उभर आया था जो जो परंपरागत क्रिकेट को पानी पानी कर रहा था. पहले ही दौर में जिन छह टीमों को नीलाम किया गया था उसके लिए सबसे बड़ी बोली लगाई थी मुकेश अंबानी की पत्नी नीता अंबानी ने. उन्होंने मुंबई इंडियन्स के लिए 11 खिलाड़ियों को खरीदने के लिए 383 करोड़ रुपये अदा किये थे. तीन साल पहले जो सबसे बड़ी रकम थी तीन साल बाद उस रकम की कोई कीमत ही नहीं बची. इस साल आईपीएल की जिन दो टीमों को इस लीग में शामिल किया गया उनमें से एक टीम कोच्चि को 1702 करोड़ रुपये में खरीदा गया. सहाराश्री ने भी पुणे की टीम गठित करने के लिए 1533 करोड़ रुपये खर्च कर दिये.

खेल के पीछे छिपा खेल शबाब पर आ गया था. अपने पहले सीजन में कम वस्त्रधारी लड़कियों के कारण नैतिक आलोचना के शिकार बने आईपीएल के तीसरे सीजन आते आते खेल बड़े खिलाड़ियों के चंगुल में चला गया. आईपीएल में ऐसा क्या खास था जो रणजी ट्राफी में नहीं था? आप कहेंगे कि रणजी ट्राफी में ऐसा था ही क्या जो आईपीएल में नहीं है? क्रिकेट खिलाड़ियों के लिए भरपूर पैसा, क्रिकेट के प्रायोजकों को भरपूर दर्शक, टीम के खरीदारों को हार जीत की हर अवस्था में मुनाफे की गारंटी, बीसीसीआई की मोटी कमाई, प्रसारण का अधिकार पाये लोगों की भरपूर गोद भराई, आईपीएल सबको सबकुछ तो दे रहा है. फिर आखिर ऐसा क्या हुआ कि आईपीएल असली खिलाड़ियों के आंख की किरकिरी बन गया. कारण ढूढने के लिए दूर नहीं जाना है. कारण आईपीएल के गठन में ही छिपे हुए हैं.

असल खेल शुरू हो गया है. ललित मोदी ने जिस क्रिकेट को पैसे का कारोबार बनाकर परोसा था वही कारोबार अब उनके गले की हड्डी बन गया है. अति सब जगह वर्जित है और ललित मोदी शायद यह भूल गये कि चोरी से कोकीन रखने के आरोप में दो साल जेल काट लेना आसान है, एक अरब लोगों के साथ धोखाधड़ी करके साफ बच निकलना मुश्किल होता है. देश के समस्त खेलों को खत्म करके स्थापित हुए क्रिकेट को यह आईपीएल खा जाएगा. देखते जाइये, ललित मोदी ने क्रिकेट की जड़ में पूंजी का मट्ठा डाल दिया है. वह अपना काम जरूर करेगा.

आईपीएल के गठन की सबसे पहली और बड़ी भूल यह थी कि इस खेल में सबकुछ होते हुए भी कुछ नहीं है. मसलन, आईपीएल के तहत टीमों के गठन के लिए सात चार की व्यवस्था की गयी है. यानी, सात खिलाड़ी भारत के होंगे जबकि चार खिलाड़ी विदेशों से लाए जाएंगे. यानी एक ही देश का एक खिलाड़ी अगर बैटिंग कर रहा है तो दूसरा खिलाड़ी बालिंग करता है. एक प्रदेश का एक खिलाड़ी इस टीम से खेल रहा होता है तो दूसरा उस ओर से. भारतीय टीम के खिलाड़ी तो मानों पंचूरण की तरह पूरे आईपीएल में बंट गये हैं. अब तक क्रिकेट के दर्शक जिस टीम भावना के वशीभूत होकर क्रिकेट देखते थे वह टीम भावना विधिवत काट पीटकर फेंक दी गयी. लेकिन भारती दर्शक क्रिकेट के नाम पर अगर दीवार पर तीन लाइनें खीचकर स्पंट बना सकते हैं खेल के इस स्वरूप को भी स्वीकार कर लेने में कोई हर्जा नहीं है. पहले साल आईपीएल के शोर में इस खेल की सभी खामियां दब गयीं लेकिन इसके अगले ही साल विवादों ने डेरा जमाना शुरू कर दिया. लेकिन आईपीएल के कमिश्नर ललित मोदी की योजनाएं कहीं से कमजोर नहीं हो रही थीं. छह से आठ और भविष्य दस टीमों का भरा पुरा क्रिकेट परिवार बन चुका आईपीएल बतौर क्रिकेट इतना बड़ा कन्फ्यूजन है कि दर्शक अपने आप को शायद इसके साथ पूरी तरह से जोड़ नहीं पाता है. इस साल जितने भी मैच हुए हैं उसमें अधिकांश मैचों को न तो टीवी पर मनमाफिक टीआरपी मिली है और न ही स्टेडियम में दर्शक. आईपीएल के अंतरविरोध दिखने शुरू हो गये थे.

लेकिन केवल मैदान के अंतरिविरोध ही उभरकर सामने नहीं आ रहे थे. मैदान के बाहर असल खिलाड़ियों के मुनाफे की मानसिकता और अहम का टकराव इसके पतनशील होने का बड़ा कारण साबित हुआ. ललित मोदी ने सगर्व घोषणा की थी इस साल आईपीएल 22000 करोड़ रुपये का कारोबार हो चुका है. टीमों की कमाई के इतर बीसीसीआई को अकेले वर्तमान साल में ही कोई साढ़े चार से पांच हजार करोड़ कमाई की उम्मीद थी. यह कमाई सिर्फ खेलों से है. टीमों की खरीद बिक्री से नहीं. लेकिन इसी बीच अति मुनाफे की मानसिकता आड़े आ गयी. कोच्चि टीम में रुचि रखने के आरोपी शशि थरूर आईपीएल के लपेटे में आ गये. अपने उच्च संपर्कों और अति महत्वाकांक्षी व्यक्तित्व के शिकार ललित मोदी ने शशि थरूर से अपनी निजी खुन्नस निकालने के लिए खबर लीक करवाई कि कोच्चि टीम में जो खरीदार हैं उसमें सुनंदा नामक मालकिन के पास 70 करोड़ के स्वीट शेयर हैं. यह खबर न बनती अगर सुनंदा का नाम शशि थरूर से न जोड़ा जाता. अब तो शशि थरूर पर बन आयी. वे यह इंकार कैसे कर देंगे कि वे सुनंदा को नहीं जानते और सुनंदा यह इंकार कैसे कर दें कि उन्होंने टीम में स्वीट शेयर हासिल नहीं किये हैं? फिर वे सारे प्रमोटर कौन हैं जो एक दूसरे को नहीं जानते लेकिन आईपीएल की सबसे महंगी टीम मिल जुलकर खरीद लेते हैं? उन सभी लोगों के बीच केन्द्र के रूप में कौन कार्य कर रहा है? ललित मोदी ने शशि थरूर को संकट में डाल दिया था.

लेकिन थरूर भी भला क्यों चुप रहते? कांग्रेस के निशाने पर ललित मोदी पहले से ही बने रहे हैं. इसका एक बड़ा कारण उनका भाजपा नेता वसुंधरा राजे से नजदीक रिश्ता भी है. कांग्रेस के राजीव भाई इस वक्त बीसीसीआई में कांग्रेसी प्रतिनिधि और प्रवक्ता हैं. वे शायद ही कभी चाहें कि भाजपा के करीबी ललित मोदी बीसीसीआई में प्रभावी हों. लेकिन दूसरी ओर शरद पवार हैं जो देश के गरीबों से अधिक चिंता बीसीसीआई के अमीरों की करते हैं. वैसे भी अब वे क्रिकेट की अंतरराष्ट्रीय संस्था के अध्यक्ष हो चुके हैं इसलिए अपने देश की संस्था के स्वाभाविक संरक्षक तो वे हो ही जाते हैं. मामला दोनों ही ओर से उलझता चला गया. बात छापेमारी और जांच पड़ताल तक चली गयी है. इधर भाजपाई शशि थरूर को निशाना बना रहे हैं कि वे इस्तीफा दें तो उधर कांग्रेसी ललित मोदी को निशाना बनाकर उन्हें साफ कर देना चाहते हैं. अफवाहें हैं कि ललित मोदी पर बीसीसीआई का मजबूत शिकंजा कस दिया जाए. ललित मोदी भी कच्चे खिलाड़ी नहीं हैं. अगले दो साल तक उन्हें उनके पद से हटाने का मतलब है आईपीएल को ही भंग कर देना. इसलिए कमजोर करने की रणनीति पर ही काम हो रहा है. छापेमारी इसी रणनीति का अहम हिस्सा है. वैसे भी आईपीएल में जितना अनाप शनाप पैसा लगने की खबरें उड़ रही हैं उससे एक बात तो साफ है कि ललित मोदी का दामन बेदाग तो बिल्कुल नहीं होगा. और हमारे देश का आयकर विभाग जब अपने पर उतर आता है तो क्या करता है यह आप हर्षद मेहता को याद करके अंदाज लगा सकते हैं. इसलिए ललित मोदी तो कायदे से नपेंगे इसमें कोई शक नहीं है. लेकिन शांत तो शायद वे भी नहीं बैठेंगे.

Wednesday, April 14, 2010

गांधी कथा के महात्मा गांधी

नारायण भाई देसाई के बारे में अनुपम मिश्र द्वारा दिया जाने वाला परिचय सबसे सटीक है. अनुपम मिश्र कहते हैं - "नारायण भाई ऐसे शख्स हैं जिन्हें पहले गांधी जी ने जाना. उन्होंने तो गांधी जी को बाद में जाना." अनुपम मिश्र बिल्कुल सही कह रहे हैं. गांधी के छायारूप सचिव महादेवभाई देसाई के बेटे नारायण भाई देसाई गांधी की गोद में पलकर बड़े हुए हैं.

 उन्होंने गांधी को एक बड़े पिता के रूप में पाया और कस्तूरबा को मोटी मां (बड़ी मां) के रूप में. इसलिए नारायणभाई देसाई जब महात्मा गांधी के बारे में बोलते हैं तो सुनते हुए मंत्रमुग्ध हुए बिना नहीं रहा जा सकता.  गांधी की गोद में पलकर बड़े होनेवाले नारायण भाई देसाई ने दस साल तक सक्रिय रूप में गांधी जी के साथ काम किया है. इसलिए उन्होंने गांधी को दो स्तरों पर जाना समझा है. एक अभिभावक के रूप में भी और एक महानायक के रूप में भी. खुद गांधी जी के आदर्शों के अनुरूप उन्होंने कोई स्कूली शिक्षा ग्रहण नहीं की है लेकिन 85 साल के जीवन में उन्होंने गांधी के कुछ अधूरे कामों को बहुत मनोयोग से पूरा किया है जिसमें सबसे महत्वपूर्ण है गांधी जी की गुजराती में जीवनी जो कि चार खण्डों में नवजीवन प्रकाशन से प्रकाशित हुई है. नारायण भाई कहते हैं- "गांधी जी की आत्मकथा तो है लेकिन उनकी जीवनी नहीं है. इसलिए अपने पिता की जीवनी लिखने के बाद मैंने तय किया कि गांधी जी की जीवनी भी लिखूंगा."

गांधी जी के बारे में गुजराती में लिखी जीवनी मारू जीवन एज मारो संदेश के लिखने के दौरान ही उन्हें लगा कि इस तरह से मोटे मोटे ग्रंथ लिख देने से गांधी को आम जनता के बीच नहीं ले जा सकता. इसी बीच गुजरात के दंगे हुए जिसने उन्हें और प्रेरित किया कि गांधी के माध्यम से वे लोगों के बीच शांति के दूत बनकर जाएं. नारायणभाई कहते भी हैं कि "गुजरात के दंगों के लिए जितना नरेन्द्र मोदी दोषी हैं उतना ही दोषी एक गुजराती होने के नाते मैं भी अपने आप को मानता हूं कि यह सब गुजरात में हुआ. इसलिए गांधी कथा एक तरह से गुजरात दंगों का प्रायश्चित है." इन दो प्रकार की परिस्थितियों ने 80 साल की उम्र में 2004 में उन्हें गांधी कथा कहने के लिए प्रेरित किया

लेकिन नारायणभाई के सामने संकट यह था कि वे कथा परंपरा को सिरे से ही नहीं जानते समझते थे. नारायणभाई मानते हैं कि उन्हें कथाकारों की शैली का बिल्कुल ही भान नहीं था. फिर भी एक साल तक छोटे छोटे कथा प्रसंगों के माध्यम से अभ्यास किया और साल 2005 में पहली बार गांधी कथा कही वह भी गुजरात के एक आश्रम में. वहां से गांधी कथा कहने का जो सिलसिला शुरू हुआ वह आज तक बदस्तूर जारी है. पांच साल की छोटी अवधि में ही वे अब तक 81 गांधी कथा कह चुके हैं. नारायणभाई की गांधी कथा सुनने से पहले सबसे पहले मन में यही सवाल आता है कि क्या गांधी कथा परंपरा के विषय हो चुके हैं जो गांधी कथा सुनने के लिए जाना चाहिए? यही सवाल हमने नारायणभाई से किया. नारायण भाई का जवाब था-"गांधी उस रूप में कथा परंपरा के हिस्से नहीं हैं जो चमत्कार और अवतारवाद से पैदा होती है. गांधी पुरुषार्थ पुरूष के रूप में कथा परंपरा में आते हैं इसलिए गांधी कथा गांधी को पुरुषार्थ पुरूष के रूप में प्रस्तुत करती है."

गांधी कथा के पहले दिन उन्होंने गांधी को एक पुरुषार्थ पुरुष के रूप में ही परिभाषित किया. गांधी कोई चमत्कार नहीं थे बल्कि परिष्कार थे. पूरे जीवन उन्होंने अपने द्वारा की गयी गलतियों को सुधारा और अपने व्यक्तित्व का उन्नयन किया.

ऐसा समझा जाता है कि गांधी ने पहली बार जीवन में प्रयोग अफ्रीका में अपनी बैरिस्टरी के दौरान किया. लेकिन ऐसा नहीं है. नारायणभाई बताते हैं कि गांधी जी जब बैरिस्टर होने के लिए लंदन गये तो उनकी उम्र 19 साल थी. गांधी जी किसी भी तरह से पोरबंदर छोड़ना चाहते थे इसलिए लंदन जाने का प्रस्ताव आया तो उन्होंने तुरंत स्वीकार कर लिया. लेकिन वहां जाने से पहले उनकी मां ने उनसे तीन वचन लिये थे. ये तीन वचन थे कि शराब नहीं पीयेंगे, मांस नहीं खायेंगे और परस्त्रीगमन नहीं करेंगे. गांधी जी ने अपनी मां को ये तीन वचन दिये थे और लंदन में रहते हुए इन तीनों वचन का दृढ़ता से पालन किया. नारायणभाई बताते हैं कि ऐसे कई मौके आये जब उनके ही साथ रहनेवाले लोगों ने उन्हें वचन तोड़ने के लिए बाध्य किया लेकिन गांधी जी अपने वचन पर विनयपूर्वक अडिग बने रहे. नारायणभाई बताते हैं कि गांधी जी ने वचन पालन का पहला दृढ़ प्रयोग लंदन में किया तब जबकि उनकी उम्र महज 19 साल थी. इसलिए यह कहना कि महात्मा बनने की प्रक्रिया दक्षिण अफ्रीका से शुरू होती है, सही नहीं है. नारायणभाई एक उदाहरण देते हुए बताते हैं कि कैसे महात्मा गांधी ने मंहगा शूट खरीदा, डांस और संगीत सीखने की कोशिश की, वायलिन खरीदा ताकि वे लंदन के समाज के साथ अपना तालमेल बिठा सके. लेकिन तीन महीने के भीतर ही उन्हें आभास हो गया कि वे यहां पढ़ने के लिए आये हैं न कि शानो शौकत और दिखावे की जिंदगी जीने के लिए. इसलिए जैसे ही उन्हें यह आभास हुआ उन्होंने अपने आप को इन सब आडंबरों से अलग कर लिया. नारायणभाई बताते हैं कि यह गांधी जी के आत्मचिंतन द्वारा आत्म परिष्कार का पहला प्रयोग था जो आगे पूरे जीवन उनमें दिखाई देता है.

नारायणभाई बताते हैं कि महात्मा गांधी सांख्य से अनंत की ओर की यात्रा हैं. वे एक ऐसे क्रांतिकारी संत थे जिन्होंने चित्तशुद्धि से समाज शुद्धि और समाज शुद्धि से चित्त शुद्धि का प्रयोग किया. एक ही वक्त में वे क्रांतिकारी के रूप में विध्वंस भी कर रहे थे तो निर्माण की तैयारियां भी कर रहे थे. नारायणभाई कहते हैं कि क्रांतिकारी पुरूष और संत के स्वभाव मुख्यरूप से अलग अलग दो तत्व दिखाई देते हैं. संत निजि उन्नति के लिए प्रयत्नशील रहता है जबकि क्रांतिकारी वह होता है जो समाज की पीड़ा को अनुभव करता है और उनके उत्थान के लिए प्रयास करता है. गांधी के चरित्र में ये दोनों खूबियां एक साथ दिखाई देती हैं.

नारायणभाई इसीलिए गांधी को क्रांतिकारी संत की संज्ञा देते हैं और बताते हैं कि गांधी जी ने अपनी गलतियों को छिपाया नहीं बल्कि उन्हें सार्वजनिक किया ताकि उनका परिष्कार हो सके. निश्चित रूप से नारायणभाई देसाई की गांधी कथा के द्वारा एक नये सरल, सुगम और आसानी से ग्राह्य हो सकने वाले गांधी का प्राकट्य हो रहा है जो सेमिनारी गांधी और सरकारी गांधी समझ से बिल्कुल ही अलग और अनोखा है.

Wednesday, March 17, 2010

रामदेव का राजनीतिक प्राणायाम

अब बाबा रामदेव अपने असली रंग में दिख रहे हैं. बात करते हैं तो बार बार उत्साह को बनाये रखने की सलाह देते हैं. जयपुर, दिल्ली और जोधपुर में तीन सभाओं के दौरान उन्होंने कमोबेश एक बात ही कही कि राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन को आगे बढ़ाना है और "चोर" "लुटेरे" "डाकुओं" से देश को मुक्त कराना है. यह विशेषण बाबा रामदेव किसके लिए इस्तेमाल कर रहे हैं यह बताने की जरूरत नहीं है. ये चोर लुटेरे और डाकू कोई और नहीं बल्कि इस देश के वही नेता हैं जिन्हें अपने योग शिविरों में बुलाकर रामदेव अपना कद बढ़ाते रहे हैं.

मैंने कहा बाबा रामदेव अब अपने असली रंग में हैं. थोड़ा वक्त लगा लेकिन वे आखिरकार देश को सुधारने और देश का स्वाभिमान जगाने निकल ही पड़े. आस्था टीवी चैनल पर कनखल के आश्रम से जब उन्होंने पहली बार अपने योग शिविर का लाईव प्रसारण शुरू किया था संयोग ही है कि वह लाईव प्रसारण भी मैंने टीवी पर देखा था. कुल जमा दो तीन सौ लोग होते थे. कुछ दिनों तक बाबा ने यहीं से योग शिविर चलाया लेकिन अचानक ही जैसे योग क्रांति ने जन्म ले लिया. इसलिए बाबा ने बड़े शिविर आयोजित करने शुरू कर दिये. खुद बाबा रामदेव जिस योग के चमत्कार से ठीक हुए थे उसी योग को उन्होंने लोगों में बांटना शुरू किया. अच्छी बात थी. इसमें भला किसी को क्या ऐतराज? सात आठ साल में ही बाबा रामदेव एक किंवदन्ती बन गये. बकौल बाबा रामदेव आज देश में एक लाख से अधिक योग कक्षाएं दिव्य योग ट्रस्ट के तत्वावधान में चलती हैं. खुद बाबा रामदेव का दावा है कि उनके शिविरों में अब तक तीन करोड़ लोग आ चुके हैं. फिर न जाने कितने करोड़ लोगों ने टीवी पर देखकर योग सीखा है. वे सब बाबा के ऋणी हैं. जिसने भी बाबा के तीन प्राणायाम किये वह बाबा का मुरीद हो गया.

बाबा के प्राणायाम विधि और दवाईयों से भले ही लोगों को शांति मिली हो लेकिन खुद बाबा रामदेव अशांत ही बने रहे. उन्हें एक पीड़ा हमेशा थी. राजनीति की दशा खराब है. राजनीति नहीं सुधरेगी तो देश का कल्याण नहीं होगा. राजनीति के प्रति बाबा रामदेव की यह चिंता अनायास भी नहीं थी. एक तो वे आर्यसमाजी हैं और ऊपर से राजनीति के सर्वाधिक सक्रिय केन्द्र हरिद्वार में निवास करते थे जहां मठों और आश्रमों में धर्म से ज्यादा राजनीति की चिंता होती है. आर्यसमाज की शिक्षा दीक्षा ऐसी है जो राजनीतिक पहल की मनाही नहीं करता है. आमतौर पर हिन्दू समाज में धर्म और राजनीति का घालमेल नहीं है. यहां कोई योगी सन्यासी राजनीति से दूर रहना अपना परम कर्तव्य समझता है. जिन लोगों ने इस परम कर्तव्य को नकारने की कोशिश की उनका हश्र बहुत अच्छा नहीं हुआ है. इसका सबसे बड़ा उदाहरण काशी के करपात्री जी महराज थे जिन्होंने रामराज्य परिषद की स्थापना की और चुनाव में उम्मीदवार भी मैदान में उतारे थे. उनकी पार्टी और उम्मीदवारों का क्या हश्र हुआ आप खुद रिसर्च कर लीजिए. लेकिन आर्यसमाज में राजनीति में सक्रिय हिस्सेदारी सन्यासी के लिए नैतिक और वैधानिक रूप से निषेध नहीं है. स्वामी अग्निवेश इसके जीते जागते प्रमाण हैं. आर्य समाज के प्रभाव शून्य होने की खुद मैंने जितनी खोजबीन की है उसमें मुझे एक कारण वहां का अति राजनीतिक माहौल नजर आया है. संपत्ति और संपत्ति से पैदा हुई राजनीति ने आर्य समाज जैसे उग्र सुधारवादी हिन्दू आंदोलन को मटियामेट कर दिया. बाबा रामदेव उसी आर्यसमाज के दर्शन का प्रतिनिधित्व करते हैं.  इसलिए उनका राजनीति के जरिए समाज को बदलने की समझ स्वाभाविक है.

आज जिसे हम राजनीति कहते और समझते हैं वह पूरी तरह से अभारतीय है. भारत में राजनीति का लक्ष्य धर्म है. धर्म अर्थात अनुशासन. यूरोप की राजनीति प्रशासन को पैदा करती है. अगर कभी भारतीय राजनीति का अस्तित्व स्थापित होगा तो वह प्रशासन नहीं बल्कि अनुशासन को प्रस्थापित करेगा. इसलिए धर्म को समझनेवाले कभी इस राजनीति के आस पास नहीं आते. वे जानते हैं कि वे धर्म की बात करके बड़ी राजनीति कर रहे हैं जो इस राजनीति की तरह क्षणभंगुर नहीं है. लेकिन बाबा रामदेव को इतना धैर्य कहां कि वे यह समझने की कोशिश भी करें कि धर्म ही शास्वत राजनीति है जो वंशानुगत रूप से भारतीय समाज में चली आ रही है. बाबा रामदेव तो किंगमेकर बनना चाहते हैं. जिसके लिए वे इसी राजनीति को अपना हथियार बनाकर तुरंत इस्तेमाल कर लेना चाहते हैं.

लेकिन क्या राजनीति समाज को बदलने का माध्यम हो सकती है? इस राजनीति में तो कदापि संभव नहीं है. इसलिए नहीं कि यह राजनीति कोई व्यवस्था ही नहीं है. यह व्यवस्था तो है लेकिन इस व्यवस्था की जड़ें यूरोप में जाती हैं. अगर इसकी जड़ें भारत में होती तो किसी सन्यासी द्वारा किये जा रहे प्रयास का प्रभाव होता. ऐसा इसलिए क्योंकि सन्यासी जिन प्रतीकों का प्रयोग करता है वह वर्तमान राजनीति में पारिभाषिक रूप से परिलक्षित होता तो नागरिक को आंकलन करने में आसानी होती कि राजनीति कहां है और बाबा क्या कह रहे हैं. अगर करपात्री जी नहीं समझ पाये तो यही कि वे आखिरकार उस दायरे में अपने आप को लेकर जा रहे हैं जिसका रिंग मास्टर यूरोप की सोच है. अब या तो वे यूरोप की सोच को स्वीकार कर लेते (जो कि किसी सन्यासी के लिए संभव ही नहीं है) या फिर उस राजनीति को बदल देते. दोनों ही बातें उनके क्या किसी धर्माचार्य के लिए संभव नहीं है. राजनीति के खेल निराले हैं. भारत धर्मभीरू देश अवश्य है लेकिन यहां धर्म और राजनीति का घालमेल आम भारतीय के जेहन में बिल्कुल नहीं है. धर्म नितांत श्रद्धा का विषय है और उस श्रद्धा स्थान पर वह राजनीति को कदापि आने नहीं देगा. जो लोग इस व्यवस्था को लोकतंत्र कहकर इसे भारतीय भूमि में धंसाकर प्यास बुझाना चाहते हैं, वे भी इस मर्म को नहीं समझना चाहते कि यह लोकतंत्र का माडल ही अभारतीय है जिसे इस देश का आम जनमानस कभी स्वीकार नहीं करेगा. उसके लिए यह लोकतंत्र एक ऐसा तमाशा है जिसे देखना होता है, ताली बजाना होता है और धूल को झाड़-पोछकर उठ जाना होता है.
बाबा रामदेव योग के द्वारा भारतीय आम जनमानस के धर्मस्थान पर विराजमान हो गये थे. हालांकि इसके काबिल वे कभी नहीं थे लेकिन संभवत: उनका भाग्य प्रबल है और भाग्य से भी अधिक उनके पीछे पैसा सबल है. इसलिए कुछ भाग्य और कुछ पैसे के घालमेल ने उन्हें लोगों ने योगऋषि के पदवी पर आसीन कर दिया. उनका यह उत्थान लोगों के लिए भले ही आशा की किरण बनकर दिखा हो लेिकन खुद उनके लिए यह एक सीढ़ी से अधिक कुछ नहीं था. वे राजनीति में हस्तक्षेप चाहते थे. इसलिए योग शिविरों में राजनीतिज्ञों को भरपूर आने का मौका दिया. उनके पास लंबे चौड़े निमंत्रण पत्र भेजकर बुलाया जाता. सहारा समूह के नजदीकी रामदेव लालू मुलायम के भी प्रभाव में आये. खुद बाबा रामदेव भी हरियाणा के यादव हैं इसलिए आकर्षण का एक पहलू यह भी बना. लालू ने तो समय समय पर बाबा रामदेव का जमकर नगाड़ा भी बजाया. फिर भी बाबा की बेचैनी बनी रही. इसलिए पिछले आमचुनाव से ठीक पहले उन्होंने राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन की शुरूआत कर दी. योजना तो सीधे चुनाव मैदान में उतरने की थी लेकिन कम समय के कारण तैयारी नहीं हो पायी. बाबा रामदेव ने जोधपुर में आयोजित सभा में स्वीकार भी किया कि अधूरी तैयारी थी इसलिए चुनाव में नहीं उतरे. लेकिन अब दो साल वे पूरी तैयारी करने में लगाएंगे. उनका एक ही संदेश है कि सदस्य बनाईये और प्रशिक्षण दीजिए. लक्ष्य है कि दो करोड़ सक्रिय सदस्य बन जाएं. इसके लिए वे देश में 11 लाख योग कक्षाओं के नियमित आयोजन का आवाहन कर रहे हैं.

स्वाभिमान अभियान के इन कार्यक्रमों में उनकी हां में हां मिलाने के लिए उपकृत भक्तों का हुजूम भी दिख रहा है. बाबा उत्साहित हैं. उनका उत्साह छिपाये नहीं छिप रहा है. गदगद बाबा रामदेव कहते हैं कि कोई समयसीमा तो नहीं है लेकिन उनका राजनीतिक आधार अगले दो साल में बनकर तैयार हो जाएगा. यानी, 2014 के चुनाव में बाबा रामदेव अपने प्रत्याशी मैदान में उतार सकेंगे. और उनके वही प्रत्याशी संसद में पहुंचकर उन सभी चोर डकैतों को बाहर फेंक देंगे जो देश को लूट रहे हैं. आप भी सोचते होंगे कि बाबा रामदेव ऐसी ऊटपटांग बातें क्यों सोच रहे हैं? तो उसका एक बड़ा कारण हाल में ही उनके एक साथी बने राजीव दीक्षित हैं. राजीव दीक्षित अच्छे वक्ता हैं और आजादी बचाओ आंदोलन से जुड़े रहे हैं. लेकिन राजीव दीक्षित के ऊपर आरोप लगता रहा है कि वे जितने अच्छे वक्ता है उतने ही बड़े झुट्ठे हैं. अपनी बात कहने के लिए वे जमकर गलत तथ्यों का सहारा लेते हैं और अपनी बात को साबित कर देते हैं. पिछले कुछ समय से यही राजीव दीक्षित बाबा रामदेव के साथ हैं. राजीव दीक्षित भी देश बदलने का सपना लेकर घूमनेवाले प्राणी हैं. इसलिए अब वे बाबा रामदेव को अर्जुन बनाकर कुरुक्षेत्र का यह युद्ध जीतना चाहते हैं. लेकिन बाबा रामदेव और राजीव दीक्षित दोनों ही वही गलती कर रहे हैं जो करपात्री जी महराज ने की थी. जिन राजनीतिज्ञों को हटाने के लिए बाबा रामदेव घूमघूमकर प्रवचन दे रहे हैं उन्हीं राजनीतिज्ञों की बदौलत वे अब तक अपने योग शिविरों को चमकाते रहे हैं और दवाओं पर सेल टैक्स बचाते रहे हैं. राजनीतिज्ञों को यह अहसास होते देर नहीं लगेगा कि बाबा रामदेव अब उनके भूक्षेत्र में प्रवेश कर रहे हैं. ऐसे में वे बाबा रामदेव के साथ क्या व्यवहार करेंगे यह तो समय बताएगा लेकिन बाबा रामदेव ने अपने काम से पैदा हुए यश की कब्र खोदने के लिए पहला फावड़ा चला दिया है. वह दिन दूर नहीं जब बाबा रामदेव, उनका योग और उनकी राजनीति तीनों ही आर्य समाज की तरह होते हुए भी निष्प्रभावी हो जाएंगे. प्राणायाम के चमत्कार में बाबा रामदेव के प्रभाव में आये सामान्य जन कब अपनी रातनीतिक समझ को बाबा रामदेव से ऊपर रख देंगे इसका पता बाबा रामदेव को भी नहीं चलेगा. यही इस देश का लोक मानस है.

Monday, February 15, 2010

बैरन हुआ बीटी बैंगन

बीटी बैंगन पर पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश को 8 फरवरी को आखिरी जन सुनवाई करनी थी. वे बंगलौर पहुंचे. वहां लोगों से बात शुरू की. इतने में एक किसान खड़ा हुआ और उसने जयराम रमेश पर आरोप लगाया कि वे मोनसेन्टों के हित में बीटी बैंगन को बढ़ावा दे रहे हैं. दो दिन बाद ही जयराम रमेश ने जब बीटी बैंगन पर अपना बहुप्रतिक्षित फैसला किया तो उस किसान को भी जवाब देने की कोशिश की कि वे मोनसेन्टों के एजेन्ट नहीं है.

532 पेज की अपनी रिपोर्ट में जयराम रमेश ने बीटी बैंगन के उत्पादन पर अस्थाई रोक लगाने की सिफारिश की. उनकी इस सिफारिश से हो सकता है उस किसान को यह अहसास हो गया हो कि जयराम रमेश वास्तव में मोनसेन्टों के लिए काम नहीं कर रहे हैं लेकिन अब छिपे तौर पर जो लोग ऐसी कंपनियों के लिए काम करते हैं, बोलने की बारी उनकी थी. अगले दिन सभी बड़े अंग्रेजी अखबारों ने जयराम रमेश को निशाने पर ले लिया. हिन्दुस्तान टाइम्स, टाइम्स आफ इण्डिया ने एकतरफा अपने लाडले मंत्री जयराम रमेश पर हमलाा करना शुरू कर दिया. शायद इन अंग्रेजी अखबारों को यह उम्मीद नहीं थी कि आईआईटी मुंबई का ग्रेजुएट इतना 'दकियानूसी' और 'अवैज्ञानिक' फैसला कर लेगा. इन अखबारों ने अपने संपादकीय और विशेष लेखों के द्वारा जयराम रमेश को दोषी करार देते हुए कहा कि ऐसे वक्त में जब देश में तीसरी हरित क्रांति की जरूरत है और पैदावार बढ़ाने के लिए वैज्ञानिक शोध और नजरिये को अपनाने की आवश्यकता है तो जयराम रमेश ने ऐसा प्रतिगामी फैसला कैसे कर लिया?

केवल लिखकर ही विरोध नहीं किया गया. हिन्दुस्तान टाइम्स ने जयराम रमेश को बाकायदा अपने दफ्तर बुलाया और अपने पढ़े लिखे संपादकों द्वारा इतना जलील करवाया कि जयराम रमेश को कहना पड़ा कि रोक अस्थाई है और आगे इस बारे में विचार नहीं किया जाएगा ऐसा नहीं है. हम यह तो नहीं कहते कि हिन्दुस्तान टाइम्स ने मोनसेन्टों के इशारे पर जयराम रमेश को अपने दफ्तर बुलवा लिया था लेकिन एचटी और टाईम्स ने सीधे तौर पर जयराम रमेश पर दबाव बनाने की कोशिश जरूर की है. अंग्रेजीदां सोच समझ वाले लोग मान रहे हैं कि जयराम रमेश ने बीटी बैंगन को तत्काल अनुमति न देकर जयराम रमेश ने गलत काम किया है. भले ही इसके लिए जयराम रमेश पर जनसुनवाई का दबाव रहा हो लेकिन उन्हें फैसला तो मोनसेन्टों के पक्ष में ही करना चाहिए था. अमेरिका की नंबर वन बीज उत्पादक कंपनी मोनसेन्टों पिछले नौ सालों से भारत में बीटी बीजों के ब्यापार में उतरने की कोशिश कर रही है. अपने इस अभियान में सरकारी तौर पर उसे जहां जहां से अनुमति की आवश्यकता थी उसने उन सभी सरकारी विभागों को उपकृत करते हुए अनुमति ले ली. पिछले दो तीन सालों से वह बीटी बैंगन, बीटी टमाटर और बीटी राइस का फील्ड ट्रायल भी कर रही है लेकिन उसके फील्ड ट्रायल का क्या परिणाम है यह उसने लाख दबाव के बाद भी आम आदमी को बताने की जरूरत नहीं समझी. फील्ड ट्रायल के परिणामों को जानने के लिए जब कुछ लोगों ने सूचना आयुक्त से आदेश भी प्राप्त कर लिया तब मोनसेन्टों की भारतीय इकाई माहिको ने दिल्ली हाईकोर्ट से स्टे आर्डर ले लिया जिसमें अपने व्यावसायिक हितों का हवाला देते हुए उसने परिणामों को सार्वजनिक न करने की दुहाई दी. केन्द्र में विज्ञान और तकनीकि मंत्री कपिल सिब्बल भी लगातार मोनसेन्टों के तर्क का ही समर्थन कर रहे थे.

एक तरफ बीटी बैंगन का विरोध होता रहा तो दूसरी ओर माहिको कंपनी की महिमा से सरकारी कार्यालयों में फाइलें कदम दर कदम आगे बढ़ती रहीं. जीईएसी जो कि जैव तकनीकि जनित उत्पादों को मंजूरी देने के लिए जिम्मेदार है उसने भी बीटी बैंगन को पूरी तरह से सुरक्षित माना और सरकार को कहा कि इसे कैबिनेट में मंजूरी दी जा सकती है. जीईएसी से कैबिनेट के बीच जयराम रमेश ने जन सुनवाई करके लोगों की राय जानने का फैसला किया और इसी फैसले ने बीटी बैंगन पर अस्थाई रोक लगा दी. और जन सुनवाईयों का क्या हाल रहा यह कहना तो मुश्किल है लेिकन चण्डीगढ़ में हुई जनसुनवाई के दौरान लगभग 200 किसानों ने बीटी फसलों का समर्थन किया था. बाद में स्थानीय जन संगठनों ने जब उन किसानों के बारे में पता करना शुरू किया तो पता चला कि उन्हें माहिको अपने खर्चे पर जनसुनवाई में लेकर आयी थी. यानी माहिको ने बीटी बैंगन को मंजूरी दिलाने के लिए हर स्तर पर प्रयास जारी रखा. लेकिन 10 फरवरी को जब जयराम रमेश ने अस्थाई रोक का ऐलान किया तो भी माहिको ने बुरा नहीं माना. माहिको ने अपनी प्रेस रिलीज में कहा कि उन्हें पूरी उम्मीद है कि भारत सरकार खेती में शोध को बढ़ावा देगी और आनेवाले वक्त में उसके द्वारा नौ सालों तक किया गया काम निष्फल नहीं जाएगा.

माहिको मोनसेन्टों की सब्सिडरी कंपनी है और मोनसेन्टो अमेरिका की सबसे बड़ी बीज कंपनी. मोनसेण्टो ने पिछले साल अपने तथाकथित शोध पर 980 मिलियन डॉलर खर्च किया. मोनसेण्टो पूरी दुनिया में अपनी उपस्थिति बढ़ाना चाहती है और उसका इस समय सारा जोर एशिया पैसिफिक पर है क्योंकि यहां उसके कुल व्यापार का महज 7 प्रतिशत कारोबार होता है. अमेरिका अब स्थिर बाजार है इसलिए एशिया के बीज बाजार पर कब्जा मोनसेण्टो के लिए भविष्य की चतुराईभरी रणनीतिक चाल है. इसके लिए वे न केवल वैज्ञानिकों को मुंह मांगे दाम पर खरीद रहे हैं बल्कि सरकार के सामने भी ना करने का कोई विकल्प नहीं छोड़ रहे हैं. मोनसेण्टों के इस "पावन कार्य" में मीडिया उनका सबसे बड़ी साथी बनकर खड़ा है. अगर ऐसा न होता तो भारतीय मीडिया, प्रशासन भूले से भी बीटी बैंगन का समर्थन नहीं करता. विरोध करने का आधार केवल तकनीकि नहीं है. यह सिद्धांतरूप में भी सही नहीं है. भारत में बैंगन की ही अकेले ढाई हजार से अधिक प्रजातियां हैं. इनमें से तो बैंगन की कई ऐसी प्रजातियां हैं जिनकी चिकत्सकीय खूबियां हैं. फिर भी जब तक जैव तकनीकि के नाम पर वैज्ञानिक प्रयोग नहीं किये जाएंगे निजी कंपनियों को बीज बाजार में घुसने का मौका नहीं मिलेगा. चिंता किसी कंपनी के रुख से नहीं है. वह तो अपना व्यापार कर रही है और उसे सिर्फ अपने व्यापार के हितों की ही चिंता होगी. लेकिन जो लोग जन सरोकार के प्रतिनिधित्व का दावा करनेवाले लोगों को तो सोचना ही होगा कि आखिर वे किसके साथ खड़े रहेंगे? भारत में अभी भी अन्न और फल सब्जियों के 300 से अधिक बीजों पर जीएम प्रयोग चल रहे हैं. एक अकेले बीटी बैंगन पर अस्थाई रोक लगा देने भर से अगर जयराम रमेश आधुनिक कृषि के दुश्मन करार दे दिये जाएंगे तो फिर बाकी बचे बीजों को उन्हें मजबूरी में मंजूरी दे देनी होगी. जिस दिन ऐसा होना शुरू हो जाएगा, उस दिन क्या होगा? अभी तो सोच पाना भी मुश्किल लग रहा है.

Sunday, February 7, 2010

मनमोहन और मंहगाई

आखिरकार केन्द्र सरकार से नहीं रहा गया. देश में मंहगाई से त्राहि-त्राहि करती जनता के दुख दूर करने के लिए प्रधानमंत्री कार्यालय की पहल पर केन्द्रीय सार्वजनिक वितरण मंत्रालय ने दिल्ली में मुख्यमंत्रियों की एक बैठक बुला ही ली. चर्चा तो क्या हुई वह अंदरवाले जाने लेकिन बाहर जो खबरें आ रही हैं वह चौंकानेवाली हैं.

मंहगाई रोकने के लिए बुलाई गयी इस बैठक में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि खराब समय गुजर चुका है. उनके मुताबिक इस खराब समय के गुजरने के तीन लक्षण हैं- 1)रबी की फसल अच्छी होने की संभावना है 2)वाजिब समर्थन मूल्य दिया जाएगा और 3) भारतीय बाजार में खाद्यान्न कीमतें अंतरराष्ट्रीय कीमतों के लगभग आसपास आ गयी हैं इसलिए अब मंहगाई के खात्मे का वक्त आ गया है. आपको प्रधानमंत्री के ये तीनों तर्क समझ में आये? रुकिये. समझने के लिए एक और समाधान लीजिए. प्रधानमंत्री जी ने कहा-"सार्वजनिक वितरण प्रणाली की व्यवस्था बहुत खराब है. इसको बदलने की जरूरत है." अरे! मंहगाई के मध्य सार्वजनिक वितरण प्रणाली को बदलने की वकालत? इसका क्या अर्थ है? इसका अर्थ इतना सीधा नहीं है कि घुट्टी बनाकर पी लिया जाए. प्रधानमंत्री जी ने मुख्यमंत्रियों के सामने जिस सार्वजनिक वितरण प्रणाली को बदलने का आह्वान किया है उसका अर्थ बहुत कसैला है जिसके मूल में यह भावना है कि हादसे को संभावना में बदल दो.

भारत में सार्वजनिक वितरण प्रणाली लचर अवस्था में हैं. इसलिए उदार अर्थव्यवस्था के पैरोकारों ने पिछले दस सालों में कोशिश करके कई बड़ी कंपनियों ने कुछ हद तक खाद्यान्न व्यापार को अपने कब्जे में ले लिया है. 2003 से 2008 के आंकड़े बताते हैं कि भारत में खाद्यान्न कीमतों में 50 से 100 फीसदी का उछाल आया है. यह सब तब हो रहा है जब देश में 22 करोड़ लोग भूखे पेट सो रहे हैं और 5 करोड़ बच्चों को पर्याप्त पोषक पदार्थ नहीं मिल रहा है. लेकिन कंपनियों के पोषण की पूरी व्यवस्था है. देश में 2006 से रिटेल व्यापार में बड़ी कंपनियों ने अपने पांव पसारने शुरू कर दिये. बड़े पैमाने पर पहला कदम रखा रिलायंस ने. उसने हैदराबाद में अपना पहला रिलायंस फ्रेश स्टोर खोला. रिलायंस की तमन्ना है कि वह भारत का वालमार्ट बने. रिलायंस का अपना अध्ययन बताता है कि वह भारतीय खाद्यान्न बाजार के न केवल वितरण पर काबिज होना चाहता है बल्कि उत्पादन को अपने हाथ में रखना चाहता है. रिलायंस सहित सभी बड़ी कंपनियों का इसके पीछे एक बड़ा मजबूत तर्क है. वे कहते हैं कि अगर भारत में बिचौलियों को किनारे कर दिया जाए तो उपभोक्ता को सस्ती कीमत पर खाद्यान्न मुहैया हो जाएगा. लंदन बिजनेस स्कूल के कुछ छात्रों द्वारा रिलायंस फ्रेश पर तैयार की गयी रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत से उलट अमेरिका में कीमतों का फायदा ग्राहकों को इसलिए मिलता है क्योकि वहां बिचौलिये नहीं है. उत्पादक और वितरक के बाद सीधे उपभोक्ता ही आता है. भारत में ऐसा नहीं है. यहां उत्पादक और उपभोक्ता के बीच आढ़तिये, खुदरा व्यापारी और इन सबके मध्य हर स्तर पर एक बिचौलिया काम करता है. रिलायंस के लिए किये गये इस अध्ययन में तर्क दिया गया था कि अगर इन बिचौलियों को हटा दिया जाए तो कीमतों में कमी आ जाएगी.

मंहगाई के मूल में केन्द्र सरकार पर कंपनियों का दबाव और राज्य सरकारों की उदासीनता है. अब हालात यह है कि राज्य सरकारें केन्द्र को दोषी ठहरा रही हैं और केन्द्र सरकार राज्य सरकारों को चौकन्ना रहने की सलाह दे रहा है. दोनों जानते हैं कि दोनों ही समानरूप से दोषी हैं लेकिन फिलहाल मंहगाई को अभी और बढ़ने दिया जाएगा. प्रधानंत्री कमाई के स्थिर होने का तर्क दे रहे हैं, अर्थात आम आदमी जब तक दो निवाला खा सकता है, सरकारें सचमुच चिंतित नहीं होंगी.

मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में प्रधानमंत्री ने जिस सार्वजनिक वितरण प्रणाली को सुधारने की दुहाई दी है वह इसी तर्क का विस्तार है. भारत में साठ के दशक से कायम सार्वजनिक वितरण प्रणाली भ्रष्टाचार का परनाला है इससे शायद ही कोई इंकार करे लेकिन सार्वजनिक वितरण प्रणाली भारतीय खाद्यान्न प्रणाली का कितने प्रतिशत कारोबार करता है? कुल खाद्यान्न उत्पादन के 12 से 14 प्रतिशत पर. और यह भी तक जब फूड कारपोरेशन आफ इण्डिया का दावा है कि वे देश के हर हिस्से में दस किलोमीटर से भी कम अंतर पर मौजूद हैं. इतने के बावजूद फूड कारपोरेशन आफ इण्डिया दुनिया का सबसे बड़ा खाद्यान्न व्यापारी है और वह दुनिया में किसी भी कंपनी के मुकाबले सबसे अधिक खरीदारी करता है. सालाना 30 से 40 मिलियन टन. जाहिर है रिलायंस जैसी कंपनियों का सरकार पर दबाव बढ़ रहा है कि वे फूड कारपोरेशन आफ इण्डिया जैंसी संस्थाओं को समाप्त करें और उस प्रणाली को भी ध्वस्त करें जिसमें बिचौलिये बहुत अधिक हैं. सरकार को अगर जनकल्याणकारी होना है तो उसे बिचौलियों और एफसीआई दोनों को किनारे करना होगा और कंपनियों के हाथ में सारी कमान सौंपनी होगी. शुरुआती स्तर पर सरकार ने जींस में वायदा कारोबार को मंजूरी देकर ऐसा कर भी दिया है. अब कंपनियां स्टाक मार्केट में बैठे बैठे देश के खाद्यान्न को खरीदती बेचती हैं और लोग हैं कि मंहगाई से पार ही नहीं पाते हैं. छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री हो या फिर पश्चिम बंगाल के बुद्धदेव भट्टाचार्य वे कह रहे हैं कि केन्द्र सरकार को जींस के वायदा कारोबार पर रोक लगानी चाहिए इससे कीमतों को स्थिर करने में मदद मिलेगी. लेकिन केन्द्र सरकार इसी एक बात को छोड़कर बाकी सारी बातें कर रही है.

प्रधानमंत्री लच्छेदार भाषा में लिखा हुआ भाषण पढ़ रहे हैं और शरद पवार अपने मन ही मन में कुढ़ रहे हैं. मंहगाई कम करने को कौन कहे मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में उन्होंने उसी निजीकरण को बढ़ावा देने का इरादा जता दिया जिसकी शुरूआत में देश मंहगाई के भंवर में फसा नजर आ रहा है. बड़ी कंपनियों का दखल खेती और खाद्यान्न पर जितना अधिक बढ़ेगा, मंहगाई तो छोड़िए, देश त्रासदी की ओर लगातार बढ़ता चला जाएगा. ऐसा नहीं है कि आज देश में खाद्यान्न की कहीं कोई कमी है. अपना देश दूध, दाल और चाय के उत्पादन में दुनिया का अव्वल नंबर का देश है. इसके बाद गेहूं, चावल और चीनी के उत्पादन में दुनिया का दूसरे नंबर का देश है. फल और सब्जियों के उत्पादन में भी हम दुनिया के दूसरे बड़े उत्पादक हैं. दुनिया की सबसे अधिक सिंचित खेती भारत में होती है और खेती करने योग्य जमीन के मामले में दुनिया के 11 प्रतिशत के औसत से बहुत आगे 52 प्रतिशत जमीन पर हम खेती करते हैं. फिर भी अगर मंहगाई मार रही है तो उसके लिए वही मनमोहन सिंह जिम्मेदार हैं जो देश में आर्थिक सुधारों के जनक कहे जाते हैं. समाजवाद के भ्रष्ट दौर से बाहर आने की जल्दबाजी में पिछले दो दशक में कंपनियों को बेलगाम कर दिया गया है. वे सीधे खेत से अनाज खरीदकर उसी किसान को वैल्यू एडिशन के नाम पर डेढ़ से दो गुनी कीमत पर बेच देती हैं. जिन्हें बिचौलिया कहकर खारिज किया जा रहा है असल में वही प्रणाली मंहगाई को काबू में रखती थी. राज्य सरकारें जब यह महसूस करती थीं कि कीमतें आमदनी की अपेक्षा अधिक तेजी से बढ़ रही हैं तो उन्हीं बिचौलियों पर दबिश डालकर बाजार को सामान्य कर देती थीं. लेकिन अब राज्य सरकारें भी असहाय नजर आ रही हैं क्योकि वायदा कारोबार के नाम पर हमने देशवासियों का पेट स्टाक एक्स्चेन्जों के हाथ में गिरवी रख दिया है.

मंहगाई मारने की बात करनेवाले मनमोहन सिंह और उनकी पूरी सरकार जानते हैं कि वे मंहगाई को बढ़ा रहे हैं. ऐसा वे जानबूझकर नहीं कर रहे बल्कि कंपनियों के दबाव में ऐसा करना उनकी मजबूरी है. अगर मुकेश अंबानी से चुनावी चंदा लेना है तो वे जैसा कहेंगे सरकार को वैसा करना पड़ेगा. कहां बात मंहगाई को कम करने की होनी चाहिए थी मनमोहन सिंह इस संकट को भी कंपनियों के हित के लिए इस्तेमाल करते हुए पीडीएस सिस्टम को कंपनियों के हवाले रखने की दलील दे रहे हैं. वे वही तर्क दे रहे हैं जो लंदन स्कूल आफ इकोनामिक्स ने रिलायंस की स्टडी में दिया है कि बिचौलिये मंहगाई बढ़ा रहे हैं. मनमोहन सिंह जी, बिचौलिये मंहगाई जरूर बढ़ा रहे हैं लेकिन वे बिचौलिये नहीं जिनकी ओर आप संकेत कर रहे हैं. यह वे बिचौलिये हैं जो आपके बहुत आस-पास दिन रात मंडराते रहते हैं और जिनके फायदे के लिए आपकी सरकार हर संभव उपाय करती है. इसलिए मनमोहन सिंह जी आप कितनी भी लच्छेदार भाषा में अपना भाषण पढ़ें, हमें इतना तो मालूम है कि आप मंहगाई को नहीं मारेंगे. आपके वार से अगर कोई मरेगा तो वह इस देश का जरूरतमंद इंसान होगा जिसका जीना खाना भी दिन दूनी रात चौगुनी दूभर होता चला जा रहा है.

Saturday, January 9, 2010

मुकेश अंबानी और मार्क अमेस

मुकेश अंबानी को आप सब जानते हैं. अब शायद मार्क अमेस को भी जान गये होंगे. अमेरिका की एक वेबसाइट में लिखनेवाले पत्रकार मार्क अमेस ने आज से चार महीना पहले एक ब्लाग पोस्ट लिखा था. ब्लाग पोस्ट में उन्होंने आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री वाईएस राजशेखर रेड्डी की हत्या में अंबानी बंधुओं की ओर शक की सूई घुमाई थी.

मार्के अमेस ने तीन सितंबर को लिखे अपने ब्लाग पोस्ट में लिखा है कि क्योंकि राजशेखर रेड्डी ने कृष्णा गोदावरी बेसिन में गैस विवाद को सुलझाने के लिए प्रधानमंत्री से निवेदन किया था और कहा था कि गैस बंटवारे में राज्य के हितों का भी ध्यान रखा जाना चाहिए. लेकिन मार्क अमेस लिखते हैं कि प्रधानमंत्री को लिखे पत्र में रेड्डी ने लिखा था कि कृष्णा गोदावरी बेसिन में गैस बंटवारे का फैसला "मां" पर छोड़ने की बजाय सरकार को हस्तक्षेप करना चाहिए. इसी आधार पर मार्क अमेस ने आशंका जताई है कि हो सकता है रेड्डी के हेलिकॉप्टर को जानबूझकर क्रैश करवा दिया गया हो. अपने शक की पुष्टि के लिए मार्क अनिल अंबानी के हेलिकाप्टर की खराबी का भी जिक्र करते हैं और कहते हैं कि जिस तकनीशियन पर गड़बड़ी का शक जा रहा था दो दिन बाद उसकी हत्या हो गयी थी.

मार्क अमेस की इसी स्टोरी को दो दिन पहले आंध्र के तेलुगु चैनल टीवी-5 ने प्रसारित कर दिया जिसके बाद राज्य भर में हड़कम्प मच गया. लेकिन आखिर मार्क अमेस ने ऐसा क्या लिखा है जिसे गलत नहीं माना जा सकता? कृष्णा गोदावरी बेसिन में गैस बंटवारे का विवाद कितना गहरा है इसका अंदाज आपको भी लग ही गया होगा. केन्द्र सरकार अभी तक इस बात का फैसला नहीं कर पायी है कि वह इस पूरे मामले में क्या रुख अख्तियार करे? मामला सुप्रीम कोर्ट में है और केन्द्रीय पेट्रोलियम मंत्री और धीरूभाई अंबानी के दोस्त मुरली देवड़ा लगातार तर्क दे रहे हैं कि बेसिन में मिलनेवाली गैस की कीमतों के निर्धारण का फैसला केन्द्र सरकार के हाथ में दे दिया जाए. केन्द्र सरकार की इस मांग का अनिल अंबानी समूह विरोध कर रहा है. अनिल अंबानी समूह का तर्क है कि अगर ऐसा होता है तो मुकेश अंबानी समूह बाजी मार ले जाएगा क्योंकि मुरली देवड़ा मुकेश अंबानी के खिलाफ जाकर कोई निर्णय नहीं करेंगे. यानी जो नयी कीमतें निर्धारित होंगी वे पहले से तय कीमतों से अधिक होंगी. अनिल अंबानी समूह ने कम कीमत पर आरआईएल से गैस लेने का करार किया था. अगर नयी कीमतें लागू की जाती हैं तो अनिल अंबानी को बड़ा घाटा होगा. अनिल अंबानी के एकमात्र तर्क दादरी पावर प्रोजेक्ट को भी बदनाम करने की कोशिश की गयी और जब इलाहाबाद हाईकोर्ट ने फैसला दिया कि अगर किसान अपना मुआवजा वापस करें तो उन्हें जमीन वापस दे दी जाए तो मुकेश अंबानी समूह ने मीडिया का भरपूर इस्तेमाल करके इस मामले को ऐसे प्रचारित करवा दिया मानों दादरी परियोजना खत्म हो गयी है. जाहिर है इससे सबसे अधिक फायदा मुकेश अंबानी समूह को ही होता क्योंकि अगर दादरी परियोजना ही खत्म हो गयी तो फिर सस्ती गैस की मांग अपने आप खत्म हो जाती है.

देश में कंपनियों ने लोकतंत्र के सभी दरवाजों पर अपने पहरेदार बैठा दिये हैं. गरीबों के वोट से कुर्सी पर बैठे नेता और उनकी सेवा में लगे नौकरशाह पूंजीपतियों के तलवे चाटते हैं और उनकी कमाई में हिस्सा पाने के लिए जीभ लपलपाते रहते हैं. रेड्डी हत्याकाण्ड में मुकेश अंबानी का नाम आना इस देश में लोकतंत्र और लोकतांत्रिक प्रणाली दोनों के लिए बहुत ही खतरनाक संकेत है. अगर अभी भी हमारे राजनेता और नौकरशाह इस बढ़ते खतरे को नहीं भांप पाये तो उनकी हैसियत पूंजीपतियों के हाथ में कूदनेवाली एक कठपुतली से अधिक कुछ नहीं होगी.

विवाद नया नहीं है और इतनी जल्दी खत्म होने का आसार भी नहीं है क्योंकि कृष्णा गोदावरी बेसिन में 21 खरब 500 अरब रुपये (47 बिलियन डॉलर) कीमत की गैस मिलने का अनुमान है. इसमें से 27 बिलियन डॉलर रिलायंस के खाते में जाएगा जबकि 20 अरब डॉलर भारत सरकार को मिलेगे. यह कोई छोटी मोटी रकम नहीं है. शायद इसीलिए आंध्र के मुख्यमंत्री वाई एस राजशेखर रेड्डी यह जानते हुए भी कांग्रेस मुकेश अंबानी के पैसों पर चलनेवाली पार्टी है, राज्य के हित की बात कही और कहा कि गैस कीमतों के निर्धारण के समय राज्य की रायल्टी का भी ध्यान रखा जाए. रेड्डी मुकेश अंबानी की सोनिया गांधी से नजदीकी को अच्छी तरह जानते थे और शायद वे मान रहे थे कि वे खुद भी सोनिया गांधी के जितने नजदीक हैं, उससे मामला उलझेगा नहीं बल्कि कोई न कोई रास्ता निकलेगा और राज्य को गैस से थोड़ी कमाई हो जाएगी. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. (वैसे आंध्र में कुछ ब्लागर यह खबर भी चला रहे हैं कि रेड्डी ने मुकेश अंबानी से निजी तौर पर पांच सौ करोड़ रूपये मांगे थे. जबकि एक अफवाह यह भी है कि राजशेखर रेड्डी खुद इस परियोजना में शेयर की मांग कर रहे थे. लेकिन रिलायंस समूह ने निजी तौर पर मात्र 200 करोड़ रूपये देने का वादा किया था. और जब इस 200 करोड़ रुपये पर रेड्डी तैयार नहीं हुए तो 100 करोड़ रुपये की सुपारी देकर उन्हें रास्ते से हटा दिया गया.)

हो सकता है यह सब कुछ जो लिखा जा रहा है उसमें सच्चाई की बजाय आशंका और अफवाह अधिक हो लेकिन भारत में जिस तरह से कारपोरेट वार शुरू हो चुका है उसमें ऐसी घटनाएं हो भी तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। भारत में उदारीकरण के बाद जिस तरह से पूंजी का प्रभाव पनपा है उसमें शक्ति के समस्त स्रोत पूंजीपतियों के हाथ में निहित होते जा रहे हैं. अब इस देश का लोकतंत्र, न्यायपालिका, कार्यपालिका, विधायिका और मीडिया सभी सिर्फ पूंजी का संरक्षण कर रहे हैं. क्योंकि मुकेश अंबानी इस समय देश के सबसे बड़े पूंजीपति है इसलिए चारों स्तंभ अगर उनकी सुरक्षा में लगे हो तो इसमें आश्चर्य क्या है? मार्क अमेस बहादुर हैं जो उन्होंने सच्चाई लिखी. लेकिन बहादुर होने के साथ ही वे खुशकिस्मत भी हैं क्योंकि वे अमेरिका में रहते हैं. चार महीने पहले लिखी पोस्ट को जब भारत के एक चैनल ने खबर के रूप में चलाया तो भारत सरकार और मीडिया संगठन ही उस चैनल के खिलाफ खड़े हो गये. क्यों न हो, मुकेश अंबानी की रक्षा तो हर हाल में होनी ही चाहिए, भले ही उनके ऊपर किसी राज्य के सर्वाधिक लोकप्रिय मुख्यमंत्री को मरवा देने का ही आरोप क्यों न लग रहा हो?

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