Sunday, October 3, 2010

माई नेम इज बाल ठाकरे

साल भर पहले की बात है. 26 फरवरी की देर शाम मुंबई के लीलावती अस्पताल में एक बीमार व्यक्ति को रुटीन चेक-अप के नाम पर अस्पताल लाया गया. डाक्टरों ने परीक्षण किया तो उस बीमार व्यक्ति को अस्पताल में दाखिल कर लिया क्योंकि उन्हें फेफड़े में संक्रमण था. संक्रमण सामान्य नहीं था. डाक्टरों ने लंबे समय तक आराम करने की सलाह दे दी.

घर परिवार के लोगों ने भी इसी सलाह को सही माना और शिवसेना प्रमुख बालासाहेब ठाकरे पूरी तरह से आराम की मुद्रा में चले गये. उनकी बीमारी जितना खुद बाल ठाकरे के लिए तकलीफदेह थी उससे अधिक उनकी पार्टी शिवसेना के लिए साबित होनेवाली थी. मार्च अप्रैल से ही राज्य में विधानसभा चुनाव की तैयारियां शुरू हो गयी थी और अक्टूबर में नयी सरकार के लिए मतदान होना था. मुश्किल तब भी न होती लेकिन बाल ठाकरे के भतीजे राज ठाकरे उनके विकल्प के तौर पर उभारे जा रहे थे. कांग्रेस और एनसीपी दोनों को राज ठाकरे के उभार से अच्छी खासी मदद मिल रही थी इसलिए परोक्ष रूप से राज ठाकरे को राजाश्रय मिला हुआ था. बाल ठाकरे को इतना तो अंदाज लग ही रहा था कि इसका खामियाजा आनेवाले चुनाव में शिवसेना को भुगतना पड़ेगा लेकिन वे लाचार थे. बीमारी सामान्य नहीं थी और 83 साल की उम्र में न तो वे खुद और न ही उनका परिवार कोई रिस्क ले सकता था. चुनाव हो गये. परिणाम आ गये और उद्धव की आशा के विपरीत शिवसेना चारों खाने चित्त गिर पड़ी.

अपने जीवन के अवसान काल में पड़े शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे के लिए निश्चित रूप से यह अपनी निजी बीमारी से बड़े दुख की घड़ी रही होगी. लेकिन ऐसा लगता है यहीं से बूढ़े शेर ने न केवल अपने शरीर पर पड़ी धूल झाड़ दी बल्कि शिवसेना को भी झाड़ने पोछने का जिम्मा उठा लिया. जिन लोगों ने भी उद्धव ठाकरे की रणनीतिक कौशल का तर्क देकर महाराष्ट्र में शिवसेना की सत्ता में वापसी की आस बंधाई होगी, वे भी चुप हो गये और मानों बाल ठाकरे ने कहा- बेटा राजनीति कैसे की जाती है, अब हम तुम्हें बताते हैं. अक्टूबर के बाद से राज्य में भले ही कांग्रेस सत्ता में आ गयी हो लेकिन चर्चा में शिवसेना लौट आयी. इसके सीधे तौर पर दो परिणाम हुए. कांग्रेस का भ्रम टूटा कि शिवसेना बीते दिनों की बात है और राज ठाकरे नामक भस्मासुर को भस्म करना है. यह पुनीत पावन काम भी बाल ठाकरे ने ही करना शुरू कर दिया. पिछले एक महीने में मुंबई खबरों में बनी हुई है. लेकिन आश्चर्य देखिए न तो कोई राज ठाकरे का नाम ले रहा है और न ही उनकी पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना का. बाल ठाकरे ने अपनी राजनीतिक चालों से कांग्रेस और राज ठाकरे दोनों को ढेर कर दिया और हार के बावजूद शिवसेना को दोबारा चर्चा में स्थापित कर दिया. अब महाराष्ट्र की राजनीति एक बार फिर कांग्रेस बनाम शिवसेना की हो गयी है जिसके बीच से मनसे, भाजपा और राष्ट्रवादी कांग्रेस तीनों ही गायब हो गये हैं.

शाहरुख खान के बहाने ही सही बाल ठाकरे ने माइ नेम इज खान पर माइ नेम इस ठाकरे को भारी साबित कर दिया. महाराष्ट्र की राजनीति में जो बाल ठाकरे को दगा हुआ कारतूस मान बैठे थे वे भी बाल ठाकरे की ताजा गतिविधियों से हैरान जरूर होंगे.बाल ठाकरे बहुत चतुर राजनीतिज्ञ हैं ऐसी बात भी नहीं है. अगर आप उनकी राजनीतिक यात्रा देखें तो वे सीधे सपाट राजनीतिज्ञ नजर आते हैं और अपने कुछ पूर्वाग्रहों के साथ जीने में उन्हें मजा आता है. 1966 में शिवसेना की स्थापना के बाद से ही उन्होंने राजनीति में कूटनीति या चतुराई का प्रयोग नहीं किया. फिर भी महाराष्ट्र की राजनीति में वे कांग्रेस का विकल्प बनकर उभरे. फिर बाल ठाकरे ने ऐसा क्या किया कि महाराष्ट्र की राजनीति में वे सत्ता के इतर सत्तातंत्र के स्वामी बन गये? उन्होंने दम-खम की राजनीति की. जो सोचा, वही बोला और वही किया. अब जाहिर सी बात है कि अगर उनका सोचा उत्तर भारतीयों के खिलाफ था तो उत्तर भारतीय तो कभी उनके समर्थन में बात नहीं करेंगे. बाल ठाकरे के इस दम-खम वाली राजनीति को सामान्य बोलचाल की भाषा में गुण्डागर्दी की राजनीति में कहा जाने लगा लेकिन संभवत: बाल ठाकरे जानते थे कि वे राजनीति में किसे और क्यों संबोधित कर रहे हैं? शिवसेना ने जिस मराठी मानुष की भावना को अपनी राजनीति का आधार बनाया वह तत्व हर मराठी व्यक्ति में बहुत गहराई से निहित है. खुद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपनी आंतरिक व्यवस्था में मराठी श्रेष्ठताबोध से मुक्त नहीं है. इसलिए महाराष्ट्र में गैर मराठी का मुद्दा चल निकलना कहीं से अस्वाभाविक नहीं था. जिस दौर में बाल ठाकरे का उदय हो रहा था उसी दौर में उत्तर भारत के लोग बजाय कोलकाता जाने के, मुंबई की ओर रुख कर रहे थे क्योंकि कोलकाता में यूपी-बिहार से गये कामगारों को न काम मिल रहा था और न ही सम्मान. लेकिन उन्हें क्या मालूम था कि जिस बंबई की ओर वे कूच कर रहे हैं वहां बंगाली बाबू से बड़ी मराठी माणुस की मानसिकता उनके लिए चुनौती बनकर खड़ी होगी. बाल ठाकरे ने इसे ही अपनी राजनीति का आधार बना लिया.

23 जनवरी 1926 को पूना में पैदा हुए बाल ठाकरे के पिता केशव ठाकरे एक पाक्षिक पत्रिका प्रकाशित करते थे जिसमें वे प्रबोधनकार के नाम से लिखते थे इसलिए उन्हें प्रबोधनकार ठाकरे के नाम से भी जाना जाता है. बाल ठाकरे का सार्वजनिक अस्तित्व तो बहुत बाद में उभरता है लेकिन प्रबोधनकार ठाकरे खुद एक सुधारवादी आंदोलनकारी थे. उन्होंने महाराष्ट्र की कई कुरीतियों के खिलाफ अभियान चलाया और संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन में बढ़चढ़कर हिस्सा लिया. बाल ठाकरे जब बड़े हुए तो विरासत में पिता से मिली चित्रकारी का कार्टून के रुप में प्रयोग करना शुरू किया. अपने भाई सीताराम ठाकरे (राज ठाकरे के पिता) के साथ मिलकर 1960 में उन्होंने मार्मिक नाम से एक कार्टून पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया. इससे पहले ही एक कार्टूनिस्ट के तौर पर बाल ठाकरे चर्चित नाम हो गये थे और उनके कार्टून न्यूयार्क टाईम्स में भी छप रहे थे. छह साल तक मार्मिक का काम करते हुए 1966 में उन्होंने शिवसेना की स्थापना कर दी. शिवेसना का तब भी एक ही घोषित एजेण्डा था कि मुंबई सिर्फ महाराष्ट्रवालों की है. हां, उस समय बाल ठाकरे या महाराष्ट्रवादियों के निशाने पर उत्तर भारतीय नहीं बल्कि दक्षिण भारतीय थे. राजनीति थोड़ी आधारभूत हुई तो परप्रांतीय के सवाल से आगे बढ़कर उग्र हिन्दुत्व को बाल ठाकरे ने अपना मुद्दा बना लिया और सत्तर के दशक में ही उन्होंने हिन्दू आत्मघाती दस्ते तैयार करने की योजनाओं पर काम करना शुरू कर दिया था. मुसलमानों को कैंसर बतानेवाले बाल ठाकरे इसे कैंसर का आपरेशन मानते थे.

साठ साल के अपने सार्वजनिक जीवन में बाल ठाकरे महाराष्ट्र से बाहर कभी कहीं नहीं गये. महाराष्ट्र में भाजपा के साथ मिलकर सत्ता प्राप्ति के बाद तो उन्होंने महाराष्ट्र में भी जाना छोड़ दिया और बांद्रा स्थित घर और नई मुंबई के फार्म हाउस के बीच सिमटकर रह गये. 1996 में पत्नी मीनाताई ठाकरे की मौत के बाद तो उन्होंने फार्महाउस जाना भी छोड़ दिया क्योंकि उनकी मौत फार्महाउस से लौटते हुए रास्ते में हृदयगति रुक जाने से हुई थी. बाल ठाकरे राजनीतिक रूप से भले ही कितनों को दुख पहुंचाते हों लेकिन खुद उनके निजी जीवन में सुखद क्षण कम ही रहा है. उन्होंने बड़े बेटे बिन्दुमाधव ठाकरे की मौत को बर्दाश्त किया. मझले बेटे जयदेव ठाकरे की घर से बगावत बर्दाश्त की. अपने प्रिय भतीजे और राजनीतिक हमशक्ल राज ठाकरे का दूर जाना बर्दाश्त किया. अब सबसे चहेती बहू स्मिता ठाकरे को भी अपने खिलाफ जाते देख रहे हैं. फिर भी निजी जीवन के क्लेष को बाल ठाकरे ने राजनीतिक समझदारी पर हावी नहीं होने दिया. भारतीय राजनीति में संभवत: क्षत्रप शब्द सटीकता से बाल ठाकरे से ही शुरू होता है और उन्हीं पर खत्म हो जाता है. ऐसे क्षेत्रीय राजनीतिक क्षत्रप ने एक बार फिर साबित कर दिया कि आप बाल ठाकरे पसंद या नापसंद कर सकते हैं लेकिन उन्हें दरकिनार नहीं कर सकते. शायद यही राजनीतिक प्रशिक्षण अब वे अपने तीसरे बेटे उद्धव ठाकरे को दे रहे हैं. उद्धव जितना सीख पायेंगे महाराष्ट्र में शिवसेना का राजनीतिक भविष्य उतना ही होगा.

No comments:

Post a Comment

Popular Posts of the week